Thursday, March 17, 2011

एटमी करार और सांसदों की खरीद-फ़रोख्त

पिछले सात-आठ वर्षों के घटनाक्रम ने यह साबित कर दिया है कि केन्द्रीय सरकार का सत्ता केन्द्र कहीं और है. मनमोहन सिंह मात्र कठपुतली हैं, डोर कहीं और से खींची जाती है. अगर इस डोर का स्रोत देश में ही कहीं होता, तो बात उतनी गंभीर नहीं थी, लेकिन विकिलीक्स के ताजे खुलासे ने यह सिद्ध कर दिया है कि सत्ता के संचालन का मुख्य केन्द्र अमेरिका में है. वहां से जारी निर्देशों का अनुपालन, वाया १०,जनपथ, हमारे बेबस प्रधानमंत्री करते हैं.
सन २००८ में, अमेरिका समर्थित एटमी बिल पास कराने के समय सरकार पर अविश्वास मत के दौरान आए संकट को टालने के लिए सांसदों की जमकर खरीद-फरोख्त की गई थी. उस समय पेशी में दिए गए लाखों रुपयों की गड्डियां संसद में लहराकर भाजपा सांसदों ने सनसनी फैला दी थी, लेकिन अमेरिका समर्थित मीडिया ने इसकी जमकर खिल्ली उड़ाई थी. ऐसा प्रचार किया जा रहा था, जैसे एटमी बिल पास होते ही, देश को अनन्त ऊर्जा मिलने लगेगी, आवश्यकता से अधिक बिजली पैदा होगी, देश विकास के सोपान पर चढ़ने लगेगा और पश्चिमी देशों की तरह समृद्धि उसके कदम चूमने लगेगी. जिसने भी उसका विरोध किया, उसे खलनायक बनाकर पेश किया गया. सोमनाथ चटर्जी और ए.पी.जे.कलाम भी इस कूट चाल को समझ नहीं पाए. ऐसा नहीं कि अमेरिकी धन का उपयोग सिर्फ़ सांसदों को खरीदने में किया गया, मीडिया पर भी करोड़ों रुपए खर्च किए गए.
सोनिया गांधी के परम विश्वासपात्र कैप्टेन सतीश शर्मा के सहयोगी नचिकेता कपूर ने सरकार द्वारा विश्वास मत प्राप्त करने के बाद अपने आका अमेरिकी राजदूत को इसकी सूचना देते हुए बताया कि इस प्रकरण में उस समय तक पचास करोड़ खर्च हो चुके थे. विकिलीक्स ने अपने ताज़े खुलासे में इसी सत्य की पुष्टि की है. अजीत सिंह समेत राष्ट्रीय लोकदल के सांसदों को खरीदने के लिए प्रति सांसद दस करोड़ रुपए दिए गए. हर पार्टी के बिकाऊ सांसदों को खरीदने का जिम्मा अमर सिंह ने अंबानियों की मदद से उठाया. अमर सिंह का नार्को टेस्ट कराया जाय, तो सच बिल्कुल सामने आ जाएगा. मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार को संकट में डाला था. इसमें उनका कोई निजी हित रहा हो. ऐसा भी नहीं था. वैसे भी मनमोहन सिंह अपनी मर्जी से क्या करते हैं? वे बहुत अच्छे यस मैन हैं. अमेरिका और सोनिया गांधी की जो इच्छा थी, उन्होंने वही किया. लगा दी दांव पर अपनी सरकार. अगर यह जूआ वे नहीं खेलते तो एकदिन भी प्रधानमंत्री नहीं रहते. खेल लिया तो दूसरी पारी भी पा गए. उनका पूरा कार्यकाल ही सौदेबाज़ी का रहा है. बाज़ी बिछाई गई, १०, जनपथ के इशारे पर. पासा फेंकने के लिए सतीश शर्मा, नचिकेता कपूर, मुकेश अंबानी और अमर सिंह तो कमर कसके पहले से ही तैयार थे. अब भेद खुल गया है तो मनमोहन सिंह जम्मू की एक और यात्रा कर लेंगे, सारी जिम्मेदारी अपने सिर ले लेंगे.
भ्रष्टाचार और कांग्रेस का बड़ा गहरा नाता है. इन्दिरा गांधी द्वारा रोपा गया यह नन्हा बिरवा खाद-पानी और उचित रखरखाव पाकर वटवृक्षों का विशाल वन बन चुका है. किसी भी कांग्रेसी को काले धन से परहेज़ नहीं. अपनी सरकार के खिलाफ़ जीत के लिए पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव द्वारा शिबू सोरेन समेत झारखंड मुक्ति मोरचे के सांसदों की संसद भवन में संपन्न खरीद-फ़रोख्त को कौन भूल सकता है? कांग्रेस ने भ्रष्टाचार की ऐसी गंगा बहा दी है, जिसमें उसके धुर विरोधी भी मौका पाते ही डुबकी लगाने से नहीं चुकते. अब भ्रष्टाचार के खिलाफ़ जनमानस भी उद्वेलित नहीं होता. इसे सामाजिक स्वीकृति दिलाने में कांग्रेस सफल रही है. कांग्रेस और भ्रष्टाचार के सबसे बड़े शत्रु राम मनोहर लोहिया के शिष्य लालू-मुलायम इस दौड़ में एक दूसरे को पीछे छोड़ने की होड़ में हैं. एटमी बिल के समर्थन में एकाएक खड़े हो जाने वाले सभी व्यक्तियों और दलों की भूमिका संदिग्ध है.
अमेरिका से एटमी करार के बाद भी हमें क्या मिला? कितने परमाणु बिजली घरों का निर्माण हुआ? आणविक ऊर्जा ने हमारे पावर ग्रिड में कितने मेगावाट का योगदान किया. प्राप्त आंकड़ों के अनुसार करार के बाद अभी तक एक भी नया परमाणु बिजली घर अस्तित्व में नहीं आया. रुस के चेर्नोबिल और जापान के फुकुशिमा आणविक बिजली घरों में विस्फोट के बाद रिसाव के कारण फैल रहे विकिरण से विश्व समुदाय की आंखें खुल जानी चाहिए. न्यूक्लियर कंट्रोल ब्रीफ़केस अपनी कांख में दबाए अमेरिका के राष्ट्रपति विश्व-भ्रमण करते रहें. वे ट्रिगर दबाएं या न दबाएं, सुनामी ट्रिगर दबा ही देगी. परमाणु ऊर्जा, चाहे वह बिजली घर के रूप में हो या परमाणु बम के - सर्वथा त्याज्य है.

