Monday, June 10, 2013

राजा ययाति और लाल कृष्ण आडवानी


          वैदिक युग में आर्यावर्त्त में एक अति पराक्रमी राजा हुआ करते थे। नाम था ययाति। वे सूर्यपुत्र मनु  के वंशज और इन्द्रासन के अधिपति रहे महान राजा नहुष के पुत्र थे। यश, पराक्रम और कुशल प्रजापालन में वे कही से भी अपने पिता नहुष से उन्नीस नहीं थे। एक बार आखेट करते समय उनकी भेंट दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य की कन्या देवयानी से हुई। अपूर्व सुन्दरी देवयानी ने अपने पति के रूप में उनका चुनाव कर लिया। शुक्राचार्य की सहमति से दोनों का विवाह भी संपन्न हो गया। अपने दास-दासियों के साथ देवयानी राजधानी आकर सुखपूर्वक महाराज ययाति के साथ दांपत्य जीवन का आनन्द लेने लगी। एक दिन अपनी अशोक वाटिका में भ्रमण के दौरान ययाति ने अतुलनीय रूप-लावण्य से संपन्न एक युवती को जल-विहार करते देखा। ऐसा सौन्दर्य उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था। युवती के पास जाकर उन्होंने उसका परिचय पूछा। उन्हें ज्ञात हुआ कि वह युवती और कोई नहीं बल्कि दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा थी। शुक्राचार्य इसी वृषपर्वा के राजगुरु थे। शर्मिष्ठा और देवयानी घनिष्ठ सहेलियां थीं। एक को अपने पिता के प्रतापी राजा होने का घमंड था, तो दूसरी को अपने पिता के तप का। एक दिन दोनों के अहंकार टकरा ही गए और दोनों में जमकर लड़ाई हुई। आहत देवयानी ने शर्मिष्ठा को नीचा दिखाने के लिए  उसे अपनी दासी बनाने की ठान ली। शुक्राचार्य ने अपनी पुत्री के अहंकार का पोषण किया और दैत्यराज वृषपर्वा को अपनी पुत्री को दासी के रूप में देवयानी की सेवा में नियुक्त करने का निर्देश दिया। वृषपर्वा ने इन्कार कर दिया। रुष्ट शुक्राचार्य ने राजगुरु का पद त्यागकर अन्यत्र जाने की तैयारी कर ली। दैत्यराज चिन्ता से घिर गए। शुक्राचार्य के बिना दैत्य अधूरे थे। उनकी अनुपस्थिति में देवराज इन्द्र का सामना करना उनके वश में नहीं था। वृषपर्वा के पास एक तरफ शुक्राचार्य का हठ था तो दूसरी ओर अपने राज्य का कल्याण। वे रुग्ण रहने लगे। शर्मिष्ठा से अपने पिता की यह दशा देखी नहीं गई। आसन्न संकट को टालने के लिए उसने स्वेच्छा से देवयानी की दासी बनना स्वीकार कर लिया। राजा ने भारी हृदय से इसकी सहमति दे दी। इस तरह राजपुत्री शर्मिष्ठा अपने पिता के राजगुरु शुक्राचार्य की लाडली देवयानी की दासी बन गई। महाराज ययाति को शर्मिष्ठा से स्वाभाविक सहानुभूति उत्पन्न हुई और साथ में अनुराग भी उत्पन्न हुआ। शर्मिष्ठा के रूप-लावण्य पर ययाति पहले से ही मुग्ध थे। उनके प्रणय-निवेदन पर शर्मिष्ठा मे भी हामी भार दी। देवयानी से बदला लेने का यह सुनहरा अवसर वह हाथ से जाने देना नहीं चाहती थी। दोनों ने गुप्त रीति से गंधर्व विवाह कर लिया। दोनों से तीन पुत्र पैदा हुए। कुरु इन दोनों का सबसे छोटा पुत्र था। ययाति एक साथ दो सुन्दरियों - देवयानी और शर्मिष्ठा के रूप-यौवन का भोग वर्षों तक करते रहे। देवयानी से भी उनके दो पुत्र हुए। कालान्तर में शर्मिष्ठा और ययाति के प्रेम-प्रसंग की जानकारी देवयानी को हो गई। क्रुद्ध देवयानी ने राजा का परित्याग कर पितृगृह की शरण ली। शुक्राचार्य के कोप का सामना करना ययाति के औकात के बाहर की बात थी। उन्होंने शुक्राचार्य के पास जाकर क्षमा-याचना की और देवयानी को पुनः भेजने का निवेदन भी किया। क्रोध से भरे शुक्राचार्य ने देवयानी को साथ भेजने की स्वीकृति तो दे दी लेकिन एक भयंकर शाप भी साथ ही साथ दे दिया। जिस जवानी के जोश में ययाति ने उनकी पुत्री देवयानी से बेवफ़ाई की थी, उसी जवानी को शुक्राचार्य ने दयनीय बुढ़ापे में परिवर्तित कर दिया। वृद्ध ययाति अपनी युवा पत्नी के साथ राजधानी लौट आए। अपने बुढ़ापे से दुखी राजा का मन अब किसी काम में नहीं लगता था। चाहकर भी न तो वे देवयानी और न ही शर्मिष्ठा के रूप-यौवन का भोग कर सकते थे। चिन्ता और दुख ने उन्हें अशक्त कर दिया था। देवयानी से अपने पति की यह दशा देखी नहीं गई। उसने अपने पिता से अपना शाप वापस लेने का अनुरोध किया। पुत्री के बार-बार के आग्रह के बाद शुक्राचार्य ने एक युक्ति बताई कि अगर राजा का कोई औरस पुत्र उनको अपनी जवानी देकर उनका बुढापा ले ले, तो ययाति पुनः यौवनावस्था को प्राप्त कर सकते हैं। भोग-लिप्सा के आकांक्षी ययाति ने अपने पांचों पुत्रों से अपनी जवानी देने का अनुरोध किया लेकिन सबसे कनिष्ठ कुरु को छोड़कर किसी ने अपनी सहमति नहीं दी। राजा को अपने अल्पवय पुत्र पर तनिक भी दया नहीं आई और उसकी जवानी लेने में उन्होंने तनिक भी विलंब नहीं किया। ययाति जवान होकर पुनः रूप यौवन का भोग करने लगे और किशोर कुरु को असमय ही जर्जर वृद्धावस्था झेलने के लिए मज़बूर होना पड़ा। लेकिन भोग से भी कभी कोई तृप्त हुआ है क्या? कुछ ही वर्षों में भोग की निरर्थकता ययाति की समझ में आ गई। शुक्राचार्य की सहायता से उन्होंने अपनी ओढ़ी हुई जवानी अपने पुत्र को लौटा दी और स्वयं बुढ़ापा स्वीकार कर लिया। कुरू का उन्होंने राजा के रूप में अभिषेक किया और स्वयं संन्यास ग्रहण कर लिया।
उपरोक्त पौराणिक कहानी को भाजपा के शलाका पुरूष लाल कृष्ण आडवानी के साथ संदर्भित करने की क्या आवश्यकता आ पड़ी? पाठकों के मन में एक स्वाभाविक प्रश्न का उठना अनापेक्षित नहीं है। लेकिन अपनी सत्ता लिप्सा को ८५ साल की उम्र में भी दबा न पाने के कारण नरेन्द्र मोदी की राह में रोड़े अटकाने का आडवानी जी का कार्य कही से भी ययाति की भोगलिप्सा से कमतर नहीं है। कहते हैं कि हिन्दू वृद्धों की बुद्धि बुढापे में सठिया जाती है। यहां प्रत्यक्ष दिखाई पड़ रहा है। आडवानी जी ने इसका पहला प्रमाण पाकिस्तान यात्रा के दौरान जिन्ना की तारीफ़ों के पुल बांध कर दिया था, दूसरा प्रमाण युवा नेतृत्व को हतोत्साहित करके दिया था और तीसरा प्रमाण गोवा में अभी अभी संपन्न भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में अपनी सप्रयास अनुपस्थिति दर्ज़ कराके दिया है। ८५ साल की उम्र में भी सत्ता पाने की महत्वाकांक्षा उनके ज़ेहन में ययाति की भोगलिप्सा की तरह आज भी जवान है। लेकिन तब द्वापर था। ययाति को कम से कम एक पुरु तो मिल गया था। आज कलियुग है। भारत का युवा अपना नैसर्गिक अधिकार छोड़ने के लिए कत्तई तैयार नहीं है। नरेन्द्र मोदी युवा पीढ़ी की उम्मीद बनकर उभर रहे हैं। आडवानी जी को जितनी जल्दी यह बात समझ में आ जाय, उतना ही अच्छा। वरना समय किसका इन्तजार करता है। महाराज ययाति राजर्षि के रूप में विख्यात थे, लेकिन आज कोई भी उन्हें राजर्षि के रूप में नहीं याद करता। अपने सबसे छोटे पुत्र कुरु की जवानी उधार लेकर भोग में लिप्त भारतवर्ष के एक स्वार्थी राजा के रूप में ही भारत के इतिहास में उनका उल्लेख आता है।

