Friday, November 26, 2010

बिहारःराष्ट्रीय राजनीति की प्रयोगशाला

वैदिक काल से लेकर आजतक, बिहार राष्ट्रीय राजनीति की दिशा तय करता रहा है. कहा जाता है कि जबतक बिहार पिछड़ा रहेगा, भारत तरक्की नहीं कर सकता; जबतक बिहार नहीं सुधरेगा, हिन्दुस्तान नहीं सुधर सकता. इतिहास भी इसकी पुष्टि करता है. देश ही नहीं विश्व को लोकतंत्र की दिशा दिखलाने वाला विश्व का पहला गणतंत्र बिहार में ही था - वैशाली का लिच्छवी गणतंत्र. जिस काल को भारत का स्वर्ण-युग कहा जाता है, वह बिहार के सर्वोच्च विकास का ही युग था. चाणक्य-चन्द्रगुप्त और सम्राट अशोक के काल में भारत को सोने की चि्ड़िया कहकर संबोधित किया जाता था. शिक्षा में जहां नालन्दा विश्वविद्यालय ने विदेशियों को भी अभिभूत किया था, वही राजनीति और अर्थशास्त्र में चाणक्य द्वारा स्थापित ऊंचे मापदंड आज भी मार्गदर्शन प्रदान करते हैं. अफ़गानिस्तान से लेकर जापान, चीन से लेकर वियतनाम, लंका से लेकर म्यामार, थाईलैंड से लेकर कोरिया, कंबोडिया से लेकर इंडोनेशिया - एशिया के इतने बड़े भूभाग पर शताब्दियों तक बिना एक भी सैनिक को भेजे भारत ने अपनी सांस्कृतिक पताका फहराई है, इसका श्रेय बिहार को ही जाता है. अपने अहिंसा के सिद्धांत से विश्व और मानवता की सेवा करने वाले महात्मा बुद्ध को ज्ञान बिहार में ही मिला था. विश्व-विजेता सिकन्दर के पूर्ण विश्व-विजय का सपना मगध (बिहार) ने ही चूर-चूर किया था. उसे पंजाब से ही वापस लौट जाने के लिए मगध की विशाल सैन्य-शक्ति और चाणक्य-नीति ने ही विवश किया था. उसके सेनापति सेल्यूकस ने राजा बनने के बाद सिकन्दर के अधूरे सपने को पूरा करने का निर्णय लिया. भारत में पहुंचने के बाद उसे भी समर्पण करना पड़ा. अपनी पुत्री हेलेन को चन्द्रगुप्त से ब्याहकर उसे ऐतिहासिक अनाक्रमण संधि करने के लिए वाध्य होना पड़ा. विदेशियों के लगातार आक्रमण और स्वदेशी राजाओं के क्षुद्र स्वार्थ ने भारत के संघीय स्वरूप को बहुत चोट पहुंचाई. राजा रजवा्ड़ों और रियासतों में बिखरा भारत विदेशियों का चरागाह बन गया. हजार वर्ष की वह अवधि, बिहार ही नही, भारत के भाल पर भी कलंक था. लेकिन बिहार ने हार नहीं मानी. १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता-संग्राम में वीर कुंवर सिंह के नेतृत्व में बिहार ने अंग्रेजों से लोहा लिया. नीलहों (अंग्रेज) के खिलाफ़ महात्मा गांधी के चंपारन सत्याग्रह को कौन भूल सकता है? दक्षिण अफ़्रिका से लौटने के बाद महात्मा गांधी ने पहला आंदोलन चंपारण में ही शुरू किया था, जिसे अभूतपूर्व सफलता मिली. असहयोग आंदोलन की पहली प्रयोगशाला बिहार ही था. आज़ादी के बाद कांग्रेसी कुशासन से मुक्ति के लिए जब पूरा देश छटपटा रहा था, तो बिहार ने ही दिशा दी. लोकनायक जय प्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति का बिगुल बिहार से ही फूंका गया. १९४७ के बाद सबसे बड़े आंदोलन का केन्द्र बिहार ही बना. अभूतपूर्व जनांदोलन को कुचलने के लिए श्रीमती इन्दिरा गांधी को १९७५ में आपातकाल थोपना पड़ा. अंग्रेजी हुकूमत को भी लज्जित करनेवाली यातनाएं कांग्रेसी सरकार ने विरोधियों को दी. जय प्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेई, लाल कृष्ण आडवानी, जार्ज फर्नांडिस आदि राष्ट्रीय स्तर के नेताओं को भी नहीं बक्शा गया. लाखों बेकसुरों को जेल में ठूंस दिया गया. लेकिन बिहार ने समर्पण नहीं किया. संपूर्ण क्रान्ति की मशाल जलाए रखी. नीतीश कुमार और सुशील मोदी उसी आंदोलन की देन हैं. लालू यादव की राजनीतिक यात्रा भी उसी आंदोलन से शुरू हुई थी, लेकिन सत्ता की मलाई के लिए वे उसी कांग्रेस की गोद में बैठ गए, जिसने उनकी पीठ पर कई बार लाठियां बरसाई थी. वक्त आने पर बिहार ने कांग्रेस का सफाया ही कर दिया. कांग्रेसी सूर्य भी अस्ताचल को जा सकता है, इसका एहसास देशवासियों को बिहार ने ही १९७७ में कराया था.