Saturday, March 5, 2011

ज़िन्दा कौमें पांच साल इन्तज़ार नहीं करतीं

आखिर दूसरे का पाप कबतक अपने सिर पर ढोते रहेंगे मनमोहन सिंह? क्या भारत के किसी भी प्रधानमंत्री के कार्यकाल में इतनी भयंकर अनियमितताएं, इतने अधिक भ्रष्टाचार और इतनी ज़्यादा बेबसी का रिकार्ड रहा है? प्रधानमंत्री की आड़ में कौन शासन कर रहा है, कौन नैतिकता की मर्यादाओं को ताक पर रखकर अपने निर्णय लागू करवा रहा है? देश और जनता को यह जानने का पूरा अधिकार है. पी.जे.थामस, जैसा नाम से ही स्पष्ट है, मनमोहन सिंह के रिश्तेदार नहीं हो सकते. वे उनकी जाति, पंथ या प्रांत के भी नहीं हैं. उनकी औकात नहीं कि मनमोहन सिंह को रिश्वत देकर खरीद सकें. फिर कौन सी मज़बूरी थी जिसने प्रधानमंत्री को विपक्ष की नेता की लिखित असहमति को दरकिनार कर पी.जे.थामस जैसे भ्रष्ट और दागी व्यक्ति को मुख्य सतर्कता आयुक्त के संवैधानिक पद पर नियुक्त करने के लिए विवश किया? क्या सोनिया गांधी से थामस की घनिष्ठता ही उनकी नियुक्ति के लिए पर्याप्त योग्यता नहीं मानी गई? क्या चिदंबरम कांग्रेस की राजमाता के निर्देशों पर चित्त नहीं हुए? क्या मनमोहन की बासुरी में फूंक १०, जनपथ से नहीं भरी गई? क्या प्रधानमंत्री में लेषमात्र भी स्वाभिमान शेष है? क्या देश ने ऐसा कठपुतली और बेबस प्रधानमंत्री अपने इतिहास में पहले कभी देखा था?
उच्चतम न्यायालय ने जैसी कठोर टिप्पणियों के साथ केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के पद पर पी.जे.थामस की नियुक्ति खारिज़ की है, उससे केन्द्रीय सरकार और विशेष रूप से प्रधानमंत्री के लिए मुंह छुपाना भी मुश्किल हो गया है. वास्तव में यह मनमोहन सिंह के गाल पर प्रत्यक्ष और सोनिया गांधी के गाल पर परोक्ष जोरदार तमाचा है. न्यायपालिका के इस प्रहार के साथ ही केन्द्र सरकार की बची-खुची प्रतिष्ठा भी मिट्टी में मिल गई है.
१९७३ बैच के आई.ए.एस. अधिकारी, थामस को २००५-०६ में सी.वी.सी पद के लिए अयोग्य मानते हुए उनकी दावेदारी को निरस्त कर दिया गया था, लेकिन २००८ में फिर से उन्हें इस पद के दावेदारों में शामिल कर लिया गया और अन्ततः सितम्बर २०१० में उनके नाम पर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने विपक्ष की नेता की असहमति को दरकिनार करते हुए अंतिम मुहर लगा दी. इस मामले से उनलोगों का भी मुखौटा उतरा है जो थामस को लगातार प्रोन्नति देते गए और जिनलोगों की कृपा से थामस एडीशनल सेक्रेटरी, चीफ सेक्रेटरी होते हुए सेक्रेटरी भारत सरकार और अन्त में सीवीसी के पद तक पहुंच गए. थामस की नियुक्ति के मामले में सबसे विचित्र बात रही है कि गलती का एहसास होने के बाद भी इसे स्वीकार नहीं किया गया. जो अनजाने में गलती करता है, वह क्षमा के योग्य हो सकता है, लेकिन जो जानबूझकर जीती मक्खी निगलता है, वह सहानुभूति का पात्र नहीं हो सकता. अच्छा होता, सर्वोच्च न्यायालय ने मनमोहन सिंह और पी. चिदंबरम के लिए उचित दंड की भी व्यवस्था की होती. सरकार ने ऐसा ही रवैया २-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में भी अपनाया था. तरह-तरह के कुतर्क देकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया कि २-जी स्पेक्ट्रम आवंटन में कोई गड़बड़ी नहीं हुई. सीएजी रिपोर्ट को ही कपिल सिब्बल ने खारिज़ कर दिया. सर्वोच्च न्यायालय को इस मामले में भी हस्तक्षेप करना पड़ा. सिब्बल को फटकार मिली, राजा को जेल जाना पड़ा और सरकार को विपक्ष की मांग के आगे घुटने टेकने पड़े. संसद के एक सत्र को बलि चढ़ाने के बाद संयुक्त संसदीय समिति का गठन करना ही पड़ा.
सरकार भ्रष्टाचार के मामलों में तनिक भी गंभीर नहीं है. भ्रष्टाचारियों को पकड़ने के बदले उनके कृत्यों पर लीपापोती करने का प्रयास इतनी नसीहतों के बाद भी पूर्ववत जारी है. काले धन के मामले में भी सरकार का रवैया गले उतरने वाला नहीं है. भारत के सबसे बड़े भ्रष्टाचारी और टैक्स चोर हसन अली के मामले में सर्वोच्च न्यायालय को तल्ख टिप्पणी करनी पड़ी कि उसे अभी तक गिरफ़्तार क्यों नहीं किया गया? उससे गंभीरता से पूछताछ क्यों नहीं की गई? सरकार की लापरवाही और हसन की गिरफ़्तारी न होने के कारण वह अपने काले धन का करीब ३०-३५ हज़ार करोड़ रुपए स्विस बैंकों से निकालकर सुरक्षित ठिकानों मे पहुंचा चुका है. यदि हसन अली गिरफ़्तार होता तो उसे यह मौका नहीं मिलता और दूसरी तमाम जानकारियां भी सरकार को मिल सकती थीं, जिनके आधार पर काले धन को वापस लाया जा सकता था. हसन अली देश के कानून की धज्जियां उड़ाते हुए अपने काले धन को सुरक्षित करने में जुटा है और सरकार सोई हुई है.
आज यह एक ज्वलन्त प्रश्न है कि सरकार आखिर किसकी है - भ्रष्टाचारियों की, काला बाज़ारियों की, रिश्वतखोरों, चापलूसों और कारपोरेट घरानों की या जनता की? लोहिया ने कहा था कि ज़िन्दा कौमें पांच साल तक इंतज़ार नहीं करतीं. पूर्णतया श्रीहीन हो चुकी इस कठपुतली सरकार को बदलने के लिए जनता को क्या पांच साल इंतज़ार करना चाहिए? यह एक यक्ष प्रश्न है जिसपर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है.

