Wednesday, February 6, 2013

विश्वरूपम का विरोध


            अमूमन मैं नई फिल्में नहीं देखता। बेटे की अनुशंसा पर मैंने आमिर खान की दो फिल्में - ‘थ्री इडियट्स’ और ‘तारे जमीं पर’ देखी थी। दोनों फिल्में बहुत अच्छी थीं। आमिर खान के बारे में मेरे मन में अच्छी धारणा बनी। मुझे ऐसा लगा कि राज कपूर के बाद हिन्दी फिल्म उद्योग में एक ऐसा निर्माता-अभिनेता आया है जिसके नाम पर फिल्में देखी जा सकती हैं। मेरा प्रवासी बेटा बनारस आया था। उन्हीं दिनों बनारस में फिल्म ‘डेल्ही-वेल्ही’ का प्रदर्शन हो रहा था। फिल्म आमिर खान की थी। मैं और मेरा बेटा - दोनों आमिर खान के प्रशंसक थे। बेटे ने फिल्म देखने की इच्छा प्रकट की। मैं भी साथ हो लिया। हमलोगों ने कुल २० मिनट तक किसी तरह फिल्म देखी। बेटे ने मेरी ओर देखा और मैंने उसकी ओर। हम एक दूसरे से आंख मिलाकर बात करने की स्थिति में नहीं थे। बेटा उठकर बाहर जाने लगा। मैं भी उसके पीछे-पीछे बाहर आ गया। फिल्म के डायलाग को बेटे के साथ सुनना कान में पिघले हुए सीसे को डालने के समान था। सभी यंत्रणाओं को सहते हुए २० मिनट तक  हम फिल्म को इसलिए देखते रहे कि अश्लील  गन्दे संवादों एवं दृश्यों का दौर शीघ्र समाप्त हो जाएगा। लेकिन हो रहा था ठीक इसके विपरीत। जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ रही थी, संवाद उतने ही गन्दे तथा दृश्य उतने ही अश्लील होते जा रहे थे। लेकिन इस फिल्म का किसी संगठन, किसी मज़हब या किसी समुदाय ने विरोध नहीं किया। यह फिल्म धड़ल्ले से देश के सिनेमाघरों में प्रदर्शित की जाती रही। ऐसी गन्दी फिल्म और ऐसे गन्दे संवादों से ज़िन्दगी में इसके पहले कभी पाला नहीं पड़ा था।
कल मैंने आजकल की सर्वाधिक विवादास्पद फिल्म ‘विश्वरूपम’ देखी। यह एक बहुत साफ-सुथरी और अच्छी फिल्म है।  इसकी फोटोग्राफी, विशेष रूप से ऐक्शन-दृश्यों की, लाज़वाब है। निर्देशन और कमल हासन का अभिनय अति उत्तम है। विषय समसामयिक है। कहानी दर्शकों को अन्त तक बांधे रहती है। यह फिल्म पूरे समाज को विशेष रूप से मुस्लिम समाज को एक अच्छा संदेश देती है। मैंने पूरी फिल्म में यही ढूंढ़ने की कोशिश की, कि आखिर वह कौन सा संवाद और कौन सा दृश्य है जिससे आहत होकर मुस्लिम समाज इसका इतना उग्र विरोध कर रहा है। माइक्रोस्कोपिक इन्स्पेक्शन के बाद भी मुझे ऐसा कुछ भी नहीं मिला। इस फिल्म में न तो इस्लाम के खिलाफ़ एक भी शब्द है और ना ही पवित्र ग्रन्थ कुरान के खिलाफ़। हां, आतंकवादियों ने जिस तरह इस्लाम और कुरान को आधार बनाकर अपनी मर्जी से अपने अनुसार ‘ज़िहाद’ को परिभाषित किया है, उसका सजीव  चित्रण फिल्म में अच्छे ढंग से किया गया है। यह कोई छिपा सत्य नहीं है कि अल-कायदा या तालिबान द्वारा फैलाई गई आतंकवादी हिंसा के मूल में उनके द्वारा परिभाषित इस्लाम ही है। धर्म और ज़िहाद की घुट्टी पिलाकर ही वे आत्मघाती मानव बम अर्थात फ़िदाइन तैयार करते हैं। विश्वभर के उदारवादी मुसलमान इसे गलत बताते हैं लेकिन कट्टरवादी इस ज़ायज़ ठहराते हैं। फिल्म में अफ़गानिस्तान में फल-फूल रहे आतंकवाद, इसका कारण और इसके भयानक दुष्परिणाम को बहुत अच्छे ढंग से चित्रित और प्रस्तुत किया गया है। इसमें यह दिखाया गया है कि आणविक तकनिकी (Nuclear Technology) यदि आतंकवादियों के हाथ लग गई, तो कितने भयावह दुष्परिणाम हो सकते हैं। पूरी फिल्म में हिन्दुस्तान के मुसलमानों का कहीं ज़िक्र तक नहीं है। समझ में नहीं आता कि हिन्दुस्तान के मुल्ला इसका विरोध किस आधार पर कर रहे हैं। फिल्म के अन्त में यह स्पष्ट होता है कि जिस जासूस ने कथित इस्लामी आतंकवाद को अमेरिका में जाकर शिकस्त दी, वह हिन्दुस्तानी है और उसका नाम ‘विश्वरूपम’ है। शायद यही बात मुल्लाओं को खटक रही है और मेरी समझ से इसी कारण वे इस फिल्म का ज़ोरदार विरोध कर रहे हैं।

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