प्रिय लालू भाई,
जय राम जी की।
आगे राम जी की कृपा से हम इस कड़कड़ाती ठंढ में भी ठीकठाक हैं और उम्मीद करते हैं कि आप भी हज़ारीबाग के ओपेन जेल में राजी-खुशी होंगे। अब तो बिहार और झारखंड का सभी जेलवा आपको घरे जैसा लगता होगा। इस बार आपकी पूरी मंडली आपके साथ होगी। आप चाहें तो कबड्डी भी खेल सकते हैं और क्रिकेट भी खेल सकते हैं। हम ई देख के बहुते खुश हुए कि जेल जाते समय भी आपके चेहरे पर मुस्कान पहले की तरह ही थी। मेरे शहर में एक बदनाम मुहल्ला है। उसमें नाचने-गाने वाली रहती हैं। शहर के रईस वहां रात में आनन्द लेते हैं। कभी-कभी उनके घरों पर पुलिस का छापा पड़ता है तो बिचारियां गिरफ़्तार हो जाती हैं लेकिन कुछ ही दिनों में ज़मानत पर छूटकर आ भी जाती हैं। फिर सारा कार्यक्रम पहले की तरह ही चालू हो जाता है। एक दिन एक सब्जीवाले के यहां उनमें से एक सब्जी खरीद रही थी। दोनों में पुरानी जान-पहचान थी। सब्जी वाले ने पूछा -- “बाई जी कब आईं वहां से?” “यही दो-तीन दिन हुआ,” बाई जी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया। “वहां कवनो दिक्कत-परेशानी तो नहीं हुई,” सब्जीवाले ने प्रश्न किया। “नहीं, तनिको नहीं। हर जगह हमलोगों को चाहने वाले मिल जाते हैं, वहां भी मिल गए। तबहियें तो इतना जल्दी वापस आ गए, बाईजी ने हँसते हुए जवाब दिया। सब्जीवाले ने भी हँसी में भरपूर साथ दिया और बाईजी की झोली सब्जी से भर दी। बाईजी ने जाने के पहले पूछा - “कितना हुआ रामलालजी?” “जो आपकी मर्ज़ी हो दे दीजिए। आपसे क्या भाव-ताव करना?” बाईजी ने मुस्कुराते हुए दस के कुछ नोट उसकी ओर बढ़ाए और सब्जीवाले ने स्पर्श-सुख के साथ उन्हें ग्रहण किया। उसके लिए तो बाईजी की मुस्कान ही काफी थी। बाईजी आसपास के लोगों पर अपनी नज़रों की बिजली गिराते हुए, इठलाते और मुस्कुराते हुए अपने गंतव्य पर चली गईं। लालू भाई! आपको जब-जब टीवी पर जेल जाते हुए और आते हुए देखता हूं तो मुझे अपने शहर की बाईजी की याद आती है। आप उसी की तरह मुस्कुराते हुए जेल जाते हैं और कुछ ही दिनों में मुस्कुराते हुए वापस भी आ जाते हैं। आपके चेहरे की चमक तनिको कम नहीं होती। कमाल है। लगता है देसी शुद्ध घी सिर्फ आप ही खाते हैं। आपको देखकर विश्वास हो जाता है -- चोर का मुंह चांद जैसा।
लालू भाई! जब आपने अदालत को बताया कि आप सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में वकील हैं तो मालूम भया कि आप पढ़े-लिखे भी हैं; नहीं तो आपके मुखमंडल और बतकही से तो तनिको नहीं लगता है कि आप मैट्रिको पास किए होंगे। जरा नीतीश भैयवा को तो देखिए। खैनी तो वह भी खाता है लेकिन पढ़ा-लिखा लगता है। खैर जाने दीजिए ये सब। आप अखबार तो पढ़ते ही होंगे। समाचार आया था कि बिहार और झारखंड के नक्सली एरिया कमांडर जनता और ठेकेदारों से पैसा लूटते हैं, खुद जंगल में रहते हैं लेकिन अपने बच्चों को कलकत्ता और चेन्नई के डिलक्स स्कूल-कालेजों में पढ़ाते हैं। वे भी नहीं चाहते हैं कि उनके बच्चे उनकी तरह बनें। फिर आपने अपने बच्चों को क्यों अपनी राह पर ही चलना सिखाया? बिचारी मीसा भारती, आपकी बड़की बिटियवा भरी जवानी में हसबैंड के साथ कोर्ट कचहरी का चक्कर लगा रही है। उ कवनो दिन गिरफ़्तार होकर जेल जा सकती है। दामादो को आपने अपना हुनर सिखा दिया। कम से कम ओकरा के तो बकश ही देते। डाईन को भी दामाद पियारा होता है। कवनो जरुरी है कि मीसा और उसके हसबैंड को एक ही जेल मिले। आपका तो एक पैर जेल में रहता है और एक बाहर रहता है। लेकिन भौजाई कैसे जेल में रह पायेंगी। रेलवे का होटल बेचना था तो अकेले ही बेचते, उनको अपना पार्टनर काहे को बना लिया। सुशील मोदिया बहुत बदमाश है। आपके साथ पटना यूनिवर्सिटी में महामंत्री था, सरकार में भी आपके ही मातहत मंत्री था, लेकिन भारी एहसान फरामोश आदमी निकला। आपने उसको ठीक से पहचाना नहीं था क्या। अब तो सारा पोलवा वही खोल रहा है। और आपको भी पटना में ही माल बनाने की क्या सूझी? दुबई में बनवाते, सिंगापुर में बनवाते, हांगकांग में बनवाते -- किसी को कानोकान खबर नहीं होती। सोनिया भौजी का इतना चक्कर लगाते हो, पपुआ से गठबंधन करते हो; अकूत धन को विदेश में सही ढंग से ठिकाने लगाने का फारमुला उनसे काहे नहीं सीख लिए। माल तो सीज हो ही गया, जवान लड़के को मिट्टी बेचने के जुर्म में फंसा दिया। पटना जू को मिट्टी बेचने की क्या जरुरत थी। गोपालगंज में गंडक पर बांध ही बनवा दिए होते।
