Friday, March 22, 2013

एक पाती सोनिया भौजी के नाम


होली के अवसर पर विशेष -
आदरणीय भौजी,
सादर परनाम!
आगे समाचार है कि महिला सुरक्षा बिल के दोनों सदनों में पास हो जाने पर पूरे मुलुक की औरतें खुश हैं और मर्द छाती पीट रहे हैं; औरतें आपकी शुक्रगुजार हो गई हैं और मर्द हाय-हाय कर रहे हैं। औरतों को देखना और ताक-झांक करना अब संगीन जुर्म बन गया है। पीछा करना तो गैर जमानती हो गया है। आप इसका इस्तेमाल करके नरेन्दर मोदी को काहे नहीं आरेस्ट करा देती है? बहुत बहकी-बहकी बातें करता है। आपकी तरफ से  एक एफ़.आई.आर. दर्ज़ होते ही औकात ठिकाने आ जाएगी। जेल तो जायेंगे ही, कही मुंह दिखाने के काबिल भी नहीं रह जाएंगे। न रहेगा बांस न बजेगी बंसुरी। उनके बिना भाजपा बिना दुल्हे की बारात है। अगर वह पट्ठा तिहाड़ जेल में बंद हो गया तो २०१४ के चुनाव में राहुल बबुआ को चुनौती देने वाला कोई बचेगा ही नहीं। पूरा मैदान साफ। वह कुंआरा भी है। सेक्स संबन्धी आरोप उसपर फेविकोल के माफिक चिपक जाएगा। यह कानून बहुते बढ़िया है। सारी खुराफ़ात तो मर्द ही करते हैं। अब आएगा मज़ा। अब घूमें ज़रा आज़ादी से बाज़ार मे। आगे भी औरत, पीछे भी औरत। पहली बार पीछा करने के ज़ुर्म में जैसे-तैसे बच भी गए लेकिन दूसरी बार में? सीधे जेल, ज़मानत भी नहीं होगी। पहले औरतें मर्दों के डर से बाहर नहीं निकलती थीं; अब बैठें मर्द घर के अंदर। जैसी करनी, वैसी भरनी। पुरानी फिल्म ‘नज़राना’ में एक युगल गीत है -
मेरे पीछे एक दीवाना, कुछ अलबेला मस्ताना .........
इस गाने को गाया था मुकेश और आशा भोंसले ने और पर्दे पर जीवन्त किया था राज कपूर तथा वैजन्ती माला ने। शुक्र है कि मुकेश और राज कपूर स्वर्ग सिधार चुके हैं, वरना निश्चित रूप से वे आज जेल में होते।
करुनानिधि का बेटा...... क्या नाम है उसका? स्टालिन। हां, स्टालिन ही नाम है। करुनानिधियो को कोई नाम नहीं मिला क्या? उसका नाम हिटलरे रख देता, तो क्या कोई हरज था? जैसा नाम, वैसा काम। समर्थन वापस लेने चले थे, बुढ़ऊ। सी.बी.आई से छापा डलवाकर अच्छा काम किया। मारे मेहरी, डरे पड़ोसी। मुलायम और मायावती के लिए भी यह बढ़िया संदेश है। समर्थन वापसी की कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी।
एक काम आपने और अच्छा किया है। केरल के मछुआरे किसी को कुछ समझते ही नहीं। इटली के पानी के जहाज के पास चले गए। अंग्रेज इस देश से चले गए तो इसका इ मतलब तो नहीं है कि ऐरे-गैरे, भूरे-काले, नंगे-अधनंगे हिन्दुस्तानी गोरी चमड़ी का लिहाजे छोड़ दें। गई न दो की जान। अब देखिए न, गली-मुहल्ला, सड़क-चौराहा, चाय-पान की दूकान - सब जगह लोग कह रहे हैं कि आप ने ही हत्या के आरोपी उन उन दोनों को इटली भगा दिया। इसके पहले बोफ़ोर्स-दलाल क्वात्रोची को भी आपने भगा दिया था। परनिन्दा करना तो बहुते आसान है। जब अपने पर पड़ता है, तब समझ में आता है। इन मूर्खों को यह मालूम नहीं है क्या कि मायके का कुकुर भी प्यारा होता है। वैसे भी ससुराल में दामाद और बहिनउरा में भाई को तीन दिन से ज्यादा नहीं रहना चाहिए। वे हत्यारे नाविक भले ही जेल में थे, लेकिन थे तो बहिनउरा में ही। उनको इटली भेजकर आपने कवनो गलत काम नहीं किया। बेचारे अपने बाल-बच्चों से दूर पड़े थे। हिन्दुस्तानी जान की क्यों फिकर करें? १२५ करोड़ में से दो घट ही गए तो कवन तूफान खड़ा हो गया?
इ बेनी बाबू को ज़रा समझाइये। खामखाह मुलायम से उलझने से का फायदा। बेचारे को कभी आतंकवादी कह रहे हैं, तो कभी कमिशनखोर। अगर मुलयमा भड़क गया न, तो दिल्ली की सरकार को बचाना मुश्किल होगा। इ बेनी बाबू भले ही यू.पी. में मुलायम की काट हों, दिल्ली के लिए बोझ ही हैं। बना-बनाया खेल न बिगाड़ दे यह आदमी, अपने बड़बोलेपन से। वैसे मुलायम तो आपके लिए हमेशा मुलायमे रहते है, फिर भी होली में बुलाकर एक मुठ्ठी अबीर उनके गाल पर मल दीजिएगा। पहलवान जी खुश हो जायेंगे।
      पवन बंसल को एक बार और याद दिला दीजियेगा - उ एसी का आल इंडिया फ़्री पास अबतक मेरे पास नहीं पहुंचा है। आप ही बताइये, बाल बच्चों के साथ होली में आपको रंग-अबीर लगाने दिल्ली कैसे आयेंगे?
हम इहां राजी-खुशी है। आपका हालचाल तो रेडियो, टीवी से मिलता ही रहता है। बबुआ राहुल को आशीर्वाद कह दीजियेगा। यहां बाल-गोपाल आपको पयलग्गी कह रहे हैं।
थोड़ा लिखना, ज्यादा समझना।
इति शुभ। 
आपका देवर
     जनता गांधी

