Wednesday, January 26, 2011

बैलेट या बुलेट

जिनका विश्वास जनता, जनशक्ति और बहुमत में नहीं होता है, वे ही अपनी बात मनवाने के लिए हिंसा का सहारा लेते हैं. अल्पमत या सूक्ष्म अल्पमत वाले ही बंदूक की नाली के बल पर सत्ता हथियाने का सपना देखते हैं. बहुत पहले जब सभ्यता अपने विकास के प्रारंभिक दौर से गुज़र रही थी, तो कबीलाई संस्कृति का प्रभाव स्पष्ट था. तब सबसे ताकतवर आदमी कबीले का सरदार हुआ करता था. बंदरों के झूंड में यह नियम आज भी लागू है. सरदार के मुंह से निकला वाक्य ही कानून होता था. औरतों के भाग्य का फ़ैसला भी पुरुष लड़कर किया करते थे. शादी के लिए उत्सुक प्रत्याशी आपस में मल्लयुद्ध करते थे, तलवारबाज़ी करते थे या निशानेबाज़ी करते थे. विजेता ही इच्छित लड़की से विवाह करने की योग्यता प्राप्त करता था. लड़की की पसंद या नापसंद कोई मायने नहीं रखती थी. क्या हम फिर उसी आदिम युग की ओर नहीं लौट रहे?
नक्सलियों द्वारा देश के विभिन्न प्रान्तों में खूनी संघर्ष के दौरान पिछले ५ वर्षों में जिनलोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी, उनकी संख्या तालिका में निम्नवत है --
वर्ष नागरिक सुरक्षा जवान नक्सलवादी कुल संख्या
२०१० ७१३ २८५ १७१ ११६९
२००९ ५९१ ३१७ २१७ ११२५
२००८ ६६० २३१ १९९ १०९०
२००७ ४६० २३६ १४१ ८३७
२००६ ५२१ १५७ २७४ ९५२
उपरोक्त आकड़ों में सभी मृत नागरिक ‘सर्वहारा’ वर्ग के हैं. इसमें एक भी पूंजीपति, नेता, नौकरशाह या मफ़िया नहीं है, जिसने देश की गरीब जनता को लूटकर स्विस बैंकों में अकूत धन जमा कर रखा है. आश्चर्य है कि नक्सल आंदोलन में जो मोटा धन खर्च होता है, वह भ्रष्ट अधिकारियों, ठेकेदारों और माफ़ियाओं से जबरन वसूला गया हफ़्ता ही होता है. पैसे लेकर उन्हें अभयदान दे दिया जाता है. समझ में नहीं आता कि यह लड़ाई किसके लिए लड़ी जा रही है. यहां मरनेवाले और मारनेवाले, दोनों ही उस परिवार से आते हैं, जिसमें दो जून की रोटी का जुगाड़ बड़ी मुश्किल से हो पाता है. चाहे वह सीआरपीएफ का जवान हो या गांव का निरीह नागरिक, एक व्यक्ति की मौत का मतलब है, १० आदमी के एक परिवार की रोटी का एकाएक छीन लिया जाना. याद नहीं आता कि १९६७ से आरंभ इस खूनी आंदोलन का शिकार पिछले ४४ वर्षों में कभी कोई अंबानी, टाटा या दाउद रहा हो. नाज़ीवाद और फ़ासीवाद को पानी पी-पीकर गाली देनेवाले इन तथाकथित मार्क्स और माओ के अनुयायी क्या उन्हीं का अनुसरण नहीं कर रहे हैं? लोकतंत्र में साम्यवादियों का विश्वास कभी नहीं रहा. लेकिन यह सिद्ध हो चुका है कि अपनी तमाम कमियों के बावजूद लोकतंत्र विश्व की सबसे अच्छी शासन प्रणाली है. लोकतंत्र से छ्त्तीस का आंकड़ा रखने के कारण दुनिया से साम्यवाद लगभग समाप्त हो चुका है. आज भी लैटिन अमेरिका के कुछ देशों में अगर साम्यवाद जिन्दा है, तो इसका श्रेय लोकतंत्र को ही जाता है. अगर आपकी जनता में पैठ है और जनता पर विश्वास है, तो बिना खून की नदी बहाए भी सत्ता परिवर्तन किया जा सकता है. इंदिरा गांधी की निरंकुश सत्ता को जनशक्ति ने ही १९७७ में धूल चटा दी थी. लालू की गुंडागर्दी और जयललिता की तानाशाही को भी जनता के आगे घुटने टेकने पड़े.
पूरी दुनिया में भारत भूमि साम्यवाद के लिए सबसे अनुकूल है. यहां की गरीबी, सामाजिक आर्थिक विषमता, साम्यवाद के लिए सबसे उपयुक्त वातावरण का सृजन करते हैं. कभी कम्युनिस्ट पार्टी भारत की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी हुआ करती थी. लेकिन अपने नेताओं के क्षणिक स्वार्थों के कारण यह पार्टी सत्ताधारी पार्टी की पिछलग्गू बनकर रह गई. इंदिरा गांधी जब अलोकप्रियता के शिखर पर थीं, तो कम्युनिस्टों ने आपातकाल में बिना शर्त उनका समर्थन किया. वे इंदिरा गांधी और संजय गांधी के माध्यम से भारत में साम्यवाद लाना चाह रहे थे! जब चीन ने १९६२ में भारत पर आक्रमण किया तो वे चीन का समर्थन कर रहे थे. जनता की नब्ज़ पहचानने में वे हमशा गलती करते रहे. परिणाम यह निकला कि जिस पार्टी का देशव्यापी जनाधार था, अपनी ही गलत नीतियों के कारण सिर्फ़ दो प्रान्तों में सिमट कर रह गई. अब वे अपने ही निर्दोष भाइयों के रक्त से अपना हाथ रंग रहे हैं. वे एक गंभीर अपराध कर रहे हैं जिसे इतिहास कभी माफ़ नहीं करेगा. इन साम्यवादियों की अदूरदर्शिता का लाभ उठाकर कभी लालू सत्ता पा लेते हैं, तो कभी मायावती. कभी देवगोड़ा भारत का कर्णधार बन जाते हैं, तो कभी मनमोहन सिंह. ये लोकसभा का अध्यक्ष पद पाकर संतुष्ट हो जाते हैं और सारे देश को सोनिया का चरागाह बनने के लिए छोड़ देते हैं. कभी संसदीय लोकतंत्र में विश्वास करते हैं तो कभी दुनाली में. पता नहीं ये जनता में विश्वास करना कब शुरू करेंगे. कोई आवश्यक नहीं कि प्रत्येक चुनाव लड़ा ही जाय. अगर नक्सलवादी और बाकी कम्युनिस्ट हथियार फेंककर महंगाई, गरीबी, असमानता, भ्रष्टाचार, कुशासन और शोषण के विरुद्ध ईमानदारी से जनजागरण करें, आंदोलन चलाएं, तो वे बड़ी आसानी से जनता का विश्वास अर्जित कर सकते हैं. जो काम पिछले ६ दशक में नहीं हो सका, वह आनेवाले २-३ वर्षों में संभव हो सकता है. भारतीय राजनीति में एक बहुत बड़ा शून्य उत्पन्न हो चुका है. इसे भरने के लिए नक्सलवादी या साम्यवादी क्या ईमानदारी से प्रतिबद्ध हैं? चुनाव उन्हें ही करना है -- एकता या बिखराव, बैलेट या बुलेट.

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