लालू भाई। सरकारी पैसा हड़पने और सामाजिक न्याय में कवन सा संबन्ध है, आजतक हमारे दिमाग में नहीं आया। वैसे भी हमारे दिमाग में भूसा नहीं भरा है। सब भूसा तो आप ही खा गए। लेकिन आप और आपके चाहनेवाले यही कह रहे हैं। कहती है दुनिया, कहती रहे, क्या फर्क पड़ता है। आप तो वही करेंगे जिसमें दू पैसा की आमदनी हो। लेकिन भाई! बेटा, बेटी, दामाद और मेहरारू को फंसाना कवनो एंगिल से उचित नहीं है। नीतीश कुमार जी को कम से कम इतना तो सोचना ही चाहिए।
जेलवा में जेलर से हाथ-पांव जोड़कर एक जोड़ी कंबल एक्स्टरा ले लीजिएगा। हज़ारीबाग में ठंढ कुछ बेसिये पड़ती है। चाह में आदी का रस मिलाके पीजिएगा, नहीं तो तबीयत खराब हो जाएगी। अपना खयाल रखियेगा, पटना में परिवार का खयाल रखने के लिए बहुते यादव है। थोड़ा लिखना जियादा समझना। इति।
आपका अपना ही -- चाचा बनारसी
Sunday, January 7, 2018
Friday, January 5, 2018
यह कैसी जुगलबन्दी
जब-जब यह देश महानता की ओर बढ़ने की कोशिश करता है, कुछ आन्तरिक शक्तियां बौखला जाती हैं और इसे कमजोर करने की अत्यन्त निम्न स्तर की कार्यवाही आरंभ कर देती है। जाति और संप्रदाय इस देश के सबसे नाजुक मर्मस्थान हैं। इसे छूते ही आग भड़क उठती है। विगत सैकड़ों वर्षों का इतिहास रहा है कि भारतीय समाज की इस कमजोरी का लाभ उठाकर विदेशियों ने हमको गुलाम बनाया और हमपर राज किया। अंग्रेजों ने भारत की इस कमजोरी का सर्वाधिक दोहन किया। फूट डालो और राज करो की नीति उन्हीं की थी जिसे कांग्रेस ने अपने क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के लिए ज्यों का त्यों अपना लिया। महात्मा गांधी और महामना मालवीय जी ने विराट हिन्दू समाज की एकता और सामाजिक समरसता के लिए बहुत काम किया लेकिन उनके राजनीतिक उत्तराधिकारियों ने सत्ता के लिए सारे ऊंचे आदर्श भुला दिए और एक समुदाय के तुष्टिकरण के लिए देश का विभाजन तक करा दिया। द्विराष्ट्र के सिद्धान्त के अनुसार मुसलमानों को पाकिस्तान जाना था और हिन्दुओं को हिन्दुस्तान में रहना था। कांग्रेस के समर्थन से पाकिस्तान तो बन गया लेकिन अधिकांश मुसलमान हिन्दुस्तान में ही रह गए। जिस समस्या के समाधान के लिए देश का बंटवारा हुआ था, वह ज्यों की त्यों बनी रही। बंटवारे के ईनाम के रूप में हिन्दुस्तान के मुसलमानों ने १९५२ के आम चुनाव में कांग्रेस को थोक में वोट दिया। कांग्रेस को राजनीतिक गणित समझने में देर नहीं लगी। नेहरूजी कहते थे -- By accident I am a Hindu. वही नेहरूजी अपने नाम के आगे पंडित लगाना नहीं भूलते थे। जब लोग उन्हें पंडितजी कहकर संबोधित करते थे तो वे अत्यन्त प्रसन्न होते थे। भोला-भाला ब्राह्मण समाज जो सदियों से सत्ता से बहुत दूर था, नेहरूजी के रूप में अपने को सत्ताधारी समझने लगा। नेहरू जी ने नाम के आगे पंडित लगाकर ब्राह्मणों का वोट साध लिया। जाति के आधार पर नौकरियों और जन प्रतिनिधियों के चुनाव का प्राविधान संविधान में डलवाकर उन्होंने दलितों को भी अपने पाले में कर लिया। भारतीय समाज के तीन बहुत बड़े वर्ग -- मुसलमान, दलित और ब्राह्मण कांग्रेस के वोट-बैंक बन गए जिसका लाभ सोनिया गांधी तक ने उठाया। लेकिन शीघ्र ही इन तीनों समुदायों को यह समझ में आ गया कि कांग्रेस ने धरातल पर इनके लिए कुछ किया ही नहीं। परिणाम यह निकला कि कांग्रेस का यह वोट बैंक तितर-बितर हो गया। दक्षिण में द्रविड पार्टियों ने इसका लाभ उठाया तो उत्तर में लालू, मुलायम और मायावती ने। लालू और मुलायम ने M-Y(मुस्लिम यादव) समीकरण बनाया तो मायावती ने DMF(दलित मुस्लिम फोरम)। कुछ वर्षों तक यह समीकरण काम करता रहा और सबने सत्ता की मलाई जी भरकर खाई। किसी ने चारा खाया तो किसी ने समाजवादी पेंशन। किसी ने टिकट के बदले अथाह धन कमाया तो किसी ने फिल्मी सितारे नचवाए। जनता ने सब देखा। मोहभंग स्वाभाविक था। इधर पश्चिम के क्षितिज गुजरात में पूरे देश ने विकास और राष्ट्र्वाद के सूरज को उगते हुए देखा। नरेन्द्र मोदी के रूप में देश ने एक महानायक का उदय देखा। पूरा हिन्दू समाज मतभेदों को भूलाकर एक हो गया और दिल्ली ही नहीं अधिकांश राज्यों में राष्ट्रवादी सत्ता के शीर्ष पर पहुंच गए। ये जतिवादी और भ्रष्ट नेता मोदी को जितनी ही गाली देते, उनकी लोकप्रियता उतनी ही बढ़ती। सभी विरोधियों को बारी-बारी से मुंह की खानी पड़ी। फिर सबने अंग्रेजों और कांग्रेसियों की पुरानी नीति -- फूट डालो और राज करो की नीति को लागू करने का एकजूट प्रयास किया।
