Wednesday, April 22, 2015

दोहरी शिक्षा व्यवस्था और जनता का शोषण


  किसी भी देश के लिए शिक्षा की दोहरी व्यवस्था आनेवाली पीढ़ी के लिए अभिशाप होती है। अपने देश में एक तरफ शिक्षा माफ़ियाओं द्वारा संचालित सर्व सुविधासंपन्न निजी स्कूल हैं, तो दूसरी ओर मिड डे मील के आसरे संचालित सरकारी स्कूल हैं। एक में अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा के नाम पर लूट-खसोट का सिलसिला प्रवेश प्रक्रिया से लेकर नाम कटाने तक खत्म नहीं होता। अनियंत्रित ऊंची फीस, टाई-बेल्ट, यूनिफार्म, कापी-किताब, बस की फीस, एजुकेशनल टूर, पिकनिक, वार्षिकोत्सव आदि के माध्यम से बच्चों और अभिभावकों का शोषण एक आम बात है। इसके अलावे एक और खेल चलता है, ट्यूशन का। निजी स्कूलों के शिक्षक सरे आम कोचिंग चलाते हैं। बच्चों पर दबाव बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते कि वे उनके यहां ट्यूशन पढ़ने आयें। ऐसे निजी स्कूलों में एक छात्र पर लगभग १५ हजार रुपए प्रति माह का खर्च आता है।
      ऐसे निजी स्कूलों का मुकाबला करने के लिए मिड डे मील के सहारे चलने वाले सरकारी स्कूल हैं जिसमें दो पहर के भोजन के अलावे छात्र/छात्राओं को कुछ प्राप्त नहीं होता। छ्ठी क्लास में पढ़ने वाले बच्चे हिन्दी का अखबार भी नहीं पढ़ पाते। मेरे घर काम करने वाली दाई ने अपनी बच्ची का नाम सरकारी स्कूल से कटवाकर कुकुरमुत्ते की तरह उग आए एक लोकल कान्वेन्ट स्कूल में कराया है। सरकारी स्कूलों की शिक्षा रसातल को चली गई है। इसका लाभ लेकर शिक्षा माफ़िया अकूत धन कमा रहे हैं। सरकार का दोनों में से किसी पर नियंत्रण नहीं है। सरकारी शिक्षकों को छठे वेतन आयोग के बाद अच्छी तनख्वाह मिल रही है लेकिन उनका झुकाव बच्चों को अच्छी शिक्षा देने की ओर बिल्कुल नहीं है। उनमें समर्पण की कमी है और पक्की नौकरी का अति विश्वास अलग से है। निजी स्कूलों के शिक्षकों की तनख्वाह सरकारी स्कूलों की तुलना में लगभग आधी है। निजी स्कूलों के शिक्षकों का औसत वेतन लगभग १० हजार रुपए है। वे तनख्वाह में कमी की भरपाई ट्यूशन से करते हैं। दोनों ही स्थितियों में शोषण का शिकार छात्र और अभिभावक ही होते हैं। पता नहीं सरकार की आंखें कब खुलेंगी? जबतक पूरे देश में एक सिलेबस और सिर्फ मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य नहीं की जाती, शोषण का यह खेल चलता रहेगा और शिक्षा माफ़िया अपनी जेबें भरती रहेंगी।


      

