Friday, February 24, 2012

आपरेशन बटाला हाउस के शहीद इन्स्पेक्टर मोहनचन्द शर्मा

कलम आज उनकी जय बोल -
१९ सितंबर, २००८ को सवेरे दिल्ली पुलिस को यह खुफिया जानकारी मिली कि नई दिल्ली के जामिया नगर क्षेत्र की चार मंजिली इमारत बटाला हाउस में पांच खूंखार आतंकवादी भविष्य के वारदात की योजना बना रहे हैं। दिल्ली पुलिस के इन्सपेक्टर मोहनचन्द शर्मा ने अविलंब कार्यवाही का निर्णय लिया। अपने सात साथियों की जांबाज टीम के साथ वे बटाला हाउस के आतंकवादियों के ठिकाने पर पहुंच गए। दिन के साढ़े दस बजे उन्होंने आतंकवादियों को पकड़ने की कार्यवाही आरंभ की। लेकिन दूसरी ओर से जबर्दस्त फायरिंग शुरु हो गई। गोलीबारी की आड़ में आतंकवादियों ने भागने की कोशिश की। पुलिस की जवाबी कार्यवाही में अतीफ अमीन और मोहम्मद साज़िद, दो आतंकवादी मारे गए; मोहम्मद सैफ और जिशान, दो घायल अवस्था में पकड़े गए और एक आरिज़ खां भागने में कामयाब रहा। इनमें से अतीफ अहमद छ: दिन पहले हुए (दिनांक - १३-९-०८) दिल्ली के सिरियल बम धमाकों का, जिसमें ३० लोग मारे गए थे और सौ से ज्यादा घायल हुए थे, का नामजद मुजरिम था। इसके अतिरिक्त वह अहमदाबाद, जयपुर, सूरत और फैज़ाबाद के जघन्य बम-विस्फोटों का भी मुज़रिम था। उसके खिलाफ कई न्यायालयों में हत्या, षड्‌यंत्र और बम विस्फोटों के आपराधिक मामले चल रहे हैं। इस आपरेशन में बेशक दो आतंकवादी मारे गए लेकिन पुलिस और देश को इसकी महंगी कीमत चुकानी पड़ी। दिल्ली पुलिस के वीर इन्सपेक्टर मोहनचन्द शर्मा इस कार्यवाही में शहीद हो गए। ये वही मोहनचन्द शर्मा थे जिन्होंने अपनी अल्प काल की सेवा में सात वीरता पुरस्कार अपनी जांबाजी और कर्त्तव्यनिष्ठा के बल पर हासिल किए थे। मरणोपरान्त उन्हें २६ जनवरी, २००९ को गणतंत्र दिवस के पावन अवसर पर भारत के राष्ट्रपति ने शान्तिकाल के सर्वोच्च सैनिक सम्मान ‘अशोक चक्र’ से अलंकृत किया। लेकिन उस अमर शहीद, वीर शिरोमणि मोहनचन्द शर्मा की राष्ट्रयज्ञ में दी गई आहुति को दिग्विजय सिंह, राहुल गांधी, अमर सिंह, मुलायम सिंह यादव और कई धर्मनिरपेक्षवादियों ने फर्जी साबित करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी। कई एन.जी.ओ. ने दिल्ली हाई कोर्ट में इसे फर्जी मुठभेड़ बताते हुए जांच के लिए याचिका दायर की। दिनांक २१ मई, २००९ को दिल्ली हाई कोर्ट ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को घटना की जांच करने का आदेश दिया। मानवाधिकार आयोग ने अपनी ३० पेज की रिपोर्ट दिनांक २५-७-०९ को हाई कोर्ट में जमा कर दी। रिपोर्ट में किसी तरह के मानवाधिकार के उल्लंघन की बात स्वीकार नहीं की गई। आयोग ने दिल्ली पुलिस को भी ‘क्लीन चिट’ दी थी।
उत्तर प्रदेश के वर्तमान विधान सभा चुनाव में दिग्विजय, राहुल और मुलायम की तिकड़ी ने आपरेशन बटाला हाउस को फर्जी एनकाउंटर घोषित किया। कांग्रेसी नेताओं ने विवाद में सोनिया गांधी को घसीटते हुए बयान दिए कि बटाला हाउस के मृत आतंकवादियों की लाशों को देखकर श्रीमती गांधी की आंखों से आंसू टपकने लगे थे। मुस्लिम वोटों की चाह में ये नेता और पार्टियां किस कदर नीचे गिर सकती हैं, इसका प्रमाण है, इस कार्यवाही को विवादास्पद बनाने की साज़िश। यह न सिर्फ अमर शहीद इन्सपेक्टर मोहनचन्द शर्मा की राष्ट्र की बलिवेदी पर दी गई पुण्य आहुति का अपमान है, बल्कि भारत के राष्ट्रपति, अशोक चक्र और न्यायपालिका का भी अपमान है।
अमर शहीद, वीरशिरोमणि मोहनचन्द शर्मा! इस देश को तुम्हारी अत्यन्त आवश्यकता थी। अभी तुम्हारी उम्र ही कितनी थी! तुम्हारी विधवा पत्नी और तुम्हारे बच्चों की आंखों से अनवरत गिरते आंसुओं पर किसी नेता का ध्यान नहीं जाता। उन्हें वोट की लालच में आतंकवादियों के शवों पर आंसू बहाने से फुर्सत ही कहां मिल पा रही है? अफवाह फैलाई गई कि विभागीय प्रतिद्वंद्विता के कारण योजनाबद्ध ढ़ंग से तुम्हें तुम्हारे साथियों ने ही गोली मार दी थी। ‘अशोक चक्र’ पाने वाले महावीर! तुम्हारी हुतात्मा यह प्रश्न अवश्य करती होगी - क्यों न्योछावर कर दिए अपने प्राण, ऐसे कृतघ्न देशवासियों के लिए।
लेकिन नहीं वीर इन्सपेक्टर! तुमपर करोड़ों हिन्दुस्तानियों को गर्व है। भारत सरकार तुम्हें अशोक चक्र तो दे सकती है, लेकि मुस्लिम बहुल जामिया नगर में, जहां तुम शहीद हुए थे, तुम्हारा कोई स्मारक नहीं बना सकती, किसी रोड का नामकरण तुम्हारे नाम पर नहीं कर सकती। वोट कटने के डर से तुम्हारी पुण्यतिथि पर कोई समारोह भी नहीं कर सकती। परन्तु हमने अपने हृदयों में तुम्हारा स्मारक बनाया है। तुम्हारी मां जब भी तुम्हें याद करेंगी, उनकी आंखें नम होंगी, परन्तु उन नम आंखों में जो सबसे चमकता सितारा दूसरों को दिखेगा, वह तुम होगे। तुम्हारे पिता तुम्हें स्मरण कर भले ही चुपचाप आकाश को देखने लगें, लेकिन अपनी छाती को गर्व से उन्नत होने से नहीं रोक सकते। तुम्हारी पत्नी अभी भले ही अपनी आंखों से झरते अनगिनत मोतियों को रोक पाने में सफल न हों, किन्तु वही अपने पोते-पोतियों को तुम्हारी शौर्य-गाथा सुनाते समय अपनी आंखों में दिव्य ज्योति की चमक को नहीं रोक पाएंगी।
इन्सपेक्टर। तुमने अपना जीवन उत्सर्ग कर दिया देश और समाज के लिए - उस संकट की घड़ी में, जो तुम्हारी सबसे कठिन परीक्षा की थी। तुमने अपने आदर्श, देशभक्ति और कर्त्तव्यनिष्ठा पर तनिक भी आंच नहीं आने दी। तुमने अपनी सामान्य ड्‌युटी से कई गुणा अधिक ड्‌युटी की है। हम हिन्दुस्तानी तुम्हें सदैव याद करेंगे - गर्व और सम्मान के साथ।

