हरिवंश बाबा मेरे अपने बाबा के परम मित्र थे।
मेरे बाबा को मेरे बाबूजी के रूप में एक ही संतान थी; हरिवंश बाबा के कोई संतान नहीं थी। इसलिए वे मेरे बाबूजी को बहुत प्यार करते
थे। मेरे बाबूजी जब इंटर में थे, तभी मेरे बाबा का देहान्त हो
गया। मैंने अपने बाबा को देखा नहीं। हरिवंश बाबा को ही मैं अपना असली बाबा मानता रहा।
उन्होंने भी मुझपर अपना स्नेह-प्यार, लाड़-दुलार लुटाने में कभी
कोताही नहीं की। बड़ा होकर जब मैंने बी.एच.यू. के इंजीनियरिंग कालेज में एड्मिशन लिया
तो एक दिन हरि बाबा ने मुझसे एक प्रश्न पूछा - बबुआ अब त तू काशी में पढ़ तार। उ भगवान
शिव के नगरी ह। उहां बड़-बड़ विद्वान लोग रहेला। तहरा से जरुर भेंट भईल होई। इ बताव,
भगवान के भोजन का ह? मैंने अपनी बुद्धि पर बहुत
जोर दिया और उत्तर दिया - फल-मूल। उन्होंने कहा - नहीं। मैंने कहा - दूध, दही, मेवा, मलाई, मिठाई। "नहीं, नहीं, नहीं",
उन्होंने साफ नकार दिया। मैं चुप हो गया। वे बोले - अगली छुट्टी में
अईह तो जवाब बतईह। अपना गुरुजी से एकर उत्तर पूछ लीह। अगली छुट्टी में मैं घर गया।
वे मृत्यु-शैया पर थे। मैं उनसे मिलने तुरन्त उनके घर गया। उन्होंने मुझे देखा,
मंद-मंद मुस्कुराए और अपना पुराना प्रश्न दुहरा दिया। मेरे पास कोई उत्तर
नहीं था। आंखों में आंसू लिए मैं उन्हें देखता जा रहा था। उन्होंने कहा - रोअ मत बेटा!
हम मर जाएब, त तहरा हमार सवाल के जवाब ना मिली। एसे हमहीं जवाब
देत बानी। ई जवाब के गांठ बांध लीह। भगवान
के भोजन अहंकार ह।
मैंने उनके चरणों में अपना शीश रख दिया। कुछ
ही क्षणों के बाद उनका देहान्त हो गया। मेरे हरिवंश बाबा बहुत कम पढ़े-लिखे थे। जीवन
भर वे केवल तुलसी दास के रामचरित मानस का ही पाठ करते रहे। दूसरा कोई ग्रन्थ उन्होंने
पढ़ा ही नहीं। कहते थे - दोसर किताब पढ़ेब, त सब गड़बड़ हो जाई। दुनिया
में एसे भी बढ़िया कौनो किताब बा का?
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