Tuesday, April 21, 2015

रेलवे और पिज़्ज़ा

रेलवे बज़ट अब आने ही वाला है। हमेशा की तरह लोक-लुभावन वादों की झड़ी इस बज़ट में भी होगी। अपने ६० वर्षों के जीवन में जब से होश संभाला है, बड़े ध्यान से रेलवे बज़ट देखता हूं। अन्यों की तरह मुझे भी जिज्ञाशा रहती है कि मेरे गृह-स्टेशन से इस साल  कोई नई ट्रेन चली या नहीं। सारी नई ट्रेनें कलकत्ता, मुंबई, दिल्ली, चेन्नई, बंगलोर, अहमदाबाद, पटना या लखनऊ से ही चलती हैं। दूरस्थ स्थानों की सुधि लेनेवाला कोई नहीं है - चाहे वे लालू हों, नीतिश हों या सुरेश प्रभु हों।
      आज एक समाचार टीवी पर देखा - ट्रेन में अब पिज़्ज़ा भी मिलेगा। बर्गर, सैन्डविच, पकौड़े, दही, मठ्ठा, लिट्टी-बाटी, चावल-रोटी, दाल, सब्जी, वेज, नान-वेज, चाय-काफी आदि खाद्य सामग्री तो पहले भी मिला करती थीं। चलिये, एक नाम पिज़्ज़े का और जुड़ गया। मेरी समझ में नहीं आता है कि जनता रेल से सफ़र खाने के लिए करती है या गंतव्य तक पहुंचने के लिए? क्या महानगरियों तक जाने वाली ट्रेनों की सामान्य बोगियों की ओर कभी आपका ध्यान गया है? यदि आप सिर्फ एसी में सफ़र करते हैं, तो मेरा आग्रह है कि किसी स्टेशन पर रुककर सामान्य बोगियों का एक चक्कर अवश्य लगा लें।  आपकी आंखों में आंसू न आएं, ऐसा हो ही नहीं सकता। एक के उपर एक लदे लोग - बिल्कुल बोरे जैसे, शौचालय में भी अखबार बिछाकर बैठे लोग, रोते बच्चे, आंचल संभालतीं महिलायें, गर्मी में उतरकर स्टेशन से पीने का पानी न ले आने की मज़बूरी से ग्रस्त पुरुष और सबको कुचलकर डिब्बे में प्रवेश को आतुर भीड़ के दृश्य कलकत्ता, मुंबई, दिल्ली, चेन्नई आदि महानगरों को जाने वाली हर ट्रेन में दिखाई पड़ेंगे। अन्ना भी जन्तर-मन्तर पर धरने के लिए जिन्दल ग्रूप के हवाई जहाज से आते हैं, केजरीवाल भी विमान के एक्जीक्युटिव क्लास में सफ़र करते हैं। है कोई महात्मा गांधी, जो थर्ड क्लास (अब द्वितीय श्रेणी, सामान्य) में यात्रा करने का दुस्साहस कर सके? आज़ाद हिन्दुस्तान में तो ऐसा साहस न किसी नेता ने दिखाया है और न किसी समाजसेवी ने। अब आप ही सोचिए उस डब्बे में जब मूंगफली वाला प्रवेश करने की हिम्मत नहीं कर पाता है, तो वातानुकूलित पैन्ट्री कार का पिज़्ज़ा वाला कैसे पहुंच सकता है? क्या जेनरल बोगियों में यात्रा करने वाले के कष्टों के निवारण के लिए इस बज़ट में कुछ होगा? रेल राज्य मंत्री मनोज सिन्हा आई.आई.टी. बी.एच.यू. में मुझसे एक साल जूनियर थे। मित्रता अब भी बरकरार है। मेरी तरह वे भी एक साधारण परिवार से ही आये हैं। मैं यह लेख उनको भी मेल कर रहा हूं। देखता हूं, यह बज़ट भी हमेशा की तरह इंडिया के लिए ही होगा या भारत भी कहीं-कहीं दिखाई पड़ेगा।

      ध्यान रहे कि जनता ट्रेन की यात्रा पिज़्ज़ा खाने के लिए नहीं करती। यात्रियों की सरकार और रेलवे से मात्र एक ही अपेक्षा रहती है - अपने गन्तव्य पर सुरक्षित और समय से पहुंच जायें। जब इन्दिरा गांधी के आपात्काल में सारी ट्रेनें समय से चल सकती थीं, तो मोदी के सुराज में यह संभव क्यों नहीं है? हम हाथ जोड़कर विनती करते हैं कि रेलवे हमें हमारे गंतव्य पर सुरक्षित और समय से पहुंचाना सुनिश्चित करे। यह कठिन हो सकता है, असंभव नहीं।

