Sunday, June 2, 2013

मैच फ़िक्सिंग और अरुण जेटली

             अरुण जेटली को मैं तब से जानता हूं, जब वे छात्र राजनीति कर रहे थे। दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र संघ के अध्यक्ष के रूप में वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र संघ के चुनाव-प्रचार के दौरान धनराजगिरि छात्रावास के मेरे कमरे पर भी आए थे। मेरे साथ उन्होंने चाय भी पी थी। मेरी उनसे लंबी बात हुई थी। उनके विचार और व्यवहार से मैं काफी प्रभावित हुआ था। मुझे लगा था कि निकट भविष्य में देश को एक जुझारू, क्रान्तिकारी और दूरद्रष्टा नेता मिलने वाला है। भाजपा में अपने राजनीतिक कैरियर के शुरुआती दौर में जेटली ने इस तरह का आभास भी दिया था। लेकिन समय जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया और भाजपा में उनकी कुर्सी पुख्ता होती गई वे एक वातानुकूलित नेता के रूप में अपनी पहचान बनाते गए। जननेता बनने के बदले उन्होंने गणेश परिक्रमा को ही प्राथमिकता दी और लोक सभा के बदले राज्य सभा के माध्यम से सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने का हर संभव प्रयास किया और करते रहते हैं। जनता से जुड़े नेताओं को पार्टी का बाहर का रास्ता दिखाने में इनकी अग्रणी भूमिका रही है। नरेन्द्र मोदी इनके अगले निशाने पर हैं। देखना है कि कौन किसे बोल्ड करता है। इतने दिनों तक भाजपा की राजनीति करते हुए वे यह समझ नहीं पाए कि भारत की जनता को भाजपा से क्या अपेक्षा है। हिन्दुस्तान की जनता कांग्रेस में सैकड़ों येदुरप्पओं को बर्दाश्त कर सकती है लेकिन भाजपा में एक भी येदुरप्पा उसे मन्जूर नहीं। कर्नाटक के चुनाव में यह प्रमाणित भी हो गया। चरित्र, सत्यनिष्ठा और देशभक्ति के मामलों में इस देश की जनता को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर अगाध श्रद्धा और विश्वास है। भाजपा का शीर्ष नेतृत्व चूंकि आर.एस.एस से आए नेताओं द्वारा ही संचालित होता है, इस नाते भाजपा की विश्वसनीयता असंदिग्ध रही। पंडित दीनदयाल उपाध्याय, वाजपेयी, अडवानी से लेकर नरेन्द्र मोदी तक, सबने संघ के आदर्शों के अनुरूप कार्य किये और अविवादित रहे। भाजपा के नेताओं पर हिन्दूवादी और सांप्रदायिक होने का आरोप तो छद्म धर्मनिरपेक्षवादी हमेशा से लगाते रहे और भारत की जनता अपना मत देकर इस आरोप को खारिज़ करती रही। परन्तु भाजपा के धुर विरोधी भी इसके शीर्ष नेतृत्व पर कभी आर्थिक घोटाले या भ्रष्टाचार का अनर्गल आरोप लगाने की हिम्मत नहीं करते थे। लेकिन बंगारू लक्ष्मण और येदुरप्पा प्रकरण ने जनता को अपनी धारणा बदलने पर मज़बूर कर दिया। भाजपा को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी। अभी भी भाजपा में अन्य राजनीतिक दलों की तुलना में स्वच्छता, पारदर्शिता और आन्तरिक लोकतंत्र बहुत ज्यादा है। अरूण जेटली जैसे नेता बस इतने से ही संतुष्ट और खुश हैं। उन्हें यह नहीं पता कि कि हिन्दुस्तान की जनता भाजपा के शुभ्र-श्वेत परिधान पर एक भी धब्बा देखना पसंद नहीं करती है। निष्कलंक चरित्र ही भाजपा की पूंजी है।
