Wednesday, March 28, 2012

सुषमा स्वराज का प्रलाप


भारत के पूर्व प्रधान मंत्री और विश्व राजनीति के शिखर पुरुष श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने संसद में एकबार दिव्य सुक्ति कही थी कि बोलने के लिए सिर्फ वाणी की आवश्यकता होती है, लेकिन चुप रहने के लिए वाणी और विवेक, दोनों की आवश्यकता होती है। उनके अस्वस्थ होने से छुटभैया नेताओं की बन आई है। भारतीय जनता पार्टी में नेताओं द्वारा बिना सोचे समझे वक्तव्य देने की जैसे प्रतियोगिता चल रही हो। अब इस क्लब में सुषमा स्वराज भी शामिल हो गई हैं। स्वामी रामदेव जी के समर्थकों पर रामलीला मैदान में गत वर्ष लाठी चार्ज के विरोध में भाजपा द्वारा राजघाट पर आयोजित धरने में सुषमा जी का नृत्य टीवी के माध्यम से पूरे देश ने देखा था। वह कही से भी विपक्ष की नेता, वह भी भाजपा की नेता की मर्यादा के अनुकूल नहीं था। जहां सारा देश बाबा रामदेव और उनके समर्थकों पर अर्द्धरात्रि में बर्बर पुलिसिया कार्यवाही से सदमे में था, सुषमा जी अपनी प्रसन्नता रोक नहीं पा रही थीं। उन्हें आनेवाले चुनावों में भाजपा के लिए अनुकूल अवसर दिखाई दे रहा था। अपनी प्रसन्नता को उन्होंने नृत्य के माध्यम से अभिव्यक्त किया। लगता है भाजपा विपक्ष में रहकर ज्यादा संतुष्ट है। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन का सबसे अधिक लाभ भाजपा को ही मिलने की संभावना थी। उत्तर प्रदेश में मायावती के विरुद्ध भ्रष्टाचार विरोधी लहर पर सवार होकर भाजपा को सत्ता प्राप्त करने का सुनहरा अवसर समय ने स्वयं उपलब्ध कराया था लेकिन ऐन मौके पर मायावती सरकार के भ्रष्टतम मंत्री बाबू लाल कुशवाहा को पार्टी में शामिल कर भाजपा ने अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मार ली। समय और समुद्र की लहरें किसी की प्रतीक्षा नहीं करतीं। बाजी समाजवादी पार्टी के हाथ में चली गई। एक कहावत है - सूत न कपास, जुलाहों में लठमलठ। उत्तर प्रदेश की ४०३ सदस्यों वाली विधान सभा में मात्र ४८ सीटें पाने वाली भाजपा में मुख्यमंत्री पद के लिए सर्वाधिक नेता कुश्ती लड़ रहे थे। यही स्थिति केन्द्र में है। जनाधारविहीन नेताओं ने भाजपा के संसदीय दल पर कब्जा कर रखा है। जिस पार्टी में अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, नितिन गडकरी, वेंकटैया नायडू, और राजनाथ सिंह जैसे नेताओं का वर्चस्व हो, उसे हराने के लिए किसी सोनिया, दिग्विजय, मुलायम या लालू की जरुरत नहीं है। अटल जी बिस्तर पर हैं और आडवानी जी उम्र के अन्तिम पड़ाव पर। बड़बोले नेताओं पर किसी का नियंत्रण नहीं है। तभी तो सुषमा जी ने गत २६ मार्च को अन्ना टीम को निशाना बनाते हुए संसद में सिर्फ कटाक्ष ही नहीं किया, बल्कि आन्दोलन की निन्दा भी की। सभी कांग्रेसी चुप थे, वे मज़ा ले रहे थे। उनका काम सुषमा जी कर रही थीं। लालू, मुलायम और शरद यादव के वक्तव्य को कोई गंभीरता से नहीं लेता, लेकिन विपक्ष की नेता के भाषण को यूं ही हवा में नहीं उड़ाया जा सकता। अरविन्द केजरीवाल ने गत २५ मार्च को जन्तर-मन्तर पर सभा को संबोधित करते हुए सांसदों पर जो टिप्पणी की थी, उसमें कुछ भी गलत नहीं था। क्या इस तथ्य को झुठलाया जा सकता है कि सुषमा जी जिसे लोकतंत्र का मन्दिर कहती हैं, उसकी शोभा मरते दम तक कुख्यात दस्यु-सुन्दरी फुलन देवी बढ़ाती रहीं।
स्विस बैंक कारपोरेशन ने दिनांक ३१.१०.११ को भारत सरकार को लिखे अपने पत्र में खाता संख्या के साथ दस शीर्ष भारतीयों के नाम मुहैय्या कराए हैं। पत्र के अनुसार राजीव गांधी के नाम १९८३५६ करोड़, ए. राजा के नाम ७८५६ करोड़, शरद पवार के नाम २८९५६ करोड़, पी. चिदम्बरम के नाम ३३४५१ करोड़, सुरेश कलमाडी के नाम ५५६० करोड़, करुणानिधि के नाम ३५००९ करोड़ तथा कलानिधि मारन के नाम १५०९० करोड़ रुपए जमा हैं। सांसदों की तरफदारी करने वाली सुषमा जी क्या यह बता सकती हैं कि उपरोक्त व्यक्तियों की तुलना में वीरप्पन, मलखान या दाउद छोटे नहीं दिखाई पड़ते? क्या यह सत्य नहीं है कि नरसिंहा राव की सरकार और २००८ में मनमोहनी सरकार को बचाने के लिए संसद भवन में करोड़ों का लेन-देन हुआ था? कुर्सियों और माइक से संसद और विधान सभाओं में एक-दूसरे को लहुलुहान करनेवालों को क्या कहा जाएगा - गौतम बुद्ध, महावीर, विवेकानन्द या ..........? मुख्य विपक्षी दल होने के नाते बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के देशव्यापी जनान्दोलन का सीधा लाभ भारतीय जनता पार्टी को ही मिलना तय था लेकिन सुषमा जी और उनकी मंडली ऐसे ही विवेकहीन बयान देते रहे, तो उत्तर प्रदेश की तरह केन्द्र में भी यह पार्टी अप्रासंगिक हो जाएगी। कही सोनिया जी और सुषमा जी में कोई मिलीभगत तो नहीं है?