Saturday, January 10, 2015

कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन

           दिनांक ९.१.२०१५ को आई.आई.टी., बी.एच.यू. के १९७६ बैच के पूर्व छात्रों का समागम कार्यक्रम आरंभ हुआ। यह १९७६ बैच के आईटीशियन का दूसरा समागम था। लगभग १०० पूर्व छात्र इसमें सम्मिलित हुए। दुनिया के हर कोने से आए इन पूर्व छात्रों के साथ ज़िन्दगी के कुछ अति सुन्दर और यादगार क्षण बिताना इतना सुखद और आनन्ददायक था कि इसे शब्दों में व्यक्त करना असंभव प्रतीत हो रहा है। कुछ पूर्व छात्र तो अपनी पत्नी और बच्चों के साथ समागम में शामिल हुए। सभी के रहने की व्यवस्था आई.आई.टी. गेस्ट हाउस में थी। समागम के पहले दिन दोपपहर तक Reintroduction और Registration का काम चला। फिर सबने एक साथ Lunch लिया। थोड़ा विश्राम करने के बाद सभी अस्सी घाट पहुँचे। वहां दुल्हन की तरह सजी 2-Tier की चार नौकाएं आगन्तुकों के स्वागत के लिए तैयार थीं। गुलाब की पंखुड़ियों के छिड़काव से सबका स्वागत किया गया। गद्दे, मसनद और कंबलों से सुसज्जित बज़रों में सभी ने अपना स्थान ग्रहण किया। फिर सितार-वादन और शास्त्रीय संगीत के कलाकारों ने अपने-अपने हुनर से सबको मंत्रमुग्ध किया। काशी का प्रसिद्ध चिउड़ा-मटर, समोसा और रबड़ी-रसगुल्ला खाते-खाते कब और कैसे पेट भर गया, समझ में ही नहीं आया। बीच-बीच में गरम-गरम चाय की चुस्कियां गप्पबाजों के लिए मुफ़ीद माहौल भी प्रदान कर रही थीं। देखते ही देखते शाम के साढ़े छः बज गए। अस्सी से राजघाट और राजघाट से दशाश्वमेध घाट की सैर करने के बाद हमने बज़ड़े से ही विश्व विख्यात गंगा-आरती के दर्शन किए। नरेन्द्र मोदी जी के प्रधान मंत्री बनने के बाद घाटों के कायाकल्प के दृश्य अपनी आँखों से देखा। विश्वास ही नहीं हो रहा था कि हमेशा गंदे रहने वाले घाट इतने साफ-सुथरे और आकर्षक बन जायेंगे। गंगा आरती देखने के पश्चात्‌ हम सभी बज़ड़े से ही अस्सी घाट आये। वहां से पुनः गेस्ट हाउस आकर महिलाओं ने अपने -अपने मेक-अप दुबारा करीने से ठीक किए और पुनः तैयार होकर रात के आठ बजे  हम सभी होटल क्लार्क्स पहुंचे। पुरुषों को गप्पें मारने से फुर्सत कहां थी? वे जैसे सवेरे थे, वैसे ही शाम को होटल में भी थे। वहां स्थानीय कलाकारों के कर्णप्रिय संगीत के साथ काकटेल पार्टी का शुभारंभ हुआ। दो घंटे के बाद १९७६ बैच के गायकों ने गीत और नृत्य का मंच संभाल लिया। सब नाचे और दिल खोलकर नाचे। गाने वालों पूर्व छात्रों ने अपने मधुर गायन से समा बांध दी। महिलाओं और बच्चों ने भी साथ दिया। दिव्य डिनर की व्यवस्था तो थी ही, लेकिन किसी को इसकी सुध ही कहां थी। रात के दो बजे पार्टी का समापन हुआ।
दिनांक १०.०१.२०१५ को सभी पूर्व छात्र दिन के दस बजे पुनः मिले। स्थान था आई.आई.टी. का ABLT हाल। हमलोगों के ज़माने में आधुनिक साज-सज्जा से युक्त यह सुन्दर आडिटोरियम नहीं था। Reunion कार्यक्रम की शुरुआत दीप प्रज्ज्वलन और अपने मधुर कुलगीत से हुई। निदेशक, आई.आई.टी. प्रो. राजीव संगल मुख्य अतिथि थे, पूर्व निदेशक प्रोफ़. एस.एन.उपाध्याय विशिष्ट अतिथि थे और डीन आफ़ स्टुडेन्ट प्रो. आनिल त्रिपाठी कार्यक्रम के संयोजक। १९७६ बैच के पूर्व छात्र सुनील खन्ना ने २० किलोवाट के एक ऊर्जा संयंत्र की आई.आई.टी. में स्थापना की घोषणा की। उक्त प्लान्ट का संचालन आई.आई.टी. और १९७६ बैच के पूर्व छात्र मिलकर करेंगे। यह प्लान्ट अध्ययनशील छात्रों को व्यवहारिक ज्ञान प्रदान करने में सहायक होगा। याद कीजिए तब के BENCO और बीच के आई.टी. के कालखंड में एक थर्मल पावर प्लान्ट हुआ करता था जो १९६५ तक पूरे विश्वविद्यालय को बिजली की सप्लाई सुनिश्चित करता था। इसका संचालन छात्र ही स्टाफ़ के सहयोग से करते थे। उसकी चिमनी पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा BENCO दूर ही से इंजीनियरिंग कालेज का पता बता देते थे। हमलोगों ने उसके Boiler और Turbine पर Practicals भी किए थे। एक कसक सी होती है कि एक आंधी में गिरी BENCO की वह चिमनी दुबारा लग नहीं पाई। वेब्काक्स-बिलकाक्स का वह Open-Herth boiler कार्यशील नहीं है। Turbine  और Generator भी जंग खा रहे हैं। 
दो घंटे तक चले इस विशेष समारोह के बाद आई.आई.टी. के वर्तमान छात्रों ने सभी को विशेष जलपान पर आमंत्रित किया। दो पीढ़ियों के इस Interaction को भी कभी भुलाया नहीं जा सकता। दिन के ढाई बजे गेस्ट हाउस में लंच के बाद सभी विश्राम कर रहे हैं। शाम को सात बजे फिर सभी नदेसर स्थित बनारस क्लब में एकत्रित होंगे और फिर शुरु हो जायेगा वही पुरानी मस्ती का दौर। गीत भी होगा, संगीत भी होगा, लतीफ़े भी होंगे, बीते दिनों की स्मृति भी होगी और साथ में होगी काकटेल पार्टी और यादगार डिनर। कल दिनांक ११.०१.२०१५ को पूर्व छात्र-समागम का अन्तिम दिन होगा। अगला समागम विश्वविद्यालय की स्थापना के सौ वर्ष पूरा होने के उपलक्ष्य में सिंगापुर या दुबई में होगा। फिलहाल तो इस समागम की मधुर स्मृतियां जेहन में हैं जो जीवन भर बनी रहेंगी। सब यही कह रहे थे - जाने कहां गये वो दिन ......। 