Sunday, March 10, 2013

लाश पर राजनीति



गत ३ मार्च को आपसी रंजिश में उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के कुण्डा तहसील के बलीपुर गांव के प्रधान और उनके भाई की हत्या कर दी गई। उग्र भीड़ ने मौके पर पहुंचे डी.एस..पी. श्री जिआउल हक को भी पीट-पीटकर मार डाला। इस घटना की जितनी भी निन्दा की जाय वह कम ही होगी। ड्यूटी पर तैनात पुलिसवाले भी अगर सुरक्षित नहीं है, तो फिर अन्य सरकारी कर्मचारियों और आम जनता की क्या बात की जाय? सरकार का न तो अपराधियों पर कोई नियंत्रण है और न आतंकवादियों पर। आतंकवादी जब चाहे जहां, जहां चाहे - हैदराबाद हो या मुंबई, पुणे हो या दिल्ली, विस्फोट कर सकते हैं, सैकड़ों मासूमों की जान ले सकते है और पकड़ से भी बाहर रह भी सकते हैं। जनता की सुरक्षा भगवान भरोसे ही है। ऐसी हत्याओं के शिकार अधिकांश हिन्दू ही होते हैं, इसलिए हमारी सेकुलर सरकारें छोटी-मोटी रस्म अदायगी के बाद चुप्पी साध लेती हैं। लेकिन अगर ऐसी घटनाओं का शिकार कोई मुसलमान होता है, तो सरकारें फौरन अतिसक्रिय हो जाती हैं और सेकुलर पार्टियां वोट बटोरने के लिए सहानुभूति व्यक्त करने और सरकारी खज़ाना खोलने की होड़ लगा देती हैं।
कुण्डा के डी.एस.पी जियाउल हक की विधवा को सांत्वना देने के लिए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का उनके पैतृक गांव में जाने की घटना तो समझ में आ सकती है, लेकिन दिल्ली के शाही इमाम की देवरिया यात्रा समझ के परे है। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी दिनांक ९ मार्च को दिवंगत डी.एस.पी के देवरिया जिले के पैतृक गांव जुआफर पहुंचे। उन्होंने शहीद पुलिस अधिकारी की विधवा परवीन आज़ाद को हर संभव सहायता देने का आश्वासन दिया और कब्र पर जाकर श्रद्धांजलि भी अर्पित की। क्या यही काम उन्होंने कभी किसी हिन्दू पुलिस अधिकारी या सेना के अधिकारी या जवान के मारे जाने पर किया है? क्या मुंबई में कसाब और उसके पाकिस्तानी साथियों की अन्धाधुंध गोलीबारी में शहीद हुए पुलिस कमिश्नर हेमन्त करकरे, और दिल्ली के बटाला हाउस में आतंकवादियों से संघर्ष करते हुए अपने प्राणों की आहुति देनेवाले श्री  शर्मा पुलिस अधिकारी नहीं थे। उनके घर जाकर उनके परिवार की सुधि लेने क्या कभी राहुल गांधी, सोनिया गांधी या मनमोहन सिंह गए? हां, बटाला हाउस एन्काउंटर में मारे गए आतंकवादियों की मातमपुर्सी के लिए राहुल गांधी और दिग्विजय सिंह उनके घर आज़मगढ़ जरुर गए। पाकिस्तानी सेना सीमा पर दो हिन्दुस्तानी सैनिकों के सिर काटकर ले जाती है, क्या कांग्रेस हाई कमान कभी उनके परिवारों की सुधि लेने उनके घर जाता है? युवराज और महारानी, जहां वोट बैंक होता है, वही जाते हैं। 
कुण्डा के डी.एस.पी जियाउल हक की नृशंस हत्या से सभी दुखी थे। सभी चाह रहे थे कि अपराधियों को उनके अपराधों के लिए कठोर-से कठोर द्ण्ड दिया जाय, लेकिन मौलाना बुखारी और युवराज की देवरिया यात्रा ने इस दुःखद घटना को भी सांप्रदायिक बना दिया। रही सही कसर शहीद पुलिस अधिकारी की पत्नी परवीन आज़ाद की मांगों की लंबी फ़ेहरिश्त ने पूरी कर दी। ऐसा लग रहा है कि जियाउल हक की मौत परवीन के लिए एक अवसर बनकर आयी है जिसका वह अधिकतम उपयोग करना चाहती हैं। पति के स्थान पर नौकरी पाने के लिए उन्होंने राज्य सरकार को जो फ़ेहरिश्त थमाई है उसमें उनके मायके और ससुराल वालों के ६ व्यक्तियों का नाम शामिल है। परवीन की बहन का भी नाम उसमें शामिल है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की समझ में नहीं आ रहा है कि किस सरकारी नियम के अनुसार मृतक कोटे से आधा दर्ज़न से अधिक आश्रितों को नौकरी दी जाय? सरकारी नियम के अनुसार सेवा-अवधि में सरकारी कर्मचारियों की मृत्यु के पश्चात परिवार के भरण-पोषण के लिए उसके एक निकटम कानूनी वारिस को उसकी योग्यता के अनुसार सरकारी नौकरी देने का प्राविधान है। इसके अलावे पत्नी को फ़ैमिली पेन्शन भी दी जाती है। लेकिन जियाउल हक के मामले में उनके भाई और उनकी पत्नी को सरकारी नौकरी देने की पेशकश की गई है। परवीन आज़ाद को आफ़िसर आन स्पेशल ड्यूटी के पद के लिए नियुक्ति पत्र दिया गया है, जो उन्हें स्वीकार्य नहीं है। अपने पति की शहादत को वे पूरी तरह भूनाने के मूड में हैं। उन्हें डिप्टी एस.पी. से नीचे का पद स्वीकार्य नहीं है। वर्तमान नियम के अनुसार डी.एस.पी के पद पर नियुक्ति यू.पी लोकसेवा आयोग द्वारा लिखित परीक्षा, साक्षात्कार और फिजिकल फिटनेस में सफल होने के बाद पीपीएस के माध्यम से की जाती है। दूसरा तरीका है प्रोन्नति से पद पर नियुक्ति। इसके लिए सब इन्सपेक्टर के पद पर कुछ वर्षों की तैनाती आवश्यक है। इन दोनों अर्हताओं पर परवीन आज़ाद कही से भी फिट नहीं बैठती हैं, लेकिन उनके पास एक विशेषाधिकार है - एक मुस्लिम अधिकारी की पत्नी होने का। और इस विशेषाधिकार को संविधान और नियम से उपर जाकर राज्य सरकार भी मान्यता देती है; केन्द्र सरकार भी। आश्चर्य होता है कि जियाउल हक की विधवा पत्नी परवीन ने डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट या पुलिस कमिश्नर के पद की मांग क्यों नहीं की? इस समय उन्हें कोई भी वरदान प्राप्त हो सकता है। सरकार ने उनके लिए धन के खज़ाने तो खोले ही हैं, पद के खज़ाने भी खोले जा सकते हैं। अखिलेश यादव ने दिवंगत पुलिस अधिकारी की पत्नी और पिता को अलग-अलग २५-२५ लाख रुपए के दो चेक दिए। एक ही परिवार के दो मृतक आश्रितों को अनुग्रह राशि के भुगतान का संभवतः यह पहला मामला है। नियमानुसार एक ही व्यक्ति को जो मृतक का निकटस्थ कानूनी वारिस हो, को अनुग्रह राशि, क्षतिपूर्ति या सेवा संबंधी देयों का भुगतान किया जाता है। लेकिन यह देश सेकुलर है। यहां हिन्दुओं ले लिए अलग कानून है, मुसलमानों के लिए अलग। फिर अगले वर्ष लोकसभा का चुनाव भी तो है। अभीतक तो जियाउल हक के लिए राज्य सरकार ने ही अपना पिटारा खोला है, केन्द्र सरकार का पिटारा खुलना तो बाकी ही है। जियाउल हक एक कर्त्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारी की ड्युटी निभाते हुए शहीद हो गए, उन्हें बार-बार सलाम। उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उनकी लाश पर उनके परिजनों और राजनेताओं द्वारा स्वार्थ की ऐसी राजनीति की जाएगी।