Sunday, June 2, 2013

मैच फ़िक्सिंग और अरुण जेटली

             अरुण जेटली को मैं तब से जानता हूं, जब वे छात्र राजनीति कर रहे थे। दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र संघ के अध्यक्ष के रूप में वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र संघ के चुनाव-प्रचार के दौरान धनराजगिरि छात्रावास के मेरे कमरे पर भी आए थे। मेरे साथ उन्होंने चाय भी पी थी। मेरी उनसे लंबी बात हुई थी। उनके विचार और व्यवहार से मैं काफी प्रभावित हुआ था। मुझे लगा था कि निकट भविष्य में देश को एक जुझारू, क्रान्तिकारी और दूरद्रष्टा नेता मिलने वाला है। भाजपा में अपने राजनीतिक कैरियर के शुरुआती दौर में जेटली ने इस तरह का आभास भी दिया था। लेकिन समय जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया और भाजपा में उनकी कुर्सी पुख्ता होती गई वे एक वातानुकूलित नेता के रूप में अपनी पहचान बनाते गए। जननेता बनने के बदले उन्होंने गणेश परिक्रमा को ही प्राथमिकता दी और लोक सभा के बदले राज्य सभा के माध्यम से सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने का हर संभव प्रयास किया और करते रहते हैं। जनता से जुड़े नेताओं को पार्टी का बाहर का रास्ता दिखाने में इनकी अग्रणी भूमिका रही है। नरेन्द्र मोदी इनके अगले निशाने पर हैं। देखना है कि कौन किसे बोल्ड करता है। इतने दिनों तक भाजपा की राजनीति करते हुए वे यह समझ नहीं पाए कि भारत की जनता को भाजपा से क्या अपेक्षा है। हिन्दुस्तान की जनता कांग्रेस में सैकड़ों येदुरप्पओं को बर्दाश्त कर सकती है लेकिन भाजपा में एक भी येदुरप्पा उसे मन्जूर नहीं। कर्नाटक के चुनाव में यह प्रमाणित भी हो गया। चरित्र, सत्यनिष्ठा और देशभक्ति के मामलों में इस देश की जनता को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर अगाध श्रद्धा और विश्वास है। भाजपा का शीर्ष नेतृत्व चूंकि आर.एस.एस से आए नेताओं द्वारा ही संचालित होता है, इस नाते भाजपा की विश्वसनीयता असंदिग्ध रही। पंडित दीनदयाल उपाध्याय, वाजपेयी, अडवानी से लेकर नरेन्द्र मोदी तक, सबने संघ के आदर्शों के अनुरूप कार्य किये और अविवादित रहे। भाजपा के नेताओं पर हिन्दूवादी और सांप्रदायिक होने का आरोप तो छद्म धर्मनिरपेक्षवादी हमेशा से लगाते रहे और भारत की जनता अपना मत देकर इस आरोप को खारिज़ करती रही। परन्तु भाजपा के धुर विरोधी भी इसके शीर्ष नेतृत्व पर कभी आर्थिक घोटाले या भ्रष्टाचार का अनर्गल आरोप लगाने की हिम्मत नहीं करते थे। लेकिन बंगारू लक्ष्मण और येदुरप्पा प्रकरण ने जनता को अपनी धारणा बदलने पर मज़बूर कर दिया। भाजपा को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी। अभी भी भाजपा में अन्य राजनीतिक दलों की तुलना में स्वच्छता, पारदर्शिता और आन्तरिक लोकतंत्र बहुत ज्यादा है। अरूण जेटली जैसे नेता बस इतने से ही संतुष्ट और खुश हैं। उन्हें यह नहीं पता कि कि हिन्दुस्तान की जनता भाजपा के शुभ्र-श्वेत परिधान पर एक भी धब्बा देखना पसंद नहीं करती है। निष्कलंक चरित्र ही भाजपा की पूंजी है।