Wednesday, January 7, 2015


चेन्नई उच्च न्यायालय के कुछ अवैध निर्माणों को ढहाने के आदेश को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी। मामला सुनवाई के लिए न्यायमूर्ति अनिल आर. दवे की पीठ में आया। न्यायमूर्ति दवे ने अपने फ़ैसले में अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर चेन्नई उच्च न्यायालय के निर्णय पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि इस तरह अवैध निर्माणों को अगर नियमित किया गया तो एक दिन हत्या और बलात्कार को भी नियमित कर दिया जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय सिर-आँखों पर लेकिन टिप्पणी कही से भी उचित प्रतीत नहीं होती है। इस टिप्पणी में सर्वोच्च न्यायालय का अहंकार दिखाई पड़्ता है। हत्या-बलात्कार को अवैध कालोनियों के नियमितीकरण से नहीं जोड़ा जा सकता। सरकार को कुछ फ़ैसले जनहित में लेने पड़ते हैं। अभी-अभी केन्द्र सरकार ने दिल्ली की लगभग १९०० कालोनियों को नियमित करने का आदेश किया है। सुप्रीम कोर्ट उसको भी रद्द कर सकता है या स्टे दे सकता है। गृहविहीनों को आश्रय देने के लिए सरकार को सुन्दरीकरण और मौजूदा नियमों में संशोधन कर ऐसे निर्णय लेने पड़ते हैं। सरकारी महलनुमा आवासों में रहने वाले कभी भी गरीबों की पीड़ा को समझ नहीं पाएंगे। ऐसी टिप्पणी लालू, मुलायम, मायावती और ममता की ओर आई होती तो कुछ भी आश्चर्य नहीं होता लेकिन विद्वान न्यायाधीश की टिप्पणी अनावश्यक और आपत्तिजनक है। कोर्ट को संविधान और वर्तमान नियमों के अन्तर्गत फैसला सुनाने का पूरा अधिकार है लेकिन गैरवाज़िब टिप्पणी से परहेज़ करना चाहिए। वैसे ही जयललिता के जमानत के प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उच्च न्यायालय द्वारा ज़मानत की याचिका खारिज़ कर देने के बाद भी जमानत दिए जाने में एक हजार रुपये के लेन-देन का मामला अभी ठंढ़ा नहीं हुआ है। एक न्यायालय ही है जिसपर जनता का भरोसा थोड़ा-बहुत कायम है। लेकिन ऐसी टिप्पणी से भरोसा उठ जाना स्वाभाविक होगा। क्या कारण है कि लालू जैसे नेताओं की जमानत याचिका उच्च न्यायालय के स्तर से खारिज़ हो जाती है परन्तु सुप्रीम कोर्ट धड़ल्ले से ऐसे लोगों को ज़मानत दे देता है। दाल में कुछ काला तो है ही। एक गरीब तो सुप्रीम कोर्ट की दहलीज़ पर कभी फटक ही नहीं सकता लेकिन अपेक्षाकृत कम धनी लोगों की याचिकायें भी वर्षों से लंबित पड़ी रहती हैं। सुप्रीम कोर्ट जिस तेजी से राजनेताओं और धनवानों की याचिकाओं पर त्वरित सुनवाई करता है, वह भी संदेह के घेरे में है। अलग-अलग सरकारी महकमों में २००५, २००६ एवं २००७ में व्याप्त भ्रष्टाचार का तुलनात्मक अध्ययन किया गया जिसमें शिक्षा व्यवस्था के बाद न्यायपालिका नंबर दो के स्थान पर हमेशा काबिज़ रही जिसमें लोवर कोर्ट सर्वाधिक भ्रष्ट, हाई कोर्ट अपेक्षाकृत कम भ्रष्ट और सुप्रीम कोर्ट दाल में नमक के बराबर भ्रष्ट पाए गए। ट्रांसपेरेसी इंटरनेशनल (इंडिया) के उपाध्यक्ष डा. एस.के.अग्रवाल द्वारा जारी की गई सूची के अनुसार देश के सबसे भ्रष्ट महकमों के नाम मेरिट के अनुसार निम्नवत है -
१. शिक्षा व्यवस्था
२. न्यायपालिका
३. स्वास्थ्य सेवाएं
४. पुलिस
५. राजनीतिक दल
६. संसद/विधान सभाएं
७. रजिस्ट्री और परमिट सेवा
८. बुनियादी सुविधाएं (टेलिफोन, बिजली, जल आदि)
९. कर राजस्व
१०. वाणिज्य/निजी क्षेत्र
११. मीडिया
(संदर्भ उधारी संविधान: दूषित लोकतंत्र, पृष्ठ - ४४,४५, लेखक प्रो. वीरेन्द्र कुमार, प्रकाशक - पिलग्रिम्स प्रकाशन, वाराणसी)
सर्वोच्च न्यायालय अपनी नाक के नीचे फल-फूल रहे भ्रष्टाचार की तो अनदेखी करता है लेकिन दूसरों के फैसलों पर अनावश्यक टिप्पणी करके अपनी ओर उठी ऊंगली को दूसरी ओर मोड़ने का बार-बार प्रयास करता है। भ्रष्टाचार का सर्वाधिक असर समाज के गरीब समुदाय पर पड़ता है जिनकी कोई सिफ़ारिश नहीं होती। पुलिस, न्यायायिक और कानूनी क्षेत्रों में भ्रष्टाचार आम लोगों को समानता के अधिकार से वंचित करने का जघन्य अपराध है। न्याय में विलंब से देश में कितना बड़ा तूफ़ान खड़ा होता है, उसका जीता-जागता प्रमाण रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामले का कई दशकों तक कोर्ट में लंबित रहना है। आज जबकि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपना निर्णय सुना दिया है, सुप्रीम कोर्ट ने उसके अमल पर रोक लगा रखी है। उसे २-जी, ३-जी, ए.राजा, मायावती, मुलायम, ममता, जय ललिता, लालू यादव ........... से फुर्सत ही कहां है? इतने महत्त्वपूर्ण मामले पर त्वरित सुनवाई करके मामले का निपटारा करना सर्वोच्च न्यायालय की प्राथमिकता सूची में होना चाहिए था। पता नहीं यह मामला कहां अटका पड़ा है। Justice delayed is justice denied.