महाराष्ट्र के कोरेगांव की घटना मात्र एक संयोग नहीं है। समझ में नहीं आता कि भारतीयों पर अंग्रेजों के विजय को भी एक उत्सव के रूप में मनाया जाएगा? कोरेगांव में अंग्रेजों के विजयोत्सव की २००वीं वर्षगांठ मनाने के लिए गुजरात से तथाकथित दलित नेता जिग्नेश मेवाणी पहुंचते हैं तो जे.एन.यू. दिल्ली से उमर खालिद। अंबेडकर जी के पोते प्रकाश अंबेडकर भी कहां पीछे रहनेवाले थे। वे भी आग में घी डालने पहुंच ही गए। खुले मंच से जाति विशेष को गालियां दी गईं। दंगा भड़क उठा। इसे देशव्यापी करने की योजना है। उमर खालिद, जिग्नेश मेवाणी, हार्दिक पटेल और राहुल गांधी की जुगलबन्दी कोई आकस्मिक नहीं है। तीन तलाक के मुद्दे पर मुस्लिम पुरुष वर्ग तो पूरे देश में अराजकता फैलाने के लिए उचित समय का इन्तज़ार कर ही रहा है, खालिद, मेवाणी, पटेल और राहुल की जुगलबन्दी भी सत्ता सुख के लिए देश को अस्थिर करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी। यह और कुछ नहीं, राष्ट्रवाद के उदय और तमाम तिकड़मों के बाद भी चुनावों में हो रही लगातार हारों से उपजी हताशा का परिणाम है। लेकिन यह देशहित में नहीं है। योजनाएं जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की राष्ट्रद्रोही धरती पर बनती हैं और क्रियान्यवन गुजरात, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश की धरती पर किया जाता है। इसमें अच्छा खासा विदेशी धन खर्च किया जा रहा है। सरकार का यह कर्त्तव्य बनता है कि इन राष्ट्रद्रोही शक्तियों की आय का स्रोत, इन्हें समर्थन करनेवाली ताकतों और इनके असली लक्ष्य का पता लगाए और समय रहते इनपर कार्यवाही करे।
महाराष्ट्र के कोरेगांव की घटना मात्र एक संयोग नहीं है। समझ में नहीं आता कि भारतीयों पर अंग्रेजों के विजय को भी एक उत्सव के रूप में मनाया जाएगा? कोरेगांव में अंग्रेजों के विजयोत्सव की २००वीं वर्षगांठ मनाने के लिए गुजरात से तथाकथित दलित नेता जिग्नेश मेवाणी पहुंचते हैं तो जे.एन.यू. दिल्ली से उमर खालिद। अंबेडकर जी के पोते प्रकाश अंबेडकर भी कहां पीछे रहनेवाले थे। वे भी आग में घी डालने पहुंच ही गए। खुले मंच से जाति विशेष को गालियां दी गईं। दंगा भड़क उठा। इसे देशव्यापी करने की योजना है। उमर खालिद, जिग्नेश मेवाणी, हार्दिक पटेल और राहुल गांधी की जुगलबन्दी कोई आकस्मिक नहीं है। तीन तलाक के मुद्दे पर मुस्लिम पुरुष वर्ग तो पूरे देश में अराजकता फैलाने के लिए उचित समय का इन्तज़ार कर ही रहा है, खालिद, मेवाणी, पटेल और राहुल की जुगलबन्दी भी सत्ता सुख के लिए देश को अस्थिर करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी। यह और कुछ नहीं, राष्ट्रवाद के उदय और तमाम तिकड़मों के बाद भी चुनावों में हो रही लगातार हारों से उपजी हताशा का परिणाम है। लेकिन यह देशहित में नहीं है। योजनाएं जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की राष्ट्रद्रोही धरती पर बनती हैं और क्रियान्यवन गुजरात, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश की धरती पर किया जाता है। इसमें अच्छा खासा विदेशी धन खर्च किया जा रहा है। सरकार का यह कर्त्तव्य बनता है कि इन राष्ट्रद्रोही शक्तियों की आय का स्रोत, इन्हें समर्थन करनेवाली ताकतों और इनके असली लक्ष्य का पता लगाए और समय रहते इनपर कार्यवाही करे।
Friday, December 29, 2017
मुस्लिम महिला विधेयक
हिन्दुओं में सती प्रथा के उन्मूलन के बाद सामाजिक बुराइयों को दूर
करने के लिए किसी भी सरकार द्वारा पहली बार कल एक अत्यन्त साहसिक और क्रान्तिकारी विधेयक
लोकसभा में पास हुआ। विवाह के बाद मुस्लिम महिला के अधिकारों की रक्षा के लिए यह विधेयक
लाना और इसे कानून का रूप देना केन्द्र सरकार का नैतिक दायित्व बन गया था। सुप्रीम
कोर्ट द्वारा एकसाथ तीन तलाक को अवैध घोषित कर देने के बाद भी मुस्लिम समुदाय द्वारा
छोटी सी बात पर पत्नी को तीन तलाक बोलकर परित्याग करने का सिलसिला जारी था। बीवी अगर
देर से सोकर उठी तो तीन तलाक, मनपसन्द खाना नहीं बनाया तो
तीन तलाक, मायके से देर से आई तो तीन तलाक। मुस्लिम मर्दों ने
तीन तलाक को मज़ाक बना दिया था। इस समाज में औरतें बेबस, निरीह
और दया की पात्र हो गई थीं। सुप्रीम कोर्ट ने लंबी सुनवाई के बाद इसे यूं ही अवैध घोषित
नहीं किया था। देश के हर धर्म की महिलाओं को बराबरी का हक हासिल है, तो फिर मुस्लिम महिलाओं को इस अधिकार से वंचित कैसे किया जा सकता है?