श्रीमान अरुण जेटली कांग्रेसियों की राह पर चल पड़े हैं। माधव राव सिन्धिया केन्द्रीय मंत्री थे, लेकिन बीसीसीआई का अध्यक्ष पद उन्हे ललचाता रहता था। येन-केन-प्राकारेण वे इसके अध्य्क्ष भी बने। पुराने कांग्रेसी शरद पवार भी केद्रीय मंत्री होने के बावजूद  बीसीसीआई के अध्यक्ष पद के लिए लार टपकाते रहे और चुनाव भी लड़े। पहली बार में अपमानजनक पराजय के बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी और दूसरी कोशिश में जोड़-जुगाड़ से सफल भी रहे। राजीव शुक्ला अच्छे पत्रकार थे, अच्छे लेखक भी थे। कांग्रेस ने उन्हें मंत्री बनाकर अपना हित तो साध लिया लेकिन वे पत्रकारिता से दूर होते चले गए। उन्हें अब आईपीएल और चीयर गर्ल्स का ग्लैमर ज्यादा भाने लगा है। आईपीएल के अध्यक्ष वही हैं। उन्हीं के कार्यकाल में भारतीय क्रिकेट की मैच फिक्सिंग की सबसे शर्मनाक घटना हुई है। यह नशा उनपर इतना छाया है कि वे भारत सरकार के संसदीय मंत्री के रूप में संसद के प्रबंधन से ज्यादा मैच फिक्सिंग के प्रबंधन में  रुचि लेने लगे हैं। अरुण जेटली को भी क्रिकेट का ग्लैमर कुछ ज्यादा ही भा रहा है। इस समय वे दिल्ली क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष के अतिरिक्त बीसीसीआई के उपाध्यक्ष पद का भी दायित्व संभाले हुए हैं और बीसीसीआई के अध्यक्ष पद पाने के लिए जीतोड़ जुगाड़बाजी कर रहे हैं। वे राज्य सभा में विपक्ष के नेता हैं, कुशल वक्ता हैं। इस नाते प्रधान मंत्री की दावेदारी भी कर सकते हैं, परन्तु उनकी महत्वाकांक्षा सबसे पहले बीसीसीआई का अध्यक्ष बनने की है। उन्हें आईपीएल की मैच फिक्सिंग और बीसीसीआई के अध्यक्ष श्रीनिवासन की दामाद के माध्यम से इसमें संलिप्तता दिखाई नहीं पड़ती है। वे इस विषय पर कुछ भी बोलने से परहेज़ करते है। बहुत कुरेदने पर कुछ बोलते भी हैं, तो सरकार के भ्रष्ट मंत्रियों की तरह - जांच के बाद तथ्य सामने आने पर दोषियों पर नियमानुसार कार्यवाही होगी। ये वही जेटली हैं जो सिर्फ आरोपों के आधार पर प्रधान मंत्री तक का इस्तीफ़ा मांगते हैं और महीनों संसद की कार्यवाही ठप्प करा देते हैं। श्रीमान जेटली राज्य स्तर या राष्ट्रीय स्तर पर कभी क्रिकेट के खिलाड़ी नहीं रहे। क्लब स्तर पर भले ही उन्होंने कभी क्रिकेट खेली हो; (पोते के साथ तो मैं आज भी क्रिकेट खेलता हूं।) फिर क्या कारण है कि वे बीसीसीआई का अध्यक्ष पद पाने के लिए इतने आतुर हैं कि भ्रष्ट लोगों का समर्थन करने में उनको शर्मिन्दगी नहीं आ रही है। कभी वे राजीव शुक्ला के साथ गलबहियां डालकर आईपीएल की पार्टियों में लुत्फ़ उठाते देखे जाते हैं, तो कभी सिने अभिनेत्रियों के साथ मैच देखते हुए। यह काम कांग्रेसियों को शोभा देता है, अरुण जेटली और भाजपा को नहीं। आखिर बीसीसीआई के अध्यक्ष की कितनी कमाई है कि डालमिया जैसा उद्योगपति, श्रीनिवासन जैसा अरबपति सिमेन्ट व्यवसायी, शरद पवार जैसा केन्द्रीय मंत्री और अरुण जेटली जैसा नेता भी अपना लोभ संवरण नहीं कर पाते हैं। इसकी सीबीआई द्वारा जांच होनी चाहिए।  अगर जेटली उपाध्यक्ष के रूप में  बीसीसीआई में अपनी प्रभावी उपस्थिति से कोई सुधार नहीं ला सकते, तो  वहां बने रहने या अगली पदोन्नति के लिए काम करने का क्या औचित्य है? क्रिकेट खिलाड़ी जेल चले जाते हैं, अध्यक्ष का दामाद फिक्सिंग में सलाखों के पीछे चला जाता है। दारा सिंह के यश और प्रतिष्ठा को कलंकित करते हुए बिन्दू सिंह जेल की चक्की पीस सकता है, भारत की क्रिकेट टीम के कप्तान की पत्नी मैच फिक्सरों के साथ बैठकर आनन्द ले सकती है, धोनी भी संदेह के घेरे में हैं, लेकिन राज्य सभा में विपक्ष के नेता और बीसीसीआई के उपाध्यक्ष अरुण जेटली अपना मुंह नहीं खोल सकते हैं। क्रिकेट टीम के पूर्व कतान एवं महान मैच फिक्सर अज़हरुद्दीन को कांग्रेस अपना सांसद बना सकती है, जनता पर इसका कोई फ़र्क नहीं पड़ता है, लेकिन जेटली साहब! श्रीसन्त, श्रीनिवासन, श्रीमती धोनी, राजीव शुक्ला और बिन्दू सिंह के साथ आपकी जुगलबन्दी भाजपा को बहुत महंगी पड़ने वाली है। अब भी वक्त है, संभल जाइए। ग्लैमर के पीछे भागने की आपकी उम्र भी नहीं रही।

No comments:

Post a Comment