Saturday, February 18, 2012

सिन्दूर


आम धारणा है कि इस्लाम मर्दों की स्वधर्मनिष्ठा और हिन्दुत्व महिलाओं की स्वधर्मपरायणता के कारण टिका हुआ है। इस्लाम में समस्त धार्मिक कार्य प्रायः मर्द ही करते हैं। महिलाओं को पुरुषों के साथ मस्ज़िद में जुम्मे की नमाज़ पढ़ने की भी इज़ाज़त नहीं है। इसके उलट हिन्दुओं का कोई भी धार्मिक अनुष्ठान बिना पत्नी के संपन्न नहीं होता। परंपरा से हिन्दू महिलाएं पुरुषों की तुलना में अधिक धार्मिक होती हैं। हिन्दुओं के समस्त पर्व-त्योहार, रीति-रिवाज आज भी महिलाओं के ही कारण जीवित हैं। हिन्दू पुरुष धार्मिक मामलों में लापरवाह होते हैं। अगर महिलाएं याद न दिलाएं तो वे होली-दिवाली भी भूल जाएं। दिवाली की पूजा में महिलाएं ही पुरुषों को जबरन बैठाती हैं। पुरुष तो घर से भागकर जुआ खेलने की फिराक में रहता है। किस पुरुष को महाशिवरात्रि, करवा चौथ, गणेश चौथ या हरतालिका की तिथि याद रहती है? दूसरे के घर से आई लड़की ससुराल के रीति-रिवाज आते ही सीख लेती है और उसके अनुसार जीवन भर आचरण भी करती है लेकिन पुरुष को कुछ भी याद नहीं रहता। बच्चे के जन्म से लेकर शादी-ब्याह तक, सत्यनारायण-कथा से लेकर रुद्राभिषेक तक, छठ पूजा से लेकर नवरात्र की शक्ति-पूजा तक की सारी विधियां. तौर-तरीके महिलाओं को पता रहती हैं, कण्ठस्थ रहती हैं। पुरुष यंत्रवत काम करता है। धार्मिक अनुष्ठानों और तीज-त्योहारों का विभाग हिन्दू परिवारों में पूर्ण रूप से महिलाओं के हवाले है। महिलाएं हिन्दू धर्म का सबसे मजबूत स्तंभ हैं; वस्तुतः रीढ़ की हड्डी हैं। आधुनिकता की आंधी और पश्चिमी संस्कृति ने टीवी, सिनेमा एवं माडेलिंग के माध्यम से हमारे इस सबसे मजबूत स्तंभ पर प्रबल आघात किया है।
प्रथम प्रहार महिलाओं के परिधान पर किया गया। साड़ी अब नानी और दादी का पहनावा बनकर रह गई है। माताओं ने जब दुपट्टा गले में लपेटना शुरु कर दिया, तो बेटियों ने इसे हमेशा के लिए फेंक दिया। लड़के तो ढ़ीला-ढ़ाला जिन्स पहनते हैं, लेकिन लड़कियां? कस्बे से लेकर महानगर तक आप स्वयं देख सकते हैं। क्या लड़कियों की शारीरिक संरचना इतने तंग टाप और चमड़े से चिपके जिन्स पहनने की इज़ाज़त देती है? जो महिला जितनी ही आधुनिक है, कपड़ों से उसे उतना ही परहेज़ है।
दूसरा और सबसे प्रबल प्रहार पश्चिमी आधुनिकता ने हिन्दू महिलाओं के प्रतीक-चिह्न पर किया है। जब भी कोई विवाहिता श्रेष्ठ जनों को प्रणाम करती है, तो प्रथम आशीर्वाद पाती है - सौभाग्यवती भव। सौभाग्य का प्रतीक सिन्दूर हर हिन्दू महिला अपनी मांग में धारण करती थी। इस सिन्दूर के कारण महिलाएं समाज में सम्मान पाती हैं। राह चलते मनचलों की दृष्टि भी जब सिन्दूर पर पड़ जाती है, तो तो वे भी सिर झुकाकर अलग खड़े हो जाते हैं। कहावत है, कुंआरी कन्या के हजार वर। लेकिन वही कुंआरी कन्या जब सिन्दूर से अलंकृत हो जाती है तो मांग में सिन्दूर भरने वाले की जनम-जनम की संगिनी बन जाती है। हिन्दू धर्म में पति-पत्नी का रिश्ता अत्यन्त पवित्र माना जाता है। विवाह के बाद हमारे समाज में किसी तरह का निकाहनामा, एग्रीमेन्ट या मैरेज सर्टिफिकेट जारी नहीं किया जाता। औरत की मांग का सिन्दूर ही सर्वोच्च मान्यताप्राप्त पवित्र मैरेज सर्टिफिकेट होता है। एकबार हनुमान जी ने जिज्ञासावश मां जानकी से पूछा था कि वे मांग में लाल लकीर क्यों लगाती हैं। मां सीता ने उत्तर दिया कि यह लाल लकीर सिन्दूर की रेखा है जो प्रभु श्रीराम को अत्यन्त प्रिय है और इस सिन्दूर के कारण ही वे प्रभु श्रीराम की प्रिया हैं। फिर क्या था? हनुमान जी ने अपने पूरे शरीर में सिन्दूर लगा लिया। महाकवि तुलसीदास जी ने हनुमत्‌वन्दना करते हुए लिखा भी है - लाल देह लाली लसै, अरु धरि लाल लंगूर; वज्र देह दानव दलन जय-जय-जय कपिसुर। सिन्दूर की पवित्रता और अखंडता के लिए हिन्दू वीरांगनाओं की त्याग, तपस्या और आहुतियों की गाथा से भारत का गौरवपूर्ण इतिहास और वांगमय भरा पड़ा है। सैकड़ों वर्षों की गुलामी और विपरीत परिस्थितियों में भी हिन्दू नारी ने अपने सौभाग्य के इस प्रतीक चिह्न को कभी अपने से अलग नहीं किया। लेकिन इक्कीसवीं सदी के आते ही मांग के सिन्दूर ने ललाट पर कब एक छोटे तिकोने टीके का रूप ले लिया, कुछ पता ही नहीं चला। हिन्दू नारी विवाहिता होने पर गर्व की अनुभूति करती थी, आज वह इसे छुपाने में गर्व महसूस करती है। अशुभ के हृदय में बैठे डर के कारण वह सिन्दूर का एक छोटा टीका ललाट के दाएं, बाएं या मध्य में लगा तो लेती है लेकिन बालों को थोड़ा आगे गिराकर उसे छिपाने की चेष्टा भी करती है। मांग तो सूनी ही दिखाई देती है। आश्चर्य तो तब होता है जब मातायें भी आधुनिकता की दौड़ में अपनी बेटियों से आगे निकलने की होड़ में शामिल हो जाती हैं। हिन्दू धर्म की रीढ़ में क्षय-रोग बसेरा बनाता जा रहा है।

Saturday, February 11, 2012

१० माह का आत्मन


गर्दन में डाल नन्हीं बांहें, जब गोद मेरी चढ़ जाता है,
नवजीवन पा जाता हूं, जब तू बाबा तुतलाता है।

होत सवेरा जगने पर, तू मुझे ढूंढ़ता आता है,
निश्छल आंखें बाहें पसार, तू मुझे निमंत्रण देता है,
जब पास मैं तेरे आता हूं, तू धीरे से मुस्काता है,
नवजीवन पा जाता हूं, जब तू बाबा तुतलाता है।

माता के हाथ कटोरी है, ममता से भरे निवेदन पर,
पापा की घेरेबन्दी में, चन्दा-तारों के गाने पर,
लंबी अवधि मनुहार करा, तू धीरे-धीरे खाता है;
नवजीवन पा जाता हूं, जब तू बाबा तुतलाता है।