Saturday, February 25, 2012

उपन्यास ‘क्या खोया क्या पाया’

‘क्या खोया क्या पाया’ - एक समीक्षा
प्रवक्ता ब्यूरो
सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विषयों पर हिन्दी साहित्य में बड़ी संख्या में कई उपन्यास लिखे गए किन्तु विपिन किशोर सिन्हा का अद्यतन उपन्यास ‘क्या खोया क्या पाया’ कई मायनों में उन कथाओं से हटकर है क्योंकि इसमें न केवल कथासार है, सामाजिक विद्रूपताओं का जिक्र है, वैज्ञानिक ताना-बाना और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है अपितु एक सहज व्यंग्य की औपन्यासिक शैली में एक सार्थक सोच और वैचारिक मंथन निहित है जिसके सैद्धान्तिक सूत्र हमारे आपके जीवन के अति निकट तो है ही, राष्ट्रीय चिन्तन और राष्ट्र निर्माण की भूमिका में भी क्रान्तिकारी भूमिका निभाने में सक्षम है। यह उपन्यास उस संक्रमण संस्कृति की भोगी गई पीड़ा का इतिवृत्त है जिसने हमारी आस्थापूर्ण पुरानी परंपराओं, जीवन शैली, भाईचारे, गावों के प्रशान्त वातावरण, निर्द्वन्द्व सामाजिक परिवेश, सौहार्द्र एवं निश्छल व्यवहार का बदलाव करके जीवन के हर पक्ष में विकास के नाम पर आज के समाज को विसंगत परिस्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है और वह अपरिहार्य कारणों से रचनाकार को ग्राह्य नहीं है। उपन्यास के पात्रगण - बंगाली मिसिर, कान्ता आदि आज के लिए ज्वलन्त प्रश्न के रूप में उपस्थित किए गए हैं।
प्रो. बंगाली मिश्र, कुलपति यानि बी.एच.यू. के बंगाली मिसिर न केवल एक विद्रूप व्यंग्य है, मंत्री जी द्वारा प्रदत्त उपकार का बल्कि महामना द्वारा खड़े किए गए पवित्र विश्वविद्यालय के वर्तमान घटिया राजनैतिक हस्तक्षेप का जिसने हिन्दू विश्वविद्यालय में शिक्षक वर्ग में जातीयता और क्षेत्रीयता की बढ़ती प्रवृति की ओर संकेत किया है। एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय, कालेज से लेकर कार्यालय तक कहीं भी अपने अखिल भारतीय स्वरूप को बचाने में सफल नहीं हो सका। प्राद्यौगिक संस्थान और चिकित्सा विज्ञान संस्थान में भले ही थोड़ा बहुत उसका रूप परिलक्षित होता हो परन्तु अन्य संकायों में स्थानीय लोगों का ही बोलबाला है। लेखक का दावा है कि महज काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ही नहीं, सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालय इस दुर्व्यवस्था के शिकार हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय पंजाबियों के, शान्ति निकेतन बंगालियों के, अलीगढ़ मुसलमानों के और हैदराबाद तेलगु आबादी के कब्जे में है। रही सही कसर विद्यार्थियों के प्रवेश और शिक्षकों के चयन में आरक्षण की नीति ने पूरी कर दी है। शिक्षा का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। यह एक कटु सत्य है कि विश्व के सर्वश्रेष्ठ सौ विश्वविद्यालयों में भारत के एक भी विश्वविद्यालय का नाम दर्ज नहीं है।
इस उपन्यास के ९वें अध्याय के पृष्ठ ११७-११८ पर उद्धृत ऐसा कटु व्यंग्य-सत्य है जो किसी ‘राग दरबारी’ (श्रीलाल शुक्ल) की शैली से कमतर नहीं है। हमारी सरकारी नीतियां प्रतिभा और गुणवत्ता को प्रभावी ढंग से निरन्तर हतोत्साहित किए जा रही हैं। आधुनिक जीवन शैली अपनाने से किस प्रकार परिवार खोखला, अभावग्रस्त, रिश्वत में लिप्त और भ्रष्टाचार से ओतप्रोत हो जाता है, अध्याय दस में इसका रोंगटे खड़ा कर देनेवाला सजीव चित्र उपस्थित किया गया है।
उपन्यास की रचना में घटनाओं की कल्पनाएं, भले ही वे वास्तविकता का आधार लिए हुए हों, कथोपकथन एवं विवरणों की भाषा एक विशिष्ट शैली के रूप में प्रस्तुत हुई है जिसमें गांव के मेले, खेत-खलिहान, लोकगीतों की मधुरिमा, विभिन्न संबन्धीगणों की भावनाएं और एक-दूसरे के प्रति खेलते हुए दांवपेंच, नगर की चकाचौंध, नारी पात्रों की भावनाओं का प्रकटीकरण प्रांजल रूप में प्रस्तुत हुआ है। पत्नी का निश्छल स्वभाव नायक के जीवन में सावन की रिमझिम की तरह बरसता है, वसंत के कोयल की तरह कूकता है और रातरानी की तरह मीठी खुशबू बिखेरता है - यह उपन्यासकार की अपनी शैली है।
यह उपन्यास गांव की पुरानी स्मृति के प्रस्तुतीकरण पर आधारित है। इस परिवर्तनशील संसार में सबकुछ बदलता है। यदि कभी कुछ नहीं बदलता, तो वह है हमारा निश्छल प्यार - ठीक उपन्यास के नायक और नायिका की भांति। यह उपन्यास पाठकों के मन को झकझोरेगा। संक्रमण संस्कृति के दंश को भोगने की शक्ति प्रदान करेगा और साथ ही सांस्कृतिक बदलाव कैसा हो, इसके लिए विचार-विमर्श की परिस्थिति उत्पन्न करेगा जिससे भविष्य में हमारी संसकृति से मेल खाती सामजिक परिस्थितियां और उन्नति तथा विकास के मापदण्ड स्थापित हो सकें। पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है, किन्तु सर्वस्व खो दें और कुछ भी न पाएं, इसी का उहापोह है ‘क्या खोया क्या पाया’। उत्तम छ्पाई, सुन्दर कलेवर तथा सामग्री हेतु इस उपन्यास का साहित्य जगत में स्वागत होगा।
पुस्तक का विमोचन वाराणसी के महमूरगंज, तुलसीपुर स्थित निवेदिता शिक्षा सदन बालिका इण्टर कालेज के भाऊराव देवरस सभागार में लखनऊ विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. देवेन्द्र प्रताप सिंह के करकमलों द्वारा दिनांक २४ फरवरी, २०१२ को संपन्न हुआ।
पुस्तक - ‘क्या खोया क्या पाया’
लेखक - विपिन किशोर सिन्हा
प्रकाशक - संजय प्रकाशन