श्रीमान अरुण जेटली कांग्रेसियों की राह पर चल पड़े हैं। माधव राव सिन्धिया केन्द्रीय मंत्री थे, लेकिन बीसीसीआई का अध्यक्ष पद उन्हे ललचाता रहता था। येन-केन-प्राकारेण वे इसके अध्य्क्ष भी बने। पुराने कांग्रेसी शरद पवार भी केद्रीय मंत्री होने के बावजूद  बीसीसीआई के अध्यक्ष पद के लिए लार टपकाते रहे और चुनाव भी लड़े। पहली बार में अपमानजनक पराजय के बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी और दूसरी कोशिश में जोड़-जुगाड़ से सफल भी रहे। राजीव शुक्ला अच्छे पत्रकार थे, अच्छे लेखक भी थे। कांग्रेस ने उन्हें मंत्री बनाकर अपना हित तो साध लिया लेकिन वे पत्रकारिता से दूर होते चले गए। उन्हें अब आईपीएल और चीयर गर्ल्स का ग्लैमर ज्यादा भाने लगा है। आईपीएल के अध्यक्ष वही हैं। उन्हीं के कार्यकाल में भारतीय क्रिकेट की मैच फिक्सिंग की सबसे शर्मनाक घटना हुई है। यह नशा उनपर इतना छाया है कि वे भारत सरकार के संसदीय मंत्री के रूप में संसद के प्रबंधन से ज्यादा मैच फिक्सिंग के प्रबंधन में  रुचि लेने लगे हैं। अरुण जेटली को भी क्रिकेट का ग्लैमर कुछ ज्यादा ही भा रहा है। इस समय वे दिल्ली क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष के अतिरिक्त बीसीसीआई के उपाध्यक्ष पद का भी दायित्व संभाले हुए हैं और बीसीसीआई के अध्यक्ष पद पाने के लिए जीतोड़ जुगाड़बाजी कर रहे हैं। वे राज्य सभा में विपक्ष के नेता हैं, कुशल वक्ता हैं। इस नाते प्रधान मंत्री की दावेदारी भी कर सकते हैं, परन्तु उनकी महत्वाकांक्षा सबसे पहले बीसीसीआई का अध्यक्ष बनने की है। उन्हें आईपीएल की मैच फिक्सिंग और बीसीसीआई के अध्यक्ष श्रीनिवासन की दामाद के माध्यम से इसमें संलिप्तता दिखाई नहीं पड़ती है। वे इस विषय पर कुछ भी बोलने से परहेज़ करते है। बहुत कुरेदने पर कुछ बोलते भी हैं, तो सरकार के भ्रष्ट मंत्रियों की तरह - जांच के बाद तथ्य सामने आने पर दोषियों पर नियमानुसार कार्यवाही होगी। ये वही जेटली हैं जो सिर्फ आरोपों के आधार पर प्रधान मंत्री तक का इस्तीफ़ा मांगते हैं और महीनों संसद की कार्यवाही ठप्प करा देते हैं। श्रीमान जेटली राज्य स्तर या राष्ट्रीय स्तर पर कभी क्रिकेट के खिलाड़ी नहीं रहे। क्लब स्तर पर भले ही उन्होंने कभी क्रिकेट खेली हो; (पोते के साथ तो मैं आज भी क्रिकेट खेलता हूं।) फिर क्या कारण है कि वे बीसीसीआई का अध्यक्ष पद पाने के लिए इतने आतुर हैं कि भ्रष्ट लोगों का समर्थन करने में उनको शर्मिन्दगी नहीं आ रही है। कभी वे राजीव शुक्ला के साथ गलबहियां डालकर आईपीएल की पार्टियों में लुत्फ़ उठाते देखे जाते हैं, तो कभी सिने अभिनेत्रियों के साथ मैच देखते हुए। यह काम कांग्रेसियों को शोभा देता है, अरुण जेटली और भाजपा को नहीं। आखिर बीसीसीआई के अध्यक्ष की कितनी कमाई है कि डालमिया जैसा उद्योगपति, श्रीनिवासन जैसा अरबपति सिमेन्ट व्यवसायी, शरद पवार जैसा केन्द्रीय मंत्री और अरुण जेटली जैसा नेता भी अपना लोभ संवरण नहीं कर पाते हैं। इसकी सीबीआई द्वारा जांच होनी चाहिए।  अगर जेटली उपाध्यक्ष के रूप में  बीसीसीआई में अपनी प्रभावी उपस्थिति से कोई सुधार नहीं ला सकते, तो  वहां बने रहने या अगली पदोन्नति के लिए काम करने का क्या औचित्य है? क्रिकेट खिलाड़ी जेल चले जाते हैं, अध्यक्ष का दामाद फिक्सिंग में सलाखों के पीछे चला जाता है। दारा सिंह के यश और प्रतिष्ठा को कलंकित करते हुए बिन्दू सिंह जेल की चक्की पीस सकता है, भारत की क्रिकेट टीम के कप्तान की पत्नी मैच फिक्सरों के साथ बैठकर आनन्द ले सकती है, धोनी भी संदेह के घेरे में हैं, लेकिन राज्य सभा में विपक्ष के नेता और बीसीसीआई के उपाध्यक्ष अरुण जेटली अपना मुंह नहीं खोल सकते हैं। क्रिकेट टीम के पूर्व कतान एवं महान मैच फिक्सर अज़हरुद्दीन को कांग्रेस अपना सांसद बना सकती है, जनता पर इसका कोई फ़र्क नहीं पड़ता है, लेकिन जेटली साहब! श्रीसन्त, श्रीनिवासन, श्रीमती धोनी, राजीव शुक्ला और बिन्दू सिंह के साथ आपकी जुगलबन्दी भाजपा को बहुत महंगी पड़ने वाली है। अब भी वक्त है, संभल जाइए। ग्लैमर के पीछे भागने की आपकी उम्र भी नहीं रही।