अभी भी मुस्लिम समाज के मर्दों पर दकियानुसी मौलानाओं का आवश्यकता से
अधिक प्रभाव है। इसलिए वे इसका विरोध कर रहे हैं। उनका विरोध और कुछ नहीं, विधवा-विलाप ही सिद्ध होनेवाला है क्योंकि महिलाओं ने इसे प्रसन्नतापूर्वक
और अत्यन्त उत्साह से स्वीकार किया है। केन्द्र सरकार इस क्रान्तिकारी विधेयक को लाने
के लिए बधाई का पात्र है। लोकसभा की तरह ही राज्यसभा में भी विरोधी दलों को इसे कानून
बनाने में सरकार का समर्थन करना चाहिए। यह समय की मांग है। जो इसका विरोध करेगा,
इतिहास उसे कभी माफ़ नहीं करेगा। आश्चर्य है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश, मोरक्को, इंडोनेशिया,
मलेसिया और ट्यूनिसिया जैसे इस्लामिक देशों ने पहले ही तीन तलाक पर प्रतिबंध
लगा रखे हैं और भारत के मौलाना चीख-चीखकर इसका विरोध कर रहे हैं। समय किसी को माफ़ नहीं
करता है। जो समाज कुरीतियों और गलत परंपराओं को नहीं छोड़ता, समय
उसका साथ छोड़ देता है। ऐसे समाज का समाप्त होना ध्रुव सत्य है। मुस्लिम महिला विधेयक
की कुछ खास बातें निम्नवत हैं --
१. पीड़ित महिला को यह अधिकार होगा कि वह मजिस्ट्रेट की अदालत में मुकदमा
दायर कर अपने लिए और अवयस्क बच्चों के लिए गुज़ारा भत्ता मांग सकती है।
२. इस नए कानून के तहत एक बार में तीन तलाक चाहे वह किसी भी रूप में
क्यों न हो न सिर्फ़ अवैध होगा बल्कि पूरी तरह अमान्य होगा। अबतक बोलकर, कागज की एक पर्ची पर तीन बार लिखकर, इ-मेल द्वारा,
एस.एम.एस द्वारा या व्हाट्सऐप द्वारा तलाक देना वैध था जो अवैध और अमान्य
हो जाएगा।
३. जम्मू और कश्मीर को छोड़कर यह कानून पूरे देश में लागू होगा।
४. एकसाथ तीन तलाक बोलना एक आपरधिक कृत्य माना जाएगा जिसके लिए तीन
साल तक की कैद और जुर्माने का प्राविधान है। यह एक गंभीर और गैरज़मानती अपराध माना जाएगा।
मुस्लिम महिला विधेयक को लोकसभा में मज़बूती से लाने और पास कराने के
लिए केन्द्र सरकार बधाई का पात्र है। सरकार की जितनी भी प्रशंसा की जाय, कम होगी। यह साहसिक काम सिर्फ़ नरेन्द्र मोदी ही कर सकते थे। लेकिन यह बिल कुछ
मामलों में लचर भी है। यह बिल तीन महीनों के अंदर तीन तलाक को वैधता प्रदान करता है,
जो मुस्लिम महिलाओं के साथ घोर अन्याय है। भारत में हिन्दू, सिक्ख, जैन, बौद्ध, इसाई महिलाओं और पुरुषों के लिए एक ही तरह का तलाक-कानून है और वह है अदालत
के द्वारा उचित सुनवाई के बाद। जब सभी संप्रदायों में तलाक का निर्णय अदालत में जज
द्वारा गुण-दोषों के आधार पर किया जाता है तो मुस्लिम समुदाय अपवाद क्यों? तत्काल तीन तत्काल को अवैध और अमान्य घोषित करने से मुस्लिम महिलाओं को कोई
विशेष लाभ नहीं होनेवाला। जेल से लौटने के बाद महिला का पति तीन महीने का समय लेते
हुए एक-एक महीने के बाद तीन बार तलाक बोलकर अपनी पत्नी से छुटकारा पा सकता है जो कही
से भी तर्कसंगत नहीं है, वरन् यह मुस्लिम महिलाओं पर अत्याचार
होगा। सरकार को अदालत के अतिरिक्त किसी भी तरीके से दिए गए तलाक को अवैध और आपराधिक
कृत्य घोषित करना चाहिए था। इस कानून की काट निकालना बहुत आसान है। मुल्लाओं को भी
थोड़ी बुद्धि तो अल्लाताला ने दे ही रखी है। ऐसे मामलों में उनकी बुद्धि बहुत तेज चलती
है। केन्द्र सरकार को मुस्लिम समाज में व्याप्त कुरीतियां -- हलाला और मुताह को भी
प्रतिबन्धित करने के लिए कानून लाना चाहिए क्योंकि इन कुरीतियों की शिकार सिर्फ़ और
सिर्फ़ महिलाएं हैं।
Friday, December 22, 2017
कांग्रेस की विभाजनकारी नीति
दक्षिण भारत के सभी प्रान्तों में कर्नाटक को
सबसे शान्त, सहिष्णु और सबको समायोजित करने वाले प्रान्त के रूप में जाना
जाता है। यहां हिन्दी बोलने वाले उस असहजता के शिकार नहीं होते हैं जितना केरल और तमिनाडु
में होते हैं। रामायण काल से लेकर आजतक कर्नाटक सत्य का साथ देने में सबसे आगे रहा
है। हनुमानजी, सुग्रीव और अंगद पूर्व किष्किन्धा और आज के कर्नाटक
के ही निवासी थे, जिनकी सहायता से श्रीराम ने रावण के विरुद्ध
महायुद्ध जीता था और जगद्जननी मां सीता को मुक्त कराया था। उसी कर्नाटक में वहां की
कांग्रेसी सरकार कभी भाषायी असहिष्णुता को बढ़ावा देती है तो कभी राज्य के लिए अलग झंडे
