Thursday, April 10, 2014

जस करनी तस भोगहु ताता.......

                               लोकतंत्र में हिंसा सर्वथा वर्जित है। मर्यादा में रहकर अपनी बात कहने का अधिकार सबको है।लेकिन वाणी, हथियार या थप्पड़ के माध्यम से जबरदस्ती अपनी बात मनवाने का अधिकार किसी को भी नहीं है। अमूमन हथियार या शारीरिक शक्ति का विरोधियों पर प्रयोग को ही हिंसा की मान्यता प्राप्त है।हमने वाणी की हिंसा को हिंसा न मानने की भूल हमेशा की है। इस चुनाव में वाणी की हिंसा अपने चरम पर है। विरोधियों पर बिना सबूत के अनर्गल आरोप लगाना, गाली-गलौज की भाषा का इस्तेमाल करना और दूसरों की भावनाओं को जानबूझ कर आहत करना आज का नेता-धर्म बन गया है। इस नेता-धर्म के निर्वहन में आप के नेता अरविन्द केजरीवाल अन्य नेताओं से मीलों आगे हैं। चूँकि इसका त्वरित लाभ उन्हें दिल्ली विधान सभा के चुनाव में बड़ी आसानी से मिल गया, उन्होंने ने इसे पेटेंट करा लिया। लोकसभा के चुनाव में उन्होंने अपनी इसी स्टाइल से जनता को लुभाने या गुमराह करने की कोशिश की। लेकिन उनके अपने ही गढ़, दिल्ली में ही उनके अपनों ने ही लघु हिंसा द्वारा अपना विरोध सार्वजनिक करना आरंभ कर दिया है। पिछले मंगलवार के दिन रोड शो के दौरान आटो रिक्शा चालक लाली द्वारा केजरीवाल के गाल पर जड़ा जोरदार तमाचा और कुछ नहीं, जनता के टूटे हुए सपनों की प्रतिध्वनि है। इसके कुछ ही दिन पहले केजरीवाल जी दिल्ली में ही गर्दन पर घूंसा खा चुके हैं और वाराणसी में स्याही से अपना चेहरा काला करा चुके हैं। इन घटनाओं का जिक्र करने का यह मकसद कही से भी नहीं है कि लेखक इनका समर्थन करता है। ऐसी घटनाओं की जितनी भी निंदा की जाय, कम होगी। लेकिन यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है की ये घटनाएँ आम आदमी के स्वघोषित प्रतिनधि के साथ ही क्यों घटित हो रही हैं? सभी नेता जनसभा और रोड शो कर रहे हैं लेकिन जनता के आक्रोश का शिकार सिर्फ केजरिवाल ही हो रहे हैं। देश की दुर्दशा के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार शहजादे और मल्लिका-ए-हिंदुस्तान भी निर्द्वन्द्व अपने कार्यक्रम कर रहे हैं परन्तु जनता या तो उन्हें सुनती है या नहीं सुनती है; इस तरह का अपमानजनक व्यवहार नहीं करती है।केजरीवाल के अलावा किसी भी नेता ने जनता की भावनाओं से इतना निर्मम खिलवाड़ नहीं किया है। मात्र 49 दिनों में ही जनता के सपनों और आकाँक्षाओं को हिमालय के समान ऊंचाई देकर उसे बेवजह हिन्द महासागर में डुबो देने का अक्षम्य अपराध अरविन्द केजरीवाल ने ही किया है। जनता मतपत्र के माध्यम से विरोध करने का धैर्य खो रही है। यह कोई शुभ संकेत नहीं है बल्कि झूठे वादे करने वाले, सत्तालोलुप, अक्षम, विदेशी शक्तियों की कठपुतली बने भगोड़े नेताओं के लिए सन्देश है। अरविन्द केजरीवाल अपने ही कर्मों की फसल काट रहे हैं।
           जस करनी तस भोगाहूँ ताता, नरक जात में क्यों पछताता?

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