Friday, February 24, 2012

आपरेशन बटाला हाउस के शहीद इन्स्पेक्टर मोहनचन्द शर्मा

कलम आज उनकी जय बोल -
१९ सितंबर, २००८ को सवेरे दिल्ली पुलिस को यह खुफिया जानकारी मिली कि नई दिल्ली के जामिया नगर क्षेत्र की चार मंजिली इमारत बटाला हाउस में पांच खूंखार आतंकवादी भविष्य के वारदात की योजना बना रहे हैं। दिल्ली पुलिस के इन्सपेक्टर मोहनचन्द शर्मा ने अविलंब कार्यवाही का निर्णय लिया। अपने सात साथियों की जांबाज टीम के साथ वे बटाला हाउस के आतंकवादियों के ठिकाने पर पहुंच गए। दिन के साढ़े दस बजे उन्होंने आतंकवादियों को पकड़ने की कार्यवाही आरंभ की। लेकिन दूसरी ओर से जबर्दस्त फायरिंग शुरु हो गई। गोलीबारी की आड़ में आतंकवादियों ने भागने की कोशिश की। पुलिस की जवाबी कार्यवाही में अतीफ अमीन और मोहम्मद साज़िद, दो आतंकवादी मारे गए; मोहम्मद सैफ और जिशान, दो घायल अवस्था में पकड़े गए और एक आरिज़ खां भागने में कामयाब रहा। इनमें से अतीफ अहमद छ: दिन पहले हुए (दिनांक - १३-९-०८) दिल्ली के सिरियल बम धमाकों का, जिसमें ३० लोग मारे गए थे और सौ से ज्यादा घायल हुए थे, का नामजद मुजरिम था। इसके अतिरिक्त वह अहमदाबाद, जयपुर, सूरत और फैज़ाबाद के जघन्य बम-विस्फोटों का भी मुज़रिम था। उसके खिलाफ कई न्यायालयों में हत्या, षड्‌यंत्र और बम विस्फोटों के आपराधिक मामले चल रहे हैं। इस आपरेशन में बेशक दो आतंकवादी मारे गए लेकिन पुलिस और देश को इसकी महंगी कीमत चुकानी पड़ी। दिल्ली पुलिस के वीर इन्सपेक्टर मोहनचन्द शर्मा इस कार्यवाही में शहीद हो गए। ये वही मोहनचन्द शर्मा थे जिन्होंने अपनी अल्प काल की सेवा में सात वीरता पुरस्कार अपनी जांबाजी और कर्त्तव्यनिष्ठा के बल पर हासिल किए थे। मरणोपरान्त उन्हें २६ जनवरी, २००९ को गणतंत्र दिवस के पावन अवसर पर भारत के राष्ट्रपति ने शान्तिकाल के सर्वोच्च सैनिक सम्मान ‘अशोक चक्र’ से अलंकृत किया। लेकिन उस अमर शहीद, वीर शिरोमणि मोहनचन्द शर्मा की राष्ट्रयज्ञ में दी गई आहुति को दिग्विजय सिंह, राहुल गांधी, अमर सिंह, मुलायम सिंह यादव और कई धर्मनिरपेक्षवादियों ने फर्जी साबित करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी। कई एन.जी.ओ. ने दिल्ली हाई कोर्ट में इसे फर्जी मुठभेड़ बताते हुए जांच के लिए याचिका दायर की। दिनांक २१ मई, २००९ को दिल्ली हाई कोर्ट ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को घटना की जांच करने का आदेश दिया। मानवाधिकार आयोग ने अपनी ३० पेज की रिपोर्ट दिनांक २५-७-०९ को हाई कोर्ट में जमा कर दी। रिपोर्ट में किसी तरह के मानवाधिकार के उल्लंघन की बात स्वीकार नहीं की गई। आयोग ने दिल्ली पुलिस को भी ‘क्लीन चिट’ दी थी।
उत्तर प्रदेश के वर्तमान विधान सभा चुनाव में दिग्विजय, राहुल और मुलायम की तिकड़ी ने आपरेशन बटाला हाउस को फर्जी एनकाउंटर घोषित किया। कांग्रेसी नेताओं ने विवाद में सोनिया गांधी को घसीटते हुए बयान दिए कि बटाला हाउस के मृत आतंकवादियों की लाशों को देखकर श्रीमती गांधी की आंखों से आंसू टपकने लगे थे। मुस्लिम वोटों की चाह में ये नेता और पार्टियां किस कदर नीचे गिर सकती हैं, इसका प्रमाण है, इस कार्यवाही को विवादास्पद बनाने की साज़िश। यह न सिर्फ अमर शहीद इन्सपेक्टर मोहनचन्द शर्मा की राष्ट्र की बलिवेदी पर दी गई पुण्य आहुति का अपमान है, बल्कि भारत के राष्ट्रपति, अशोक चक्र और न्यायपालिका का भी अपमान है।
अमर शहीद, वीरशिरोमणि मोहनचन्द शर्मा! इस देश को तुम्हारी अत्यन्त आवश्यकता थी। अभी तुम्हारी उम्र ही कितनी थी! तुम्हारी विधवा पत्नी और तुम्हारे बच्चों की आंखों से अनवरत गिरते आंसुओं पर किसी नेता का ध्यान नहीं जाता। उन्हें वोट की लालच में आतंकवादियों के शवों पर आंसू बहाने से फुर्सत ही कहां मिल पा रही है? अफवाह फैलाई गई कि विभागीय प्रतिद्वंद्विता के कारण योजनाबद्ध ढ़ंग से तुम्हें तुम्हारे साथियों ने ही गोली मार दी थी। ‘अशोक चक्र’ पाने वाले महावीर! तुम्हारी हुतात्मा यह प्रश्न अवश्य करती होगी - क्यों न्योछावर कर दिए अपने प्राण, ऐसे कृतघ्न देशवासियों के लिए।
लेकिन नहीं वीर इन्सपेक्टर! तुमपर करोड़ों हिन्दुस्तानियों को गर्व है। भारत सरकार तुम्हें अशोक चक्र तो दे सकती है, लेकि मुस्लिम बहुल जामिया नगर में, जहां तुम शहीद हुए थे, तुम्हारा कोई स्मारक नहीं बना सकती, किसी रोड का नामकरण तुम्हारे नाम पर नहीं कर सकती। वोट कटने के डर से तुम्हारी पुण्यतिथि पर कोई समारोह भी नहीं कर सकती। परन्तु हमने अपने हृदयों में तुम्हारा स्मारक बनाया है। तुम्हारी मां जब भी तुम्हें याद करेंगी, उनकी आंखें नम होंगी, परन्तु उन नम आंखों में जो सबसे चमकता सितारा दूसरों को दिखेगा, वह तुम होगे। तुम्हारे पिता तुम्हें स्मरण कर भले ही चुपचाप आकाश को देखने लगें, लेकिन अपनी छाती को गर्व से उन्नत होने से नहीं रोक सकते। तुम्हारी पत्नी अभी भले ही अपनी आंखों से झरते अनगिनत मोतियों को रोक पाने में सफल न हों, किन्तु वही अपने पोते-पोतियों को तुम्हारी शौर्य-गाथा सुनाते समय अपनी आंखों में दिव्य ज्योति की चमक को नहीं रोक पाएंगी।
इन्सपेक्टर। तुमने अपना जीवन उत्सर्ग कर दिया देश और समाज के लिए - उस संकट की घड़ी में, जो तुम्हारी सबसे कठिन परीक्षा की थी। तुमने अपने आदर्श, देशभक्ति और कर्त्तव्यनिष्ठा पर तनिक भी आंच नहीं आने दी। तुमने अपनी सामान्य ड्‌युटी से कई गुणा अधिक ड्‌युटी की है। हम हिन्दुस्तानी तुम्हें सदैव याद करेंगे - गर्व और सम्मान के साथ।