नन्हीं सी तेरी हथेली है, अति कोमल हैं तेरे घुटने,
बन मकोइया तेजी से, चलता है, बुनता है सपनें,
अधरों से अस्फुट बोल फुटे, हंसता है सिर झटकाता है;
नवजीवन पा जाता हूं, जब तू बाबा तुतलाता है।

खेल, शरारत, तोड़फोड़, सोकर जगने पर यही काम,
खिलौने तुझको कम प्यारे, सब व्यस्त रहें बस एक ध्यान,
स्नानगृह के पास आकर, दस्तक दे मुझे बुलाता है;
नवजीवन पा जाता हूं, जब तू बाबा तुतलाता है।

संध्या को घूम-टहलकर मैं, जब वापस घर को आता हूं,
घंटी की ध्वनि सुनते ही, दरवाजे पर तू आता है,
चंचल आंखें, मुखमुद्रा से,अपनी बातें समझाता है;
नवजीवन पा जाता हूं, जब तू बाबा तुतलाता है।

कभी घुटने पर कभी पेट के बल, बस तू चलता ही रहता है,
जब मैं कहता हूं - पकड़-पकड़, तू और तेज हो जाता है,
फिर पीछे मुड़कर देख मुझे, हंसता है, खिल-खिल जाता है;
नवजीवन पा जाता हूं, जब तू बाबा तुतलाता है।

मेरा चश्मा, तेरा दुश्मन, तू उसे फेंकना चाहे नित,
पर जब पहना देता तुझको, सुन्दरता बढ़ जाती अगणित,
शीशे से नेत्र तेरे झांकें, सम्मोहित तू कर जाता है;
नवजीवन पा जाता हूं, जब तू बाबा तुतलाता है।

खेल-खेल कर दिन पर्यन्त, जब तू थोड़ा थक जाता है,
होठों को करके गोल-गोल, जब तू जमुहाई लेता है,
सचराचर सृष्टि मुझे दिखती, जीवन सार्थक बन जाता है;
नवजीवन पा जाता हूं, जब तू बाबा तुतलाता है।

मेरी बेसुरी लोरी पर, कंधे पर मेरे सिर रखकर,
मेरी थपकी के साथ-साथ, मेरी धड़कन की आहट पर,
गुन-गुन, धीमे-धीमे, तू सुर में सुर मिलाता है
नवजीवन पा जाता हूं, जब तू बाबा तुतलाता है।