की मांग करती है। अभी-अभी कर्नाटक की सरकार ने हिन्दू समुदाय को बांटने के लिए यहां
के दो बड़े समुदाय लिंगायत और वीरशैव समुदाय के लोगों को धर्म पर आधारित अल्पसंख्यक
धर्म का दर्ज़ा देने के लिए एक सात सदस्यीय समिति का गठन किया है जिसकी रिपोर्ट कर्नाटक
के आगामी विधान सभा के चुनाव के पहले आने की पूरी संभावना है। ये दोनों समुदाय
हिन्दू/सनातन धर्म के अविभाज्य अंग हैं। इन्हें अल्पसंख्यक धर्म का दर्ज़ा देने का
उद्देश्य हिन्दू धर्म में विभाजन कर इसे कमजोर करना है। कर्नाटक की कांग्रेस सरकार
इसे हवा दे रही है। कांग्रेस मुस्लिम लीग, माओवादी और आतंकवादियों से बड़ा खतरा
बनती जा रही है।
१९४७ में देश के विभाजन से कांग्रेस का मन
नहीं भरा। वह मौका देखते ही देश के विभाजन और हिन्दू समाज के विभाजन के लिए
हाथ-पांव मारने लगती है। इसी क्रम में वह कभी कश्मीरी अतंकवादियों का समर्थन करती
है, तो कभी देश को टुकड़े करनेवाले का नारा लगानेवालों के साथ धरने पर बैठती है और
कभी नक्सलवादियों के साथ खड़ी होती है। अभी-अभी गुजरात में संपन्न हुए विधान सभा के
चुनाव में कांग्रेस ने आरक्षण के नाम पर देश के लिए समर्पित पाटीदारों को राष्ट्र
की मुख्य धारा से अलग करने की हर संभव कोशिश की। इसी तरह इन्दिरा गांधी ने मात्र
अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए अकाली दल की काट के लिए खालिस्तान और उसके रहनुमा
भिंडरवाला को आगे बढ़ाया। इस गलती की सज़ा उन्हें अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। वर्तमान
कांग्रेस अध्यक्ष जिन्हें परिपक्व होने में यह सदी निकल जायेगी, की समझ में यह बात
आ नहीं रही है। वे नरेन्द्र मोदी को सत्ता से बाहर करने के लिए कभी पाकिस्तान से
गुहार लगाते हैं तो कभी चीन से गुपचुप मंत्रणा करते हैं। अपने दिन-ब-दिन सिकुड़ते
प्रभाव से वे कोई सबक लेने के लिए तैयार नहीं हैं। इन देशद्रोही नेताओं और
पार्टियों को सिर्फ जनता ही सबक सिखा सकती है। इसलिए कांग्रेस ने जनता में ही
विभाजन को अपना लक्ष्य बना रखा है। देश के दो सबसे बड़े समुदाय, हिन्दू और मुसलमान
को देश का विभाजन करके कांग्रेस ने अलग कर दिया। अब विशाल हिन्दू समुदाय की बारी
है। इस समाज में विभाजन का नेतृत्व कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धरमैया और उनके आका
राहुल गांधी कर रहे हैं। भविष्य़ के इस खतरे के प्रति सभी राष्ट्रवादियों को सजग
रहने की आवश्यकता है।
Tuesday, October 24, 2017
टीपू सुल्तान -- इंसान या हैवान
पता नहीं कर्नाटक के कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धरमैया को शान्त कर्नाटक
में अशान्ति उत्पन्न करने और अलगाववाद को हवा देने में कौन सा आनन्द आता है। कभी वे
हिन्दी के विरोध में वक्तव्य देते हैं तो कभी कर्नाटक के लिए जम्मू कश्मीर की तर्ज़
पर अलग झंडे की मांग करते हैं। आजकल उन्हें टीपू सुल्तान को राष्ट्रीय नायक और स्वतन्त्रता
सेनानी घोषित करने की धुन सवार है। वे राजकीय स्तर पर १० नवंबर को टीपू सुल्तान की
जयन्ती मनाने की घोषणा कर चुके हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि टीपू सुल्तान ने इस्ट
इंडिया कंपनी के खिलाफ़ युद्ध लड़ा था जिसमें वह मारा गया था। वह युद्ध उसने अपने हितों
की रक्षा के लिए लड़ा था न कि भारत की स्वतन्त्रता के लिए। उस समय भारत एक राजनीतिक
इकाई था ही नहीं। मात्र इतने से वह राष्ट्रीय नायक नहीं बन जाता। उसने अपने शासन काल
में अपनी प्रजा, विशेष रूप से हिन्दुओं पर जो बर्बर अत्याचार किए थे, उन्हें नहीं भुलाया जा सकता। उसके कार्य बाबर, औरंगज़ेब,
तैमूर लंग और मोहम्मद गज़नी से तनिक भी कम नहीं थे।
कर्नाटक का कूर्ग जिला दुर्गम पहाड़ियों से घिरा हुआ एक सुंदर और रमणीय
पर्यटन स्थल है। इसी जिले के तल कावेरी से पवित्र कावेरी नदी का उद्गम होता है। इस
जिले में हजारों मन्दिर थे। कई रमणीय जलप्रपात इसे दर्शनीय बना देते हैं। यहां के
निवासी अत्यन्त धार्मिक और संपन्न थे। यहां के निवासियों को कोडवा कहा जाता है।
कर्नाटक सरकार द्वारा टीपू सुल्तान की जयन्ती मनाने का यहां सर्वाधिक विरोध होता
