Wednesday, February 6, 2013

विश्वरूपम का विरोध


            अमूमन मैं नई फिल्में नहीं देखता। बेटे की अनुशंसा पर मैंने आमिर खान की दो फिल्में - ‘थ्री इडियट्स’ और ‘तारे जमीं पर’ देखी थी। दोनों फिल्में बहुत अच्छी थीं। आमिर खान के बारे में मेरे मन में अच्छी धारणा बनी। मुझे ऐसा लगा कि राज कपूर के बाद हिन्दी फिल्म उद्योग में एक ऐसा निर्माता-अभिनेता आया है जिसके नाम पर फिल्में देखी जा सकती हैं। मेरा प्रवासी बेटा बनारस आया था। उन्हीं दिनों बनारस में फिल्म ‘डेल्ही-वेल्ही’ का प्रदर्शन हो रहा था। फिल्म आमिर खान की थी। मैं और मेरा बेटा - दोनों आमिर खान के प्रशंसक थे। बेटे ने फिल्म देखने की इच्छा प्रकट की। मैं भी साथ हो लिया। हमलोगों ने कुल २० मिनट तक किसी तरह फिल्म देखी। बेटे ने मेरी ओर देखा और मैंने उसकी ओर। हम एक दूसरे से आंख मिलाकर बात करने की स्थिति में नहीं थे। बेटा उठकर बाहर जाने लगा। मैं भी उसके पीछे-पीछे बाहर आ गया। फिल्म के डायलाग को बेटे के साथ सुनना कान में पिघले हुए सीसे को डालने के समान था। सभी यंत्रणाओं को सहते हुए २० मिनट तक  हम फिल्म को इसलिए देखते रहे कि अश्लील  गन्दे संवादों एवं दृश्यों का दौर शीघ्र समाप्त हो जाएगा। लेकिन हो रहा था ठीक इसके विपरीत। जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ रही थी, संवाद उतने ही गन्दे तथा दृश्य उतने ही अश्लील होते जा रहे थे। लेकिन इस फिल्म का किसी संगठन, किसी मज़हब या किसी समुदाय ने विरोध नहीं किया। यह फिल्म धड़ल्ले से देश के सिनेमाघरों में प्रदर्शित की जाती रही। ऐसी गन्दी फिल्म और ऐसे गन्दे संवादों से ज़िन्दगी में इसके पहले कभी पाला नहीं पड़ा था।
कल मैंने आजकल की सर्वाधिक विवादास्पद फिल्म ‘विश्वरूपम’ देखी। यह एक बहुत साफ-सुथरी और अच्छी फिल्म है।  इसकी फोटोग्राफी, विशेष रूप से ऐक्शन-दृश्यों की, लाज़वाब है। निर्देशन और कमल हासन का अभिनय अति उत्तम है। विषय समसामयिक है। कहानी दर्शकों को अन्त तक बांधे रहती है। यह फिल्म पूरे समाज को विशेष रूप से मुस्लिम समाज को एक अच्छा संदेश देती है। मैंने पूरी फिल्म में यही ढूंढ़ने की कोशिश की, कि आखिर वह कौन सा संवाद और कौन सा दृश्य है जिससे आहत होकर मुस्लिम समाज इसका इतना उग्र विरोध कर रहा है। माइक्रोस्कोपिक इन्स्पेक्शन के बाद भी मुझे ऐसा कुछ भी नहीं मिला। इस फिल्म में न तो इस्लाम के खिलाफ़ एक भी शब्द है और ना ही पवित्र ग्रन्थ कुरान के खिलाफ़। हां, आतंकवादियों ने जिस तरह इस्लाम और कुरान को आधार बनाकर अपनी मर्जी से अपने अनुसार ‘ज़िहाद’ को परिभाषित किया है, उसका सजीव  चित्रण फिल्म में अच्छे ढंग से किया गया है। यह कोई छिपा सत्य नहीं है कि अल-कायदा या तालिबान द्वारा फैलाई गई आतंकवादी हिंसा के मूल में उनके द्वारा परिभाषित इस्लाम ही है। धर्म और ज़िहाद की घुट्टी पिलाकर ही वे आत्मघाती मानव बम अर्थात फ़िदाइन तैयार करते हैं। विश्वभर के उदारवादी मुसलमान इसे गलत बताते हैं लेकिन कट्टरवादी इस ज़ायज़ ठहराते हैं। फिल्म में अफ़गानिस्तान में फल-फूल रहे आतंकवाद, इसका कारण और इसके भयानक दुष्परिणाम को बहुत अच्छे ढंग से चित्रित और प्रस्तुत किया गया है। इसमें यह दिखाया गया है कि आणविक तकनिकी (Nuclear Technology) यदि आतंकवादियों के हाथ लग गई, तो कितने भयावह दुष्परिणाम हो सकते हैं। पूरी फिल्म में हिन्दुस्तान के मुसलमानों का कहीं ज़िक्र तक नहीं है। समझ में नहीं आता कि हिन्दुस्तान के मुल्ला इसका विरोध किस आधार पर कर रहे हैं। फिल्म के अन्त में यह स्पष्ट होता है कि जिस जासूस ने कथित इस्लामी आतंकवाद को अमेरिका में जाकर शिकस्त दी, वह हिन्दुस्तानी है और उसका नाम ‘विश्वरूपम’ है। शायद यही बात मुल्लाओं को खटक रही है और मेरी समझ से इसी कारण वे इस फिल्म का ज़ोरदार विरोध कर रहे हैं।