Thursday, December 4, 2014

क्या लड़का होना गुनाह है?


       मेरे एक मित्र ने व्हाट्स अप पर एक वीडियो भेजा है जिसमें एक छोटी सी घटना के माध्यम से पुरुष और स्त्री की मानसिकता को दर्शाया गया है -- एक मेट्रो शहर में एक लड़की आधुनिक परिधान में बस के इन्तज़ार में खड़ी है। उसके पीछे एक अधेड़ आदमी हाथ में छड़ी लिये धीरे-धीरे चलते हुए आता है। उसकी आंखों पर गहरे काले रंग का धूप का चश्मा है। छड़ी से रास्ता टटोलता वह आगे बढ़ रहा है। रास्ता ढूंढ़ने के चक्कर में उसकी छड़ी का स्पर्श अधुनिका लड़की के कटि के नीचे पृष्ठ भाग से हो जाता है। लड़की क्रोध से पीछे की ओर मुड़ती है और चिल्लाते हुए अधेड़ आदमी को पीटना चालू कर देती है। आसपास के लोग भी लड़की का साथ देते हैं और अपना हाथ साफ कर लेते हैं। इस मारपीट में अधेड़ का चश्मा गिर जाता है। वह नीचे बैठकर टटोलते हुए अपने चश्मे को ढूंढ़ने की कोशिश करता है, तब लोगों को पता चलता है कि वह अन्धा है। एक किशोर उसका चश्मा ढूंढ़ लेता है और भीड़ के दुर्व्यवहार के लिए माफ़ी मांगते हुए उसे फिए से चश्मा पहना देता है। लड़की खड़ी सब देख रही होती है लेकिन माफ़ी नहीं मांगती है।
      अधेड़ अन्धा उसी फ़ुटपाथ पर आगे बढ़ता है। कुछ लड़के समूह में गोलगप्पा खा रहे हैं। रास्ते की तलाश में अन्धे की छड़ी का स्पर्श पुनः एक लड़के के कटि के नीचे के पृष्ठ भाग से होता है। लड़का पीछे मुड़कर पूछता है - “दिखाई नहीं पड़ रहा है क्या?” “नहीं बेटा, मुझे दिखाई नहीं देता। मैं अन्धा हूं। जानबूझकर मैंने तुम्हें नहीं छुआ है। मुझे मारना मत।” लड़के ने सहानुभूति दर्शाते हुए उसका हाथ पकड़ा और गन्तव्य स्थान का नाम पूछा। अन्धे को सड़क पार करनी थी। लड़के ने अपने मित्र की सहायता से अन्धे को सड़क के उस पार पहुंचाया।
      वीडियो सिर्फ़ ३ मिनट का था लेकिन पुरुष और स्त्री की मानसिकता के विषय में बहुत कुछ कह गया था।
      दो दिन पहले रोहतक जाने वाली बस में सवार दो लड़कियों ने छेड़खानी के आरोप में तीन लड़कों की पिटाई की थी। सारे अखबारों और टीवी चैनलों ने लड़कियों की बहादुरी के गुणगान में हिन्दी-अंग्रेजी के सारे शब्द इस्तेमाल किये। सभी राजनीतिक पार्टियों की महिला नेत्रियों ने उन कथित मनचलों की जी भरके निन्दा की। हरियाणा की सरकार ने दोनों लड़कियों को गणतन्त्र दिवस पर पुरस्कृत करने की घोषणा भी कर दी। घटना के ४८ घन्टों के अन्दर विभिन्न एन.जी.ओ. में लड़कियों को नकद पुरस्कार देने की होड़-सी लग गई। तभी कहानी में नया ट्वीस्ट आया। बस में सवार प्रत्यक्षदर्शी महिलाओं ने थाने में जाकर बताया कि लड़के निर्दोष थे। उन्होंने लड़कियों को नहीं छेड़ा था। लड़कियां एक गर्भवती महिला की सीट पर जबर्दस्ती बैठी थीं। लड़कों ने लड़कियों से सीट खाली करने को कहा था। इसी बात पर झड़प हुई और एक लड़की ने बेल्ट निकाल कर लड़के को पीटना चालू कर दिया। लड़कों का चुनाव सेना के लिये हो गया था। वे तन्दरुस्त और अच्छी कद-काठी के थे। वे तीन लड़के चाहते तो लड़कियों की बुरी तरह पिटाई कर सकते थे। लेकिन जैसा वीडियो में स्पष्ट है, उन्होंने लड़कियों पर हाथ नहीं उठाया।
      आज दिनांक ४ दिसंबर को सायं ६ बजे जी-न्युज ने दोनों लड़कियों और घटना में शामिल दो लड़कों का लाइव डिबेट कराया। एंकर और लड़कों के एक भी सवाल का लड़कियां उत्तर नहीं दे पाईं। एंकर भी एक महिला ही थीं। वे बहुत संयम से प्रश्न पूछ रही थीं ताकि सच सामने आ जाय। लड़कियां जवाब देने के बदले उद्दण्डता पर उतर आईं और डिबेट के मध्य में ही अनाप-शनाप बोलते हुए चली गईं। हरियाणा सरकार ने पूजा और आरती को सम्मानित करने का फ़ैसला स्थगित कर दिया है। एक अन्य लड़के की पिटाई करते हुए उन्हीं लड़कियों का एक और वीडियो जारी हुआ है। अमूमन अगर लड़की किसी लड़के पर छेड़खानी का आरोप लगाते हुए किसी लड़के से उलझती है, तो भीड़ लड़के का पक्ष सुने बिना लड़के की धुनाई कर देती है। लेकिन उस बस में एक भी पुरु्ष-महिला यात्री या चालक-कन्डक्टर लड़कियों के पक्ष में खड़ा नहीं हुआ। अब सच कुछ-कुछ सामने आ रहा है। लेकिन एक प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है - क्या लड़का होना गुनाह है?

