गत १० नवंबर को भोपाल में श्रीमती सोनिया गांधी पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सर संघचालक श्री सुदर्शन की टिप्पणी पर बवाल मचा हुआ है. कांग्रेसी तो सारी लोकतांत्रिक मर्यादाओं को तोड़कर संघ के कार्यालयों पर विरोध प्रदर्शन के साथ तोड़फोड़ भी कर रहे हैं. ऐसे में संघ द्वारा अपनाया गया संयम सराहनीय है. अभी भी संघ के पास समर्पित कार्यकर्त्ताओं का पूरे देश में एक ऐसा मज़बूत नेटवर्क है जो कांग्रेसियों को उन्हीं की भाषा और शैली में करारा जवाब देने का दमखम रखता है. संघ नेतृत्व के एक इशारे पर वे कांग्रेसियों के दफ़्तर के भी शीशे तोड़ सकते हैं. पर वे ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि वे एक अति अनुशासित संगठन के सदस्य हैं और संघ हिंसा या ऐसे अलोकतांत्रिक गतिविधियों में विश्वास नहीं करता.
श्री सुदर्शन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व प्रमुख रहे हैं. संघ का कोई भी अधिकारी उलूल-जुलूल बातें नहीं करता है. उनके वक्तव्य को यूं ही हवा में उड़ा देने के बदले गंभीरता से विचार करना चाहिए. क्या यह सत्य नहीं है कि श्रीमती सोनिया गांधी विदेशी मूल की महिला हैं और आज की तारीख में भी भारत के साथ-साथ उनके पास इटली की भी नागरिकता है. भारत सरकार की मास्टर कुंजी उनके पास होने के कारण यह सत्य असत्य में परिवर्तित नहीं हो सकता है. श्री सुदर्शन ने उन्हें विदेशी महिला कहकर क्या गलत कहा? कांगेस की यह दुखती रग है. जब भी कोई इसे दबाता है, तो वे बौखला जाते हैं और चाय की प्याली में तूफ़ान मचा देते हैं. वंशवाद के पोषक तत्त्व यह चाहते हैं कि पूरा हिन्दुस्तान यह भूल जाय कि श्रीमती सोनिया गांधी विदेशी मूल की महिला हैं. कांग्रेसी अपने स्वार्थ के कारण यह मानें या न मानें, लेकिन यह भी सच है की सोनिया गांधी की भारत के प्रति निष्ठा हमेशा संदेह के घेरे में रही है. कांग्रेस के दुबारा सत्ता में आने के बाद भारत ने जिस तेजी से अपने राष्ट्रीय हितों की अनदेखी करते हुए अमेरिका की गोद में बैठने की जल्दीबाजी की है, वह किसी से छुपा नहीं है. किसी भी देश को इतना एहसानफ़रामोश नहीं होना चाहिए जितना भारत हो रहा है. रूस ने हमेशा गाढ़े वक्त में भारत की मदद की है. कश्मीर के मुद्दे पर सुरक्षा परिषद में उसने कितनी बार भारत के हित में ’वीटो’ का इस्तेमाल किया है, इसकी गिनती नहीं की जा सकती. वह हमारा अत्यन्त विश्वसनीय सामरिक सहयोगी रहा है, लेकिन आज हमारी विदेश नीति में उसका स्थान कहां है? जितना महत्त्व हम अमेरिका को दे रहे हैं, उसका आधा भी अगर रूस को देते, तो हम अधिक फ़ायदे में रहते. दक्षिणपंथी विचारधारा की भाजपा सरकार के समय भी रूस से हमारे संबंध सर्वाधिक मधुर थे. अमेरिका इस कदर हम पर हावी नहीं था. क्या बिना श्रीमती सोनिया गांधी की सहमति या इशारे के श्री मनमोहन सिंह इतना आगे बढ़ सकते थे कि अपनी सरकार को दांव पर लगाकर अमेरिका से परमाणु समझौता कर लेते? परमाणु समझौता हुए दो साल से ज्यादा हो गए, लेकिन अमेरिकी सहयोग से क्या एक भी परमाणु विद्युत घर की स्थापना हो सकी है? यह समझौता कागजी है और भारत की जनता की आंखों में धूल झोंकनेवाला है. अमेरिका एक बनिया देश है. वह सबसे पहले अपना व्यापारिक हित देखता है. उसके लिए भारत एक मित्र-देश नहीं, बल्कि एक उम्दा बाज़ार है. इसके उलट रूस हमें एक सहज मित्र-राष्ट्र के रूप में मान्यता देता है. वह हमारी आणविक, सामरिक और आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बिना किसी अतिरिक्त शर्तों के आगे आ सकता है. लेकिन हम उसकी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाने से कतराने लगे हैं. श्रीमती सोनिया गांधी के इशारे पर हमारी विदेश नीति पूरी तरह पश्चिम परस्त हो गई है, जो हमारे राष्ट्रीय हितों के प्रतिकूल है.
Saturday, November 13, 2010
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