Wednesday, February 6, 2013

विश्वरूपम का विरोध


            अमूमन मैं नई फिल्में नहीं देखता। बेटे की अनुशंसा पर मैंने आमिर खान की दो फिल्में - ‘थ्री इडियट्स’ और ‘तारे जमीं पर’ देखी थी। दोनों फिल्में बहुत अच्छी थीं। आमिर खान के बारे में मेरे मन में अच्छी धारणा बनी। मुझे ऐसा लगा कि राज कपूर के बाद हिन्दी फिल्म उद्योग में एक ऐसा निर्माता-अभिनेता आया है जिसके नाम पर फिल्में देखी जा सकती हैं। मेरा प्रवासी बेटा बनारस आया था। उन्हीं दिनों बनारस में फिल्म ‘डेल्ही-वेल्ही’ का प्रदर्शन हो रहा था। फिल्म आमिर खान की थी। मैं और मेरा बेटा - दोनों आमिर खान के प्रशंसक थे। बेटे ने फिल्म देखने की इच्छा प्रकट की। मैं भी साथ हो लिया। हमलोगों ने कुल २० मिनट तक किसी तरह फिल्म देखी। बेटे ने मेरी ओर देखा और मैंने उसकी ओर। हम एक दूसरे से आंख मिलाकर बात करने की स्थिति में नहीं थे। बेटा उठकर बाहर जाने लगा। मैं भी उसके पीछे-पीछे बाहर आ गया। फिल्म के डायलाग को बेटे के साथ सुनना कान में पिघले हुए सीसे को डालने के समान था। सभी यंत्रणाओं को सहते हुए २० मिनट तक  हम फिल्म को इसलिए देखते रहे कि अश्लील  गन्दे संवादों एवं दृश्यों का दौर शीघ्र समाप्त हो जाएगा। लेकिन हो रहा था ठीक इसके विपरीत। जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ रही थी, संवाद उतने ही गन्दे तथा दृश्य उतने ही अश्लील होते जा रहे थे। लेकिन इस फिल्म का किसी संगठन, किसी मज़हब या किसी समुदाय ने विरोध नहीं किया। यह फिल्म धड़ल्ले से देश के सिनेमाघरों में प्रदर्शित की जाती रही। ऐसी गन्दी फिल्म और ऐसे गन्दे संवादों से ज़िन्दगी में इसके पहले कभी पाला नहीं पड़ा था।
कल मैंने आजकल की सर्वाधिक विवादास्पद फिल्म ‘विश्वरूपम’ देखी। यह एक बहुत साफ-सुथरी और अच्छी फिल्म है।  इसकी फोटोग्राफी, विशेष रूप से ऐक्शन-दृश्यों की, लाज़वाब है। निर्देशन और कमल हासन का अभिनय अति उत्तम है। विषय समसामयिक है। कहानी दर्शकों को अन्त तक बांधे रहती है। यह फिल्म पूरे समाज को विशेष रूप से मुस्लिम समाज को एक अच्छा संदेश देती है। मैंने पूरी फिल्म में यही ढूंढ़ने की कोशिश की, कि आखिर वह कौन सा संवाद और कौन सा दृश्य है जिससे आहत होकर मुस्लिम समाज इसका इतना उग्र विरोध कर रहा है। माइक्रोस्कोपिक इन्स्पेक्शन के बाद भी मुझे ऐसा कुछ भी नहीं मिला। इस फिल्म में न तो इस्लाम के खिलाफ़ एक भी शब्द है और ना ही पवित्र ग्रन्थ कुरान के खिलाफ़। हां, आतंकवादियों ने जिस तरह इस्लाम और कुरान को आधार बनाकर अपनी मर्जी से अपने अनुसार ‘ज़िहाद’ को परिभाषित किया है, उसका सजीव  चित्रण फिल्म में अच्छे ढंग से किया गया है। यह कोई छिपा सत्य नहीं है कि अल-कायदा या तालिबान द्वारा फैलाई गई आतंकवादी हिंसा के मूल में उनके द्वारा परिभाषित इस्लाम ही है। धर्म और ज़िहाद की घुट्टी पिलाकर ही वे आत्मघाती मानव बम अर्थात फ़िदाइन तैयार करते हैं। विश्वभर के उदारवादी मुसलमान इसे गलत बताते हैं लेकिन कट्टरवादी इस ज़ायज़ ठहराते हैं। फिल्म में अफ़गानिस्तान में फल-फूल रहे आतंकवाद, इसका कारण और इसके भयानक दुष्परिणाम को बहुत अच्छे ढंग से चित्रित और प्रस्तुत किया गया है। इसमें यह दिखाया गया है कि आणविक तकनिकी (Nuclear Technology) यदि आतंकवादियों के हाथ लग गई, तो कितने भयावह दुष्परिणाम हो सकते हैं। पूरी फिल्म में हिन्दुस्तान के मुसलमानों का कहीं ज़िक्र तक नहीं है। समझ में नहीं आता कि हिन्दुस्तान के मुल्ला इसका विरोध किस आधार पर कर रहे हैं। फिल्म के अन्त में यह स्पष्ट होता है कि जिस जासूस ने कथित इस्लामी आतंकवाद को अमेरिका में जाकर शिकस्त दी, वह हिन्दुस्तानी है और उसका नाम ‘विश्वरूपम’ है। शायद यही बात मुल्लाओं को खटक रही है और मेरी समझ से इसी कारण वे इस फिल्म का ज़ोरदार विरोध कर रहे हैं।