Tuesday, February 22, 2011

राजनीतिज्ञों के तीन चेहरे

महान वैज्ञानिक आइंस्टीन से एकबार एक पत्रकार ने पूछा, “अगले जन्म में आप क्या बनना चाहेंगे?" “प्लंबर," आइंस्टीन क उत्तर था. पत्रकार द्वारा यह पूछे जाने पर कि वे पुनः वैज्ञानिक बनना क्यों नहीं पसंद करेंगे, उस महान वैज्ञानिक ने बताया कि वैज्ञानिक एक निरीह जीव होता है. वह जो चाहता है, कभी नहीं कर पाता है. वह रात दिन एक करके, अपनी सारी बुद्धि और सामर्थ्य लगाकर मानवता के कल्याण के लिए कुछ आविष्कार करता है, लेकिन अन्ततः उसका उपयोग राजनीतिज्ञ करते हैं. उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि पदार्थ से ऊर्जा में रूपान्तरण के उनके आणविक सिद्धान्त, परमाणु बम के निर्माण के लिए उपयोग में लाए जाएंगे. हिरोशिमा और नागासाकी पर अमेरिका द्वारा गिराए गए परमाणु बमों के विस्फोट से उत्पन्न विभीषिका के फ़ोटोग्राफ्स उन्होंने स्वयं देखे थे. सारा अमेरिका द्वितीय विश्व युद्ध में अपनी निर्णायक जीत पर जश्न मना रहा था और आइंस्टीन एक बंद कमरे में जोर-जोर से रो रहा था. उन्हें राजनीतिज्ञों से घृणा हो गयी जो जीवनपर्यन्त बनी रही. उनके अनुसार राजनीतिज्ञ दुनिया का सबसे खतरनाक जीव होता है. वह अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए किसी भी सिद्धान्त, किसी भी अन्वेषण, किसी भी दर्शन और किसी भी व्यक्ति का दुरुपयोग कर सकता है.
राजनीतिज्ञों के विषय में एक कथा बहुत प्रचलित है - एक आदमी को पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई. जब बालक पांच वर्ष का हुआ तो पिता को यह चिन्ता सताने लगी कि बच्चे को कैसी शिक्षा दी जाय. उसने अपनी चिन्ता अपने आध्यत्मिक गुरु के सामने रखी. गुरु ने सलाह दी कि बच्चे की जिस विषय में प्राकृतिक अभिरूचि हो, उसे वही शिक्षा दी जाय. लेकिन प्रश्न यह था कि पांच वर्ष के बालक की प्राकृतिक रूचि कैसे पता की जाय? गुरुजी ने उपाय बतलाया कि बच्चे के कमरे की मेज़ पर तीन चीजें रख दी जाय - गीता की पुस्तक, एक हज़ार रुपए का नोट और एक तलवार. कमरे में घुसने के बाद बच्चा जिस चीज से खेलने लग जाय, वह उसकी रूचि की वस्तु होगी. अगर वह गीता उठाता है, तो उसे धार्मिक शिक्षा दी जाय, अगर रुपया उठाता है, तो उसे व्यवसायिक शिक्षा दी जाय और अगर तलवार उठाता है, तो उसे सैन्य शिक्षा दी जाय. पिता ने पुत्र के कमरे में उसकी मेज़ पर तीनों चीजें सजाकर रख दी. बच्चा कमरे में घुसा. उसने हज़ार का नोट उठाकर जेब में रखा, गीता को बगल में दबाया और दाहिने हाथ में तलवार को पकड़कर हवा में तलवारबाज़ी करने लगा. पिता की समझ में कुछ नहीं आया. वह दौड़ा-दौड़ा अपने गुरु के पास पहुंचा और सारी कहानी विस्तार से सुनाई. गुरु ने हंसते हुए कहा - “तुम्हारे पुत्र की तीनों वस्तुओं में समान रुचि है. घबराओ नहीं, वह बड़ा होकर राजनीतिज्ञ बनेगा और देश का नेतृत्व करेगा."
आइंस्टीन ने कभी सोचा नहीं होगा कि उसके द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त से परमाणु बम बनाया जाएगा. न्यूटन के मस्तिष्क में यह विचार आया भी नहीं होगा कि गति के तीसरे सिद्धान्त के आधार पर परमाणु बम ले जानेवाली मिसाइलें बनाई जाएंगी. बायो-टेक्नोलाजी के आविष्कारक वैज्ञानिकों ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि उनके आविष्कार से प्रेरित हो जैविक-रासायनिक बम भी बनाए जा सकते हैं. क्या मुहम्मद साहब ने कुरान लिखवाते समय कभी भी सोचा होगा कि एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में एके-४७ थामकर उनके ही अनुयायी सारी दुनिया को आतंक की आग में झोंक देंगे? दुनिया को शान्ति, दया, क्षमा और सेवा का अमर संदेश देनेवाले जिसस क्राइस्ट ने कभी कल्पना की होगी कि उन्हीं के भक्त अमेरिका के रेड इंडियन्स और आस्ट्रेलिया की मूल जातियों का संपूर्ण विनाश कर देंगे? कार्ल मार्क्स ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि क्रान्ति के नाम पर स्टालिन २० लाख यहुदियों की निर्मम हत्या करा देगा और महात्मा बुद्ध के अनुयायी देश चीन का प्रधान, सांस्कृतिक क्रान्ति के नाम पर अपने ही देश के लाखों नागरिकों के खून से धरती को लाल कर देगा.
दुनिया के सारे राजनीतिज्ञों के कम से कम तीन चेहरे होते हैं - पहला महात्मा गांधी का, दूसरा अंबानी का और तीसरा स्टालिन का.