Thursday, November 13, 2014

नेहरुजी को श्रद्धांजलि


आज भारत के प्रथम प्रधानमंत्री स्व. जवाहर लाल नेहरू की १२५वीं जयन्ती है। भारत सरकार अधिकृत रूप से इसे आज मना रही है और नेहरूजी की विरासत पर अपना एकाधिकार माननेवाली सोनिया कांग्रेस ने इसे एक दिन पहले ही मना लिया। लोक-परंपरा का निर्वाह करते हुए मैं भी सोच रहा हूं कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री को उनकी सेवाओं के लिये आज विशेष रूप से याद करूं और अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करूं। मस्तिष्क पर जब बहुत जोर दिया, तो उनसे संबन्धित निम्न घटनायें स्मृति-पटल पर साकार हो उठीं --
१. कमला नेहरू की मृत्यु के बाद नेहरूजी अकेले हो गये थे। उनकी देखरेख के लिये पद्मजा नायडू जो भारत कोकिला सरोजिनी नायडू की पुत्री थीं, आगे आईं। उन्होंने अपनी सेवा से नेहरूजी का दिल जीत लिया। दोनों के संबन्ध अन्तरंग से भी कुछ अधिक हो गए। दोनों विवाह करना चाहते थे, लेकिन गांधीजी ने इसकी इज़ाज़त नहीं दी। वे चाहते थे कि वे दोनों शादी करें, लेकिन आज़ादी मिलने के बाद क्योंकि पहले ही ऐसा काम करने से कांग्रेस और स्वयं जवाहर लाल नेहरू की छवि खराब होने की प्रबल संभावना थी। नेहरूजी मान गये और पद्मा को वचन भी दिया कि आज़ादी मिलने के बाद वे विधिवत ब्याह रचा लेंगे। पद्मा भी मान गईं और दोनों पहले की तरह पति-पत्नी की भांति रहने लगे।
२. भारत आज़ाद हो गया। नेहरूजी तीन मूर्ति भवन में रहने लगे। पद्मजा भी नेहरूजी के साथ ही तीन मूर्ति भवन में ही रहने लगीं। तभी नेहरूजी की ज़िन्दगी में हिन्दुस्तान के तात्कालिक गवर्नर जेनरल लार्ड माउन्ट्बैटन की सुन्दर पत्नी एडविना माउन्ट्बैटन का प्रवेश हुआ। नेहरूजी के दिलो-दिमाग पर वह महिला इस कदर छा गई कि भारत विभाजन में उसकी छद्म भूमिका को भी वे पहचान नहीं सके। अल्प समय में ही यह प्यार परवान चढ़ गया। पद्मजा ने सारी गतिविधियां अपनी आंखों से देखी, अपना प्रबल विरोध भी दर्ज़ कराया लेकिन नेहरूजी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। रोती-बिलखती पद्मजा ने १९४८ में त्रिमूर्ति भवन छोड़ दिया। वे आजन्म कुंवारी रहीं। नेहरूजी ने उनकी कोई सुधि नहीं ली।
३. भारत-विभाजन के लिए एडविना ने ही नेहरूजी को तैयार किया। फिर क्या था - एडविना की मुहब्बत में गिरफ़्तार नेहरू लार्ड माउन्ट्बैटन के इशारे पर खेलने लगे और पाकिस्तान के निर्माण के लिये सहमति दे दी। गांधीजी ने घोषणा की थी कि देश का विभाजन उनकी लाश पर होगा। वे जीवित भी रहे और अपनी आंखों से देखते भी रहे। नेहरू की ज़िद के आगे उन्हें समर्पण करना पड़ा। १४ अगस्त, १९४७ को देश बंट गया। लाखों लोग सांप्रदायिक हिंसा की भेंट चढ़ गये, करोड़ों शरणार्थी बन गये, गांधीजी ने किसी भी स्वतन्त्रता-समारोह में शामिल होने से इन्कार कर दिया लेकिन उसी समय नेहरु २१ तोपों की सलामी के बीच लाल किले पर अपना ऐतिहासिक भाषण दे रहे थे। उनके जीवन की सबसे बड़ी ख्वाहिश की पूर्ति का दिन था १५, अगस्त, १९४७ जिसकी बुनियाद में भारत का विभाजन और लाखों निर्दोषों की लाशें हैं। (सन्दर्भ - Freedom at midnight by Abul Kalam Azad)
४. इतिहास के किसी कालखंड में भारत और चीन की सीमायें एक दूसरे से कहीं नहीं मिलती थीं। संप्रभु देश तिब्बत दोनों के बीच बफ़र स्टेट की भूमिका सदियों से निभा रहा था। चीन तिब्बत पर माओ के उद्भव के साथ ही गृद्ध-दृष्टि रखने लगा। सरदार पटेल, जनरल करियप्पा आदि दू्रदृष्टि रखनेवाले कई राष्ट्रभक्तों ने चीन की नीयत से नेहरू को सावधान भी किया लेकिन वे हिन्दी-चीनी भाई-भाई की खुमारी में मस्त थे। चीन ने तिब्बत को हड़प लिया और भारत तिब्बत पर चीन के अधिकार को मान्यता देनेवाला पहला देश बना। चीन यहीं तक नहीं रुका। उसने १९६२ में भारत पर भी आक्रमण किया और हमारी पवित्र मातृभूमि के ६० हजार वर्ग किलोमीटर भूमि पर जबरन कब्ज़ा भी कर लिया। आज भी अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख के पूरे भूभाग पर अपना दावा पेश करने से बाज़ नहीं आता। 
५.पाकिस्तान ने कबायलियों के रूप में १९४८ में कश्मीर पर आक्रमण किया। कबायली श्रीनगर तक पहुंच गये। नेहरू शान्ति-वार्त्ता में मगन थे।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तात्कालीन सर संघचालक माधव राव सदाशिव गोलवलकर और सरदार पटेल के प्रयासों के परिणामस्वरूप कश्मीर के राजा हरी सिंह ने कश्मीर के भारत में विलय के समझौते पर दस्तखत किया। सरदार पटेल ने कश्मीर की मुक्ति के लिए भारत की फ़ौज़ को कश्मीर भेजा। सेना ने दो-तिहाई कश्मीर को मुक्त भी करा लिया था, तभी सरदार के विरोध के बावजूद नेहरू ने इस मुद्दे का अन्तर्राष्ट्रीयकरण कर दिया। इसे संयुक्त राष्ट्र संघ को समर्पित कर दिया और उसके निर्देश पर सीज फायर लागू कर दिया। कश्मीर एक नासूर बन गया, आतंकवाद पूरे हिन्दुस्तान में छा गया और अपने ही देश में मुसलमानों की राष्ट्रनिष्ठा सन्दिग्ध हो गई। 
आज १४ नवंबर को पंडित जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिवस के अवसर पर राष्ट्र पर उनके द्वारा किये गये उपरोक्त एहसानों को क्या याद नहीं करना चाहिये? जरूर करना चाहिये। उन्हें ही नहीं, इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी, संजय गांधी, सोनिया गांधी, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और राबर्ट वाड्रा गांधी को भी इस शुभ दिन पर हाथ जोड़कर और सिर झुकाकर नमस्कार करना चाहिए।