Wednesday, January 30, 2013

शाहरुख का सच


       शाहरुख खान का एक लेख एक अमेरिकी पत्रिका में प्रकाशित हुआ है जिसमें उन्होंने भारत में मुसलमानों से भेदभाव का आरोप लगाया है। उनके इस रहस्योद्घाटन से आहत पाकिस्तान के विदेश मंत्री ने भारत सरकार से शाहरुख खान को सुरक्षा प्रदान करने का अनुरोध किया है और आतंकवादी सरगना हाफ़िज़ सईद ने उन्हें भारत छोड़कर पाकिस्तान में बसने की सलाह दी है। भारत में भी कट्टर मुसलमानों के अतिरिक्त उदारवादी मुसलमानों ने भी शाहरुख खान के वक्तव्य से सहमति प्रकट की है।
इस समय मुसलमानों के कुछ कथित रहनुमाओं ने आज़ादी की पूर्व वाली स्थिति का निर्माण करने का बीड़ा उठाया है। इस अभियान के तहत हैदराबाद के कुख्यात विधायक ओवैसी ने सार्वजनिक भाषण दिया कि यदि भारत सरकार १५ मिनट के लिए पुलिस को हटा ले, तो भारत के मुसलमान सौ करोड़ हिन्दुओं का सफ़ाया कर देंगे। उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ मंत्री भारत माता को डायन कहते हैं। भारत सरकार द्वारा पद्म पुरस्कार से नवाज़े गए चित्रकार मकबूल फ़िदा हुसेन भारत माता और हिन्दू देवी-देवताओं के नग्न चित्र बनाकर चित्र-प्रदर्शनी में सजाते हैं। मुस्लिम समुदाय इसकी निन्दा नहीं करता। कारण - मुस्लिम समुदाय में व्याप्त कुछ अलगाववादी तत्त्व इन सेलिब्रेटी कलाकारों और नेताओं के वक्तव्य को अपनी तहरीर में बार-बार दोहराकर जनमानस में अलगाववादी भावनाएं भरने में सफल हो जाते हैं। मुस्लिम समुदाय में असुरक्षा की भावना भरने के लिए शाहरुख खान जैसे तत्त्व ही जिम्मेदार हैं। समझ में नहीं आता कि जबतक भारतीय जनता उनको सिर-आंखों पर बिठाकर रखती है, तबतक तो वे सर्वजन की बात करते हैं लेकिन जैसे ही उनका कैरियर ढलान पर पहुंचता है, उन्हें अपने एवं अपने संप्रदाय के साथ भेदभाव नज़र आने लगता है। भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान अज़हरुद्दीन, जबतक कप्तान रहे, प्रसन्न रहे लेकिन जैसे ही हेन्सी क्रोनिए के साथ मैच फिक्सिंग में उनकी संलिप्तता के प्रमाण सामने आए, उन्होंने यह कहना शुरु कर दिया कि मुसलमान होने के कारण उन्हें फंसाया गया है। शाहरुख खान का भी कैरियर ढलान पर है। वे इसे पचा नहीं पा रहे हैं।
अपने क्षुद्र स्वार्थों में फंसे ये लोग उस देश और उस समुदाय पर अनर्गल आरोप लगा रहे हैं जिसने अपने हितों की बलि देकर इन्हें प्रोत्साहित किया है। क्या यह सत्य नहीं है कि धर्म के आधार पर देश के विभाजन के बाद भी भारत की सरकार और बहुसंख्यक हिन्दू समाज ने भारत में रहने के इच्छुक १२ करोड़ मुसलमानों को सुरक्षा प्रदान की? आज भी भारत के मुसलमान जितना इस देश में सुरक्षित हैं, उतना विश्व के किसी भी देश में नहीं। जिस शाहरुख खान ने भारत में मुसलमानों के साथ भेदभाव की शिकायत की है, उसी शाहरुख खान के कपड़े तक अमेरिका के हवाई अड्डे पर सुरक्षा-जांच के नाम पर उतरवा दिए गए थे; फिर भी वे अमेरिका जाने के लिए लालायित रहते हैं और जिस देश और समुदाय ने उन्हें सुपर स्टार बनाया उसके खिलाफ़ अनर्गल प्रलाप करते है। 
जिस देश में राष्ट्रपति के सर्वोच्च पद पर तीन-तीन मुसलमान चुने जा चुके हों, ब्यूरोक्रेसी से लेकर राजनीति, न्यायपालिका से लेकर कार्यपालिका के शीर्ष तक जिस संप्रदाय के सदस्य प्रतिष्ठित रहे हों, वहां यह आरोप लगाया जाता है कि धर्म के नाम पर मुसलमानों से भेदभाव किया जाता है। यह आश्चर्यजनक ही नहीं अत्यन्त दुखद और शोचनीय भी है। तथ्य यह है कि संगठित वोट बैंक होने के कारण मुसलमानों को विशेषाधिकार प्राप्त है जो हिन्दू समुदाय या किसी अन्य अल्पसंख्यक संप्रदाय को प्राप्त नहीं है। उन्हें उनके धार्मिक क्रिया-कलापों के लिए भी सरकारी खज़ाने से धन उपलब्ध कराया जाता है। हज़ यात्रा के लिए हजारों करोड़ रुपयों की सब्सिडी दी जाती है, जो टैक्स के माध्यम से बहुसंख्यक जनता से वसूला जाता है। हिन्दुओं के सभी बड़े मन्दिरों को सरकार ने अधिगृहित कर रखा है, वहां के चढ़ावे पर भी सरकार का ही अधिकार है। लेकिन कोई भी मस्ज़िद सरकारी नियंत्रण में नहीं है। दिल्ली के ज़ामा मस्ज़िद को पाकिस्तानी झंडा लगाने की भी अनुमति प्राप्त है। शुक्रवार की दोपहर में हर मुसलमान को सरकारी महकमों में दो घंटे की शार्ट लीव नमाज़ पढ़ने के लिए दी जाती है। ऐसी सुविधा किसी अन्य धर्मावलंबी को नहीं मिलती। मुसलमानों के मदरसों को सरकारी अनुदान मिलता है और हिन्दुओं के सरस्वती शिशु मन्दिरों को बन्द कराने का प्रयास किया जाता है। इस देश ने जो सम्मान दिलीप कुमार (युसुफ़ खान), सलमान खान, शाहरुख खान, आमिर खान सैफ़ अली खान और मुहम्मद रफ़ी को दिया है, उतना सम्मान क्या राज कपूर, देवानन्द, राजेन्द्र कुमार, अजय देवगन, कुन्दन लाल सहगल, मुकेश या किशोर कुमार को दिया है? सलमान खान मुंबई में सड़क के किनारे सो रहे चार लोगों को अपनी गाड़ी चढ़ाकर मार डालता है, उसका कुछ नहीं होता, सैफ़ अली खान रेस्टोरेन्ट में एक संभ्रान्त  प्रवासी भारतीय के दांत अपने घूंसे से तोड़ देता है, पुलिस गिरफ़्तार भी नहीं करती। संविधान में संसोधन द्वारा हिन्दू कोड बिल पास करके हिन्दुओं के धार्मिक मामलों में खुला हस्तक्षेप किया जाता है लेकिन मुस्लिम पर्सनल ला को छूआ भी नही जाता। भारत के अतिरिक्त विश्व के किस देश में मुसलमानों को ऐसी सुविधाएं सहज ही उपलब्ध हैं?
वास्तविकता यह है कि भारत में मुसलमानों को विशेषाधिकार प्राप्त है जिसके कारण फिल्म इन्डस्ट्री से लेकर कला-संगीत के क्षेत्र में भी उनका प्रतिनिधित्व उनकी जनसंख्या से अधिक है। भेदभाव की बात करने वाले सुनियोजित ढंग से इस देश की अखंडता, एकता और धार्मिक सहिष्णुता पर प्रहार कर रहे है; साथ ही देशभक्त मुसलमानों की निष्ठा भी संदिग्ध कर रहे हैं।