Thursday, February 3, 2011

भ्रष्टाचार का अनुमोदन

सरकारी विभागों में किसी भी पद पर नियुक्ति के पूर्व पुलिस जांच (Police verification) अनिवार्य होती है. विपरीत जांच रिपोर्ट की स्थिति में किसी को नौकरी नहीं मिल सकती. इसके अतिरिक्त सरकारी महकमों में चपरासी से लेकर सर्वोच्च अधिकारी को भी वर्ष में एक बार अनिवार्य रूप से सत्यनिष्ठा प्रमाण पत्र देना पड़ता है. यह प्रमाण पत्र नियंत्रक अधिकारी (Controlling officer) द्वारा जारी किया जता है. संदिग्ध सत्यनिष्ठा वाले कर्मचारी या अधिकारी की सेवाएं सीधे समाप्त करने का प्रावधान है. सरकारी नौकरी में संदिग्ध सत्यनिष्ठा के साथ एक चपरासी भी नौकरी नहीं कर सकता, तो एक व्यक्ति मुख्य सतर्कता आयुक्त के उच्च संवैधानिक पद पर नियुक्ति कैसे पा सकता है? सरकार जब स्वयं की बनाई सेवा नियमावली का स्वयं खुल्लमखुल्ला उल्लंघन कर रही है, तो शेष लोगों के लिए लक्षमण रेखा कैसे खींची जा सकती है? यह एक यक्ष प्रश्न है, जिसका उत्तर भारत की जनता को चाहिए.
केन्द्रीय सतर्कता आयोग (CVC) के आयुक्त के पद पर पी.जे.थामस की नियुक्ति, और कुछ नहीं, बल्कि भारत सरकार द्वारा भ्रष्टाचार का सीधे-सीधे अनुमोदन है. जिसका दामन खुद दागदार हो, वह वह उच्च स्तर पर फैले भ्रष्टाचार की जांच कैसे कर सकता है? पामोलीन तेल घोटाले में थामस मुख्य अभियुक्त हैं और २-जी स्पेक्ट्रम घोटाले के सूत्रधार हैं. समझ में नहीं आता कि उन्होंने कौन सी घुट्टी पिलाई कि हमारे (ईमानदार?) प्रधान मंत्री और (स्वच्छ छवि वाले?) गृह मंत्री को भी जीती मक्खी निगलनी पड़ी. एक झूठ को छिपाने के लिए कई झूठ बोले गए. भारत के एटार्नी जनरल ने सुप्रीम कोर्ट को गुमराह किया कि थामस के विरुद्ध केसों की फाइलों को सेलेक्शन पैनल की बैठकों में रखा ही नहीं गया. प्रधान मंत्री ने इसकी पुष्टि भी की. लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने अगले ही दिन प्रधान मंत्री के वक्तव्य का खंडन करते हुए मीडिया को बताया कि प्रधान मंत्री झूठ बोल रहे हैं. थामस के घोटालों की चर्चा चयन समिति की बैठक में विस्तार से की गई थी. स्मरण रहे सतर्कता आयुक्त के चयन के लिए गठित तीन सदस्यीय समिति में प्रधान मंत्री, गृह मंत्री के साथ लोकसभा में विपक्ष का नेता भी नामित होता है. सुषमा स्वराज ने चयन समिति की बैठक में यह मुद्दा उठाया था, अपना लिखित विरोध भी दर्ज़ कराया था, लेकिन उसे नज़रअदाज कर दिया गया. दो-एक के बहुमत से थामस की नियुक्ति कर दी गई. अगर विपक्ष के नेता की सलाह कोई अर्थ ही नहीं रखती, तो उन्हें चयन समिति में रखने का औचित्य ही क्या है?
दिनांक ३१.१.२०११ को नई दिल्ली में गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने यह स्वीकार किया है कि गत ४, सितंबर, २०१० को चयन समिति (Selection panel) की बैठक में पामोलीन तेल घोटाला और इसमें पी.जे.थामस की संलिप्तता पर विस्तार से चर्चा की गई थी. समिति की महत्त्वपूर्ण सदस्या सुषमा स्वराज ने अपना विरोध भी दर्ज़ कराया था. भारत की जनता यह जानने का अधिकार तो रखती ही है कि किन वाध्यताओं और परिस्थितियों से प्रेरित हो पी.जे.थामस जैसे दागदार अधिकारी को पवित्र सतर्कता आयोग के आयुक्त पद पर नियुक्त किया गया.
आज अपने देश की जो हालत है, वैसी ही हालत सन १९७५ में इन्दिरा गांधी के शासन काल में थी. सत्ता की निरंकुशता और भ्रष्टाचार को न्यायोचित ठहराने के लिए इन्दिरा गांधी ने देश पर आपात्काल थोप दिया था. लेकिन लोकनायक जय प्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रान्ति को दबया नहीं जा सका. १९७७ में केन्द्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनवाने का श्रेय इन्दिरा गांधी को दिया जा सकता है. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पुण्यतिथि (३०.१.११) पर पूरे देश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध किया गया शान्त विरोध प्रदर्शन ढेर सारे संदेश देता है. सत्ताधारी चेत जांय वरना मिस्र से उठी लपटों का कोई भरोसा नहीं. आजकल वैसे ही पछिया हवा (Westen wind) चल रही है.