Wednesday, January 30, 2013

शाहरुख का सच


       शाहरुख खान का एक लेख एक अमेरिकी पत्रिका में प्रकाशित हुआ है जिसमें उन्होंने भारत में मुसलमानों से भेदभाव का आरोप लगाया है। उनके इस रहस्योद्घाटन से आहत पाकिस्तान के विदेश मंत्री ने भारत सरकार से शाहरुख खान को सुरक्षा प्रदान करने का अनुरोध किया है और आतंकवादी सरगना हाफ़िज़ सईद ने उन्हें भारत छोड़कर पाकिस्तान में बसने की सलाह दी है। भारत में भी कट्टर मुसलमानों के अतिरिक्त उदारवादी मुसलमानों ने भी शाहरुख खान के वक्तव्य से सहमति प्रकट की है।
इस समय मुसलमानों के कुछ कथित रहनुमाओं ने आज़ादी की पूर्व वाली स्थिति का निर्माण करने का बीड़ा उठाया है। इस अभियान के तहत हैदराबाद के कुख्यात विधायक ओवैसी ने सार्वजनिक भाषण दिया कि यदि भारत सरकार १५ मिनट के लिए पुलिस को हटा ले, तो भारत के मुसलमान सौ करोड़ हिन्दुओं का सफ़ाया कर देंगे। उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ मंत्री भारत माता को डायन कहते हैं। भारत सरकार द्वारा पद्म पुरस्कार से नवाज़े गए चित्रकार मकबूल फ़िदा हुसेन भारत माता और हिन्दू देवी-देवताओं के नग्न चित्र बनाकर चित्र-प्रदर्शनी में सजाते हैं। मुस्लिम समुदाय इसकी निन्दा नहीं करता। कारण - मुस्लिम समुदाय में व्याप्त कुछ अलगाववादी तत्त्व इन सेलिब्रेटी कलाकारों और नेताओं के वक्तव्य को अपनी तहरीर में बार-बार दोहराकर जनमानस में अलगाववादी भावनाएं भरने में सफल हो जाते हैं। मुस्लिम समुदाय में असुरक्षा की भावना भरने के लिए शाहरुख खान जैसे तत्त्व ही जिम्मेदार हैं। समझ में नहीं आता कि जबतक भारतीय जनता उनको सिर-आंखों पर बिठाकर रखती है, तबतक तो वे सर्वजन की बात करते हैं लेकिन जैसे ही उनका कैरियर ढलान पर पहुंचता है, उन्हें अपने एवं अपने संप्रदाय के साथ भेदभाव नज़र आने लगता है। भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान अज़हरुद्दीन, जबतक कप्तान रहे, प्रसन्न रहे लेकिन जैसे ही हेन्सी क्रोनिए के साथ मैच फिक्सिंग में उनकी संलिप्तता के प्रमाण सामने आए, उन्होंने यह कहना शुरु कर दिया कि मुसलमान होने के कारण उन्हें फंसाया गया है। शाहरुख खान का भी कैरियर ढलान पर है। वे इसे पचा नहीं पा रहे हैं।
अपने क्षुद्र स्वार्थों में फंसे ये लोग उस देश और उस समुदाय पर अनर्गल आरोप लगा रहे हैं जिसने अपने हितों की बलि देकर इन्हें प्रोत्साहित किया है। क्या यह सत्य नहीं है कि धर्म के आधार पर देश के विभाजन के बाद भी भारत की सरकार और बहुसंख्यक हिन्दू समाज ने भारत में रहने के इच्छुक १२ करोड़ मुसलमानों को सुरक्षा प्रदान की? आज भी भारत के मुसलमान जितना इस देश में सुरक्षित हैं, उतना विश्व के किसी भी देश में नहीं। जिस शाहरुख खान ने भारत में मुसलमानों के साथ भेदभाव की शिकायत की है, उसी शाहरुख खान के कपड़े तक अमेरिका के हवाई अड्डे पर सुरक्षा-जांच के नाम पर उतरवा दिए गए थे; फिर भी वे अमेरिका जाने के लिए लालायित रहते हैं और जिस देश और समुदाय ने उन्हें सुपर स्टार बनाया उसके खिलाफ़ अनर्गल प्रलाप करते है। 
जिस देश में राष्ट्रपति के सर्वोच्च पद पर तीन-तीन मुसलमान चुने जा चुके हों, ब्यूरोक्रेसी से लेकर राजनीति, न्यायपालिका से लेकर कार्यपालिका के शीर्ष तक जिस संप्रदाय के सदस्य प्रतिष्ठित रहे हों, वहां यह आरोप लगाया जाता है कि धर्म के नाम पर मुसलमानों से भेदभाव किया जाता है। यह आश्चर्यजनक ही नहीं अत्यन्त दुखद और शोचनीय भी है। तथ्य यह है कि संगठित वोट बैंक होने के कारण मुसलमानों को विशेषाधिकार प्राप्त है जो हिन्दू समुदाय या किसी अन्य अल्पसंख्यक संप्रदाय को प्राप्त नहीं है। उन्हें उनके धार्मिक क्रिया-कलापों के लिए भी सरकारी खज़ाने से धन उपलब्ध कराया जाता है। हज़ यात्रा के लिए हजारों करोड़ रुपयों की सब्सिडी दी जाती है, जो टैक्स के माध्यम से बहुसंख्यक जनता से वसूला जाता है। हिन्दुओं के सभी बड़े मन्दिरों को सरकार ने अधिगृहित कर रखा है, वहां के चढ़ावे पर भी सरकार का ही अधिकार है। लेकिन कोई भी मस्ज़िद सरकारी नियंत्रण में नहीं है। दिल्ली के ज़ामा मस्ज़िद को पाकिस्तानी झंडा लगाने की भी अनुमति प्राप्त है। शुक्रवार की दोपहर में हर मुसलमान को सरकारी महकमों में दो घंटे की शार्ट लीव नमाज़ पढ़ने के लिए दी जाती है। ऐसी सुविधा किसी अन्य धर्मावलंबी को नहीं मिलती। मुसलमानों के मदरसों को सरकारी अनुदान मिलता है और हिन्दुओं के सरस्वती शिशु मन्दिरों को बन्द कराने का प्रयास किया जाता है। इस देश ने जो सम्मान दिलीप कुमार (युसुफ़ खान), सलमान खान, शाहरुख खान, आमिर खान सैफ़ अली खान और मुहम्मद रफ़ी को दिया है, उतना सम्मान क्या राज कपूर, देवानन्द, राजेन्द्र कुमार, अजय देवगन, कुन्दन लाल सहगल, मुकेश या किशोर कुमार को दिया है? सलमान खान मुंबई में सड़क के किनारे सो रहे चार लोगों को अपनी गाड़ी चढ़ाकर मार डालता है, उसका कुछ नहीं होता, सैफ़ अली खान रेस्टोरेन्ट में एक संभ्रान्त  प्रवासी भारतीय के दांत अपने घूंसे से तोड़ देता है, पुलिस गिरफ़्तार भी नहीं करती। संविधान में संसोधन द्वारा हिन्दू कोड बिल पास करके हिन्दुओं के धार्मिक मामलों में खुला हस्तक्षेप किया जाता है लेकिन मुस्लिम पर्सनल ला को छूआ भी नही जाता। भारत के अतिरिक्त विश्व के किस देश में मुसलमानों को ऐसी सुविधाएं सहज ही उपलब्ध हैं?
वास्तविकता यह है कि भारत में मुसलमानों को विशेषाधिकार प्राप्त है जिसके कारण फिल्म इन्डस्ट्री से लेकर कला-संगीत के क्षेत्र में भी उनका प्रतिनिधित्व उनकी जनसंख्या से अधिक है। भेदभाव की बात करने वाले सुनियोजित ढंग से इस देश की अखंडता, एकता और धार्मिक सहिष्णुता पर प्रहार कर रहे है; साथ ही देशभक्त मुसलमानों की निष्ठा भी संदिग्ध कर रहे हैं।