Tuesday, January 22, 2013

वंशवाद की विष-बेल



जयपुर में हाल ही में संपन्न कांग्रेस के चिन्तन शिविर में राष्ट्र की समस्याओं पर क्या चिन्तन हुआ, यह तो समझ के परे रहा; हां, एक चीज समझ में अवश्य आई कि प्रचार माध्यमों द्वारा प्रचारित इस चिन्तन शिविर में बस एक ही चिन्तन हुआ - राहुल गांधी की ताजपोशी कैसे हो। उन्हें कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनाकर कंग्रेसियों ने अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली। समझ में नहीं आता कि राहुल गांधी जब कांग्रेस के महासचिव थे, तब भी अध्यक्ष से कम थे क्या? अगर उन्हें बनाना ही था तो अध्यक्ष बनाया जाता, लेकिन वहां तो उनकी मां बैठी थीं जिन्हें अपने पुत्र पर भी विश्वास नहीं है। कांग्रेसियों ने जिस ताम-झाम और भावुकता से युवराज की ताजपोशी की, उससे यह तो साबित हो ही गया कि कांग्रेस में एक भी ऐसा नेता नहीं है जिसके अंदर स्वाभिमान और राष्ट्र के प्रति प्रेम हो। आखिर राहुल गांधी के पास राजीव-सोनिया का पुत्र होने के अतिरिक्त कौन सा गुण है, जिससे प्रभावित होकर कांग्रेसियों ने उन्हें युवराज के पद पर अभिषिक्त किया? चाटुकारिता और वंशवाद की बढ़ती हुई यह विष-बेल कही हमारे लोकतंत्र को ही न चाट जाए।
जिस दिन कांग्रेस ने राहुल गांधी को अधिकृत रूप से अपना युवराज घोषित किया उसके दूसरे ही दिन शिवसेना ने उद्धव ठाकरे को अपना अध्यक्ष बनाया, तीसरे दिन इंडियन लोक दल के अध्यक्ष ओम प्रकाश चौटला जी अपने पुत्र अजय चौटाला जी के साथ तिहाड़ जेल की शोभा बढ़ाने पहुंच गए। वंशवाद के पोषक चौटाला जी भारत के (अ)भूतपूर्व उप प्रधान मंत्री देवी लाल के (कु)पुत्र हैं। उधर पटना में भी राजद के अध्यक्ष पद पर आठवीं बार लालू यादव की ताजपोशी हुई। अभी उनका पुत्र युवराज के पद के लिये अनुभवहीन है। अतः उसे राबड़ी देवी के साथ अनुभव बटोरने के लिए छोड़ा गया है। जिन लोगों ने अपना राजनैतिक जीवन ही वंशवाद के विरुद्ध घोषित संघर्ष के माध्यम से शुरु किया था, वे ही कालान्तर में वंशवाद के पोषक बन गए। कोई भी राजनेता अपने पुत्र या पुत्री के अतिरिक्त किसी योग्य नेता के लिए अपनी कुर्सी छोड़ने के लिए तैयार नहीं। चाहे वह मुलायम सिंह हों या प्रकाश सिंह बादल, नवीन पटनायक हों या अजीत सिंह, फ़ारुख अब्दुल्ला हों या करुणानिधि - वंशवाद के इन पुरोधाओं को दूसरा कोई उत्तराधिकारी मिलता ही नहीं। भारतीय जनमानस के मानस से अभी भी राजशाही मिटी नहीं है। कही न कही गुलामी की मानसिकता से हम सभी ग्रस्त हैं । यह लोकतंत्र के लिए कही से भी शुभ संकेत नहीं है।
राहुल गांधी को भारत के अगले प्रधान मंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया जा रहा है। बहुत ढूंढ़ने पर भी उनमें किसी प्रतिभा के दर्शन नहीं होते। अपनी दादी, पिता और माता की परंपरा का निर्वाह करते हुए उन्होंने भी कभी किसी विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्राप्त नहीं की। अपनी प्रतिभा के बल पर वे एक क्लर्क की भी नौकरी नहीं पा सकते, लेकिन कांग्रेस के अध्यक्ष और देश के प्रधान मंत्री अवश्य बन सकते हैं। देश की विदेश नीति, अर्थनीति, गृह नीति-जैसे आतंकवाद और नक्सलवाद पर उनके स्पष्ट विचारों के लिए नौ साल से लोकसभा तरस रही है। भ्रष्टाचार और कुशासन पर उनके द्वारा सार्थक प्रयास के लिए भारत की जनता टकटकी लगाए हुए है। दिल्ली में गैंग रेप हुआ, युवराज खामोश रहे, सीमा पर पाकिस्तानी हमारे दो सैनिकों के सिर काट ले गए, युवराज ताजपोशी की तैयारी में मगन रहे। आमिर खान से कम नौटंकी नहीं करते हैं हमारे युवराज। कभी क्लीन शेव्ड नज़र आते हैं, तो कभी दाढ़ी बढ़ाए हुए; कभी बुन्देलखण्ड में आदिवासियों के साथ बाजरे की रोटी खाते हुए दीखते हैं, तो कभी कैलिफ़ोर्निया की गर्ल फ़्रेन्ड के साथ पार्टी का मज़ा लेते हुए। वाह रे कांग्रेसी। उन्हें एक विदेशी का नेतृत्व स्वीकार करने में भी कोई परहेज़ नहीं और एक गुड्डे को युवराज मानने से भी कोई एतराज़ नहीं। 
       