Wednesday, January 26, 2011

बैलेट या बुलेट

जिनका विश्वास जनता, जनशक्ति और बहुमत में नहीं होता है, वे ही अपनी बात मनवाने के लिए हिंसा का सहारा लेते हैं. अल्पमत या सूक्ष्म अल्पमत वाले ही बंदूक की नाली के बल पर सत्ता हथियाने का सपना देखते हैं. बहुत पहले जब सभ्यता अपने विकास के प्रारंभिक दौर से गुज़र रही थी, तो कबीलाई संस्कृति का प्रभाव स्पष्ट था. तब सबसे ताकतवर आदमी कबीले का सरदार हुआ करता था. बंदरों के झूंड में यह नियम आज भी लागू है. सरदार के मुंह से निकला वाक्य ही कानून होता था. औरतों के भाग्य का फ़ैसला भी पुरुष लड़कर किया करते थे. शादी के लिए उत्सुक प्रत्याशी आपस में मल्लयुद्ध करते थे, तलवारबाज़ी करते थे या निशानेबाज़ी करते थे. विजेता ही इच्छित लड़की से विवाह करने की योग्यता प्राप्त करता था. लड़की की पसंद या नापसंद कोई मायने नहीं रखती थी. क्या हम फिर उसी आदिम युग की ओर नहीं लौट रहे?
नक्सलियों द्वारा देश के विभिन्न प्रान्तों में खूनी संघर्ष के दौरान पिछले ५ वर्षों में जिनलोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी, उनकी संख्या तालिका में निम्नवत है --
वर्ष नागरिक सुरक्षा जवान नक्सलवादी कुल संख्या
२०१० ७१३ २८५ १७१ ११६९
२००९ ५९१ ३१७ २१७ ११२५
२००८ ६६० २३१ १९९ १०९०
२००७ ४६० २३६ १४१ ८३७
२००६ ५२१ १५७ २७४ ९५२
उपरोक्त आकड़ों में सभी मृत नागरिक ‘सर्वहारा’ वर्ग के हैं. इसमें एक भी पूंजीपति, नेता, नौकरशाह या मफ़िया नहीं है, जिसने देश की गरीब जनता को लूटकर स्विस बैंकों में अकूत धन जमा कर रखा है. आश्चर्य है कि नक्सल आंदोलन में जो मोटा धन खर्च होता है, वह भ्रष्ट अधिकारियों, ठेकेदारों और माफ़ियाओं से जबरन वसूला गया हफ़्ता ही होता है. पैसे लेकर उन्हें अभयदान दे दिया जाता है. समझ में नहीं आता कि यह लड़ाई किसके लिए लड़ी जा रही है. यहां मरनेवाले और मारनेवाले, दोनों ही उस परिवार से आते हैं, जिसमें दो जून की रोटी का जुगाड़ बड़ी मुश्किल से हो पाता है. चाहे वह सीआरपीएफ का जवान हो या गांव का निरीह नागरिक, एक व्यक्ति की मौत का मतलब है, १० आदमी के एक परिवार की रोटी का एकाएक छीन लिया जाना. याद नहीं आता कि १९६७ से आरंभ इस खूनी आंदोलन का शिकार पिछले ४४ वर्षों में कभी कोई अंबानी, टाटा या दाउद रहा हो. नाज़ीवाद और फ़ासीवाद को पानी पी-पीकर गाली देनेवाले इन तथाकथित मार्क्स और माओ के अनुयायी क्या उन्हीं का अनुसरण नहीं कर रहे हैं? लोकतंत्र में साम्यवादियों का विश्वास कभी नहीं रहा. लेकिन यह सिद्ध हो चुका है कि अपनी तमाम कमियों के बावजूद लोकतंत्र विश्व की सबसे अच्छी शासन प्रणाली है. लोकतंत्र