Tuesday, January 22, 2013

वंशवाद की विष-बेल



जयपुर में हाल ही में संपन्न कांग्रेस के चिन्तन शिविर में राष्ट्र की समस्याओं पर क्या चिन्तन हुआ, यह तो समझ के परे रहा; हां, एक चीज समझ में अवश्य आई कि प्रचार माध्यमों द्वारा प्रचारित इस चिन्तन शिविर में बस एक ही चिन्तन हुआ - राहुल गांधी की ताजपोशी कैसे हो। उन्हें कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनाकर कंग्रेसियों ने अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली। समझ में नहीं आता कि राहुल गांधी जब कांग्रेस के महासचिव थे, तब भी अध्यक्ष से कम थे क्या? अगर उन्हें बनाना ही था तो अध्यक्ष बनाया जाता, लेकिन वहां तो उनकी मां बैठी थीं जिन्हें अपने पुत्र पर भी विश्वास नहीं है। कांग्रेसियों ने जिस ताम-झाम और भावुकता से युवराज की ताजपोशी की, उससे यह तो साबित हो ही गया कि कांग्रेस में एक भी ऐसा नेता नहीं है जिसके अंदर स्वाभिमान और राष्ट्र के प्रति प्रेम हो। आखिर राहुल गांधी के पास राजीव-सोनिया का पुत्र होने के अतिरिक्त कौन सा गुण है, जिससे प्रभावित होकर कांग्रेसियों ने उन्हें युवराज के पद पर अभिषिक्त किया? चाटुकारिता और वंशवाद की बढ़ती हुई यह विष-बेल कही हमारे लोकतंत्र को ही न चाट जाए।
जिस दिन कांग्रेस ने राहुल गांधी को अधिकृत रूप से अपना युवराज घोषित किया उसके दूसरे ही दिन शिवसेना ने उद्धव ठाकरे को अपना अध्यक्ष बनाया, तीसरे दिन इंडियन लोक दल के अध्यक्ष ओम प्रकाश चौटला जी अपने पुत्र अजय चौटाला जी के साथ तिहाड़ जेल की शोभा बढ़ाने पहुंच गए। वंशवाद के पोषक चौटाला जी भारत के (अ)भूतपूर्व उप प्रधान मंत्री देवी लाल के (कु)पुत्र हैं। उधर पटना में भी राजद के अध्यक्ष पद पर आठवीं बार लालू यादव की ताजपोशी हुई। अभी उनका पुत्र युवराज के पद के लिये अनुभवहीन है। अतः उसे राबड़ी देवी के साथ अनुभव बटोरने के लिए छोड़ा गया है। जिन लोगों ने अपना राजनैतिक जीवन ही वंशवाद के विरुद्ध घोषित संघर्ष के माध्यम से शुरु किया था, वे ही कालान्तर में वंशवाद के पोषक बन गए। कोई भी राजनेता अपने पुत्र या पुत्री के अतिरिक्त किसी योग्य नेता के लिए अपनी कुर्सी छोड़ने के लिए तैयार नहीं। चाहे वह मुलायम सिंह हों या प्रकाश सिंह बादल, नवीन पटनायक हों या अजीत सिंह, फ़ारुख अब्दुल्ला हों या करुणानिधि - वंशवाद के इन पुरोधाओं को दूसरा कोई उत्तराधिकारी मिलता ही नहीं। भारतीय जनमानस के मानस से अभी भी राजशाही मिटी नहीं है। कही न कही गुलामी की मानसिकता से हम सभी ग्रस्त हैं । यह लोकतंत्र के लिए कही से भी शुभ संकेत नहीं है।
राहुल गांधी को भारत के अगले प्रधान मंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया जा रहा है। बहुत ढूंढ़ने पर भी उनमें किसी प्रतिभा के दर्शन नहीं होते। अपनी दादी, पिता और माता की परंपरा का निर्वाह करते हुए उन्होंने भी कभी किसी विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्राप्त नहीं की। अपनी प्रतिभा के बल पर वे एक क्लर्क की भी नौकरी नहीं पा सकते, लेकिन कांग्रेस के अध्यक्ष और देश के प्रधान मंत्री अवश्य बन सकते हैं। देश की विदेश नीति, अर्थनीति, गृह नीति-जैसे आतंकवाद और नक्सलवाद पर उनके स्पष्ट विचारों के लिए नौ साल से लोकसभा तरस रही है। भ्रष्टाचार और कुशासन पर उनके द्वारा सार्थक प्रयास के लिए भारत की जनता टकटकी लगाए हुए है। दिल्ली में गैंग रेप हुआ, युवराज खामोश रहे, सीमा पर पाकिस्तानी हमारे दो सैनिकों के सिर काट ले गए, युवराज ताजपोशी की तैयारी में मगन रहे। आमिर खान से कम नौटंकी नहीं करते हैं हमारे युवराज। कभी क्लीन शेव्ड नज़र आते हैं, तो कभी दाढ़ी बढ़ाए हुए; कभी बुन्देलखण्ड में आदिवासियों के साथ बाजरे की रोटी खाते हुए दीखते हैं, तो कभी कैलिफ़ोर्निया की गर्ल फ़्रेन्ड के साथ पार्टी का मज़ा लेते हुए। वाह रे कांग्रेसी। उन्हें एक विदेशी का नेतृत्व स्वीकार करने में भी कोई परहेज़ नहीं और एक गुड्डे को युवराज मानने से भी कोई एतराज़ नहीं। 
       