Wednesday, January 16, 2013

संस्कार और मर्यादा



अब कुछ कहा जा सकता है, तूफान कुछ थम सा गया है, वातावरण कुछ शान्त सा है और युवा कुछ सुनने की स्थिति में हैं। 
कोई भी समाज या देश तबतक प्रगति नहीं कर सकता जबतक उसके पास चरित्र का बल नहीं होता। अपने देश की समस्त समस्याओं का निदान हमारे पास है, परन्तु हम जान बूझकर उसकी उपेक्षा करते हैं। गत वर्ष १६ दिसंबर को दिल्ली में घटी बलात्कार की अमानवीय और लज्जास्पद घटना के विरोध में देशव्यापी प्रदर्शन हुए, करोड़ों मोमबत्तियां जलाई गईं और अनगिनत लेख लिखे गए परन्तु किसी ने कोई सकारात्मक समाधान नहीं सुझाया। किसी ने अगर मूल समस्या की तह में जाकर समाधान देने की कोशिश की, तो मीडिया ने उसके वक्तव्य की एक पंक्ति या आधी पंक्ति को सुर्खियों में लाकर गलत ढंग से पेश किया। उसे चतुर्दिक विरोध और गालियों का सामना करना पड़ा और चुप हो जाना पड़ा। प्रचार तंत्रों के व्यवहार को देखकर यह मानना पड़ा कि विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सिर्फ मीडिया वालों का ही अधिकार है। सामान्य जनता या तो भेड़चाल में विश्वास करे, या फिर चुप्पी साध ले अन्यथा उसे अपमानित होना ही पड़ेगा। कौन कहता है कि देश को सरकार चला रही है? वास्तव में सरकार को ही नहीं, युवा जनता को भी देश के अनउत्तरदायी टी.वी. चैनल चला रहे हैं। विषयान्तर हो गया। मूल विषय पर लौट के आते हैं।
संस्कार और मर्यादा हमारी संस्कृति के दो ऐसे अनमोल धरोहर हैं, जिसके पास हमारी हर समस्या का समाधान है। देश का युवा वर्ग जिसकी उम्र २५ से ५० के बीच में है, देश को नई दिशा दे सकता है। इस युवा वर्ग को ही लक्ष्य करके योजनाबद्ध ढंग से लिविंग टूगेदर, यौन शिक्षा, गे कल्चर, विवाह पूर्व यौन संबन्ध, विवाहोत्तर यौन संबन्ध, ब्वाय फ्रेन्ड, गर्ल फ्रेन्ड कल्चर को पूरे देश में फिल्मों और टीवी चैनलों के माध्यम से इस तरह प्रचारित किया गया कि इस पीढ़ी को संस्कार और मर्यादा घोर रुढ़िवादी और प्रगति विरोधी शब्द प्रतीत होने लगे। आज़ादी का अर्थ उछृंखलता हो गई। मुंबई के पुलिस कमिश्नर सत्यपाल ने बिल्कुल सही कहा है कि बलात्कार के मुख्य कारण यौन शिक्षा, फिल्मों और टेलीविजन पर विवाह पूर्व/पश्चात दिखाए जाने वाले यौन संबन्ध और नारी की अश्लीलता का पूर्ण चित्रण है। सत्यपाल जी का यह वक्तव्य अगर १५ दिन पहले आया होता तो न्यूज चैनल वालों ने उन्हें नौकरी से निकलवा दिया होता। उन्होंने अपना वक्तव्य देने के लिए सही समय का चुनाव किया, जैसा मैंने यह लेख लिखने के लिए किया।
क्या फिल्मों और टेलीविजन को जनता के सामने हर चीज परसने की अनुमति दी जा सकती है? क्या कोई विज्ञापन बिना नग्नता के प्रदर्शन के नहीं दिखाया जा सकता? चाहे वह पेन्ट का विज्ञापन हो, या मोबाइल का, टीवी का विज्ञापन हो या कार का, साबुन का विज्ञापन हो या स्प्रे पर्फ़्यूम का .........ऐसा नहीं लगता कि हम आयातित कन्डोम का विज्ञापन देख रहे हों? किस हिन्दुस्तानी की हिम्मत है कि वह डेल्ही-वेल्ही, फैशन या डर्टी पिक्चर अपनी बहु-बेटियों के साथ देख सके? ऐसी फिल्मों और इसके किरदारों को राष्ट्रीय पुरस्कार दिए जाते हैं। क्या इस देश में कोई सेन्सर बोर्ड है भी? क्या कर रही है हमारी सरकार? किस दिशा में धकेला जा रहा है हमारी युवा पीढ़ी को?