Saturday, February 18, 2012

सिन्दूर


आम धारणा है कि इस्लाम मर्दों की स्वधर्मनिष्ठा और हिन्दुत्व महिलाओं की स्वधर्मपरायणता के कारण टिका हुआ है। इस्लाम में समस्त धार्मिक कार्य प्रायः मर्द ही करते हैं। महिलाओं को पुरुषों के साथ मस्ज़िद में जुम्मे की नमाज़ पढ़ने की भी इज़ाज़त नहीं है। इसके उलट हिन्दुओं का कोई भी धार्मिक अनुष्ठान बिना पत्नी के संपन्न नहीं होता। परंपरा से हिन्दू महिलाएं पुरुषों की तुलना में अधिक धार्मिक होती हैं। हिन्दुओं के समस्त पर्व-त्योहार, रीति-रिवाज आज भी महिलाओं के ही कारण जीवित हैं। हिन्दू पुरुष धार्मिक मामलों में लापरवाह होते हैं। अगर महिलाएं याद न दिलाएं तो वे होली-दिवाली भी भूल जाएं। दिवाली की पूजा में महिलाएं ही पुरुषों को जबरन बैठाती हैं। पुरुष तो घर से भागकर जुआ खेलने की फिराक में रहता है। किस पुरुष को महाशिवरात्रि, करवा चौथ, गणेश चौथ या हरतालिका की तिथि याद रहती है? दूसरे के घर से आई लड़की ससुराल के रीति-रिवाज आते ही सीख लेती है और उसके अनुसार जीवन भर आचरण भी करती है लेकिन पुरुष को कुछ भी याद नहीं रहता। बच्चे के जन्म से लेकर शादी-ब्याह तक, सत्यनारायण-कथा से लेकर रुद्राभिषेक तक, छठ पूजा से लेकर नवरात्र की शक्ति-पूजा तक की सारी विधियां. तौर-तरीके महिलाओं को पता रहती हैं, कण्ठस्थ रहती हैं। पुरुष यंत्रवत काम करता है। धार्मिक अनुष्ठानों और तीज-त्योहारों का विभाग हिन्दू परिवारों में पूर्ण रूप से महिलाओं के हवाले है। महिलाएं हिन्दू धर्म का सबसे मजबूत स्तंभ हैं; वस्तुतः रीढ़ की हड्डी हैं। आधुनिकता की आंधी और पश्चिमी संस्कृति ने टीवी, सिनेमा एवं माडेलिंग के माध्यम से हमारे इस सबसे मजबूत स्तंभ पर प्रबल आघात किया है।
प्रथम प्रहार महिलाओं के परिधान पर किया गया। साड़ी अब नानी और दादी का पहनावा बनकर रह गई है। माताओं ने जब दुपट्टा गले में लपेटना शुरु कर दिया, तो बेटियों ने इसे हमेशा के लिए फेंक दिया। लड़के तो ढ़ीला-ढ़ाला जिन्स पहनते हैं, लेकिन लड़कियां? कस्बे से लेकर महानगर तक आप स्वयं देख सकते हैं। क्या लड़कियों की शारीरिक संरचना इतने तंग टाप और चमड़े से चिपके जिन्स पहनने की इज़ाज़त देती है? जो महिला जितनी ही आधुनिक है, कपड़ों से उसे उतना ही परहेज़ है।
दूसरा और सबसे प्रबल प्रहार पश्चिमी आधुनिकता ने हिन्दू महिलाओं के प्रतीक-चिह्न पर किया है। जब भी कोई विवाहिता श्रेष्ठ जनों को प्रणाम करती है, तो प्रथम आशीर्वाद पाती है - सौभाग्यवती भव। सौभाग्य का प्रतीक सिन्दूर हर हिन्दू महिला अपनी मांग में धारण करती थी। इस सिन्दूर के कारण महिलाएं समाज में सम्मान पाती हैं। राह चलते मनचलों की दृष्टि भी जब सिन्दूर पर पड़ जाती है, तो तो वे भी सिर झुकाकर अलग खड़े हो जाते हैं। कहावत है, कुंआरी कन्या के हजार वर। लेकिन वही कुंआरी कन्या जब सिन्दूर से अलंकृत हो जाती है तो मांग में सिन्दूर भरने वाले की जनम-जनम की संगिनी बन जाती है। हिन्दू धर्म में पति-पत्नी का रिश्ता अत्यन्त पवित्र माना जाता है। विवाह के बाद हमारे समाज में किसी तरह का निकाहनामा, एग्रीमेन्ट या मैरेज सर्टिफिकेट जारी नहीं किया जाता। औरत की मांग का सिन्दूर ही सर्वोच्च मान्यताप्राप्त पवित्र मैरेज सर्टिफिकेट होता है। एकबार हनुमान जी ने जिज्ञासावश मां जानकी से पूछा था कि वे मांग में लाल लकीर क्यों लगाती हैं। मां सीता ने उत्तर दिया कि यह लाल लकीर सिन्दूर की रेखा है जो प्रभु श्रीराम को अत्यन्त प्रिय है और इस सिन्दूर के कारण ही वे प्रभु श्रीराम की प्रिया हैं। फिर क्या था? हनुमान जी ने अपने पूरे शरीर में सिन्दूर लगा लिया। महाकवि तुलसीदास जी ने हनुमत्‌वन्दना करते हुए लिखा भी है - लाल देह लाली लसै, अरु धरि लाल लंगूर; वज्र देह दानव दलन जय-जय-जय कपिसुर। सिन्दूर की पवित्रता और अखंडता के लिए हिन्दू वीरांगनाओं की त्याग, तपस्या और आहुतियों की गाथा से भारत का गौरवपूर्ण इतिहास और वांगमय भरा पड़ा है। सैकड़ों वर्षों की गुलामी और विपरीत परिस्थितियों में भी हिन्दू नारी ने अपने सौभाग्य के इस प्रतीक चिह्न को कभी अपने से अलग नहीं किया। लेकिन इक्कीसवीं सदी के आते ही मांग के सिन्दूर ने ललाट पर कब एक छोटे तिकोने टीके का रूप ले लिया, कुछ पता ही नहीं चला। हिन्दू नारी विवाहिता होने पर गर्व की अनुभूति करती थी, आज वह इसे छुपाने में गर्व महसूस करती है। अशुभ के हृदय में बैठे डर के कारण वह सिन्दूर का एक छोटा टीका ललाट के दाएं, बाएं या मध्य में लगा तो लेती है लेकिन बालों को थोड़ा आगे गिराकर उसे छिपाने की चेष्टा भी करती है। मांग तो सूनी ही दिखाई देती है। आश्चर्य तो तब होता है जब मातायें भी आधुनिकता की दौड़ में अपनी बेटियों से आगे निकलने की होड़ में शामिल हो जाती हैं। हिन्दू धर्म की रीढ़ में क्षय-रोग बसेरा बनाता जा रहा है।

Saturday, February 11, 2012

१० माह का आत्मन


गर्दन में डाल नन्हीं बांहें, जब गोद मेरी चढ़ जाता है,
नवजीवन पा जाता हूं, जब तू बाबा तुतलाता है।

होत सवेरा जगने पर, तू मुझे ढूंढ़ता आता है,
निश्छल आंखें बाहें पसार, तू मुझे निमंत्रण देता है,
जब पास मैं तेरे आता हूं, तू धीरे से मुस्काता है,
नवजीवन पा जाता हूं, जब तू बाबा तुतलाता है।

माता के हाथ कटोरी है, ममता से भरे निवेदन पर,
पापा की घेरेबन्दी में, चन्दा-तारों के गाने पर,
लंबी अवधि मनुहार करा, तू धीरे-धीरे खाता है;
नवजीवन पा जाता हूं, जब तू बाबा तुतलाता है।