Sunday, January 22, 2012

सर्वोच्च पदों का अवमूल्यन




कांग्रेस की सरकार जब-जब केन्द्र में रही है,
इसने देश के सर्वोच्च पदों का अवमूल्यन करने में अपनी ओर से कोई को्र
कसर नहीं छोड़ी है। इस परंपरा की शुरुआत इन्दिरा गांधी ने देश पर आपात्‌ काल
थोपने के कुछ ही दिनों बाद की, जब सर्वोच्च न्य़ायालय के चार वरिष्ठ न्यायधीशों की योग्यता
और वरिष्ठता को दरकिनार कर ए.एन.राय को सर्वोच्च न्यायालय के
मुख्य न्यायाधीश का प्रतिष्ठित पद सौंपा गया। जिस अपेक्षा से उन्हें यह दायित्व सौंपा
गया, उन्होंने इसे पूरा भी किया। श्रीमती गांधी के रायबरेली संसदीय क्षेत्र से चुनाव
को अवैध घोषित करने तथा उन्हें छः वर्षों तक चुनाव लड़ने से अयोग्य
ठहराने के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को पलटने में सर्वोच्च न्यायालय को कोई
असुविधा नहीं हुई। कारण था मुख्य न्यायाधीश के पद पर इन्दिरा गांधी के वफ़ादार जस्टिस
राय का विद्यमान होना और अपनी वरिष्ठता को नज़रअन्दाज़ करने के विरोध में जस्टिस खन्ना
के नेतृत्व में चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों का त्यागपत्र देना। सर्वोच्च न्यायालय के अवमूल्यन के वे प्रारंभिक दिन थे।
भारत का राष्ट्रीय चुनाव आयोग तो टी.एन. शेषन के मुख्य चुनाव आयुक्त
बनने तक पूर्ण रूप से सरकार का जेबी संगठन था। शेषन ने पहली बार भारत की जनता को चुनाव
आयोग की स्वायत्तता से परिचित कराया लेकिन सरकार को यह रास नहीं आया। सरकार ने एक सदस्यीय
चुनाव आयोग को त्रिसदस्यीय बनाकर चुनाव आयोग के भी पर कतर दिए। फिर से चुनाव आयोग १९८०
के पूर्व की राह पर अग्रसर है। उत्तर प्रदेश में हाथी को ढंकने तथा उत्तराखंड में जानबूझकर
भयंकर हिमपात के दौरान चुनाव की तिथि रखने के पीछे कांग्रेस को फ़ायदा पहुंचाने का उद्देश्य
साफ़ हो जाता है।
भारत के सर्वोच्च संवैधानिक पद - राष्ट्रपति के पद का अवमूल्यन करने
में भी कांग्रेस की केन्द्रीय सरकार को तनिक भी हिचक नहीं हुई।
डा. राजेन्द्र प्रसाद, डा. राधाकृष्णन और डा. ए.पी.जे.कलाम ने अपने कार्यों और ऊंचे
व्यक्तित्व से राष्ट्रपति पद की गरिमा में जो चार चांद लगाया था, क्या शेष राष्ट्रपति
उसके आसपास भी पहुंच सके? नेहरू जी के बाद कांग्रेस ने पार्टी और पार्टी नेतृत्व के
प्रति प्रतिबद्धता को ही राष्ट्रपति पद के लिए सर्वोच्च योग्यता मानी। हद तो तब हो
गई जब भ्रष्टाचार के मामलों का सामना कर रहे देश के लिए एक अनजान प्रत्याशी को राष्ट्रपति
बना दिया गया। आज की तिथि में प्रधान मंत्री के पद का जो अवमूल्यन हुआ है, किसी से
छिपा नहीं है। कोई भी मंत्री, प्रधान मंत्री के अधीन नहीं है। वास्तविक सत्ता का केन्द्र
कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष का आवास हो गया है। स्वायत्त संस्था सी.वी.सी
के अध्यक्ष के पद पर दागी थामस साहब की नियुक्ति, मानवाधिकार
आयोग के अध्यक्ष के पद पर विवादास्पद पूर्व मुख्य न्यायाधीश बालकृष्णन की नियुक्ति
इन संस्थाओं का सप्रयास अवमूल्यन नहीं तो और क्या है? सरकार द्वारा
सी.बी.आई., सी.ए.जी और राज्यपाल द्वारा अपने विरोधियों को साधने
के अनगिनत उदाहरण आए दिन समाचार पत्रों की सुर्खियों में हमेशा रहते हैं।
सेना में वरिष्ठता और योग्यता को दरकिनार न करने
की एक श्रेष्ठ परंपरा रही है। इसे पहली बार तोड़ा इन्दिरा गांधी ने। आपात्‌ काल के बाद
पुनः सत्ता प्राप्त करने के उपरान्त श्रीमती गांधी का आत्मविश्वास हिल गया था। उन्हें
सभी दिशाओं से षडयंत्र की गंध आती थी। जनरल एस.के.सिन्हा, अपनी वरिष्ठता और योग्यता के आधार पर स्थल सेनाध्यक्ष के पद के एकमात्र सही
दावेदार थे। उनका कैरियर बेदाग था और वे सबसे वरिष्ठ थे लेकिन इन्दिरा गांधी के इशारे
पर उनकी वरिष्ठता को नज़र अन्दाज़ कर उनसे कनिष्ठ जनरल को स्थल सेनाध्यक्ष बना दिया गया।
जनरल सिन्हा के पास त्यागपत्र देने के सिवा कोई दूसरा विकल्प नहीं था। उनका दोष यही
था कि वे लोकनायक जय प्रकाश नारायण की बिरादरी के थे और जे.पी. की संपूर्ण क्रान्ति
की जन्मभूमि बिहार के रहने वाले थे।
कैसी विडंबना है कि पड़ोसी पाकिस्तान में सरकार
की उम्र सेनाध्यक्ष तय करता है और हिन्दुस्तान में सेनाध्यक्ष की उम्र सरकार तय करती
है! भारत के वर्तमान सेनाध्यक्ष जनरल वी.के.सिंह एक भ्रष्ट सरकार की कुटिल मंशा के