Monday, November 3, 2014

कांग्रेस के क्या लगते हैं राबर्ट वाड्रा

     सत्ता चली गई लेकिन नशा नहीं गया। राबर्ट वाड्रा ने एक सवाल के जवाब में पत्रकार के साथ बदसलूकी की, उसका कैमरा फेंक दिया। जो भी हुआ, उसपर माफ़ी मांगने की नैतिक जिम्मेदारी स्वयं वाड्रा की थी। उसके बाद यह जिम्मेदारी क्रमवार प्रियंका, सोनिया और राहुल की बनती है क्योंकि वाड्रा उनके परिवार के अंग हैं। लेकिन राजपरिवार ने इस घटना पर चुप्पी साधना ही बेहतर समझा। एक अदने पत्रकार से राजपरिवार के सदस्य ने एक छोटी-सी बदसलूकी कर ही दी, तो कोई पहाड़ तो नहीं टूट गया? यह तो उस परिवार का विशेषाधिकार है। अप्रिय सवालों के जवाब में स्व. नेहरू तो पत्रकारों पर हाथ भी उठा देते थे। इन्दिराजी मीडिया, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता और निष्पक्ष पत्रकारिता के प्रति सर्वाधिक असहिष्णु थी। आपात्काल लगाकर लोकतन्त्र का गला घोंटने के अतिरिक्त उन्होंने जो प्रेस सेंसरशीप लागू की वह भारत के लोकतंत्र के इतिहास में एक काला अध्याय था जिसने स्वतंत्र लेखन के अपराध में अंग्रेजों द्वारा स्व. बाल गंगाधर तिलक को देश निकाले और अंडमान की जेल में भेजने की घटना की याद सहज ही दिला दी थी। आपात्काल में देश के प्रमुख विपक्षी नेताओं के साथ बड़ी संख्या में पत्रकार भी जेल में ठूंस दिए गए थे। पत्रकार इन्दिरा गांधी की नीयत से शुरु में पूरी तरह वाकिफ़ नहीं थे। प्रेस सेन्सरशीप और इमर्जेन्सी के विरोध में कुछ अखबारों ने २६ जून, १९७५ को प्रकाशित अपने संस्करण के पहले पेज पर कोई समाचार नहीं छापा। पूरे पेज को काले रंग से लीप दिया। उन्हें अपनी गलती का एहसास तब हुआ जब उसी दिन संपादक/प्रकाशक जेल भेज दिये गये। बाद में पत्रकारों ने अपनी गलती सुधारी और बढ़-चढ़कर इमर्जेन्सी के समर्थन में कसीदाकारी की। जिस पत्र ने जितने ज्यादा कसीदे काढ़े, उसे उतना ही ज्यादा सरकारी विज्ञापन मिले। सोनिया तो मीडिया से मिलने में वैसे ही परहेज़ करती हैं, राहुल बाहें चढ़ाकर कई बार वाड्रा जैसी हरकतें कर चुके हैं। इसलिये मुझे वाड्रा की बदसलूकी पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ। बेचारा वैसे ही लैंड-डील के खुलासे से मानसिक रूप से परेशान है। अब न तो दिल्ली में और ना ही हरियाणा-राजस्थान में उसकी सास की सरकारें हैं। ऐसे में असहज करनेवाले पत्रकारों के सवाल! बेचारा आपा खो बैठा, तो क्या गलती की?
आश्चर्य तब होता है, जब कांग्रेस के राजपरिवार के दामाद के इस कृत्य पर पार्टी के नेताओं द्वारा सार्वजनिक रूप से माफ़ी मांगी जाती है। सुन्दर युवती अमृता राय के अवैध पति उम्रदराज़ महामहिम दिग्विजय सिंह ने सबसे पहले दामादजी की बदसलूकी के लिए माफ़ी मांगी। फिर तो माफ़ी मांगनेवालों में होड़ मच गई। ताज़ा नाम कांग्रेस के संगठन सचिव दुर्गा दास कामत का है। उन्होंने गोवा में दामादजी की बदसलूकी के लिये कांग्रेस की ओर से माफ़ी मांगी है। समझ में नहीं आता है कि राबर्ट वाड्रा कांग्रेस के क्या हैं - अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सचिव-महासचिव या कोई अन्य आफ़िस बियरर? फिर पार्टी की ओर से माफ़ी मांगने का क्या औचित्य है? वंशवाद के चमचों की चाटुकारिता का इससे बड़ा उदाहरण शायद ही मिले!