Tuesday, November 16, 2010

जय-जय हे राजा ! जय भ्रष्टाचार !!


लगता है कि हम हिन्दुस्तानियों के रक्त में भ्रष्टाचार का समावेश पूरी तरह हो चुका है. अब न तो भ्रष्टाचार करने वाले शर्म से मुंह छुपाते हैं और ना ही बड़े-बड़े घोटालों की खबरें सुनकर जनता ही उद्वेलित होती है. भ्रष्टाचार में लिप्त होना उतना खतरनाक रोग नहीं है, जितना इसे सामाजिक स्वीकृति मिलना. हमारे डाक्टरों को किसी ऐसी पद्धति के आविष्कार करने की आवश्यकता है जिससे खून में हिमोग्लोबिन, व्हाइट ब्लड सेल, रेड ब्लड सेल, प्लेटलेट कांउट और सुगर की तरह भ्रष्टाचार के भी न्यूनतम और अधिकतम स्तर की जांच हो सके. सरकार यह घोषित करे कि आम जनता, सरकारी कर्मचारी, विधायक, सांसद और मंत्रियों में इसकी मिनिमम और मैक्सीमम वैल्यू कितनी हो. सेवा में आने के पहले इसकी जांच अनिवार्य कर दी जाय. रिपोर्ट में भ्रष्टाचार, वैल्यू रेंज में आने पर ही नियुक्ति पत्र दिया जाय. आज़ादी के बाद भारतवासियों के जिस एक गुण में बेतहाशा वृद्धि हुई है, वह है भ्रष्टाचार. ऐसा नहीं है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे देश के कर्णधार इस रोग से अनजान हों. देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने लोकसभा में विपक्ष के नेता के एक प्रश्न कि पंचवर्षीय योजनाओं के क्रियान्यवन में काफ़ी भ्रष्टाचार हो रहा है; के उत्तर में कहा था - जहां धन खर्च होता है, वहां थोड़ी-बहुत हेराफेरी की संभावना से इंकार नही किया जा सकता, लेकिन सिर्फ़ इसके कारण हम अपनी विकास योजनाओं को नहीं रोक सकते. पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इन्दिरा गांधी की यह स्वीकारोक्ति -- Corruption is a world wide phenomenon - अभी भी पुरानी पीढ़ी के स्मृति पटल पर है. कांग्रेस को भ्रष्टाचार की जननी कहा जा सकता है; लेकिन आश्चर्य तब होता है कि उसका विरोध करके जो विपक्ष सत्ता में आया, वह कांग्रेसी नेताओं से भी दो कदम आगे बढ़ गया. उन्होंने भ्रष्टाचार के इतने ऊंचे और नियमित मापदंड स्थापित किए कि जनता में इसकी प्रतिक्रिया ही समाप्त हो गई. लालू, मुलायम, मायावती, जयललिता, मधु कोड़ा, शिबू सोरेन ..............कितनों का नाम गिनाया जाय, सभी भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे होने के बाद भी जननेता बने हुए हैं. इस कड़ी में सबसे ताज़ा नाम पूर्व केन्द्रीय मंत्री श्री ए. राजा का है. उन्होंने भ्रष्टाचार का वह सर्वोच्च रिकार्ड स्थापित किया है जिसे तोड़ना किसी दूसरे के लिए असंभव तो नहीं, अत्यन्त कठिन अवश्य होगा.
तात्कालीन दूर संचार मंत्री श्री ए. राजा ने मनमाने तरीके से अपनी पसंदीदा कंपनियों को टू जी स्पेक्ट्रम की रेवड़ी बांटी. इस मामले में भारत सरकार की जांच एजेंसी "कैग" के अनुसार जनवरी २००८ में सरकार ने नौ कंपनियों को टू जी स्पेक्ट्रम आवंटित किए. इनसे सरकार को कुल १०७७२.६८ करोड़ रुपए मिले. आवंटन के बाद युनिटेक ने अपनी ६०% और स्वान टेलिकाम ने ४५% हिस्सेदारी विदेशी कंपनियों को बेचकर ९५०० करोड़ रुपए प्राप्त किए, जबकि युनिटेक ने १६५१ करोड़ और स्वान ने १५३७ करोड़ रुपए लाइसेंस फीस के नाम पर सरकार को दिए थे. घोटाले से सरकार को १.७६ लाख करोड़ रुपयों का नुकसान हुआ है. श्री राजा को कितने हजार करोड़ रुपयों का फ़ायदा हुआ है, सिर्फ़ अन्दाज़ा लगाया जा सकता है. मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है. शायद कोर्ट कुछ पता लगा सके !
मान्यवर ए. राजा ने काफ़ी नौटंकी के बाद अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया. पानी सिर के काफ़ी उपर चला गया था. अतः बेमन से उनका त्यागपत्र स्वीकार करना प्रधानमंत्री की मज़बूरी बन गई. प्रश्न यह उठता है कि क्या इस्तीफ़ा ले लेना ही पर्याप्त है? श्री राजा ने देश को १.७६ लाख करोड़ के राजस्व का नुकसान पहुंचाया है. इसकी क्षतिपूर्ति कैसे होगी? अगर श्री राजा चीन में मंत्री होते, तो वहां की सरकार उनके साथ क्या सुलूक करती? वहां भ्रष्टाचार की सज़ा मौत है. लेकिन हमारे लोकतांत्रिक भारत में उन्हें सलाखों के पीछे भी नहीं रखा जा सकता. उनकी पार्टी के अध्यक्ष श्री करुणानिधि अभी भी उनकी पीठ ठोक रहे हैं. घोटाले के हजारों करोड़ रुपयों में से कुछ हजार करोड़ उनके कोष में भी गए ही होंगे.
राष्ट्रमंडल घोटाला, आदर्श कदाचार;
जय-जय हे राजा! जय भ्रष्टाचार!!

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