ताज़ा शिकार हैं। इस बार सेना का मनोबल गिराने और इसे विवादास्पद बनाने के लिए सरकार ने सारी सीमाएं तोड़ दी है। सेनाध्यक्ष न्याय
की फ़रियाद लेकर सुप्रीम कोर्ट जाये, यह दुर्भाग्यपूर्ण
ही नहीं, शर्मनाक भी है। जनरल वी.के.सिंह जब साढ़े चौदह वर्ष के
थे, तो राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में प्रवेश के लिए उन्होंने आवेदन
फार्म भरा था। इस उम्र में अधिकांश छात्र अपने
शिक्षक या अभिभावक से सलाह लेते हैं। छात्र वी.के.सिंह ने अपना फ़ार्म अपने शिक्षक श्री
भटनागर को दिखाया और उसे भरने के लिए उनसे सहायता का आग्रह किया। शिक्षक भटनागर ने
पूरा फर्म स्वयं भर दिया और बालक जनरल की उम्र १० मई, १९५० लिख
दी। यही एकमात्र भूल जनरल से हुई है। सारे विश्व में हाई स्कूल सर्टिफिकेट में अंकित
जन्मतिथि को ही मान्यता प्राप्त है। अपने देश में भी सर्वोच्च न्यायालय ने हाई स्कूल
सर्टिफिकेट में अंकित जन्मतिथि को ही अन्तिम रूप से वैध माना है। हाई स्कूल सर्टिफिकेट
में जनरल वी.के.सिंह की जन्मतिथि १० मई १९५१ दर्ज़ है और इसे ही आधार मानकर उनकी नियुक्ति
और पदोन्नतियां हुई हैं। अब अचानक चार दशकों से भी अधिक के उनके बेदाग कैरियर को विवादास्पद
बनाते हुए ‘आर्मी लिस्ट’ में अंकित उनकी जन्मतिथि, १०-५-५० को
रक्षा मंत्रालय ने सही माना है। सेना में अधिकारियों
के समस्त विवरण सेना द्वारा अभिरक्षित और जारी ‘आर्मी लिस्ट’ में दिए जाने की परंपरा
है। लेकिन इस अभिलेख को कोई कानूनी मान्यता प्राप्त नहीं है। बड़ी चालाकी से इसमें जनरल
सिंह की जन्मतिथि १०-५-१९५० डाल दी गई। अन्य सभी अभिलेखों में जनरल की जन्मतिथि १०-५-१९५१
ही दर्ज़ है। आज एक व्यक्ति विशेष को सेनाध्यक्ष बनाने के लिए उन्हें समय से पूर्व सेवानिवृत्त
करने हेतु आर्मी लिस्ट में दी गई जन्मतिथि को सरकार मुख्य आधार मान रही है। स्थल सेनाध्यक्ष
जनरल वी.के.सिंह एक कर्मठ, ईमानदार और साफ-सुथरी छवि के सेनाधिकारी
रहे हैं। सरकार को यह भ्रम होने लगा है कि भारत का हर स्वच्छ छवि का व्यक्ति अन्ना
का समर्थक है। कुछ दिनों के अन्दर ही कांग्रेस के महासचिव का बयान भी आ सकता है कि
जनरक वी.के.सिंह भी आर.एस.एस. के एजेन्ट हैं। इस सरकार को सिर्फ़ घोटालेबाज ही पसन्द
आते हैं। इस अभियान के तहत जनरल वी.के.सिंह की सेवानिवृति को विवादास्पद बनाने का हर
संभव प्रयास किया जा रहा है।
अवकाश प्राप्त मेजर जनरल आर.एस.एन.सिंह सेना
के मिलिटरी इन्टेलिजेन्स आफिसर रहे हैं। उन्होंने दिनांक २२ जनवरी, २०१२ को दक्षिण से प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक ‘डेक्कन क्रोनिकल’ में
`Biggest Fraud In The Army' शीर्षक से एक लेख लिखा है। उन्होंने लिखा
है कि सेना द्वारा जारी `Army List' को जिसमें जनरल वी.के.सिंह
की उम्र एक साल ज्यादा दिखाई गई है, कोई कानूनी वैधता या मान्यता
प्राप्त नहीं है। यह एक ऐसा डोजियर है जिसमें तमाम त्रुटियां भरी हैं। सेना के अफसरों
के बारे में इस अभिलेख में दिए गए विवरण में कई अफसरों के गलत नाम-पते, जन्मतिथियां और आई.सी. नंबर भरे पड़े हैं। मेजर जनरल सिंह ने दावा किया है कि
उनके समकालीन ब्रिगेडियर रैंक के एक अधिकारी के पिता के नाम के स्थान पर स्वयं अधिकारी
का ही नाम दर्ज़ था और अवकाश प्राप्ति के बाद भी इसमें कोई सुधार नहीं किया गया। जनरल
वी.के.सिंह ने इस डोजियर में उल्लिखित अपनी जन्मतिथि (१०-५-५०) को अपने हाई स्कूल सर्टिफिकेट
में अंकित जन्मतिथि (१०-५-५१) के आधार पर सुधारने के लिए सन्‌ २००६ एवं २००८ में आवेदन
पत्र दिया जिसका निस्तारण जनवरी २०१२ में करते हुए रक्षा मंत्रालय ने Army
List में अंकित जन्मतिथि को ही सही मानते हुए उनकी याचिका को खारिज़ कर
दिया। हाई स्कूल का सर्टिफिकेट एक कानूनी मान्यता प्राप्त अभिलेख है। इसमें वर्णित
जन्मतिथि को ही अन्तिम रूप से वैध माना जाता है। ड्राइविंग लाइसेंस से लेकर पासपोर्ट
जारी करने की प्रक्रिया में इसे ही सही माना जाता है। जनरल वी.के.सिंह के हाई स्कूल
के शिक्षक श्री भटनागर की जल्दीबाज़ी में की गई एक छोटी सी भूल की सज़ा स्थल सेनाध्यक्ष
को देने का सरकार मन बना चुकी है। ऐसे में
अपने स्वाभिमान की रक्षा करने हेतु जनरल वी.के.सिंह का सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाना
कही से भी अनुचित प्रतीत नहीं होता। वहां देर भले है, अंधेर नहीं।