से छ्त्तीस का आंकड़ा रखने के कारण दुनिया से साम्यवाद लगभग समाप्त हो चुका है. आज भी लैटिन अमेरिका के कुछ देशों में अगर साम्यवाद जिन्दा है, तो इसका श्रेय लोकतंत्र को ही जाता है. अगर आपकी जनता में पैठ है और जनता पर विश्वास है, तो बिना खून की नदी बहाए भी सत्ता परिवर्तन किया जा सकता है. इंदिरा गांधी की निरंकुश सत्ता को जनशक्ति ने ही १९७७ में धूल चटा दी थी. लालू की गुंडागर्दी और जयललिता की तानाशाही को भी जनता के आगे घुटने टेकने पड़े.
पूरी दुनिया में भारत भूमि साम्यवाद के लिए सबसे अनुकूल है. यहां की गरीबी, सामाजिक आर्थिक विषमता, साम्यवाद के लिए सबसे उपयुक्त वातावरण का सृजन करते हैं. कभी कम्युनिस्ट पार्टी भारत की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी हुआ करती थी. लेकिन अपने नेताओं के क्षणिक स्वार्थों के कारण यह पार्टी सत्ताधारी पार्टी की पिछलग्गू बनकर रह गई. इंदिरा गांधी जब अलोकप्रियता के शिखर पर थीं, तो कम्युनिस्टों ने आपातकाल में बिना शर्त उनका समर्थन किया. वे इंदिरा गांधी और संजय गांधी के माध्यम से भारत में साम्यवाद लाना चाह रहे थे! जब चीन ने १९६२ में भारत पर आक्रमण किया तो वे चीन का समर्थन कर रहे थे. जनता की नब्ज़ पहचानने में वे हमशा गलती करते रहे. परिणाम यह निकला कि जिस पार्टी का देशव्यापी जनाधार था, अपनी ही गलत नीतियों के कारण सिर्फ़ दो प्रान्तों में सिमट कर रह गई. अब वे अपने ही निर्दोष भाइयों के रक्त से अपना हाथ रंग रहे हैं. वे एक गंभीर अपराध कर रहे हैं जिसे इतिहास कभी माफ़ नहीं करेगा. इन साम्यवादियों की अदूरदर्शिता का लाभ उठाकर कभी लालू सत्ता पा लेते हैं, तो कभी मायावती. कभी देवगोड़ा भारत का कर्णधार बन जाते हैं, तो कभी मनमोहन सिंह. ये लोकसभा का अध्यक्ष पद पाकर संतुष्ट हो जाते हैं और सारे देश को सोनिया का चरागाह बनने के लिए छोड़ देते हैं. कभी संसदीय लोकतंत्र में विश्वास करते हैं तो कभी दुनाली में. पता नहीं ये जनता में विश्वास करना कब शुरू करेंगे. कोई आवश्यक नहीं कि प्रत्येक चुनाव लड़ा ही जाय. अगर नक्सलवादी और बाकी कम्युनिस्ट हथियार फेंककर महंगाई, गरीबी, असमानता, भ्रष्टाचार, कुशासन और शोषण के विरुद्ध ईमानदारी से जनजागरण करें, आंदोलन चलाएं, तो वे बड़ी आसानी से जनता का विश्वास अर्जित कर सकते हैं. जो काम पिछले ६ दशक में नहीं हो सका, वह आनेवाले २-३ वर्षों में संभव हो सकता है. भारतीय राजनीति में एक बहुत बड़ा शून्य उत्पन्न हो चुका है. इसे भरने के लिए नक्सलवादी या साम्यवादी क्या ईमानदारी से प्रतिबद्ध हैं? चुनाव उन्हें ही करना है -- एकता या बिखराव, बैलेट या बुलेट.