Wednesday, January 16, 2013

संस्कार और मर्यादा



अब कुछ कहा जा सकता है, तूफान कुछ थम सा गया है, वातावरण कुछ शान्त सा है और युवा कुछ सुनने की स्थिति में हैं। 
कोई भी समाज या देश तबतक प्रगति नहीं कर सकता जबतक उसके पास चरित्र का बल नहीं होता। अपने देश की समस्त समस्याओं का निदान हमारे पास है, परन्तु हम जान बूझकर उसकी उपेक्षा करते हैं। गत वर्ष १६ दिसंबर को दिल्ली में घटी बलात्कार की अमानवीय और लज्जास्पद घटना के विरोध में देशव्यापी प्रदर्शन हुए, करोड़ों मोमबत्तियां जलाई गईं और अनगिनत लेख लिखे गए परन्तु किसी ने कोई सकारात्मक समाधान नहीं सुझाया। किसी ने अगर मूल समस्या की तह में जाकर समाधान देने की कोशिश की, तो मीडिया ने उसके वक्तव्य की एक पंक्ति या आधी पंक्ति को सुर्खियों में लाकर गलत ढंग से पेश किया। उसे चतुर्दिक विरोध और गालियों का सामना करना पड़ा और चुप हो जाना पड़ा। प्रचार तंत्रों के व्यवहार को देखकर यह मानना पड़ा कि विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सिर्फ मीडिया वालों का ही अधिकार है। सामान्य जनता या तो भेड़चाल में विश्वास करे, या फिर चुप्पी साध ले अन्यथा उसे अपमानित होना ही पड़ेगा। कौन कहता है कि देश को सरकार चला रही है? वास्तव में सरकार को ही नहीं, युवा जनता को भी देश के अनउत्तरदायी टी.वी. चैनल चला रहे हैं। विषयान्तर हो गया। मूल विषय पर लौट के आते हैं।
संस्कार और मर्यादा हमारी संस्कृति के दो ऐसे अनमोल धरोहर हैं, जिसके पास हमारी हर समस्या का समाधान है। देश का युवा वर्ग जिसकी उम्र २५ से ५० के बीच में है, देश को नई दिशा दे सकता है। इस युवा वर्ग को ही लक्ष्य करके योजनाबद्ध ढंग से लिविंग टूगेदर, यौन शिक्षा, गे कल्चर, विवाह पूर्व यौन संबन्ध, विवाहोत्तर यौन संबन्ध, ब्वाय फ्रेन्ड, गर्ल फ्रेन्ड कल्चर को पूरे देश में फिल्मों और टीवी चैनलों के माध्यम से इस तरह प्रचारित किया गया कि इस पीढ़ी को संस्कार और मर्यादा घोर रुढ़िवादी और प्रगति विरोधी शब्द प्रतीत होने लगे। आज़ादी का अर्थ उछृंखलता हो गई। मुंबई के पुलिस कमिश्नर सत्यपाल ने बिल्कुल सही कहा है कि बलात्कार के मुख्य कारण यौन शिक्षा, फिल्मों और टेलीविजन पर विवाह पूर्व/पश्चात दिखाए जाने वाले यौन संबन्ध और नारी की अश्लीलता का पूर्ण चित्रण है। सत्यपाल जी का यह वक्तव्य अगर १५ दिन पहले आया होता तो न्यूज चैनल वालों ने उन्हें नौकरी से निकलवा दिया होता। उन्होंने अपना वक्तव्य देने के लिए सही समय का चुनाव किया, जैसा मैंने यह लेख लिखने के लिए किया।
क्या फिल्मों और टेलीविजन को जनता के सामने हर चीज परसने की अनुमति दी जा सकती है? क्या कोई विज्ञापन बिना नग्नता के प्रदर्शन के नहीं दिखाया जा सकता? चाहे वह पेन्ट का विज्ञापन हो, या मोबाइल का, टीवी का विज्ञापन हो या कार का, साबुन का विज्ञापन हो या स्प्रे पर्फ़्यूम का .........ऐसा नहीं लगता कि हम आयातित कन्डोम का विज्ञापन देख रहे हों? किस हिन्दुस्तानी की हिम्मत है कि वह डेल्ही-वेल्ही, फैशन या डर्टी पिक्चर अपनी बहु-बेटियों के साथ देख सके? ऐसी फिल्मों और इसके किरदारों को राष्ट्रीय पुरस्कार दिए जाते हैं। क्या इस देश में कोई सेन्सर बोर्ड है भी? क्या कर रही है हमारी सरकार? किस दिशा में धकेला जा रहा है हमारी युवा पीढ़ी को?
आज़ादी के बाद हमने अवश्य प्रगति की है परन्तु किस मूल्य पर? हमने साफ़्टवेयर इंजीनियरों की एक विशाल फ़ौज़ पैदा की है जिसके पास औसत बुद्धि के अलावा कुछ नहीं है और जिसका विश्वास माल कल्चर के अलावा किसी कल्चर में नहीं है? मैकडोनल्ड्स, के.एफ़.सी और पिज़्ज़ा हट उनके ठिकाने हैं तथा फटे हुए जिन्स उनके परिधान हैं। भारत का एक युवा, भले ही लाखों रुपए का पैकेज पा रहा हो, पहनता है एक ही जिन्स, हफ़्तों तक। न उसे गन्दगी की चिन्ता है न धूल-गर्द समेट रही मोहरी की। यही कारण है कि आज़ाद भारत ने एक भी टैगोर, सी.वी.रमन या जे.सी.बोस पैदा नहीं किया। लड़कियों ने तो साड़ी और सलवार सूट का पूरी तरह परित्याग कर दिया है। चमड़े से चिपका और कमर के नीचे अवस्थित उनका जिन्स आगे की ओर ज़रा सा झुकते ही पिछले अंग को एक्सपोज कर देता है। ऐसी ही स्थिति उनके टी शर्ट की भी है। लड़के तो फिर भी कालर वाला टी शर्ट पहनते हैं, लेकिन लड़कियां? उन्हें डीप लो कट ही पसन्द है। वे इसपर तनिक भी ध्यान नहीं देतीं कि आखिर प्रियंका गांधी अपने सार्वजनिक जीवन में जिन्स के बदले साड़ी ही क्यों पहनती हैं? उनकी रोल माडेल पत्रिकाओं के मुख्य पृष्ठ पर नग्न तस्वीर छपवाती पाकिस्तान की वीना मलिक ही क्यों है, वीर बालिका मलाला कर्जई क्यों नहीं? हिन्दुस्तान ही नहीं, विश्व के सारे मर्दों की मानसिकता लगभग एक जैसी होती है। हजारों वर्षों से पुरुषों ने नारी के अनावृत देह को अपनी कला का विषय बनाया है - कभी इसे पत्थरों पर उकेरा गया तो कभी कैन्वास पर। आज भी पुरुष अपनी बलात्कारी मानसिकता का प्रकटीकरण कभी सौन्दर्य प्रतियोगिताओं के माध्यम से करता है, तो कभी फ़ैशन परेड कराकर। आधुनिकता और पुरुषों के जाल में फ़ंसकर महिलाएं कभी माडेल बनती हैं, तो कभी पार्न फिल्मों की नायिकाएं। हमने टेक्नोलजी से लेकर फ़ैशन तक का आयात ही किया है। अब जब हम संस्कृति को आयात करने के दोराहे पर खड़े हैं तो बलात्कार की विभिषिका सामने आने लगी। अब तो सोचना ही पड़ेगा। जबतक नारियों में अपने लिए स्वाभिमान नहीं आएगा, पुरुष समाज उसका दोहन और शोषण करता ही रहेगा। नारियों को अपनी रक्षा स्वयं करनी होगी। रातों-रात पुरुषों की मानसिकता बदल देना मात्र दिवास्वप्न है। जब अमेरिका बिल क्लिन्टन और भारत नारायण दत्त तिवारी की मानसिकता नहीं बदल सका तो औरों की क्या बात की जाय।
देश के २५ से ५० वर्ष के आयु वर्ग वाले पुरुषों और महिलाओं के सामने एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है - अपने बच्चों को संस्कारित करने और मर्यादा का पाठ पढ़ाने की। आज का युवक संस्कार के नाम से ही नाक-भौं सिकोड़ने लगता है और युवती मर्यादा के नाम पर भड़क जाती है। उन्हें अपनी संस्कृति के इन दो अनमोल धरोहरों से परिचित कराने का पुनीत कार्य माता-पिता का ही है। लेकिन इसके लिए स्वयं भी संस्कारित होना पड़ेगा। प्ले बाय और डेबोनियर जैसी पत्रिकाओं को ड्राइंग रूम से बाहर करना पड़ेगा, उन अंग्रेजी-हिन्दी समाचार दैनिकों का वहिष्कार करना होगा जो अन्दर के पृष्ठों पर अर्ध नग्न तस्वीरें छापना अपना धर्म समझने लगे हैं। पार्टियों में समय देने के बदले अपने पुत्र-पुत्रियों पर अधिक समय देने का संकल्प लेना होगा। घर में शराब की पार्टियों से परहेज़ करना होगा। सदाचार और ऊंचे चरित्र का आदर्श स्वयं प्रस्तुत करते हुए बच्चों को भी उसका अनुकरण करने के लिए प्रोत्साहित करना पड़ेगा। जीजा बाई और शिवाजी, महात्मा गांधी और कस्तूरबा का आदर्श सामने रखना होगा। स्वामी विवेकानन्द की निम्न उक्ति का बार-बार स्मरण कराना होगा -
"हमारे देश की स्त्रियां...........विद्या बुद्धि अर्जित करें, यह मैं हृदय से चाहता हूं, लेकिन पवित्रता की बलि देकर यह करना पड़े, तो कदापि नहीं।"