Thursday, January 12, 2012

११ सितंबर 1893 को शिकागो में आयोजित विश्वधर्म-महासभा में स्वामी विवेकानन्द के ऐतिहासिक संबोधन का हिन्दी रूपान्तरण

महान युगद्रष्टा स्वामी विवेकानन्द जी की १५०वीं जयन्ती के अवसर पर


अमेरिकावासी बहनो तथा भाइयों,
आपने जिस सौहार्द्र और स्नेह के साथ हमलोगों का स्वागत किया है, उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा है। संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन परंपरा की ओर से मैं आपको धन्यावाद देता हूं; धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूं और सभी संप्रदायों एवं मतों के कोटि-कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूं।
मैं इस मंच पर बोलने वाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी ध्न्यवाद ज्ञापित करता हूं, जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया है कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रसारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूं, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति, दोनों की ही शिक्षा दी है। हमलोग सभी धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में विश्वास नहीं करते, वरन्‌ समस्त धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं। मुझे एक ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता है कि हमने अपने वक्ष में यहुदियों के विशुद्धत्तम अवशिष्ट अंश को स्थान दिया था, जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी, जिस दिन उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था। ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूं, जिसने महान्‌ जरथ्रुष्ट्र जाति के अवशेष अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अबतक कर रहा है। भाइयो, मैं आपलोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियां सुनाता हूं, जिसकी आवृत्ति मैं अपने बचपन से कर रहा हूं और जिसकी आवृत्ति मेरे देश में प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं :
रुचिनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्‌।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव च॥
-“जैसे विभिन्न नदियां भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।”
यह सभा, जो अभीतक आयोजित सर्वश्रेष्ठ सम्मेलनों में से एक है, स्वतः ही गीता के इस अद्‌भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा है :
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तास्तंथैव भजाम्यहम्‌।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥
-“जो कोई मेरी ओर आता है - चाहे किसी प्रकार से हो - मैं उसको प्राप्त होता हूं। लोग भिन्न-भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।”
साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मान्धता, इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं, उसको बारंबार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को विध्वस्त करती और पूरे पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये वीभत्स दानवी नहीं होतीं, तो मानव समाज आज की अवस्था से कही अधिक उन्नत हो गया होता। पर अब उनका समय आ गया है, और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूं कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टाध्वनि हुई है, वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाली सभी उत्पीड़नों का, तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होनेवाले मानवों की पारस्परिक कटुताओं का मृत्युनिनाद सिद्ध हो।
(रामकृष्ण मठ, नागपुर द्वारा प्रकाशित स्वामी विवेकानन्द साहित्य से साभार)

Wednesday, December 28, 2011

कहां ले जाएगा, ये रोग हमें आरक्षण का