Thursday, January 20, 2011

चीरहरण जारी है

विदेशी बैंकों से कालाधन वापस लाने के प्रयास में सारी आशाएं अब सर्वोच्च न्यायालय पर ही केंद्रित हो गई हैं. सन १९४८ से लेकर आजतक भारत से कालाधन जमा करनेवाले स्विस और जर्मन बैंकों को अवैध पूंजी पलायन निर्बाध रूप से जारी है. यह गैरकानूनी धंधा सामान्यतया भ्रष्टाचार, घूस, दलाली और आपराधिक गतिविधियों की उपज है. ग्लोबल फ़ाइनेंशियल इंटिग्रिटी द्वारा पिछले महीने जारी एक सारगर्भित रिपोर्ट के अनुसार भारत की कुल अवैध पूंजी पलायन की वर्तमान कीमत कम से कम ४६२ बिलियन डालर है. भारतीय रुपए में यह धनराशि २० लाख, ८५ हज़ार करोड़ बैठती है. विदेशी बैंकों में जमा यह धन अगर देश में आ जाय तो अद्भुत कायाकल्प हो सकता है. देश के मानेजाने कानून विशेषज्ञ रामजेठमलानी, सुभाष कश्यप और के.पी.एस.गिल ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर कर यह अनुरोध किया है कि विदेशों के टैक्स हेवेन्स में जमा भारतीय धन को वापस लाने हेतु सरकार को वाध्य किया जाय. इन दिनों इस याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश बी सुदर्शन रेड्डी और एस.एस.निर्झर की पीठ गंभीरतापूर्वक सुनवाई कर रही है. बुधवार (१९.१.११) सुनवाई के दौरान विदेशी बैंकों में जमा काले धन पर पूरी जानकारी देने में हिचकिचा रही केंद्र सरकार को जमकर फ़टकार लगाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कड़ी टिप्पणी की -- "भारतीय संपत्ति को विदेशों में रखना, देश के साथ लूट है. इसे सिर्फ़ टैक्स-चोरी का मामला नहीं माना जा सकता. अदालत विदेशी बैंकों से की गई संधियों का व्योरा नहीं जानना चाहती. वह देश की संपत्ति को लूटनेवाले अपराधियों का व्योरा जानना चाहती है. हम दिमाग को झकझोरनेवाले अपराध की बात कह रहे हैं. यह पूरे तौर पर देश की संपत्ति की चोरी है.”
जर्मनी के लिचटेंस्टीन बैंक ने २६ भारतीयों द्वारा उस बैंक में जमा की गई करोड़ों रुपयों की धनराशि का व्योरा खातेदारों के नाम के साथ भारत सरकार को उपलब्ध करा दिया है, लेकिन सरकार इसे कोर्ट को उपलब्ध नहीं करा रही है. स्विस बैंकों में जमा भारतीयों के काले धन के बारे में भारत सरकार को जानकारी मिलने का मार्ग प्रशस्त करते हुए स्विट्जरलैंड की संसद की एक समिति ने इस संबंध में हुई संधि को अपनी मंजूरी दे दी है. कई सनसनीखेज़ खुलासे करनेवाली वेबसाइट विकिलीक्स के पास भी स्विस बैंक के गुप्त खातों की सीडी उपलब्ध है.
सरकार के पास सबकुछ है, बस ईमानदारी का अभाव है. इस भ्रष्ट सरकार से विदेशों में अपनी काली कमाई रखनेवाले सफेदपोशों का स्याह चेहरा बेनकाब करने की आशा करना, दिवास्वप्न है. महाभारतकालीन धृतराष्ट्र की भूमिका का सफलतापूर्वक निर्वहन करनेवाले हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह चाह कर भी ऐसा नहीं कर सकते. उनकी निष्ठा देश के साथ नहीं, एक परिवार विशेष और कुर्सी के साथ जुड़ी है. आनेवाला कल उनसे इसका हिसाब अवश्य मांगेगा, भले ही वे आज आंख बचाकर निकल जांय.
कुछ ही वर्ष पूर्व संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा ‘फ़ूड फार ऑयल’ की जांच हेतु गठित वोल्कर कमिटी ने कांग्रेस पार्टी को एक लाभार्थी के रूप में नामित किया है. भारतीय जांच एजेंसियों और इन्कम टैक्स की जांच में यह साफ सिद्ध हुआ है कि बोफ़ोर्स घूस कांड में दलाली लेनेवालों में इटली के अतावियो क्वात्रोची ने ए.ई.सर्विसेज़ और कोल बार इंवेस्टमेंट जैसी कंपनियों की आड़ में घूस ली है. क्वात्रोची और उनकी पत्नी मारिया के कांग्रेस पार्टी की अध्यक्षा सोनिया गांधी और स्व. राजीव गांधी से संबंध निर्विवाद और सर्वज्ञात है. एक स्विस पत्रिका ‘Schweizer Illustrirte' के १९ नवंबर १९९१ के अंक में प्रकाशित एक खोजपरक समाचार में तीसरी दुनिया के १४ वैश्विक नेताओं के नाम दिए गए हैं, जिनके स्विस बैंकों में खाते हैं. भारत के एक पूर्व प्रधानमंत्री का नाम भी उस सूची में शामिल है. डा. येवनेज़िया एलबट्स की पुस्तक ‘The state within a state - The KGB hold on Russia in past and future' में चौंकानेवाले रहस्योद्घाटन किए गए हैं कि भारत के एक पूर्व प्रधानमंत्री और उनके परिवार को रूस से व्यवसायिक सौदों के बदले लाभ मिले हैं.
उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए वर्तमान सरकार और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से यह आशा करना कि वे सफ़ेदपोश बने उन नेताओं, पूंजीपतियों, नौकरशाहों और माफ़ियाओं के नाम, जिन्होंने देश की संपत्ति लूटकर विदेशी बैंकों में जमा कर रखी है, सार्वजनिक करेंगे, निश्चित रूप से मूर्खता होगी. लाचार मनमोहन सिंह धृतराष्ट्र हैं. सारे मंत्री कौरव हैं. जनता द्रौपदी है. विरोधी दल द्यूत में हारे पांडव हैं. श्रीकृष्ण की प्रतीक्षा है. क्या पता, वे सर्वोच्च न्यायालय की वीथियों से आएं!