नन्हीं सी तेरी हथेली है, अति कोमल हैं तेरे घुटने,
बन मकोइया तेजी से, चलता है, बुनता है सपनें,
अधरों से अस्फुट बोल फुटे, हंसता है सिर झटकाता है;
नवजीवन पा जाता हूं, जब तू बाबा तुतलाता है।

खेल, शरारत, तोड़फोड़, सोकर जगने पर यही काम,
खिलौने तुझको कम प्यारे, सब व्यस्त रहें बस एक ध्यान,
स्नानगृह के पास आकर, दस्तक दे मुझे बुलाता है;
नवजीवन पा जाता हूं, जब तू बाबा तुतलाता है।

संध्या को घूम-टहलकर मैं, जब वापस घर को आता हूं,
घंटी की ध्वनि सुनते ही, दरवाजे पर तू आता है,
चंचल आंखें, मुखमुद्रा से,अपनी बातें समझाता है;
नवजीवन पा जाता हूं, जब तू बाबा तुतलाता है।

कभी घुटने पर कभी पेट के बल, बस तू चलता ही रहता है,
जब मैं कहता हूं - पकड़-पकड़, तू और तेज हो जाता है,
फिर पीछे मुड़कर देख मुझे, हंसता है, खिल-खिल जाता है;
नवजीवन पा जाता हूं, जब तू बाबा तुतलाता है।

मेरा चश्मा, तेरा दुश्मन, तू उसे फेंकना चाहे नित,
पर जब पहना देता तुझको, सुन्दरता बढ़ जाती अगणित,
शीशे से नेत्र तेरे झांकें, सम्मोहित तू कर जाता है;
नवजीवन पा जाता हूं, जब तू बाबा तुतलाता है।

खेल-खेल कर दिन पर्यन्त, जब तू थोड़ा थक जाता है,
होठों को करके गोल-गोल, जब तू जमुहाई लेता है,
सचराचर सृष्टि मुझे दिखती, जीवन सार्थक बन जाता है;
नवजीवन पा जाता हूं, जब तू बाबा तुतलाता है।

मेरी बेसुरी लोरी पर, कंधे पर मेरे सिर रखकर,
मेरी थपकी के साथ-साथ, मेरी धड़कन की आहट पर,
गुन-गुन, धीमे-धीमे, तू सुर में सुर मिलाता है
नवजीवन पा जाता हूं, जब तू बाबा तुतलाता है।