आज़ादी के बाद हमने अवश्य प्रगति की है परन्तु किस मूल्य पर? हमने साफ़्टवेयर इंजीनियरों की एक विशाल फ़ौज़ पैदा की है जिसके पास औसत बुद्धि के अलावा कुछ नहीं है और जिसका विश्वास माल कल्चर के अलावा किसी कल्चर में नहीं है? मैकडोनल्ड्स, के.एफ़.सी और पिज़्ज़ा हट उनके ठिकाने हैं तथा फटे हुए जिन्स उनके परिधान हैं। भारत का एक युवा, भले ही लाखों रुपए का पैकेज पा रहा हो, पहनता है एक ही जिन्स, हफ़्तों तक। न उसे गन्दगी की चिन्ता है न धूल-गर्द समेट रही मोहरी की। यही कारण है कि आज़ाद भारत ने एक भी टैगोर, सी.वी.रमन या जे.सी.बोस पैदा नहीं किया। लड़कियों ने तो साड़ी और सलवार सूट का पूरी तरह परित्याग कर दिया है। चमड़े से चिपका और कमर के नीचे अवस्थित उनका जिन्स आगे की ओर ज़रा सा झुकते ही पिछले अंग को एक्सपोज कर देता है। ऐसी ही स्थिति उनके टी शर्ट की भी है। लड़के तो फिर भी कालर वाला टी शर्ट पहनते हैं, लेकिन लड़कियां? उन्हें डीप लो कट ही पसन्द है। वे इसपर तनिक भी ध्यान नहीं देतीं कि आखिर प्रियंका गांधी अपने सार्वजनिक जीवन में जिन्स के बदले साड़ी ही क्यों पहनती हैं? उनकी रोल माडेल पत्रिकाओं के मुख्य पृष्ठ पर नग्न तस्वीर छपवाती पाकिस्तान की वीना मलिक ही क्यों है, वीर बालिका मलाला कर्जई क्यों नहीं? हिन्दुस्तान ही नहीं, विश्व के सारे मर्दों की मानसिकता लगभग एक जैसी होती है। हजारों वर्षों से पुरुषों ने नारी के अनावृत देह को अपनी कला का विषय बनाया है - कभी इसे पत्थरों पर उकेरा गया तो कभी कैन्वास पर। आज भी पुरुष अपनी बलात्कारी मानसिकता का प्रकटीकरण कभी सौन्दर्य प्रतियोगिताओं के माध्यम से करता है, तो कभी फ़ैशन परेड कराकर। आधुनिकता और पुरुषों के जाल में फ़ंसकर महिलाएं कभी माडेल बनती हैं, तो कभी पार्न फिल्मों की नायिकाएं। हमने टेक्नोलजी से लेकर फ़ैशन तक का आयात ही किया है। अब जब हम संस्कृति को आयात करने के दोराहे पर खड़े हैं तो बलात्कार की विभिषिका सामने आने लगी। अब तो सोचना ही पड़ेगा। जबतक नारियों में अपने लिए स्वाभिमान नहीं आएगा, पुरुष समाज उसका दोहन और शोषण करता ही रहेगा। नारियों को अपनी रक्षा स्वयं करनी होगी। रातों-रात पुरुषों की मानसिकता बदल देना मात्र दिवास्वप्न है। जब अमेरिका बिल क्लिन्टन और भारत नारायण दत्त तिवारी की मानसिकता नहीं बदल सका तो औरों की क्या बात की जाय।
देश के २५ से ५० वर्ष के आयु वर्ग वाले पुरुषों और महिलाओं के सामने एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है - अपने बच्चों को संस्कारित करने और मर्यादा का पाठ पढ़ाने की। आज का युवक संस्कार के नाम से ही नाक-भौं सिकोड़ने लगता है और युवती मर्यादा के नाम पर भड़क जाती है। उन्हें अपनी संस्कृति के इन दो अनमोल धरोहरों से परिचित कराने का पुनीत कार्य माता-पिता का ही है। लेकिन इसके लिए स्वयं भी संस्कारित होना पड़ेगा। प्ले बाय और डेबोनियर जैसी पत्रिकाओं को ड्राइंग रूम से बाहर करना पड़ेगा, उन अंग्रेजी-हिन्दी समाचार दैनिकों का वहिष्कार करना होगा जो अन्दर के पृष्ठों पर अर्ध नग्न तस्वीरें छापना अपना धर्म समझने लगे हैं। पार्टियों में समय देने के बदले अपने पुत्र-पुत्रियों पर अधिक समय देने का संकल्प लेना होगा। घर में शराब की पार्टियों से परहेज़ करना होगा। सदाचार और ऊंचे चरित्र का आदर्श स्वयं प्रस्तुत करते हुए बच्चों को भी उसका अनुकरण करने के लिए प्रोत्साहित करना पड़ेगा। जीजा बाई और शिवाजी, महात्मा गांधी और कस्तूरबा का आदर्श सामने रखना होगा। स्वामी विवेकानन्द की निम्न उक्ति का बार-बार स्मरण कराना होगा -
"हमारे देश की स्त्रियां...........विद्या बुद्धि अर्जित करें, यह मैं हृदय से चाहता हूं, लेकिन पवित्रता की बलि देकर यह करना पड़े, तो कदापि नहीं।"