Friday, January 4, 2013

वाह रे सरकार



      नव वर्ष के अवसर पर एक ओर पूरा देश अपने सारे समारोहों को स्थगित कर ब्लात्कार की पीड़िता लड़की की मृत्यु पर शोक मना रहा था, तो दूसरी ओर हमारा विदेश मंत्री तमिलनाडू के एक अवैध रिसौर्ट में अपनी विदेशी पत्नी के साथ जश्न मना रहा था। भारत की बहुसंख्यक जनता बलात्कारियों को मौत की सज़ा देने के लिए कानून बनाने की मांग कर रही थी, तो दूसरी तरफ़ कांग्रेस की सहयोगी पार्टी मज़लिस-ए-इत्तहाद के एम.एल.ए. अकबरुद्दीन ओवैसी हैदराबाद में भारत सरकार से १५ मिनट के लिए देश के हर हिस्से से पुलिस को हटाने की मांग कर रहे थे। ओवैसी ने एक जनसभा को संबोधित करते हुए कहा था कि हिन्दुस्तान से सिर्फ़ १५ मिनट के लिए पुलिस को हटा लीजिए, हम इस मुल्क के १०० करोड़ हिन्दुओं को खत्म कर देंगे।
      पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना का भी ऐसा वक्तव्य कभी भी मेरी निगाह से नहीं गुजरा। ओसामा बिन लादेन ने भी हिन्दुस्तान और हिन्दुओं के लिए कभी ऐसा बयान दिया हो, मुझे याद नहीं। लेकिन लादेन के मानस पुत्र ओवैसी ने सार्वजनिक रूप से यह बयान दिया और वह आज़ाद हिन्दुस्तान में पूरी आज़ादी के साथ घूम भी रहा है। देश की एकता और अखंडता को तार-तार करने वाके उसके बयान के बाद भी अभी तक उसपर कोई कानूनी कार्यवाही नहीं हुई। दिल्ली में सत्तारुढ़ यू.पी.ए. के घटक मज़लिस-ए-इत्तहाद के नेता के बयान की निन्दा न तो प्रधान मंत्री ने की और ना ही कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी ने । ओवैसी ने पाकिस्तान प्रायोजित हत्या काण्ड के मुख्य आरोपी कसाब की तरफ़दारी करते हुए उसे निर्दोष बच्चा कहा और मुंबई में २०० निरपराध नागरिकों की हत्या करने वाले कसाब को फांसी पर लटकाने की आलोचना की। उसने गुजरात में मुसलमानों की कथित हत्या कराने के लिए नरेन्द्र मोदी को भी कसाब की तरह फ़ांसी पर लटकाने की जोरदार मांग की। कांग्रेस ने ओवैसी की राजद्रोह की श्रेणी में आनेवाले भाषण की इसलिए आलोचना नहीं की कि उसने मोदी को भी कटघरे में खड़ा किया था। हमारी पश्चिम परस्त मीडिया ने भी देशद्रोह के इस कृत्य को नज़र अन्दाज़ करना ही मुनासिब समझा। वाह रे सरकार और वाह रे लोकतंत्र। समझ में नहीं आता कि वोट की यह संकीर्ण राजनीति हमें कहां ले जाएगी। देश हित के प्रति इतनी असंवेदनशीलता की कल्पना, क्या विश्व के किसी और देश में की जा सकती है?
      कोई भी आतंकवादी, तस्कर, अपराधी या राष्ट्रद्रोही अगर अल्पसंख्यक समुदाय से है, तो वर्तमान सरकार उसके खिलाफ़ कार्यवाही करने में सौ बार हिचकती है। कल्पना कीजिए कि ओवैसी जैसा बयान यदि किसी हिन्दू नेता ने दिया होता, तो सरकार क्या ऐसे ही निष्क्रिय बैठी रहती? दाउद इब्राहिम के खिलाफ कार्यवाही करने में सरकार की उदासीनता जग जाहिर है। आगामी ६ दिसंबर को होने वाले भारत-पाकिस्तान के एक दिवसीय मैच को देखने के लिए पाकिस्तानी क्रिकेटर जावेद मियांदाद को वीज़ा दिया गया है। एक क्रिकेटर के रूप में जावेद मियांदाद को वीज़ा देने में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? परन्तु मियांदाद क्रिकेटर के साथ ही दाउद इब्राहीम के सगे समधि भी हैं। राष्ट्रीय हित और प्रतिबद्धताओं को तिलांजलि देकर उनके लिए वीज़ा की व्यवस्था की गई है। भारत सरकार की यह कार्यवाही दाउद और उसके संबन्धियों को पासपोर्ट या वीज़ा जारी न करने की घोषित नीतियों के खिलाफ़ है। लेकिन जब इस देश का विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद हो, प्रधान मंत्री मौन मोहन सिंह हों और यूपीए की नेता सोनिया जी हों, तो कुछ भी संभव है। मुट्ठी भर वोट के लिए ये लोग कभी भी देश का सौदा कर सकते हैं। 