है क्योंकि टीपू सुल्तान ने वहां के निवासियों के साथ जो बर्बर अत्याचार किए थे,
उसके घाव अभी भी नहीं सूखे हैं। टीपू का पिता हैदर अली था जिसने धोखे से मैसूर की
सत्ता हड़प ली थी। उसने कूर्ग के हिन्दुओं का सामूहिक नरसंहार किया था। ब्रिटिश
इतिहासकार लेविन बावरिंग लिखते हैं – हैदर ने कुर्ग के एक कोडवा के सिर के लिए पांच
रुपए का ईनाम घोषित किया था जिसके तुरन्त बाद उसके सामने सात सौ निर्दोष कोडवा
हिन्दुओं के सिर प्रस्तुत किए गए। हैदर अली बहुत दिनों तक कूर्ग को अपने नियंत्रण
में नहीं रख सका। १७८० में कूर्ग फिर आज़ाद हो गया। लेकिन १७८८ में टीपू सुल्तान ने
इसे श्मशान बना दिया। नवाब कुर्नूल रनमस्त खान को लिखे अपने एक पत्र में टीपू ने
यह स्वीकार किया है कि कूर्ग के विद्रोहियों को पूरी तरह कुचल दिया गया है। हमने
विद्रोह की खबर सुनते ही तेजी से वहां के लिए प्रस्थान किया और ४०,००० कोडवाओं को
बंदी बना लिया। कुछ कोडवा हमारे डर से जंगलों में भाग गए जिनका पता लगाना चिड़ियों
के वश में भी नहीं है। हमने वहां के मन्दिर तोड़ डाले और सभी ४०,००० बंदियों को
वहां से दूर लाकर पवित्र इस्लाम में दीक्षित कर दिया। उन्हें अपनी अहमदी सेना में
भर्ती भी कर लिया। अब वे अपनों के खिलाफ़ हमारे लिए लड़ेंगे। टीपू सुल्तान ने कूर्ग
के लगभग सभी गांवों और शहरों को जला दिया, मन्दिरों को तोड़ दिया और हाथ आए कोडवाओं
को इस्लाम में धर्मान्तरित कर लिया। इतना ही नहीं, उसने बाहर से लाकर ७००० मुस्लिम
परिवारों को कूर्ग में बसाया ताकि हमेशा के लिए जनसंख्या संतुलन मुसलमानों के पक्ष
में रहे। वहां के हिन्दू आज भी टीपू सुल्तान से इतनी घृणा करते हैं कि गली के
आवारा कुत्तों को ‘टीपू’ कहकर पुकारते हैं।
१९७०-८० में सेकुलरिस्टों ने टीपू सुल्तान को सेकुलर और सहिष्णु
घोषित करने का काम किया। इस तरह इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा गया। उसके पहले कोई मुसलमान
भी अपने बच्चे का नाम ‘टीपू’ नहीं रखता था।
टीपू सुल्तान ने अपने १७ वर्ष के शासन-काल में हिन्दुओं पर असंख्य
अत्याचार किए। हिन्दुओं को वह काफ़िर मानता था, जिनकी हत्या करना और इस्लाम में
लाना, उसके लिए पवित्र धार्मिक कृत्य था जिसे वह ज़िहाद कहता था। कर्नाटक के कूर्ग
जिले और केरल के मालाबार क्षेत्र में उसने हिन्दुओं के साथ जो बर्बरता की वह
ऐतिहासिक तथ्य है, जिसके लिए किसी नए प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। उसने कालिकट शहर
को जो मसालों के निर्यात के लिए विश्व-प्रसिद्ध था जलाकर राख कर दिया और उसे भूतहा
बना दिया। लगभग ४० वर्षों तक कालिकट गरीबी और भूखमरी से जूझता रहा क्योंकि टीपू
सुल्तान ने वहां की कृषि और मसाला उद्योग को बुरी तरह बर्बाद कर दिया था। टीपू
सुल्तान ने अपने मातहत अब्दुल दुलाई को एक पत्र के माध्यम से स्वयं अवगत कराया था
कि अल्लाह और पैगंबर मोहम्मद की कृपा से कालिकट के सभी हिन्दू इस्लाम में
धर्मान्तरित किए जा चुके हैं। कोचिन राज्य की सीमा पर कुछ हिन्दू धर्मान्तरित नहीं
हो पाए हैं, लेकिन मैं शीघ्र ही उन्हें इस्लाम धर्म कबूल कराऊंगा, ऐसा मेरा दृढ़
निश्चय है। अपने इस उद्देश्य को मैं ज़िहाद मानता हूं। टीपू सुल्तान ने जहां-जहां
हिन्दुओं को हराया वहां के प्रमुख शहरों के नामों का भी इस्लामीकरण कर दिया। जैसे –
ब्रह्मपुरी –
सुल्तानपेट, कालिकट – फ़रुखाबाद, चित्रदुर्गा – फ़ारुख-यब-हिस्सार, कूर्ग – ज़फ़राबाद,
देवनहल्ली – युसुफ़ाबाद, दिनिगुल – खलीलाबाद,
गुट्टी – फ़ैज़ हिस्सार, कृष्णगिरि – फ़ल्किल आज़म और मैसूर – नज़राबाद। टीपू
सुल्तान की मौत के बाद स्थानीय निवासियों ने शहरों के नए नाम खारिज़ कर दिए और
पुराने नाम बहाल कर दिए। टीपू सुल्तान ने प्रशासन में भी लोकप्रिय स्थानीय भाषा
कन्नड़ को हटाकर फरसी को सरकारी भाषा बना दिया। सरकारी नौकरी में भी उसने केवल
मुसलमानों की भर्ती की, चाहे वे अयोग्य ही क्यों न हों।
दक्षिण भारत में हिन्दुओं पर टीपू सुल्तान ने अनगिनत अत्याचार किए।
उसने लगभग पांच लाख हिन्दुओं का कत्लेआम कराया, हजारों औरतों को बलात्कार का शिकार