Sunday, January 22, 2012

सर्वोच्च पदों का अवमूल्यन




कांग्रेस की सरकार जब-जब केन्द्र में रही है,
इसने देश के सर्वोच्च पदों का अवमूल्यन करने में अपनी ओर से कोई को्र
कसर नहीं छोड़ी है। इस परंपरा की शुरुआत इन्दिरा गांधी ने देश पर आपात्‌ काल
थोपने के कुछ ही दिनों बाद की, जब सर्वोच्च न्य़ायालय के चार वरिष्ठ न्यायधीशों की योग्यता
और वरिष्ठता को दरकिनार कर ए.एन.राय को सर्वोच्च न्यायालय के
मुख्य न्यायाधीश का प्रतिष्ठित पद सौंपा गया। जिस अपेक्षा से उन्हें यह दायित्व सौंपा
गया, उन्होंने इसे पूरा भी किया। श्रीमती गांधी के रायबरेली संसदीय क्षेत्र से चुनाव
को अवैध घोषित करने तथा उन्हें छः वर्षों तक चुनाव लड़ने से अयोग्य
ठहराने के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को पलटने में सर्वोच्च न्यायालय को कोई
असुविधा नहीं हुई। कारण था मुख्य न्यायाधीश के पद पर इन्दिरा गांधी के वफ़ादार जस्टिस
राय का विद्यमान होना और अपनी वरिष्ठता को नज़रअन्दाज़ करने के विरोध में जस्टिस खन्ना
के नेतृत्व में चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों का त्यागपत्र देना। सर्वोच्च न्यायालय के अवमूल्यन के वे प्रारंभिक दिन थे।
भारत का राष्ट्रीय चुनाव आयोग तो टी.एन. शेषन के मुख्य चुनाव आयुक्त
बनने तक पूर्ण रूप से सरकार का जेबी संगठन था। शेषन ने पहली बार भारत की जनता को चुनाव
आयोग की स्वायत्तता से परिचित कराया लेकिन सरकार को यह रास नहीं आया। सरकार ने एक सदस्यीय
चुनाव आयोग को त्रिसदस्यीय बनाकर चुनाव आयोग के भी पर कतर दिए। फिर से चुनाव आयोग १९८०
के पूर्व की राह पर अग्रसर है। उत्तर प्रदेश में हाथी को ढंकने तथा उत्तराखंड में जानबूझकर
भयंकर हिमपात के दौरान चुनाव की तिथि रखने के पीछे कांग्रेस को फ़ायदा पहुंचाने का उद्देश्य
साफ़ हो जाता है।
भारत के सर्वोच्च संवैधानिक पद - राष्ट्रपति के पद का अवमूल्यन करने
में भी कांग्रेस की केन्द्रीय सरकार को तनिक भी हिचक नहीं हुई।
डा. राजेन्द्र प्रसाद, डा. राधाकृष्णन और डा. ए.पी.जे.कलाम ने अपने कार्यों और ऊंचे
व्यक्तित्व से राष्ट्रपति पद की गरिमा में जो चार चांद लगाया था, क्या शेष राष्ट्रपति
उसके आसपास भी पहुंच सके? नेहरू जी के बाद कांग्रेस ने पार्टी और पार्टी नेतृत्व के
प्रति प्रतिबद्धता को ही राष्ट्रपति पद के लिए सर्वोच्च योग्यता मानी। हद तो तब हो
गई जब भ्रष्टाचार के मामलों का सामना कर रहे देश के लिए एक अनजान प्रत्याशी को राष्ट्रपति
बना दिया गया। आज की तिथि में प्रधान मंत्री के पद का जो अवमूल्यन हुआ है, किसी से
छिपा नहीं है। कोई भी मंत्री, प्रधान मंत्री के अधीन नहीं है। वास्तविक सत्ता का केन्द्र
कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष का आवास हो गया है। स्वायत्त संस्था सी.वी.सी
के अध्यक्ष के पद पर दागी थामस साहब की नियुक्ति, मानवाधिकार
आयोग के अध्यक्ष के पद पर विवादास्पद पूर्व मुख्य न्यायाधीश बालकृष्णन की नियुक्ति
इन संस्थाओं का सप्रयास अवमूल्यन नहीं तो और क्या है? सरकार द्वारा
सी.बी.आई., सी.ए.जी और राज्यपाल द्वारा अपने विरोधियों को साधने
के अनगिनत उदाहरण आए दिन समाचार पत्रों की सुर्खियों में हमेशा रहते हैं।
सेना में वरिष्ठता और योग्यता को दरकिनार न करने
की एक श्रेष्ठ परंपरा रही है। इसे पहली बार तोड़ा इन्दिरा गांधी ने। आपात्‌ काल के बाद
पुनः सत्ता प्राप्त करने के उपरान्त श्रीमती गांधी का आत्मविश्वास हिल गया था। उन्हें
सभी दिशाओं से षडयंत्र की गंध आती थी। जनरल एस.के.सिन्हा, अपनी वरिष्ठता और योग्यता के आधार पर स्थल सेनाध्यक्ष के पद के एकमात्र सही
दावेदार थे। उनका कैरियर बेदाग था और वे सबसे वरिष्ठ थे लेकिन इन्दिरा गांधी के इशारे
पर उनकी वरिष्ठता को नज़र अन्दाज़ कर उनसे कनिष्ठ जनरल को स्थल सेनाध्यक्ष बना दिया गया।
जनरल सिन्हा के पास त्यागपत्र देने के सिवा कोई दूसरा विकल्प नहीं था। उनका दोष यही
था कि वे लोकनायक जय प्रकाश नारायण की बिरादरी के थे और जे.पी. की संपूर्ण क्रान्ति
की जन्मभूमि बिहार के रहने वाले थे।
कैसी विडंबना है कि पड़ोसी पाकिस्तान में सरकार
की उम्र सेनाध्यक्ष तय करता है और हिन्दुस्तान में सेनाध्यक्ष की उम्र सरकार तय करती
है! भारत के वर्तमान सेनाध्यक्ष जनरल वी.के.सिंह एक भ्रष्ट सरकार की कुटिल मंशा के