Thursday, December 27, 2012

यौन-अनाचार, कानून और समाज


१. दिल्ली की चलती बस में एक २३ वर्षीया युवती के साथ छः दरिन्दों द्वारा ब्लात्कार। युवती अस्पताल में वेन्टीलेटर पर।
२. ऊंझा (मेहसाना) में गत मंगलवार की रात में एक ३७ वर्षीया विधवा से दो लोगों द्वारा ब्लात्कार।
३. पुलिस की हिरासत में पिछले ९ वर्षों में बलात्कार की ४५ घटनाएं (पंजीकृत एफ़.आई.आर के आधार पर) - द एशियन सेन्टर फ़ार ह्युमन राइट्स
४. पटना के मनेर कस्बे में रात में सोते समय एक युवती से सामूहिक ब्लात्कार की कोशिश। असफल होने पर तेज़ाब से हमला। लड़की का पटना मेडिकल कालेज हास्पीटल में गत २ महीने से जीवन और मृत्यु से संघर्ष जारी।
५. पूर्व मुख्यमंत्री और राज्यपाल नारायण दत्त तिवारी के अवैध पुत्र को हाईकोर्ट ने नारायण दत्त तिवारी का वैध पुत्र घोषित किया।
६. कांग्रेस के प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी द्वारा सुप्रीम कोर्ट के अपने चैंबर में एक महिला के साथ यौनाचार।
.........................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................
      महिलाओं पर पुरुषों की दरिन्दगी के न जाने कितने ऐसे मामले हैं जो प्रकाश में आए ही नहीं। ऐसी घटनाएं जो अखबारों में छप जाती हैं या न्यूज चैनलों द्वारा प्रमुखता से कवर कर ली जाती हैं, वास्तविक घटना का मात्र १% है। जब भी दिल्ली की चलती बस में ब्लात्कार जैसी कोई घटना प्रकाश में आती है, जनाक्रोश, प्रदर्शन, आन्दोलन की बाढ़-सी आ जाती है। कुछ दिनों के बाद सबकुछ सामान्य हो जाता है। केन्द्रीय गृह मन्त्री शिन्दे ठीक ही कहते हैं - जनता की याद्दाश्त बहुत कमजोर होती है। इस समय देश के हर कोने से यह मांग की जा रही है कि संसद का विशेष सत्र बुलाकर बलात्कारियों को मृत्युदण्ड देने के लिए कानून बनाया जाय। क्या मत्युदण्ड या कोई अन्य सख्त कानून इस समस्या का समाधान हो सकता है? क्या हत्यारे को मृत्युदण्ड देने का स्पष्ट प्रावधान कानून में नहीं है? हत्याओं का प्रतिशत बढ़ता ही जा रहा है। क्या दहेज लेना गैर कानूनी नहीं है? यह रोग दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। क्या रिश्वत और भ्रष्टाचार विधिसम्मत है? अन्ना के आन्दोलन के बाद भी इसमें कोई कमी नहीं आई है। किस अपराध के लिए इंडियन पेनल कोड-१८६० में दण्ड की व्यवस्था नहीं है? क्या अपराध कानून बनाने से रुक जाते हैं?
      समरस समाज, प्रेरणादायक नेतृत्व और नागरिकों के उच्च चरित्र ही अपराध की रोकथाम या उन्मूलन में सहायक होते हैं। फिजिक्स, केमिस्ट्री, मैथेमेटिक्स, इतिहास, भूगोल और अर्थशास्त्र की किस पुस्तक में लिखा है कि बड़ों का सम्मान करो, स्त्रियों को मां-बहन का सम्मान दो, माता-पिता-गुरु को पैर छूकर प्रणाम करो। राम, कृष्ण, गौतम, गांधी के चरित्र को हृदय से हृदयंगम किए बिना नैतिकता और चरित्र का विकास असंभव है। मैकाले की सेकुलर शिक्षा व्यवस्था ने नैतिकता और चरित्र को कालवाह्य बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है।
      फरवरी १८३५ में इंग्लैंड के हाउस आफ़ कामन्स में भारत की शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन हेतु अपनी दलील देते हुए लार्ड मेकाले ने कहा था -
      "I have travelled across the length and breadth of India and I have not seen one person who is beggar, who is a thief. Such wealth I have seen in this country, such high moral values, people of such calibre, that I do not think that we would ever conquer this country unless we break the very backbone of this nation, which is the cultural and the spiritual heritage, and thereof, I propose that we replace her old and ancient education system, her culture, for if the Indians think that all that is foreign and English is good and greater than their own, they will lose their self esteem, their native culture and they will become what we want them - a truly dominated nation." (बिना किसी संशोधन के एक-एक शब्द, कामा फ़ुलस्टाप के साथ मेकाले के लिखित वक्तव्य से उद्धृत)
      "मैंने पूरे भारत की यात्रा की और ऐसा व्यक्ति नहीं देखा जो भिखारी हो या चोर हो। इस तरह की संपत्ति मैंने इस देश में देखी है, इतने ऊंचे नैतिक मूल्य, लोगों की इतनी क्षमता, मुझे नहीं लगता कि कभी हम इस देश को जीत सकते हैं, जबतक कि इस देश की रीढ़ को नहीं तोड़ देते जो कि उसकी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत है। इसलिए मैं प्रस्ताव करता हूं कि हमें इसकी पुरानी और प्राचीन शिक्षा-व्यवस्था, इसकी संस्कृति को बदलना होगा। इसके लिए यदि हम भारतीयों को यह सोचना सिखा दें कि जो भी विदेशी है और अंग्रेज है, यह उनके लिए अच्छा और बेहतर है, तो इस तरह से वे अपना आत्मसम्मान खो देंगे, अपनी संस्कृति खो देंगे और वे वही बन जायेंगे जैसा हम चाहते हैं - एक बिल्कुल गुलाम देश।"