बनाया और जनता में स्थाई रूप से भय पैदा करने के लिए हजारों निहत्थे हिन्दुओं को
हाथी के पैरों तले रौंदवा कर मार डाला। उसने करीब ८००० हिन्दू मन्दिरों को तोड़ा।
उसके शासन-काल में मंदिरों में धार्मिक क्रिया-कलाप अपराध था। हिन्दुओं पर उसने
जाजिया की तरह भांति-भांति के टैक्स लगाए।
प्रसिद्ध इतिहासकार संदीप बालकृष्ण ने अपनी पुस्तक – Tipu Sultan :
The Tyrant of Mysore
में स्पष्ट लिखा है कि इसमें कोई दो राय नहीं कि टीपू सुल्तान दक्षिण का औरंगज़ेब
था। जिस तरह औरंगज़ेब ने १८वीं शताब्दी की शुरुआत में दिल्ली और उत्तर भारत में
हिन्दुओं पर अमानुषिक अत्याचार किए, उनके हजारों मंदिर गिराए, उसी तरह १८वीं सदी
के अन्त में टीपू सुल्तान ने दक्षिण में औरंगज़ेब के कार्यों की पुनरावृत्ति की। जो
काम औरंगज़ेब ने अपने ५० साल के लंबे शासन-काल में किया, वही काम टीपू सुल्तान ने
धार्मिक कट्टरता और हिन्दू-द्वेष से प्रेरित होकर अपने १७ साल की छोटी अवधि में कर
दिखाया। यह बड़े अफसोस और दुःख की बात है कि कर्नाटक की कांग्रेसी सरकार ने तमाम
विरोधों के बावजूद टीपू सुल्तान जैसे घोर सांप्रदायिक और निर्दयी शासक की जयन्ती
मनाने का निर्णय किया है। इसकी जितनी भी निन्दा की जाय, कम होगी।
Saturday, October 21, 2017
हिन्दू-मुस्लिम समस्या
१९८० के दशक तक मेरे गांव में हिन्दुओं और मुसलमानों में जो आपसी सौहार्द्र
था वह अनुकरणीय ही नहीं आदर्श भी था। मेरे गांव के मुसलमान ताज़िया बनाते थे। पिताजी
के पास बांस के चार कोठ थे। इसलिए मुसलमान पिताजी से ताज़िया बनाने के लिए बांस भी ले
जाते थे, साथ ही सहयोग राशि भी ले जाते थे। पिताजी उन लोगों को अपनी
बंसवारी से बांस उसी प्रसन्नता से देते थे जिस तरह किसी हिन्दू लड़की के विवाह के लिए
मण्डप निर्माण के लिए बांस देते थे। मुस्लिम भी मुहर्रम के दिन जब ताज़िया का जुलूस
निकालते थे तो मेरे घर पर जरुर आते थे। दरवाजे के सामने ताज़िया रखकर तरह-तरह के करतब
दिखाते थे। मेरे घर की महिलाएं बाहर निकलकर ताज़िए का पूजन करती थीं। जुलूस में ज्यादा
संख्या में हिन्दू ही लाठी-भाला लेकर मुसलमानों के साथ ताज़िए के साथ चलते थे। हमलोग
उसदिन पटाखे छोड़ते थे। लगता ही नहीं था कि मुहर्रम हमारा त्योहार नहीं है। मुसलमान
भी हिन्दुओं के त्योहार मनाते थे। मेरे गांव की कई मुस्लिम औरतें छठ का व्रत रखती थीं
और पूरे विधि-विधान से अर्घ्य देती थीं। मेरे गांव में वसी अहमद एक प्रतिष्ठित व्यक्ति
थे। वे और उनका परिवार हिन्दुओं के साथ होली खेलता था। होली की मंडली के स्वागत के
लिए पूरा परिवार पूरी व्यवस्था रखता था। वे शिया संप्रदाय के थे। उन्हें और उनके पड़ोसियों
को रंग-अबीर से कोई परहेज़ नहीं था। शादी-ब्याह, व्रत-त्योहार
में परस्पर बहुत सहयोग था। लेकिन १९८० के बाद माहौल में बदलाव आना शुरु हो गया। कुछ
मौलाना तहरीर के लिए गांव में आने लगे। उनकी तहरीर रात भर चलती थी। उनकी तहरीर सिर्फ
मुसलमान ही नहीं सुनते थे बल्कि हिन्दुओं को भी लाउड स्पीकर के माध्यम से जबर्दस्ती
सुनाया जाता था। परिणाम यह हुआ कि दोनों समुदायों में सदियों पुराना पारस्परिक सहयोग
घटते-घटते बंद हो गया। अब ताज़िए के जुलूस में हिन्दू शामिल नहीं होते। इन सबके बावजूद
भी शिया मुसलमानों के संबन्ध आज भी हिन्दुओं के साथ सौहार्द्रपूर्ण हैं। मेरे गांव
के शिया मुसलमान सुन्नियों के साथ कम और सवर्ण हिन्दुओं के साथ उठना-बैठना ज्यादा पसंद
करते हैं। जहां सुन्नी मुसलमान अलग बस्ती में रहते हैं, वहीं
शिया मुसलमान बिना किसी भय के हिन्दुओं से घिरी बस्ती में सदियों से रहते आ रहे हैं।
न कोई वैमनस्य, न कोई झगड़ा। क्या भारत के सुन्नी मुसलमान शियाओं
की तरह उदार नहीं हो सकते? जब हमें साथ-साथ ही रहना है तो क्यों
नहीं उदारता, सहिष्णुता और एक दूसरे के धर्मों के प्रति सम्मान
के साथ रहा जाय?
कुछ हिन्दूवादी संगठन मुसलमानों की घर वापसी के पक्षधर हैं। मेरा उनसे
एक ही सवाल है कि अगर कोई मुसलमान घर वापसी करता है तो उसे किस जाति में रखा जायेगा? सैकड़ों जातियों में बंटा जो हिन्दू समुदाय आज तक एक हो नहीं सका वह मुसलमानों को कहां स्थान देगा?