Thursday, January 6, 2011

बोए थे फूल उग आए नागफनी के कांटे


सन १९७५ में श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा थोपे गए आपातकाल के दौरान बालकवि वैरागी ने एक कविता लिखी थी - बोए थे फूल, उग आए नागफनी के कांटें/ किस-किस को दोष दें, किस-किस को डांटें. उस समय वे कांग्रेस पार्टी से जुड़े थे. इन्दिरा जी ने ऐसी कविता लिखने के अपराध में उन्हें पार्टी से निकाल दिया. वैरागी जी की कविता की ये पंक्तियां कालजयी हैं. वे तब भी उतनी ही सत्य थीं, जितनी आज हैं. भारतीय संविधान द्वारा न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका की स्थापना के पीछे निश्चित रूप से पवित्र मनोभाव रहे होंगे, लेकिन आजकल इन संवैधानिक संस्थाओं की जो दुर्दशा बिना सूक्ष्मदर्शी की सहायता के भी दिखाई पड़ रही है, वह सोचनीय ही नही, चिन्ताजनक भी है.
सरकार, नेता, मन्त्री और नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार के किस्से तो अब किसी को चौंकाते भी नहीं. देश के सबसे ईमानदार माने जाने वाले मुख्य मन्त्री श्री नीतीश कुमार के पास ४३.२५९ लाख की संपत्ति और उनके बेटे प्रशान्त के पास १०५.६६७ लाख की संपत्ति है. उनके मन्त्रिमंडल के अधिकांश सदस्य करोड़पति हैं. ये आंकड़े बिहार के सरकारी वेबसाइट से लिए गए हैं. निश्चित रूप से नीतीश कुमार, लालू यादव, मायावती, मुलायम सिंह, जय ललिता, करुणानिधि और मधु कोड़ा की तुलना में बहुत गरीब मुख्य मन्त्री हैं, फिर भी उनके बेटे के पास १०५ लाख की संपत्ति चौंकानेवाली सूचना है. मेरा दावा है, अनुभव भी है कि कोई भी क्लास-१ का अधिकारी भी अगर ईमानदारी से अपनी ड्यूटी करे, उसके परिवार में पत्नी, माता-पिता और तीन बच्चे हों, तो अपनी सेवा के २५ वर्षों के बाद भी २५ लाख का घर नहीं खरीद सकता. अनुशासन हमेशा ऊपर से नीचे की ओर आता है. अपने देश में प्रधान मन्त्रियों के सीधे भ्रष्टाचार में लिप्त होने के मामलों के सार्वजनिक होने के बाद जनता को भी इस दौड़ में बेहिचक शामिल होने की हरी झंडी मिल गई. इन्दिरा गांधी-नागरवाला, राजीव गांधी-बोफ़ोर्स, नरसिंहा राव-हर्षद मेहता, मनमोहन सिंह-ए.राजा, सोनिया गांधी-क्वात्रोची के प्रसंग किसी से छुपे नहीं हैं. कांग्रेस भ्रष्टाचार की जननी है. बाकी पार्टियों ने सिर्फ उसका अनुसरण किया है.
न्यायपालिका पर आम जनता को कुछ ज्यादा ही भरोसा रहा है. लेकिन कभी उनलोगों से भी पूछिए जिन्होंने कम से कम एक भी मुकदमा लड़ा हो. एक गरीब आदमी तो न्याय पा ही नहीं सकता. अदालतों में तो दी जानेवाली और ली जानेवाली रिश्वत को बाकायदा ‘दस्तूर’ का नाम देकर इसे वैधानिक कर दिया गया है. अब सर्वोच्च न्यायालय में व्याप्त भ्रष्टाचार की परतें भी धीरे-धीरे खुल रही हैं.
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के वर्तमान अध्यक्ष न्यायमूर्ति के.जी. बालकृष्णन के रिश्तेदारों की धांधली और काली कमाई का व्योरा भी धीरे-धीरे सामने आ रहा है. श्री बालकृष्णन के छोटे भाई के.जी. भास्करन ने केरल के सरकारी वकील के पद पर रहते हुए अकूत संपत्ति अर्जित की, जिसमें तमिलनाडू के डिंडुगुल में ६० एकड़ जमीन क एक फार्म हाउस भी शामिल है. पूर्व मुख्य न्यायाधीश के दो दामाद - पी.वी.श्रीनिजन और एम. जे. बेनी भी करोड़ों की संपत्ति बनाने में किसी से पीछे नहीं रहे. जस्टिस बालाकृष्णन के खिलाफ उसी सुप्रीम कोर्ट में आय से अधिक संपत्ति बनाने की जांच के लिए एक याचिका दायर की गई है, जिसके वे कभी मुख्य न्यायाधीश थे.
हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज राजनीतिज्ञों की तरह किसी नीरा राडिया की सहायता नहीं लेते. वे वकालत के पेशे में जुड़े अपने रिश्तेदारों की सेवाएं लेते हैं. सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान न्यायाधीश श्री काटजू ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के कामकाज पर टिप्पणी करते हुए इस तथ्य का खुलासा किया था. भोपाल गैस त्रासदी के नायक एंडरसन, चारा घोटाले के चर्चित अभियुक्त लालू यादव, ताज कारिडोर की मायावाती, अकूत संपत्ति के मालिक मुलायम सिंह आदि अनायास ही सुप्रीम कोर्ट की कृपा नहीं प्राप्त करते. जस्टिस चो रामास्वामी, जस्टिस दिनकरन, जस्टिस रंगनाथ मिश्र, जस्टिस अहमदी, जस्टिस बालकृष्णन.............कितनों का नाम गिनाया जाय! भारत के सभी जजों, मन्त्रियों और कार्यपालिका से जुड़ी बड़ी मछलियों की संपत्ति की निष्पक्ष जांच कराई जाय तो लाखों हजार करोड़ों की बेनामी और अवैध संपत्ति का खुलासा हो सकता है. प्रधान मंत्री से लेकर सेनाध्यक्ष तक बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं. जांच कराएगा कौन?
बर्बाद गुलिस्तां करने को, सिर्फ़ एक ही उल्लू काफ़ी है;
हर शाख पर उल्लू बैठे हैं, अंजामे गुलिस्तां क्या होगा.