Tuesday, May 7, 2013

बेशर्मी की हद



क्या आज़ाद हिन्दुस्तान में इससे ज्यादा बेशर्म और भ्रष्ट सरकार आपने कभी देखी है? हमने तो नहीं देखी। एक बोफ़ोर्स दलाली के बाद नेहरू-गांधी परिवार की ऐसी बाट लगी कि आज तक यह परिवार सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने की तमाम कोशिशों और छटपटाहटों के बाद भी खुले रूप में वहां तक नहीं पहुंच पाया। पर्दे के पीछे से सत्ता का संचालन, बिना शक इसी परिवार के पास है, परन्तु बिना किसी जिम्मेदारी के। गुलामी मानसिकता के कांग्रेसी छाछ पीकर ही मस्त हैं, मलाई तो कोई और ही खा रहा है। बिचारे कांग्रेसी करें भी तो क्या? अपनी योग्यता या नेतृत्व के बल पर ये प्रदूषित पानी की भी पात्रता नहीं रखते हैं। मट्ठे में हिस्सेदारी पा जाना तो बहुत बड़ी उपलब्धि है। क्या यह कम आश्चर्य का विषय है कि भारत का प्रधान मंत्री, जो जनादेश का दावा करता है, अपने पूरे कार्यकाल में जनता का प्रतिधित्व करने वाली लोकसभा का कभी सदस्य ही नहीं रहा। रीढ़विहीन नेताओं, मंत्रियो और दरबारियों से भ्रष्टाचार, घोटालों और घूसखोरी के अलावा और क्या उम्मीद की जा सकती है?

दिनांक ३१-१०-११ को स्विस बैंक कार्पोरेशन ने भारत सरकार को गोपनीय पत्र लिखकर भारत के दस सबसे बड़े उन जमाकर्ताओं की सूची भेजी थी जिनके नाम उस बैंक में ५ हज़ार करोड़ से ज्यादा रुपए जमा थे। उनकी खाता संख्या भी साथ में दी गई थी। संक्षिप्त विवरण निम्नवत है -

१. राजीव गांधी - १९८३५६ करोड़

२. ए. राजा - ७८५६ करोड़

३. हर्षद मेहता - १३५१२१ करोड़

४. शरद गोविन्दराव पवार - २८९५६ करोड़

५. पी. चिदंबरम - ३३४५१ करोड़

६. सुरेश कलमाडी - ५५६० करोड़

७. एम करुनानिधि - ३५००९ करोड़

८. केतन पारिख - ८२५६ करोड़

९. सी. जे. मोहिनी - ९६४५५ करोड़

१०. कलानिधि मारन - १५०९० करोड़

बैंक ने यह भी लिखा कि उपरोक्त खाते ब्कैकलिस्ट कर दिए गए हैं और सरकार ने अगर स्पष्ट विवरण ३१-०३-१२ तक नहीं दिया तो खाते प्रतिबन्धित कर दिए जायेंगे। भारत सरकार ने आज तक कोई उत्तर नहीं दिया। नतीज़ा यह निकला कि देश का हज़ारों करोड़ रुपया देश में नहीं आया। उस पर स्विस बैंक ने कब्ज़ा कर लिया।

२-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में प्राप्त कमिशनों को सही ढंग से ठिकाने लगाया गया। लाभार्थियों में वर्तमान कांग्रेस अध्यक्ष, उनकी बेटी-दामाद और बहनों के नाम शामिल हैं। कांग्रेस के शासन में नैतिकता, मर्यादा और ईमानदारी शब्दकोष के बाहर के शब्द हो चुके हैं। कांग्रेस हाई कमान लगातार दागी चेहरों और उनकी कुर्सियों का बचाव कर रही है। भ्रष्टाचार के जघन्य कृत्य करनेवाले नेता रसूखदार ओहदों पर आज भी काबिज़ हैं और नैतिक मूल्यों को मुंह चिढा रहे हैं। सोनिया गांधी, पी. चिदम्बरम, पवन बंसल, अश्विनी कुमार, शीला दीक्षित, पीजी कुरियन, राज कुमार चौहान, जगदीश टाइटलर, सज्जन कुमार, गुलाम नबी आज़ाद, खुर्शीद आलम, ई वाहनवती, नारायण दत्त तिवारी इत्यादि, इत्यादि सैकड़ों दागी चेहरे हैं, जिनपर करोड़ों ऊंगलियां खड़ी होने के बाद भी, कांग्रेस हाई कमान ने आंखें मूंद रखी है।

रेल मंत्री पवन बंसल का भांजा मंत्री के नाम पर ट्रान्सफ़र पोस्टिंग के लिए ९० लाख रूपए रिश्वत लेते हुए सीबीआई द्वारा रंगे हाथ पकड़ा जाता है, प्रधान मंत्री क्लीन चिट दे देते हैं। कानून मंत्री कोलगेट रिपोर्ट बदल देते हैं - सुप्रीम कोर्ट इस कुकृत्य के लिए फ़टकार लगाता है - सरकार के कान पर जूं नहीं रेंगती। पी चिदम्बरम २-जी स्पेक्ट्रम घॊटाले के मुख्य अभियुक्त हैं, उन्हें जेपीसी निर्दोष करार देती है। सलमान खुर्शीद विकलांगों का पैसा हज़म कर जाते हैं, उन्हें प्रोमोट कर विदेश मंत्री बना दिया जाता है। शीला दीक्षित प्रधान मंत्री द्वारा नियुक्त शुंगलू समिति द्वारा राष्ट्रमंडल खेलों में हुए घोटालों के लिए दोषी ठहरा दी जाती हैं, लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कोई आंच नहीं आती है। उनके मंत्रिमंडल में शामिल राजकुमार चौहान को लोकायुक्त भ्रष्टाचार के लिए दोषी ठहराते हैं, वे सीना ताने मंत्री बने हुए हैं। जगदीश टाइटलर ने सिक्खों का सरेआम कत्ल कराया। कांग्रेस के इशारे पर जांच एजेन्सी ने फाइल बन्द कर दी। अदालत ने दुबारा केस चलाने का आदेश दिया है। वह अभी भी कांग्रेस कार्यसमिति के सम्मानित सदस्य हैं। अभिषेक मनु सिंघवी ने अपने चैंबर में एक महिला से कुकृत्य किया। पूरे देश ने इसकी सीडी यू-ट्यूब और विभिन्न चैनलों के माध्यम से देखा। कुछ दिनों तक तो वे मुंह छुपाए घर में रहे लेकिन फिर वे टीवी चैनलों पर कांग्रेस का चेहरा बनकर लौट आए हैं। ये सभी लोग कांग्रेस हाई कमान और हमारे ईमानदार प्रधान मंत्री के विशेष कृपापात्र और प्रियजन हैं।

