Wednesday, November 10, 2010

ओबामा के बदलते चेहरे

भारत-यात्रा के दौरान ओबामा को देखकर मुझे बरबस स्व. इन्दिरा गाँधी की याद आ गई. चुनाव के दौरान वे जहां जाती थीं, अपना वेश, शैली और कथन भी उसी के अनुसार ढाल लेती थीं. जब वे बिहार में जनसभा को संबोधित करती थीं, तो सिर पर पल्लू रखना नहीं भूलती थीं और जब बंगाल में जाती थीं, तो, तो उल्टा पल्लू ले लेती थीं. आदिवासी इलाकों के दौरों के समय वे आदिवासियों के साथ नृत्य भी कर लेती थीं. जनप्रिय नारों, जैसे - गरीबी हटाओ - के माध्यम से उन्होंने एक लंबी अवधि तक भारत पर शासन किया. आज़ादी के ६३ वर्षों के बाद भी देश से गरीबी कितनी हटी, यह सभी को मालूम है, लेकिन इस लोकलुभावन नारे ने कांग्रेस को कई बार संजीवनी अवश्य प्रदान की. अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भी भारत के दौरे पर इसी शैली को अपनाते हुए नज़र आए. मुंबई में वे राष्ट्रपति के रूप में कम व्यापारी के रूप में अधिक दिखे. पहली बार किसी अमेरिकी राष्ट्रपति ने भारत के उद्योगपतियों के आगे अपनी झोली फैलाई. स्पाइस जेट ने अमेरिकी विमान खरीदने के लिए उन्हें आश्वस्त किया, तो रिलायंस ने पावर प्रोजेक्ट के लिए कल-पूर्जे खरीदने का वादा किया. टाटा समूह ने पूंजी निवेश का आश्वासन दिया, तो साफ़्टवेयर कंपनियों ने अमेरिकियों को अधिक रोज़गार देने का वचन दिया. मुंबई में वे अपनी पत्नी के साथ बच्चों के बीच थिरके भी. आतंकवादियों द्वारा आंशिक रूप से नष्ट किए गए होटल में रुककर उन्होंने यह संदेश देने का प्रयास किया कि वे आतंकवाद के विरोधी हैं, लेकिन जिस पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकवाद ने सैकड़ों निर्दोषों की बलि ली थी, उसके नाम तक का भी उच्चारण करने से कतरा गए. उनके लिए अमेरिका में आतंकवादी हमला ही आतंकवाद की श्रेणी में आता है. उन्होंने मुम्बई में अमेरिकी निजी घराने के उद्योगपतियों के ब्रांड एम्बैसडर के रूप में ही स्वयं को पेश किया. वे कितना सफल रहे, यह तो वक्त ही बताएगा, लेकिन किसी राष्ट्राध्यक्ष के लिए व्यवसाइयों और उद्योगपतियों के हित में दूसरे देश में जाकर झोली फैलाकर मांगना कही से भी गरिमामय नहीं लगा. हम भारतीय इस बात पर अवश्य गर्व कर सकते हैं कि हमने अपनी स्थिति कम से कम इतनी तो अवश्य सुधार ली है कि विश्व की एकमात्र महाशक्ति को भी हमारे सामने झोली फैलाने के लिए विवश होना पड़ा. पहले यह आदत हमारी थी.
अपने दिल्ली प्रवास के दौरान मिस्टर ओबामा बिल्कुल बदले नज़र आए. यहां वे एक चतुर राजनेता और कुशल वक्ता की भूमिका में थे. संसद के केन्द्रीय कक्ष में भारत के सांसदों को संबोधित करते हुए अपने ३५ मिनट के संबोधन में उन्होंने ३६ बार तालियां बजवाईं. लालकृष्ण आडवानी भी ताली बजा रहे थे और सीताराम येचूरी भी. कांग्रेसी तो सिर्फ़ ताली बजाने के लिए ही बुलाए गए थे. अपने संबोधन में भी उन्होंने कोई ठोस आश्वासन नहीं दिया. आतंकवाद पर उनका वक्तव्य औपचरिक था, तो सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता के विषय में उन्होंने सिर्फ़ विचार व्यक्त किया कि इस महान राष्ट्र को स्थाई सदस्यता मिलनी चाहिए. इसके लिए अपनी ओर से पहल करने के लिए उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा. उन्होंने यह तो इच्छा व्यक्त की कि भारत की साफ़्टवेयर कंपनियां अधिक से अधिक अमेरिकियों को रोज़गार दें, लेकिन अपने देश के कई प्रान्तों द्वारा भारत से आउटसोर्सिंग पर लगाए गए प्रतिबंध पर उन्होंने पूरी तरह चुप्पी साध ली. वे ५० हजार अमेरिकियों को रोज़गार दिलाने का लक्ष्य लेकर भारत आए थे, लेकिन एक भी भारतीय को रोज़गार दिलाने का झूठा वादा भी नहीं किया.
प्रिन्ट मीडिया, सरकारी मीडिया और टीवी चैनलों ने मिस्टर बराक ओबामा को परमात्मा का दर्जा देने के लिए अपने को समर्पित कर दिया. राहुल गाँधी का उनके साथ डिनर लेना मुख्य समाचार बन गया. ऐसा लग रहा था कि उनके साथ डिनर लेने से सीधे मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगी. ओबामा और मिशेल की हर अदा पर मीडिया फ़िदा था. पता नहीं हम भारतवासियों का स्वाभिमान कब जागृत होगा?
ओबामा अपनी नाटकबाज़ी के लिए ही जाने जाते हैं. इसी के बल पर वे राष्ट्रपति भी बने. भारत में भी उनकी नाटकबाज़ी हिट रही. यह बात दूसरी है कि स्वयं उनके देश में अब उनका असली चेहरा सामने आने लगा है. तभी तो कुछ सप्ताह पूर्व हुए मध्यावधि चुनाव में उनकी पार्टी को करारी शिकश्त मिली है.

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