      एक अंग्रेज जो भारत और भारतीयों के लिए बड़ी ओछी मानसिकता रखता था, वह भी भारतीयों के चरित्र और व्यवस्था से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। भारतीयों को अपनी मूल प्रकृति, संस्कृति, शिक्षा और उच्च नैतिक मूल्यों से विरत करने के लिए ही उसने स्पष्ट रूप से भारत में शिक्षा के क्षेत्र में अंग्रेजीकरण की वकालत की थी जिसे इंग्लैंड की संसद ने न सिर्फ स्वीकार किया बल्कि लागू भी कर दिया। आज़ादी के बाद हमारे पास अपना संविधान, अपने नियम-कानून, अपनी न्याय-व्यवस्था और अपनी शिक्षा-व्यवस्था को परिभाषित करने तथा लागू करने का अवसर प्राप्त हुआ था जिसे हमने बड़ी सहजता से गंवा दिया। दुर्भाग्य से हमारा नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथ में चला गया, जो मैकाले की मानसिकता से बुरी तरह ग्रस्त थे और जिन्हें भारत की संस्कृति के लिए कोई आदर-भाव भी नहीं था। भारत का युवा किसका अनुसरण करे - जवाहर लाल नेहरू, इन्दिरा गांधी, नारायण दत्त तिवारी या अभिषेक मनु सिंहवी का? रही सही कसर हमारी फिल्मों, टीवी सिरियल्स, इन्टरनेट और घटिया साहित्य ने पूरी कर दी। अभिनय के लिए हमारा सर्वोच्च राष्ट्रीय पुरस्कार ‘डर्टी पिक्चर’ में अभिनय के लिए विद्या बालन को जाता है। इस फिल्म को कोई भी संवेदशील व्यक्ति अपने पूरे परिवार के साथ नहीं देख सकता। ऐसी फिल्मों ने राखी सावन्त, प्रियंका चोपड़ा, मलाइका अरोड़ा, बीना मलिक, सनी लियोन आदि को देश की युवतियों का रोल माडेल बना दिया। नारी स्वातंत्रय, उच्छृंखलता और अल्प वस्त्र का पर्याय बन गया। असंस्कारित युवक-युवतियों का सार्वजनिक स्थानों पर आपत्तिजनक अवस्था में प्रेम-प्रदर्शन मुंबई, दिल्ली पुणे या अन्य मेट्रोपोलिटन में आम बात है। ऐसी स्थिति में दिल्ली जैसी घटना की पुनरावृत्ति  मात्र कानून बनाने से नहीं रोकी जा सकती।
      मेरे गांव से मेरा स्कूल दो किलो मीटर की दूरी पर था। मेरे गांव के सभी लड़के और लड़कियां एक स्थान पर एकत्रित होते थे और साथ ही पैदल स्कूल जाते थे। लड़कियों की सुरक्षा का सामूहिक दायित्व लड़कों पर रहता था क्योंकि होश संभालने के बाद से ही हमें बताया गया था कि गांव की सभी लड़कियां तुम्हारी बहनें हैं। मैं ११वीं कक्षा क छात्र था - शरीफ़ एवं पढ़ाकू। मेरे गांव की एक लड़की जो दसवीं कक्षा में पढती थी को उसके क्लास के एक लड़के ने छेड़ दिया। उसने लौटते समय हमलोगों को बताया। दूसरे दिन हम लोग थोड़ा जल्दी घर से निकले, स्कूल के गेट पर उस लड़के को पकड़ा और लात-घूंसों से जबर्दस्त पिटाई की। उसने स्कूल के प्रिन्सिपल से हमलोगों की शिकायत की। प्रिन्सिपल ने मुझे बुलाकर पूछताछ की। मैंने अपराध स्वीकार किया और यह भी बताया कि क्यों हमलोगों को ऐसा करना पड़ा। विद्यालय का अनुशासन तोड़ने की सज़ा हमें मिली - दो-दो बेंत हमलोगों की हथेलियों पर लगाए गए। वहां उपस्थित वाइस प्रिन्सिपल ने हमलोगों की सज़ा का विरोध किया था। प्रिन्सिपल ने अपनी सफाई में कहा था - लड़कों ने काम तो अच्छा किया था लेकिन अनुशासन के लिए सज़ा देना जरुरी था। हमलोगों को न कोई खेद था, न पश्चाताप। शाम को हमलोग अपने गांव आए। गांव के बुज़ुर्गों ने भी हमारे कार्य की सराहना की। क्या लड़के-लड़कियों में आज के अभिभावक ऐसी भावना भर रहे हैं? कोई भी सामाजिक संस्था इस दिशा में कार्य कर रही है? शायद नहीं।
      चरित्र और चरित्र निर्माण ही एकमात्र विकल्प है। विवेकानन्द ने कहा था - I want a man with capital `M'. कहां लुप्त हो गया हमारा capital `M'? इस देश को राजनीतिक परिवर्तन की कम, सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता है। जन्मघुट्टी की तरह प्रत्येक के मन-मस्तिष्क में यह संदेश स्थापित करने की आवश्यकता है -
      मातृवत परदारेषु पर द्रव्येषु लोष्टवत।
      आत्मवत सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः॥
      सभी स्त्रियों को माता समान, दूसरे के धन को मिट्टी के ढेले के समान तथा सभी जीवों को अपने समान जो देखता है, वही सच्चा विद्वान है।
      पश्चिमी सभ्यता की चकाचौंध में हम कबतक अपनी मौलिक अच्छाइयों की अनदेखी करते रहेंगे? हम इन अच्छाइयों को कालवाह्य या दकियानूसी मानकर खारिज़ नहीं कर सकते। हम भारतीय हैं, कभी भी अंग्रेज नहीं बन सकते। हमारा चरित्र-बल ही हमें हमारी समस्त समस्याओं से मुक्ति दिलाने का एकमात्र साधन है। क्यों नहीं अपने आचार-विचार, बोल-चाल और वस्त्रों में हम मर्यादा का ध्यान रखें? जो चीज हमारे पूरे समाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन ला सकती है, उसे अपनाने में कैसा संकोच? यह निर्णय लेने की घड़ी है - अभी नहीं तो कभी नहीं।
      