जब कोठे पर बैठ गए, तो चीर-शील की क्या चिन्ता - कांग्रेस इसी सिद्धान्त के आधार पर, पूरे देश पर शासन कर रही है, न लाज, न शर्म।‘

Friday, April 19, 2013

संजय दत्त और छद्म धर्मनिरपेक्षता



      कल्पना कीजिए कि संजय दत्त का नाम यदि शमीम हुसेन होता, पिता का नाम शाकिर हुसेन होता बहन का नाम परवीन बेगम होता और ये सभी सत्ताधारी कांग्रेस के पूर्व सांसद या वर्तमान सांसद नहीं होते, तो क्या होता? आप स्वयं अन्दाज़ा लगा सकते हैं कि तब न्यायालय, सरकार या बहुमत का फ़ैसला क्या होता? क्या संजय दत्त भी अफ़ज़ल गुरु की तरह कब्र में नमाज़ नहीं पढ़ रहे होते? क्या वे अपनी बची हुई साढ़े तीन साल की सज़ा के क्रियान्यवन के लिए चार हफ़्ते की मोहलत पा पाते? शायद कभी नहीं।
      संजय दत्त का ज़ुर्म अफ़ज़ल गुरु के जुर्म से कही भी उन्नीस नहीं ठहरता। यह सिद्ध हो चुका है कि दुबई में उसने आतंकवादी सरगना दाउद इब्राहीम से मुलाकात की थी। उसके बाद ही उसके घर कई एके-४७ राइफ़ल और विस्फोटक पहुंचाए गए; फिर मुंबई में सीरियल बम विस्फोट हुए और हजारों निर्दोष मारे गए। दाउद इब्राहीम द्वारा प्रायोजित और संचालित इस आतंकवादी कार्यवाही के संजय दत्त एक हिस्सा थे, परन्तु पिता सुनील दत्त के राजनैतिक रसूख के कारण पुलिस ने भी नरमी बरती, टाडा कोर्ट ने भी सहानुभूति दिखाई और सरकार का तो कहना ही क्या था - उसे तो सिर्फ़ गुजरात नज़र आता है, १९८४ और १९४७ के दंगे कभी याद आते ही नहीं। हमला संसद पर होता है, मौत की सज़ा श्रीनगर में बैठा अफ़ज़ल पा जाता है। उसकी दया याचिका भी अस्वीकृत कर दी जाती है और संजय दत्त को सामान्य सी सज़ा के लिए भी मोहलत पर मोहलत, वह भी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बिना किसी परेशानी के दे दी जाती है। अगर महाराष्ट्र के राज्यपाल द्वारा उसकी साढ़े तीन साल की सज़ा भी माफ़ कर दी जाती है, तो तनिक भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए। देर-सबेर यह तो होना ही है।
      कानून सबके लिए एक समान है - यह दिखना भी चाहिए। एक वर्ग विशेष के लिए कानून की व्याख्या अलग हो और दूसरे वर्ग के लिए उसे दूसरी तरह से परिभाषित किया जाय, कही से भी प्रशंसनीय नहीं है। १९८४ के सिक्ख विरोधी देशव्यापी दंगे के बाद प्रधान मंत्री स्व. राजीव गांधी का यह बयान कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है, तो धरती हिलती ही है, क्या यूं ही खारिज़ किये जाने लायक था? आपात्काल में संजय गांधी द्वारा तुर्कमान गेट, ज़ामा मस्ज़िद और देश के अन्य इलाकों में किए गए कत्लेआम के लिए फांसी की सज़ा भी पर्याप्त थी? भिंडरवाले को पहले अकालियों के खिलाफ़ इस्तेमाल करना और फिर आपरेशन ब्लू स्टार करके हज़ारों सिक्खों को मौत की नींद सुला देने के लिए क्या इन्दिरा गांधी को मिस्र के पूर्व राष्ट्रपति हुस्ने मुबारक की तरह गिरफ्तार कर सज़ा नहीं मिलनी चाहिए थी? हमारे यहां व्यक्ति विशेष के लिए कानून बदल दिया जाता है, जज बदल दिए जाते हैं, जांच आयोग की रिपोर्ट कूड़ेदान में फेंक दी जाती हैं और प्रायोजित भीड़ द्वारा नारे लगवाकर फ़ैसला करा दिया जाता है। यह सब हमारे हिन्दुस्तान में ही संभव है। मेरा भारत महान!