यह विचार अव्यवहारिक है। मुसलमानों में भी जो पढ़े-लिखे हैं और इतिहास
का ज्ञान रखते हैं, उनका मानना है कि अखंड भारत के ९९% मुसलमान
परिस्थितिवश हिन्दू से ही मुसलमान बने हैं। हमारे पूर्वज एक ही हैं और हमारा डीएनए
भी एक ही है। भारत के मुसलमानों का डीएनए अरब के मुसलमानों से नहीं मिलता। जिस दिन
भारत का मुसलमान इस सत्य को स्वीकार कर लेगा, उसी दिन हिन्दू-मुस्लिम
समस्या का सदा के लिए अन्त हो जाएगा। इसके लिए हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के प्रबुद्ध
वर्ग को सामने आकर यह जिम्मेदारी उठानी पड़ेगी। अलग रहने की हमने बहुत बड़ी कीमत चुकाई
है। अब साथ रहकर हम विश्व को नई दिशा दिखा सकते हैं। हिन्दुओं ने जैसे बौद्धों,
जैनियों, सिक्खों को अपने से अभिन्न स्वीकार किया
है, उसी तरह अलग पूजा पद्धति को मान्यता प्रदान करते हुए मुसलमानों
का भी मुहम्मदपंथी हिन्दू के रूप में दिल खोलकर स्वागत करेंगे। फिर हमलोग ईद-बकरीद,
दिवाली-दशहरा और होली साथ-साथ मनायेंगे। न कोई राग होगा, न कोई द्वेष, न लड़ाई न झगड़ा।
Saturday, October 14, 2017
बनारस और प्रधानमन्त्री मोदी
मैं बनारस में रहता हूं। मेरी शिक्षा-दीक्षा भी यहीं हुई है और अपनी नौकरी के उत्तरार्ध के १८ वर्ष मैंने यहीं व्यतीत किए हैं। एक लंबे समय से मैं बनारस से जुड़ा हूं। मेरे छात्र जीवन में बनारस जैसा था आज भी लगभग वैसा ही है; बस एक परिवर्तन को छोड़कर। पहले सड़क पर हम किसी भी वाहन से या पैदल चल सकते थे। यहां टांगा भी चला करते थे लेकिन अब पैदल चलना भी दुश्वार है। लंका की सड़कें सबसे चौड़ी हैं, फूटपाथ भी है लेकिन बी.एच.यू. के सिंहद्वार से लेकर रविदास गेट तक दिन भर जाम लगा रहता है। आप कार से गोदौलिया जाने की सोच भी नहीं सकते हैं। बढ़ती जनसंख्या, गाड़ियों की संख्या और आवारा साढ़ों तथा गायों की संख्या ने यातायात को दयनीय बना दिया है। सीवर और ड्रेनेज की समस्या ज्यों की त्यों है। मुख्य मार्गों पर भी सीवर का पानी बहते हुए देखा जा सकता है। मोदी जी के यहां से सांसद और प्रधान मन्त्री बनने के बाद बनारसियों की उम्मीदें आसमान छूने लगीं। वे भी जापान के प्रधानमन्त्री के साथ यहां आए और बनारस को क्योटो बनाने की घोषणा की। जबतक अखिलेश यादव मुख्यमन्त्री थे, तब यही कहा जाता था कि केन्द्र सरकार दिल्ली से पैसे तो भेज रही है लेकिन राज्य सरकार न योजना बना रही है और ना ही पैसे का सदुपयोग कर रही है। कुल मिलाकर जनता में यह भाव भरा गया कि राज्य सरकार के असहयोग के कारण बनारस का विकास नहीं हो पा रहा है। लेकिन अब तो दिल्ली में मोदी हैं, लखनऊ में योगी हैं, जिले के सभी सांसद और विधायक भाजपा के हैं तथा नगर निगम भी भाजपा के कब्जे में है। दुःख के साथ लिखना पड़ता है कि कोई भी सांसद या विधायक कभी भी जनता से संपर्क नहीं करते हैं और ना ही अपने क्षेत्रों का सघन दौरा करते हैं। यहां के ब्यूरोक्रैट्स मोदी जी के बनारस आगमन के समय उन सड़कों को चमका देते हैं, जहां से मोदी जी को गुजरना होता है। उसके बाद उनके कर्त्तव्य की इतिश्री हो जाती है। कुछ परियोजनाओं के विवरण निम्नवत हैं जो वर्षों से पूर्णता की प्रतीक्षा कर रही हैं --
१. केन्द्र सरकार ने अपने पहले बजट में ही बनारस के लिए एक अलग AIMS की स्थापना की घोषणा की थी जिसे योगी जी गोरखपुर के लिए ले उड़े। मैंने स्वयं और बनारस के हजारों लोगों ने बनारस में ही AIMS खोलने के लिए सरकार को अडिग रहने के लिए पत्र लिखे लेकिन कोई जवाब नहीं आया। मोदी से योगी भारी पड़ गए।
२. मंडुआडीह में रेलवे क्रोसिंग के उपर एक फ़्लाईओवर का निर्माण वर्षों से हो रहा है जो अभी भी अधूरा है। फ़्लाईओवर बनने के पहले दोनों तरफ सर्विस रोड बनाई जाती है। बनारस में इसका पालन नहीं किया जाता है।
३. कैन्ट रेलवे स्टेशन के सामने अन्धरा पुल और लहरतारा के फ़्लाईओवर को एक नए फ़्लाईओवर से जोड़ने का काम भी वर्षों से चल रहा है। सन २०१९ तक भी इसके पूरा होने की संभावना नहीं है क्योंकि उसपर कोई काम होता हुआ दिखाई ही नहीं पड़ता। सर्विस रोड की हालत अत्यन्त दयनीय है जिसके कारण २४ घंटे जाम लगा रहता है। रोज ही किसी की ट्रेन छूटती है तो किसी की फ़्लाइट।
४. मोदी जी के प्रधानमन्त्री बनने के बाद बनारस के एयरपोर्ट बाबतपुर से शिवपुर तक शहर को जोड़ने के लिए एक लंबे फ़्लाईओवर पर काम शुरु हुआ जो आज भी अधूरा है। बनारस की परंपरा के अनुसार ही सर्विस रोड की हालत दयनीय है। पता नहीं वह शुभ दिन कब आएगा जब यह फ़्लाई ओवर पूरा होगा। इतना तो निश्चित है कि वह शुभ दिन २०१९ के पहले नहीं आएगा।
मैं मोदीजी का आलोचक या विरोधी नहीं हूं बल्कि उनका प्रबल समर्थक हूं। लेकिन अपने दिल का दर्द दिल में नहीं रखता। बनारस अगर कूड़े का ढेर भी बन जाएगा तो भी वोट मैं मोदीजी को ही दूंगा क्योंकि मुझे यह अटूट विश्वास है कि यह देश उनके नेतृत्व में ही सुरक्षित है। स्थानीय हित को देशहित के लिए कुर्बान करने के लिए मैं तैयार हूं लेकिन सभी बनारसी मेरा अनुकरण करेंगे, इसमें संदेह है। वादे सुनते-सुनते बनारसियों के कान पक गए हैं।
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