Saturday, December 22, 2012

नरेन्द्र मोदी और चुनावी विश्लेषण


 भारतीय जनता पार्टी की जीत को हमारा सेकुलर मीडिया, चुनावी विश्लेषक और कांग्रेसी पचा नहीं पा रहे हैं। नरेन्द्र मोदी द्वारा अर्जित चुनावी सफलता से हतप्रभ विशेषज्ञों ने चुनाव परिणाम के बाद जो वक्तव्य दिए वे इतने हास्यास्पद थे कि उनका उल्लेख करना किसी चुटकुले को पढ़ना और सुनाने जैसा है। जनता की इच्छाओं का सम्मान करने और मोदी को बधाई देने के बदले हमारे वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने बयान दिया कि भाजपा को पिछले चुनाव से दो सीटें कम मिली हैं, इसलिए इसे भाजपा या मोदी की जीत नहीं कहा जा सकता। दूसरे बड़बोले मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा कि यह मोदी के ३-डी प्रचार का २-डी परिणाम है। एक चुनावी विश्लेषक के अनुसार मोदी ने चूंकि ५१% मत नहीं प्राप्त किए हैं अतः इसे मोदी की स्पष्ट जीत नहीं कहा जा सकता। अभी डिग्गी राजा का ()विद्वतापूर्ण बयान आया ही नहीं; शायद वे होमवर्क कर रहे हैं। लोग यह भूल जा रहे हैं कि गुजरात के कद्दावर नेता विद्रोही भाजपायी केशुभाई पटेल की गुजरात परिवर्तन पार्टी द्वारा सभी १८२ सीटों पर अपना उम्मीदवार उतारने के बावजूद भाजपा ने ११५ सीटों पर जीत हासिल की। यह मोदी का जादू नहीं तो और क्या है? अगर केशुभाई पटेल अलग चुनाव नहीं लड़ते तो भाजपा का आंकड़ा १५० को छू रहा होता।
      भारत की वह जनता जो सुशासन और विकास चाहती है, मोदी की ऐतिहासिक जीत से अत्यन्त उत्साहित और आशान्वित है। भारतीय जनता पार्टी को अटल बिहारी वाजपेयी के बाद राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार एक योग्य नेता जिसके पास जनता तक सीधे अपनी बात पहुंचाने वाली वक्तृत्व क्षमता और स्पष्ट दृष्टि है, मोदी के रूप में प्राप्त हुआ है। निश्चित रूप से भाजपा पंडित दीनदयाल उपाध्याय और अटल बिहारी वाजपेयी की पार्टी नहीं रही, फिर भी अपनी अपनी तमाम कमियों के बावजूद वह कांग्रेस से हजार गुना अच्छी है। जनता भी भाजपा को वोट देना चाहती है, परन्तु भाजपा वोट नहीं ले पाती है। इसी वर्ष उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनावों के बाद १५ महानगरों के नगर निगम के चुनाव हुए। भाजपा ने ११ महानगरों में मेयर के पद पर जनता का विश्वास प्राप्त किया। केजरीवाल, अन्ना और बाबा रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन का भाजपा को सीधे लाभ पहुंचना चाहिए था लेकिन इस पार्टी ने अपने प्रतिगामी निर्णयों से लगता है वह अवसर गंवा दिया है। नितिन गडकरी को लाल कृष्ण आडवानी का अनुशरण करते हुए क्लीन चिट मिलने तक अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे देना चाहिए था। तब भ्रष्टाचार के विरुद्ध उसके संघर्ष में स्वाभाविक पैनापन आ जाता। पदोन्नति में आरक्षण का विरोध करके भाजपा ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है। उत्तर प्रदेश जहां लोकसभा की ८० सीटें हैं, की अनदेखी कर कोई भी राष्ट्रीय पार्टी केन्द्र में सत्तारुढ़ नहीं हो सकती। मुलायम सिंह यादव ने २०१४ के चुनावों को दृष्टि में रखकर ही प्रोमोशन में आरक्षण का पूरी शक्ति से विरोध किया है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस, भाजपा या सपा लाख उपाय करें, वे मायावती के अनुसूचित वोट बैंक में सेंध लगाने की बात तो दूर, एक छोटा सा सुराख भी नहीं कर सकते। मुलायम सिंह ने इस तथ्य को भलीभांति समझ लिया है। यहां पहलवान मुलायम सिंह अरुण जेटली और सुषमा स्वराज से अधिक समझदार प्रतीत होते हैं। भाजपा ने हाथ आए इस अवसर को खो दिया है। अब सिर्फ नरेन्द्र मोदी ही भाजपा के लिए आशा के एकमात्र केन्द्र हैं। देखें, भाजपा नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता और विकास पुरुष की छवि को जनता के सामने रख लोकसभा का अगला चुनाव लड़ती है या वातानुकूलित संसद में जोरदार भाषण देनेवाले जड़विहीन नेताओं के सहारे?
      गुजरात के लिए नरेन्द्र मोदी ने वे कार्य किए हैं जो किसी भी राज्य में किसी भी नेता या मुख्यमंत्री ने नहीं किया है। इस चुनाव में गुजरात के दौरे पर गए मोदी के धुर विरोधी अर्थशास्त्रियों और पत्रकारों ने जब गुजरात में विकास की चकाचौंध देखी तो उनकी आंखें भी चौंधियाए बिना नहीं रह सकीं। गुजरात के लगातार और स्थायी विकास, दूर तक विस्तृत आधुनिक सिंचाई सुविधाओं से संपन्न खेत-खलिहान, निर्धूम कल-कारखाने, पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा और नर्मदा के जल-विद्युत गृहों के बल पर पर्यावरणमित्र निर्बाध विद्युत आपूर्ति, सुन्दर और गड्ढ़ामुक्त सड़कें, विकसित जनजाति, नियंत्रित कानून-व्यव्स्था और अपेक्षाकृत स्वच्छ तथा प्रभावी प्रशासन देखकर सभी आश्चर्यचकित थे। गुजरात देश का आज की तिथि में पहला राज्य है जहां बिजली का उत्पादन मांग से अधिक है। इस बरसात में अपने कई ताप विद्युत गृहों में उत्पादन कम करके - जिसे थर्मल बैकिंग कहते हैं - गुजरात ने पश्चिमी क्षेत्र के ग्रीड की फ्रिक्वेन्सी मेन्टेन की। पूरे देश में किस राज्य के पास ऐसा उदाहरण है? गुजरात में बिना गए गुजरात की प्रगति का साक्षात्कार संभव नहीं है। वहां जाने पर एक ही प्रश्न मस्तिष्क में कौंधता है - क्या गुजरात भी हिन्दुस्तान में ही है?
      हमारा देश १८५७ की क्रान्ति की असफलता के बाद जब निराशा के अंधकार में डूब रहा था, तब भी गुजरात ने ही रोशनी दिखाई थी। बांस की एक लाठी लिए और आधे तन पर वस्त्र धारण किए महात्मा गांधी ने दुनिया के सबसे विशाल साम्राज्य को घुटने टेकने पर विवश किया था। द्वापर में द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण ने ही संपूर्ण आर्यावर्त को धर्म की राह दिखाई थी। अब बारी नरेन्द्र मोदी की है। सारा देश उनकी ओर टकटकी लगाए देख रहा है। बस भाजपा के कुछ नेताओं की आंखें खुलनी बाकी है।