Friday, March 22, 2013

एक पाती सोनिया भौजी के नाम


होली के अवसर पर विशेष -
आदरणीय भौजी,
सादर परनाम!
आगे समाचार है कि महिला सुरक्षा बिल के दोनों सदनों में पास हो जाने पर पूरे मुलुक की औरतें खुश हैं और मर्द छाती पीट रहे हैं; औरतें आपकी शुक्रगुजार हो गई हैं और मर्द हाय-हाय कर रहे हैं। औरतों को देखना और ताक-झांक करना अब संगीन जुर्म बन गया है। पीछा करना तो गैर जमानती हो गया है। आप इसका इस्तेमाल करके नरेन्दर मोदी को काहे नहीं आरेस्ट करा देती है? बहुत बहकी-बहकी बातें करता है। आपकी तरफ से  एक एफ़.आई.आर. दर्ज़ होते ही औकात ठिकाने आ जाएगी। जेल तो जायेंगे ही, कही मुंह दिखाने के काबिल भी नहीं रह जाएंगे। न रहेगा बांस न बजेगी बंसुरी। उनके बिना भाजपा बिना दुल्हे की बारात है। अगर वह पट्ठा तिहाड़ जेल में बंद हो गया तो २०१४ के चुनाव में राहुल बबुआ को चुनौती देने वाला कोई बचेगा ही नहीं। पूरा मैदान साफ। वह कुंआरा भी है। सेक्स संबन्धी आरोप उसपर फेविकोल के माफिक चिपक जाएगा। यह कानून बहुते बढ़िया है। सारी खुराफ़ात तो मर्द ही करते हैं। अब आएगा मज़ा। अब घूमें ज़रा आज़ादी से बाज़ार मे। आगे भी औरत, पीछे भी औरत। पहली बार पीछा करने के ज़ुर्म में जैसे-तैसे बच भी गए लेकिन दूसरी बार में? सीधे जेल, ज़मानत भी नहीं होगी। पहले औरतें मर्दों के डर से बाहर नहीं निकलती थीं; अब बैठें मर्द घर के अंदर। जैसी करनी, वैसी भरनी। पुरानी फिल्म ‘नज़राना’ में एक युगल गीत है -
मेरे पीछे एक दीवाना, कुछ अलबेला मस्ताना .........
इस गाने को गाया था मुकेश और आशा भोंसले ने और पर्दे पर जीवन्त किया था राज कपूर तथा वैजन्ती माला ने। शुक्र है कि मुकेश और राज कपूर स्वर्ग सिधार चुके हैं, वरना निश्चित रूप से वे आज जेल में होते।
करुनानिधि का बेटा...... क्या नाम है उसका? स्टालिन। हां, स्टालिन ही नाम है। करुनानिधियो को कोई नाम नहीं मिला क्या? उसका नाम हिटलरे रख देता, तो क्या कोई हरज था? जैसा नाम, वैसा काम। समर्थन वापस लेने चले थे, बुढ़ऊ। सी.बी.आई से छापा डलवाकर अच्छा काम किया। मारे मेहरी, डरे पड़ोसी। मुलायम और मायावती के लिए भी यह बढ़िया संदेश है। समर्थन वापसी की कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी।
एक काम आपने और अच्छा किया है। केरल के मछुआरे किसी को कुछ समझते ही नहीं। इटली के पानी के जहाज के पास चले गए। अंग्रेज इस देश से चले गए तो इसका इ मतलब तो नहीं है कि ऐरे-गैरे, भूरे-काले, नंगे-अधनंगे हिन्दुस्तानी गोरी चमड़ी का लिहाजे छोड़ दें। गई न दो की जान। अब देखिए न, गली-मुहल्ला, सड़क-चौराहा, चाय-पान की दूकान - सब जगह लोग कह रहे हैं कि आप ने ही हत्या के आरोपी उन उन दोनों को इटली भगा दिया। इसके पहले बोफ़ोर्स-दलाल क्वात्रोची को भी आपने भगा दिया था। परनिन्दा करना तो बहुते आसान है। जब अपने पर पड़ता है, तब समझ में आता है। इन मूर्खों को यह मालूम नहीं है क्या कि मायके का कुकुर भी प्यारा होता है। वैसे भी ससुराल में दामाद और बहिनउरा में भाई को तीन दिन से ज्यादा नहीं रहना चाहिए। वे हत्यारे नाविक भले ही जेल में थे, लेकिन थे तो बहिनउरा में ही। उनको इटली भेजकर आपने कवनो गलत काम नहीं किया। बेचारे अपने बाल-बच्चों से दूर पड़े थे। हिन्दुस्तानी जान की क्यों फिकर करें? १२५ करोड़ में से दो घट ही गए तो कवन तूफान खड़ा हो गया?
इ बेनी बाबू को ज़रा समझाइये। खामखाह मुलायम से उलझने से का फायदा। बेचारे को कभी आतंकवादी कह रहे हैं, तो कभी कमिशनखोर। अगर मुलयमा भड़क गया न, तो दिल्ली की सरकार को बचाना मुश्किल होगा। इ बेनी बाबू भले ही यू.पी. में मुलायम की काट हों, दिल्ली के लिए बोझ ही हैं। बना-बनाया खेल न बिगाड़ दे यह आदमी, अपने बड़बोलेपन से। वैसे मुलायम तो आपके लिए हमेशा मुलायमे रहते है, फिर भी होली में बुलाकर एक मुठ्ठी अबीर उनके गाल पर मल दीजिएगा। पहलवान जी खुश हो जायेंगे।
      पवन बंसल को एक बार और याद दिला दीजियेगा - उ एसी का आल इंडिया फ़्री पास अबतक मेरे पास नहीं पहुंचा है। आप ही बताइये, बाल बच्चों के साथ होली में आपको रंग-अबीर लगाने दिल्ली कैसे आयेंगे?
हम इहां राजी-खुशी है। आपका हालचाल तो रेडियो, टीवी से मिलता ही रहता है। बबुआ राहुल को आशीर्वाद कह दीजियेगा। यहां बाल-गोपाल आपको पयलग्गी कह रहे हैं।
थोड़ा लिखना, ज्यादा समझना।
इति शुभ। 
आपका देवर
     जनता गांधी