दुर्भाग्य से कुछ बीमारियां भी बिहार में पनपीं और देशव्यापी बन गईं. इनमें जातिवाद और भ्रष्टाचार की उत्त्पत्ति का स्रोत बिहार को माना जा सकता है. कांग्रेसी राज और लालू राज ने इसे भरपूर खाद पानी दिया. अतुलित खनिज सम्पदा, उपजाऊ जमीन और मेधावी बिहार (जिसमें झारखंड भी शामिल है) विकास की दौड़ में पिछड़ता गया, पिछड़ता गया. स्वार्थी राजनेताओं ने अपने परिवारवाद, वंशवाद और तुच्छ लाभ के लिए बिहार को माफ़ियाओं, भ्रष्टाचारियों, अपराधियों और दुराचारियों का अभयारण्य बना दिया. लेकिन ५ साल पहले बिहार ने स्वयं सारी गन्दगी साफ़ करने का निर्णय लिया और एन.डी.ए. को विधान सभा चुनाओं में स्पष्ट बहुमत दिया. नीतीश के नेतृत्व में जनता दल (यू) और भाजपा की सरकार ने पहली बार ईमानदारी से अपने सीमित संसाधनों का उपयोग करते हुए विकास को प्राथमिकता दी. परिणामस्वरूप जनता ने इस चुनाव में दिल खोलकर एन.डी.ए. को समर्थन दिया. इतनी सीटें तो इमर्जेंसी के बाद जनता पार्टी को भी नहीं मिली थीं - तीन चौथाई बहुमत! है न आश्चर्य की बात. जातिवादी लालू २२ सीट पाकर मुंह छुपाए घर में बैठे हैं. उनकी पत्नी और राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी दोनों यादव बहुल क्षेत्रों - राघोपुर और सोनपुर से बुरी तरह पराजित हो चुकी हैं. अवसरवादी पासवान ३ सीटें पाकर बौखलहाट में चुनाव में धांधली का आरोप लगा रहे हैं. युवराज राहुल गांधी की कांग्रेस ४ पर सिमट गई है. कभी मुख्य विपक्षी रही कम्यूनिस्ट पार्टी १ सीट लेकर हाशिए पर पहुंच चुकी है. मायावती का दलित कार्ड पूरी तरह बेअसर रहा. नीतीश और मोदी की जोड़ी ने २४३ में से २०६ सीटें (जनता दल यू-११०, भाजपा-९१) जीतकर सारी राजनीतिक भविष्यवाणियों को ध्वस्त कर दिया. बिहार की जनता ने जातिवाद, भ्रष्टाचार, गुंडाराज, वंशवाद, परिवारवाद और आतंकवाद को पूरी तरह नकारते हुए पूरे देश को एक महान संदेश दिया है. वैसे भी बिहार से उठी आवाज़ देर-सवेर पूरे मुल्क की आवाज़ बनती ही है. राष्ट्रहित में संकीर्णताओं को त्यागने का यही सही समय है. बुद्ध ने विवेकानन्द से सहमति जता दी है --
उठो, जागो और तबतक मत रुको, जबतक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाय.


1 comment:

  1. As indicated in your blog Bihar had been the boiling pot of change in India but for the past few years it had fallen way back than the rest of India as a result of cast politics played by Lalu Yadav. Credit now goes to the people of Bihar who have categorically rejected the politics of rhetoric and chosen the candidate who genuinely cares about the progress of Bihar and believes that action speaks louder than words. For Bihar I believe it was Dushahra in reality when the election results were declared for that was the day when once good prevalied over the evil.

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