समाज का विभाजन अन्ततः भूमि के विभाजन में परिवर्तित हो जाता है। अंग्रेजों को इस भारत भूमि से तनिक भी स्वाभाविक लगाव नहीं था। उनका एकमात्र उद्देश्य था - अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए इस देश के संसाधनों का अधिकतम दोहन। बिना सत्ता में रहे यह संभव नहीं था। हिन्दुस्तान पर राज करने के लिए उन्होंने जिस नीति का सफलता पूर्वक संचालन किया, वह थी - फूट डालो, और राज करो। महात्मा गांधी का सत्‌प्रयास भी हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच अंग्रेजों द्वारा योजनाबद्ध ढ़ंग से निर्मित खाई को पाट नहीं सका। अंग्रेजों के समर्थन और प्रोत्साहन से फली-फूली मुस्लिम लीग की पृथक आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र की मांग, पृथक देश की मांग में कब बदल गई, कुछ पता ही नहीं चला। राष्ट्रवादी शक्तियों के प्रबल विरोध और महात्मा गांधी की अनिच्छा के बावजूद भी अंग्रेज कुछ कांग्रेसी नेताओं और जिन्ना के सहयोग से अपने षडयंत्र में सफल रहे - १९४७ में देश बंट ही गया, भारत माता खंडित हो ही गईं।
यह एक स्थापित सत्य है कि जो देश अपने इतिहास से सबक नहीं लेता है, उसका भूगोल बदल जाता है। भारत की सत्ताधारी कांग्रेस ने बार-बार देश का भूगोल बदला है। इस पार्टी को भारत के इतिहास से कोई सरोकार ही नहीं, अतः सबक लेने का कोई प्रश्न ही पैदा नहीं होता। १९४७ में पाकिस्तान के निर्माण के साथ इस प्राचीनतम राष्ट्र के भूगोल से एक भयंकर छेड़छाड़ की गई। एक वर्ष भी नहीं बीता था, १९४८ में कश्मीर समस्या को पं. जवाहर लाल नेहरू ने राष्ट्रसंघ में ले जाकर दूसरी बार देश का भूगोल बदला। सरदार पटेल हाथ मलते रह गए। तिब्बत पर चीनी आधिपत्य को मान्यता देकर तीसरी बार हमारे तात्कालीन प्रधान मंत्री पं. नेहरू ने १९६२ में भारत का भूगोल बदला। साम्राज्यवादी चीन से हमारी सीमा इतिहास के किसी कालखण्ड में नहीं मिलती थी। तिब्बत को चीन की झोली में डाल हमने उसे अपना पड़ोसी बना लिया और पड़ोसी ने नेफा-लद्दाख की हमारी ६०,००० वर्ग किलो मीटर धरती अपने कब्जे में कर ली।
नेहरू परिवार को न कभी भारत के भूगोल से प्रेम रहा है और न कभी भारत के इतिहास पर गर्व। इस परिवार ने सिर्फ इंडिया को जाना है और उसी पर राज किया है। इस परंपरा का निर्वाह करते हुए सोनिया जी ने मुस्लिम आरक्षण का जिन्न देश के सामने खड़ा कर दिया है। धर्म के आधार पर आरक्षण का हमारे संविधान में कहीं भी कोई प्रावधान नहीं है। मुस्लिम और ईसाई समाज स्वयं को जातिविहीन समाज होने का दावा करते हैं। उनके समाज में न कोई दलित जाति है, न कोई पिछड़ी जाति, फिर अन्य पिछड़ा वर्ग और दलित वर्ग के कोटे में इन्हें आरक्षण देने का क्या औचित्य? दुर्भाग्य से हिन्दू समाज में अगड़े, पिछड़े और दलित वर्गों में सैकड़ों जातियां हैं। इसे संविधान ने भी स्वीकार किया है। इन जातियों में परस्पर सामाजिक विषमताएं पाटने के लिए संविधान में मात्र दस वर्षों के लिए आरक्षण की व्यवस्था थी। आज सोनिया और कांग्रेस हिन्दू दलितों और पिछड़ों के मुंह का निवाला छीन, मुसलमानों को देना चाहती है।
अब तो हद हो गई। सोनिया जी ने तुष्टीकरण की सारी सीमाएं तोड़ते हुए लोकपाल में भी मुस्लिम आरक्षण का प्रावधान कर दिया है। जब लोकपाल जैसी प्रमुख संस्था में धर्म के नाम पर आरक्षण दिया जा सकता है, तो सेना, पुलिस, लोकसभा, विधान सभा, चुनाव आयोग, सी.बी.आई., सी.ए.जी., सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट, क्रिकेट टीम, हाकी टीम इत्यादि में क्यों नहीं दिया जा सकता? सत्ता और वोट के लिए कांग्रेस कुछ भी कर सकती है। खंडित भारत के अन्दर एक और पाकिस्तान के निर्माण की नींव पड़ चुकी है। अगर जनता नहीं चेती, तो चौथी बार भारत के भूगोल को परिवर्तित होने से कोई नहीं बचा सकता।
इस आरक्षण से यदि नेहरू परिवार का कोई सदस्य प्रभावित होता, तो आरक्षण की व्यवस्था कभी की समाप्त हो गई होती। क्या राहुल गांधी अपनी प्रतिभा के बल पर मनरेगा का जाब-कार्ड भी पा सकते हैं? किसी भी प्रतियोगिता में बैठकर एक क्लर्क की नौकरी भी हासिल करने की योग्यता है उनके पास? लेकिन वे प्रधान मंत्री पद के योग्य हैं, क्योंकि उस पद पर उनका खानदानी आरक्षण है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रतिभा का दमन सबसे बड़ा भ्रष्टाचार है। इसकी निगरानी कौन लोकपाल करेगा?

