Wednesday, April 22, 2015

दोहरी शिक्षा व्यवस्था और जनता का शोषण


  किसी भी देश के लिए शिक्षा की दोहरी व्यवस्था आनेवाली पीढ़ी के लिए अभिशाप होती है। अपने देश में एक तरफ शिक्षा माफ़ियाओं द्वारा संचालित सर्व सुविधासंपन्न निजी स्कूल हैं, तो दूसरी ओर मिड डे मील के आसरे संचालित सरकारी स्कूल हैं। एक में अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा के नाम पर लूट-खसोट का सिलसिला प्रवेश प्रक्रिया से लेकर नाम कटाने तक खत्म नहीं होता। अनियंत्रित ऊंची फीस, टाई-बेल्ट, यूनिफार्म, कापी-किताब, बस की फीस, एजुकेशनल टूर, पिकनिक, वार्षिकोत्सव आदि के माध्यम से बच्चों और अभिभावकों का शोषण एक आम बात है। इसके अलावे एक और खेल चलता है, ट्यूशन का। निजी स्कूलों के शिक्षक सरे आम कोचिंग चलाते हैं। बच्चों पर दबाव बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते कि वे उनके यहां ट्यूशन पढ़ने आयें। ऐसे निजी स्कूलों में एक छात्र पर लगभग १५ हजार रुपए प्रति माह का खर्च आता है।
      ऐसे निजी स्कूलों का मुकाबला करने के लिए मिड डे मील के सहारे चलने वाले सरकारी स्कूल हैं जिसमें दो पहर के भोजन के अलावे छात्र/छात्राओं को कुछ प्राप्त नहीं होता। छ्ठी क्लास में पढ़ने वाले बच्चे हिन्दी का अखबार भी नहीं पढ़ पाते। मेरे घर काम करने वाली दाई ने अपनी बच्ची का नाम सरकारी स्कूल से कटवाकर कुकुरमुत्ते की तरह उग आए एक लोकल कान्वेन्ट स्कूल में कराया है। सरकारी स्कूलों की शिक्षा रसातल को चली गई है। इसका लाभ लेकर शिक्षा माफ़िया अकूत धन कमा रहे हैं। सरकार का दोनों में से किसी पर नियंत्रण नहीं है। सरकारी शिक्षकों को छठे वेतन आयोग के बाद अच्छी तनख्वाह मिल रही है लेकिन उनका झुकाव बच्चों को अच्छी शिक्षा देने की ओर बिल्कुल नहीं है। उनमें समर्पण की कमी है और पक्की नौकरी का अति विश्वास अलग से है। निजी स्कूलों के शिक्षकों की तनख्वाह सरकारी स्कूलों की तुलना में लगभग आधी है। निजी स्कूलों के शिक्षकों का औसत वेतन लगभग १० हजार रुपए है। वे तनख्वाह में कमी की भरपाई ट्यूशन से करते हैं। दोनों ही स्थितियों में शोषण का शिकार छात्र और अभिभावक ही होते हैं। पता नहीं सरकार की आंखें कब खुलेंगी? जबतक पूरे देश में एक सिलेबस और सिर्फ मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य नहीं की जाती, शोषण का यह खेल चलता रहेगा और शिक्षा माफ़िया अपनी जेबें भरती रहेंगी।


      

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