ताज़ा शिकार हैं। इस बार सेना का मनोबल गिराने और इसे विवादास्पद बनाने के लिए सरकार ने सारी सीमाएं तोड़ दी है। सेनाध्यक्ष न्याय
की फ़रियाद लेकर सुप्रीम कोर्ट जाये, यह दुर्भाग्यपूर्ण
ही नहीं, शर्मनाक भी है। जनरल वी.के.सिंह जब साढ़े चौदह वर्ष के
थे, तो राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में प्रवेश के लिए उन्होंने आवेदन
फार्म भरा था। इस उम्र में अधिकांश छात्र अपने
शिक्षक या अभिभावक से सलाह लेते हैं। छात्र वी.के.सिंह ने अपना फ़ार्म अपने शिक्षक श्री
भटनागर को दिखाया और उसे भरने के लिए उनसे सहायता का आग्रह किया। शिक्षक भटनागर ने
पूरा फर्म स्वयं भर दिया और बालक जनरल की उम्र १० मई, १९५० लिख
दी। यही एकमात्र भूल जनरल से हुई है। सारे विश्व में हाई स्कूल सर्टिफिकेट में अंकित
जन्मतिथि को ही मान्यता प्राप्त है। अपने देश में भी सर्वोच्च न्यायालय ने हाई स्कूल
सर्टिफिकेट में अंकित जन्मतिथि को ही अन्तिम रूप से वैध माना है। हाई स्कूल सर्टिफिकेट
में जनरल वी.के.सिंह की जन्मतिथि १० मई १९५१ दर्ज़ है और इसे ही आधार मानकर उनकी नियुक्ति
और पदोन्नतियां हुई हैं। अब अचानक चार दशकों से भी अधिक के उनके बेदाग कैरियर को विवादास्पद
बनाते हुए ‘आर्मी लिस्ट’ में अंकित उनकी जन्मतिथि, १०-५-५० को
रक्षा मंत्रालय ने सही माना है। सेना में अधिकारियों
के समस्त विवरण सेना द्वारा अभिरक्षित और जारी ‘आर्मी लिस्ट’ में दिए जाने की परंपरा
है। लेकिन इस अभिलेख को कोई कानूनी मान्यता प्राप्त नहीं है। बड़ी चालाकी से इसमें जनरल
सिंह की जन्मतिथि १०-५-१९५० डाल दी गई। अन्य सभी अभिलेखों में जनरल की जन्मतिथि १०-५-१९५१
ही दर्ज़ है। आज एक व्यक्ति विशेष को सेनाध्यक्ष बनाने के लिए उन्हें समय से पूर्व सेवानिवृत्त
करने हेतु आर्मी लिस्ट में दी गई जन्मतिथि को सरकार मुख्य आधार मान रही है। स्थल सेनाध्यक्ष
जनरल वी.के.सिंह एक कर्मठ, ईमानदार और साफ-सुथरी छवि के सेनाधिकारी
रहे हैं। सरकार को यह भ्रम होने लगा है कि भारत का हर स्वच्छ छवि का व्यक्ति अन्ना
का समर्थक है। कुछ दिनों के अन्दर ही कांग्रेस के महासचिव का बयान भी आ सकता है कि
जनरक वी.के.सिंह भी आर.एस.एस. के एजेन्ट हैं। इस सरकार को सिर्फ़ घोटालेबाज ही पसन्द
आते हैं। इस अभियान के तहत जनरल वी.के.सिंह की सेवानिवृति को विवादास्पद बनाने का हर
संभव प्रयास किया जा रहा है।
अवकाश प्राप्त मेजर जनरल आर.एस.एन.सिंह सेना
के मिलिटरी इन्टेलिजेन्स आफिसर रहे हैं। उन्होंने दिनांक २२ जनवरी, २०१२ को दक्षिण से प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक ‘डेक्कन क्रोनिकल’ में
`Biggest Fraud In The Army' शीर्षक से एक लेख लिखा है। उन्होंने लिखा
है कि सेना द्वारा जारी `Army List' को जिसमें जनरल वी.के.सिंह
की उम्र एक साल ज्यादा दिखाई गई है, कोई कानूनी वैधता या मान्यता
प्राप्त नहीं है। यह एक ऐसा डोजियर है जिसमें तमाम त्रुटियां भरी हैं। सेना के अफसरों
के बारे में इस अभिलेख में दिए गए विवरण में कई अफसरों के गलत नाम-पते, जन्मतिथियां और आई.सी. नंबर भरे पड़े हैं। मेजर जनरल सिंह ने दावा किया है कि
उनके समकालीन ब्रिगेडियर रैंक के एक अधिकारी के पिता के नाम के स्थान पर स्वयं अधिकारी
का ही नाम दर्ज़ था और अवकाश प्राप्ति के बाद भी इसमें कोई सुधार नहीं किया गया। जनरल
वी.के.सिंह ने इस डोजियर में उल्लिखित अपनी जन्मतिथि (१०-५-५०) को अपने हाई स्कूल सर्टिफिकेट
में अंकित जन्मतिथि (१०-५-५१) के आधार पर सुधारने के लिए सन्‌ २००६ एवं २००८ में आवेदन
पत्र दिया जिसका निस्तारण जनवरी २०१२ में करते हुए रक्षा मंत्रालय ने Army
List में अंकित जन्मतिथि को ही सही मानते हुए उनकी याचिका को खारिज़ कर
दिया। हाई स्कूल का सर्टिफिकेट एक कानूनी मान्यता प्राप्त अभिलेख है। इसमें वर्णित
जन्मतिथि को ही अन्तिम रूप से वैध माना जाता है। ड्राइविंग लाइसेंस से लेकर पासपोर्ट
जारी करने की प्रक्रिया में इसे ही सही माना जाता है। जनरल वी.के.सिंह के हाई स्कूल
के शिक्षक श्री भटनागर की जल्दीबाज़ी में की गई एक छोटी सी भूल की सज़ा स्थल सेनाध्यक्ष
को देने का सरकार मन बना चुकी है। ऐसे में
अपने स्वाभिमान की रक्षा करने हेतु जनरल वी.के.सिंह का सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाना
कही से भी अनुचित प्रतीत नहीं होता। वहां देर भले है, अंधेर नहीं।