Sunday, March 10, 2013

लाश पर राजनीति



गत ३ मार्च को आपसी रंजिश में उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के कुण्डा तहसील के बलीपुर गांव के प्रधान और उनके भाई की हत्या कर दी गई। उग्र भीड़ ने मौके पर पहुंचे डी.एस..पी. श्री जिआउल हक को भी पीट-पीटकर मार डाला। इस घटना की जितनी भी निन्दा की जाय वह कम ही होगी। ड्यूटी पर तैनात पुलिसवाले भी अगर सुरक्षित नहीं है, तो फिर अन्य सरकारी कर्मचारियों और आम जनता की क्या बात की जाय? सरकार का न तो अपराधियों पर कोई नियंत्रण है और न आतंकवादियों पर। आतंकवादी जब चाहे जहां, जहां चाहे - हैदराबाद हो या मुंबई, पुणे हो या दिल्ली, विस्फोट कर सकते हैं, सैकड़ों मासूमों की जान ले सकते है और पकड़ से भी बाहर रह भी सकते हैं। जनता की सुरक्षा भगवान भरोसे ही है। ऐसी हत्याओं के शिकार अधिकांश हिन्दू ही होते हैं, इसलिए हमारी सेकुलर सरकारें छोटी-मोटी रस्म अदायगी के बाद चुप्पी साध लेती हैं। लेकिन अगर ऐसी घटनाओं का शिकार कोई मुसलमान होता है, तो सरकारें फौरन अतिसक्रिय हो जाती हैं और सेकुलर पार्टियां वोट बटोरने के लिए सहानुभूति व्यक्त करने और सरकारी खज़ाना खोलने की होड़ लगा देती हैं।
कुण्डा के डी.एस.पी जियाउल हक की विधवा को सांत्वना देने के लिए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का उनके पैतृक गांव में जाने की घटना तो समझ में आ सकती है, लेकिन दिल्ली के शाही इमाम की देवरिया यात्रा समझ के परे है। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी दिनांक ९ मार्च को दिवंगत डी.एस.पी के देवरिया जिले के पैतृक गांव जुआफर पहुंचे। उन्होंने शहीद पुलिस अधिकारी की विधवा परवीन आज़ाद को हर संभव सहायता देने का आश्वासन दिया और कब्र पर जाकर श्रद्धांजलि भी अर्पित की। क्या यही काम उन्होंने कभी किसी हिन्दू पुलिस अधिकारी या सेना के अधिकारी या जवान के मारे जाने पर किया है? क्या मुंबई में कसाब और उसके पाकिस्तानी साथियों की अन्धाधुंध गोलीबारी में शहीद हुए पुलिस कमिश्नर हेमन्त करकरे, और दिल्ली के बटाला हाउस में आतंकवादियों से संघर्ष करते हुए अपने प्राणों की आहुति देनेवाले श्री  शर्मा पुलिस अधिकारी नहीं थे। उनके घर जाकर उनके परिवार की सुधि लेने क्या कभी राहुल गांधी, सोनिया गांधी या मनमोहन सिंह गए? हां, बटाला हाउस एन्काउंटर में मारे गए आतंकवादियों की मातमपुर्सी के लिए राहुल गांधी और दिग्विजय सिंह उनके घर आज़मगढ़ जरुर गए। पाकिस्तानी सेना सीमा पर दो हिन्दुस्तानी सैनिकों के सिर काटकर ले जाती है, क्या कांग्रेस हाई कमान कभी उनके परिवारों की सुधि लेने उनके घर जाता है? युवराज और महारानी, जहां वोट बैंक होता है, वही जाते हैं। 
कुण्डा के डी.एस.पी जियाउल हक की नृशंस हत्या से सभी दुखी थे। सभी चाह रहे थे कि अपराधियों को उनके अपराधों के लिए कठोर-से कठोर द्ण्ड दिया जाय, लेकिन मौलाना बुखारी और युवराज की देवरिया यात्रा ने इस दुःखद घटना को भी सांप्रदायिक बना दिया। रही सही कसर शहीद पुलिस अधिकारी की पत्नी परवीन आज़ाद की मांगों की लंबी फ़ेहरिश्त ने पूरी कर दी। ऐसा लग रहा है कि जियाउल हक की मौत परवीन के लिए एक अवसर बनकर आयी है जिसका वह अधिकतम उपयोग करना चाहती हैं। पति के स्थान पर नौकरी पाने के लिए उन्होंने राज्य सरकार को जो फ़ेहरिश्त थमाई है उसमें उनके मायके और ससुराल वालों के ६ व्यक्तियों का नाम शामिल है। परवीन की बहन का भी नाम उसमें शामिल है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की समझ में नहीं आ रहा है कि किस सरकारी नियम के अनुसार मृतक कोटे से आधा दर्ज़न से अधिक आश्रितों को नौकरी दी जाय? सरकारी नियम के अनुसार सेवा-अवधि में सरकारी कर्मचारियों की मृत्यु के पश्चात परिवार के भरण-पोषण के लिए उसके एक निकटम कानूनी वारिस को उसकी योग्यता के अनुसार सरकारी नौकरी देने का प्राविधान है। इसके अलावे पत्नी को फ़ैमिली पेन्शन भी दी जाती है। लेकिन जियाउल हक के मामले में उनके भाई और उनकी पत्नी को सरकारी नौकरी देने की पेशकश की गई है। परवीन आज़ाद को आफ़िसर आन स्पेशल ड्यूटी के पद के लिए नियुक्ति पत्र दिया गया है, जो उन्हें स्वीकार्य नहीं है। अपने पति की शहादत को वे पूरी तरह भूनाने के मूड में हैं। उन्हें डिप्टी एस.पी. से नीचे का पद स्वीकार्य नहीं है। वर्तमान नियम के अनुसार डी.एस.पी के पद पर नियुक्ति यू.पी लोकसेवा आयोग द्वारा लिखित परीक्षा, साक्षात्कार और फिजिकल फिटनेस में सफल होने के बाद पीपीएस के माध्यम से की जाती है। दूसरा तरीका है प्रोन्नति से पद पर नियुक्ति। इसके लिए सब इन्सपेक्टर के पद पर कुछ वर्षों की तैनाती आवश्यक है। इन दोनों अर्हताओं पर परवीन आज़ाद कही से भी फिट नहीं बैठती हैं, लेकिन उनके पास एक विशेषाधिकार है - एक मुस्लिम अधिकारी की पत्नी होने का। और इस विशेषाधिकार को संविधान और नियम से उपर जाकर राज्य सरकार भी मान्यता देती है; केन्द्र सरकार भी। आश्चर्य होता है कि जियाउल हक की विधवा पत्नी परवीन ने डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट या पुलिस कमिश्नर के पद की मांग क्यों नहीं की? इस समय उन्हें कोई भी वरदान प्राप्त हो सकता है। सरकार ने उनके लिए धन के खज़ाने तो खोले ही हैं, पद के खज़ाने भी खोले जा सकते हैं। अखिलेश यादव ने दिवंगत पुलिस अधिकारी की पत्नी और पिता को अलग-अलग २५-२५ लाख रुपए के दो चेक दिए। एक ही परिवार के दो मृतक आश्रितों को अनुग्रह राशि के भुगतान का संभवतः यह पहला मामला है। नियमानुसार एक ही व्यक्ति को जो मृतक का निकटस्थ कानूनी वारिस हो, को अनुग्रह राशि, क्षतिपूर्ति या सेवा संबंधी देयों का भुगतान किया जाता है। लेकिन यह देश सेकुलर है। यहां हिन्दुओं ले लिए अलग कानून है, मुसलमानों के लिए अलग। फिर अगले वर्ष लोकसभा का चुनाव भी तो है। अभीतक तो जियाउल हक के लिए राज्य सरकार ने ही अपना पिटारा खोला है, केन्द्र सरकार का पिटारा खुलना तो बाकी ही है। जियाउल हक एक कर्त्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारी की ड्युटी निभाते हुए शहीद हो गए, उन्हें बार-बार सलाम। उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उनकी लाश पर उनके परिजनों और राजनेताओं द्वारा स्वार्थ की ऐसी राजनीति की जाएगी।