Friday, January 4, 2013

वाह रे सरकार



      नव वर्ष के अवसर पर एक ओर पूरा देश अपने सारे समारोहों को स्थगित कर ब्लात्कार की पीड़िता लड़की की मृत्यु पर शोक मना रहा था, तो दूसरी ओर हमारा विदेश मंत्री तमिलनाडू के एक अवैध रिसौर्ट में अपनी विदेशी पत्नी के साथ जश्न मना रहा था। भारत की बहुसंख्यक जनता बलात्कारियों को मौत की सज़ा देने के लिए कानून बनाने की मांग कर रही थी, तो दूसरी तरफ़ कांग्रेस की सहयोगी पार्टी मज़लिस-ए-इत्तहाद के एम.एल.ए. अकबरुद्दीन ओवैसी हैदराबाद में भारत सरकार से १५ मिनट के लिए देश के हर हिस्से से पुलिस को हटाने की मांग कर रहे थे। ओवैसी ने एक जनसभा को संबोधित करते हुए कहा था कि हिन्दुस्तान से सिर्फ़ १५ मिनट के लिए पुलिस को हटा लीजिए, हम इस मुल्क के १०० करोड़ हिन्दुओं को खत्म कर देंगे।
      पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना का भी ऐसा वक्तव्य कभी भी मेरी निगाह से नहीं गुजरा। ओसामा बिन लादेन ने भी हिन्दुस्तान और हिन्दुओं के लिए कभी ऐसा बयान दिया हो, मुझे याद नहीं। लेकिन लादेन के मानस पुत्र ओवैसी ने सार्वजनिक रूप से यह बयान दिया और वह आज़ाद हिन्दुस्तान में पूरी आज़ादी के साथ घूम भी रहा है। देश की एकता और अखंडता को तार-तार करने वाके उसके बयान के बाद भी अभी तक उसपर कोई कानूनी कार्यवाही नहीं हुई। दिल्ली में सत्तारुढ़ यू.पी.ए. के घटक मज़लिस-ए-इत्तहाद के नेता के बयान की निन्दा न तो प्रधान मंत्री ने की और ना ही कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी ने । ओवैसी ने पाकिस्तान प्रायोजित हत्या काण्ड के मुख्य आरोपी कसाब की तरफ़दारी करते हुए उसे निर्दोष बच्चा कहा और मुंबई में २०० निरपराध नागरिकों की हत्या करने वाले कसाब को फांसी पर लटकाने की आलोचना की। उसने गुजरात में मुसलमानों की कथित हत्या कराने के लिए नरेन्द्र मोदी को भी कसाब की तरह फ़ांसी पर लटकाने की जोरदार मांग की। कांग्रेस ने ओवैसी की राजद्रोह की श्रेणी में आनेवाले भाषण की इसलिए आलोचना नहीं की कि उसने मोदी को भी कटघरे में खड़ा किया था। हमारी पश्चिम परस्त मीडिया ने भी देशद्रोह के इस कृत्य को नज़र अन्दाज़ करना ही मुनासिब समझा। वाह रे सरकार और वाह रे लोकतंत्र। समझ में नहीं आता कि वोट की यह संकीर्ण राजनीति हमें कहां ले जाएगी। देश हित के प्रति इतनी असंवेदनशीलता की कल्पना, क्या विश्व के किसी और देश में की जा सकती है?
      कोई भी आतंकवादी, तस्कर, अपराधी या राष्ट्रद्रोही अगर अल्पसंख्यक समुदाय से है, तो वर्तमान सरकार उसके खिलाफ़ कार्यवाही करने में सौ बार हिचकती है। कल्पना कीजिए कि ओवैसी जैसा बयान यदि किसी हिन्दू नेता ने दिया होता, तो सरकार क्या ऐसे ही निष्क्रिय बैठी रहती? दाउद इब्राहिम के खिलाफ कार्यवाही करने में सरकार की उदासीनता जग जाहिर है। आगामी ६ दिसंबर को होने वाले भारत-पाकिस्तान के एक दिवसीय मैच को देखने के लिए पाकिस्तानी क्रिकेटर जावेद मियांदाद को वीज़ा दिया गया है। एक क्रिकेटर के रूप में जावेद मियांदाद को वीज़ा देने में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? परन्तु मियांदाद क्रिकेटर के साथ ही दाउद इब्राहीम के सगे समधि भी हैं। राष्ट्रीय हित और प्रतिबद्धताओं को तिलांजलि देकर उनके लिए वीज़ा की व्यवस्था की गई है। भारत सरकार की यह कार्यवाही दाउद और उसके संबन्धियों को पासपोर्ट या वीज़ा जारी न करने की घोषित नीतियों के खिलाफ़ है। लेकिन जब इस देश का विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद हो, प्रधान मंत्री मौन मोहन सिंह हों और यूपीए की नेता सोनिया जी हों, तो कुछ भी संभव है। मुट्ठी भर वोट के लिए ये लोग कभी भी देश का सौदा कर सकते हैं।