Thursday, January 12, 2012

११ सितंबर 1893 को शिकागो में आयोजित विश्वधर्म-महासभा में स्वामी विवेकानन्द के ऐतिहासिक संबोधन का हिन्दी रूपान्तरण

महान युगद्रष्टा स्वामी विवेकानन्द जी की १५०वीं जयन्ती के अवसर पर


अमेरिकावासी बहनो तथा भाइयों,
आपने जिस सौहार्द्र और स्नेह के साथ हमलोगों का स्वागत किया है, उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा है। संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन परंपरा की ओर से मैं आपको धन्यावाद देता हूं; धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूं और सभी संप्रदायों एवं मतों के कोटि-कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूं।
मैं इस मंच पर बोलने वाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी ध्न्यवाद ज्ञापित करता हूं, जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया है कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रसारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूं, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति, दोनों की ही शिक्षा दी है। हमलोग सभी धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में विश्वास नहीं करते, वरन्‌ समस्त धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं। मुझे एक ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता है कि हमने अपने वक्ष में यहुदियों के विशुद्धत्तम अवशिष्ट अंश को स्थान दिया था, जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी, जिस दिन उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था। ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूं, जिसने महान्‌ जरथ्रुष्ट्र जाति के अवशेष अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अबतक कर रहा है। भाइयो, मैं आपलोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियां सुनाता हूं, जिसकी आवृत्ति मैं अपने बचपन से कर रहा हूं और जिसकी आवृत्ति मेरे देश में प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं :
रुचिनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्‌।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव च॥
-“जैसे विभिन्न नदियां भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।”
यह सभा, जो अभीतक आयोजित सर्वश्रेष्ठ सम्मेलनों में से एक है, स्वतः ही गीता के इस अद्‌भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा है :
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तास्तंथैव भजाम्यहम्‌।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥
-“जो कोई मेरी ओर आता है - चाहे किसी प्रकार से हो - मैं उसको प्राप्त होता हूं। लोग भिन्न-भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।”
साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मान्धता, इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं, उसको बारंबार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को विध्वस्त करती और पूरे पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये वीभत्स दानवी नहीं होतीं, तो मानव समाज आज की अवस्था से कही अधिक उन्नत हो गया होता। पर अब उनका समय आ गया है, और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूं कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टाध्वनि हुई है, वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाली सभी उत्पीड़नों का, तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होनेवाले मानवों की पारस्परिक कटुताओं का मृत्युनिनाद सिद्ध हो।
(रामकृष्ण मठ, नागपुर द्वारा प्रकाशित स्वामी विवेकानन्द साहित्य से साभार)