Wednesday, February 6, 2013

विश्वरूपम का विरोध


            अमूमन मैं नई फिल्में नहीं देखता। बेटे की अनुशंसा पर मैंने आमिर खान की दो फिल्में - ‘थ्री इडियट्स’ और ‘तारे जमीं पर’ देखी थी। दोनों फिल्में बहुत अच्छी थीं। आमिर खान के बारे में मेरे मन में अच्छी धारणा बनी। मुझे ऐसा लगा कि राज कपूर के बाद हिन्दी फिल्म उद्योग में एक ऐसा निर्माता-अभिनेता आया है जिसके नाम पर फिल्में देखी जा सकती हैं। मेरा प्रवासी बेटा बनारस आया था। उन्हीं दिनों बनारस में फिल्म ‘डेल्ही-वेल्ही’ का प्रदर्शन हो रहा था। फिल्म आमिर खान की थी। मैं और मेरा बेटा - दोनों आमिर खान के प्रशंसक थे। बेटे ने फिल्म देखने की इच्छा प्रकट की। मैं भी साथ हो लिया। हमलोगों ने कुल २० मिनट तक किसी तरह फिल्म देखी। बेटे ने मेरी ओर देखा और मैंने उसकी ओर। हम एक दूसरे से आंख मिलाकर बात करने की स्थिति में नहीं थे। बेटा उठकर बाहर जाने लगा। मैं भी उसके पीछे-पीछे बाहर आ गया। फिल्म के डायलाग को बेटे के साथ सुनना कान में पिघले हुए सीसे को डालने के समान था। सभी यंत्रणाओं को सहते हुए २० मिनट तक  हम फिल्म को इसलिए देखते रहे कि अश्लील  गन्दे संवादों एवं दृश्यों का दौर शीघ्र समाप्त हो जाएगा। लेकिन हो रहा था ठीक इसके विपरीत। जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ रही थी, संवाद उतने ही गन्दे तथा दृश्य उतने ही अश्लील होते जा रहे थे। लेकिन इस फिल्म का किसी संगठन, किसी मज़हब या किसी समुदाय ने विरोध नहीं किया। यह फिल्म धड़ल्ले से देश के सिनेमाघरों में प्रदर्शित की जाती रही। ऐसी गन्दी फिल्म और ऐसे गन्दे संवादों से ज़िन्दगी में इसके पहले कभी पाला नहीं पड़ा था।
कल मैंने आजकल की सर्वाधिक विवादास्पद फिल्म ‘विश्वरूपम’ देखी। यह एक बहुत साफ-सुथरी और अच्छी फिल्म है।  इसकी फोटोग्राफी, विशेष रूप से ऐक्शन-दृश्यों की, लाज़वाब है। निर्देशन और कमल हासन का अभिनय अति उत्तम है। विषय समसामयिक है। कहानी दर्शकों को अन्त तक बांधे रहती है। यह फिल्म पूरे समाज को विशेष रूप से मुस्लिम समाज को एक अच्छा संदेश देती है। मैंने पूरी फिल्म में यही ढूंढ़ने की कोशिश की, कि आखिर वह कौन सा संवाद और कौन सा दृश्य है जिससे आहत होकर मुस्लिम समाज इसका इतना उग्र विरोध कर रहा है। माइक्रोस्कोपिक इन्स्पेक्शन के बाद भी मुझे ऐसा कुछ भी नहीं मिला। इस फिल्म में न तो इस्लाम के खिलाफ़ एक भी शब्द है और ना ही पवित्र ग्रन्थ कुरान के खिलाफ़। हां, आतंकवादियों ने जिस तरह इस्लाम और कुरान को आधार बनाकर अपनी मर्जी से अपने अनुसार ‘ज़िहाद’ को परिभाषित किया है, उसका सजीव  चित्रण फिल्म में अच्छे ढंग से किया गया है। यह कोई छिपा सत्य नहीं है कि अल-कायदा या तालिबान द्वारा फैलाई गई आतंकवादी हिंसा के मूल में उनके द्वारा परिभाषित इस्लाम ही है। धर्म और ज़िहाद की घुट्टी पिलाकर ही वे आत्मघाती मानव बम अर्थात फ़िदाइन तैयार करते हैं। विश्वभर के उदारवादी मुसलमान इसे गलत बताते हैं लेकिन कट्टरवादी इस ज़ायज़ ठहराते हैं। फिल्म में अफ़गानिस्तान में फल-फूल रहे आतंकवाद, इसका कारण और इसके भयानक दुष्परिणाम को बहुत अच्छे ढंग से चित्रित और प्रस्तुत किया गया है। इसमें यह दिखाया गया है कि आणविक तकनिकी (Nuclear Technology) यदि आतंकवादियों के हाथ लग गई, तो कितने भयावह दुष्परिणाम हो सकते हैं। पूरी फिल्म में हिन्दुस्तान के मुसलमानों का कहीं ज़िक्र तक नहीं है। समझ में नहीं आता कि हिन्दुस्तान के मुल्ला इसका विरोध किस आधार पर कर रहे हैं। फिल्म के अन्त में यह स्पष्ट होता है कि जिस जासूस ने कथित इस्लामी आतंकवाद को अमेरिका में जाकर शिकस्त दी, वह हिन्दुस्तानी है और उसका नाम ‘विश्वरूपम’ है। शायद यही बात मुल्लाओं को खटक रही है और मेरी समझ से इसी कारण वे इस फिल्म का ज़ोरदार विरोध कर रहे हैं।