Thursday, December 8, 2011

मीडिया में व्याप्त भ्रष्टाचार



प्रेस काँसिल आफ इन्डिया के अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मारकण्डेय काटजू ने कुछ ही दिन पूर्व प्रधान मंत्री को लिखे पत्र में मीडिया में व्याप्त भ्रष्टाचार का उल्लेख करते हुए दृश्य मीडिया को भी प्रेस काँसिल के दायरे में लाने की सिफारिश की है। उन्होंने प्रेस काँसिल आफ इंडिया का नाम बदलकर मीडिया काँसिल करने की मांग भी की है। उन्होंने सार्वजनिक रूप से टिप्पणी की है कि मीडिया, विशेषकर समाचार चैनल बुनियादी मुद्दों की अपेक्षा गैर जरुरी मुद्दों पर अधिक समय देते हैं। सेक्स और सनसनीखेज खबर परोसने वाले ये चैनल आम जनता या उससे संबन्धित समस्याओं से एक निश्चित दूरी बनाए रखते हैं। जस्टिस काटजू अपनी ईमानदारी और बेबाक टिप्पणी के लिए विख्यात हैं। उन्होंने बड़े शालीन शब्दों में मीडिया का यथार्थ चित्र उकेरा है।
कारपोरेट घराने की चर्चित दलाल नीरा राडिया ने गत वर्ष, प्रमुख पत्रकार प्रभु चावला से बात करते हुए सुप्रीम कोर्ट में जजमेंट फिक्स करने के लिए लंबी बात की थी। प्रभु चावला ‘सीधी बात’ में सबकी बखिया उधेड़ते हैं लेकिन नीरा राडिया से बातचीत में खुद ही बेनकाब हो गए हैं। बातचीत का पूरा आडियो टेप ‘यू ट्यूब’ पर आज भी उपलब्ध है। नीरा राडिया पैसे देकर सरकार के पक्ष में लेख लिखवाने के लिए बरखा दत्त, वीर सिंहवी, राजदीप सरदेसाई आदि अनेक नामचीन पत्रकारों के लगातार संपर्क में रहती हैं। इसका खुलासा भी नेट पर उपलब्ध इन पत्रकारों से नीरा राडिया की बातचीत के आडियो टेप में है। एक टेप में राजदीप सरदेसाई ने अपने लेख का मज़मून पहले नीरा राडिया को सुनाया। नीरा ने उसमें कुछ संशोधन सुझाए। उन संशोधनों को अपने लेख में शामिल करने के बाद पुनः पूरा लेख नीरा राडिया को सुनाया और राडिया के अनुमोदन के पश्चात ही सरदेसाई ने उसे प्रेस को भेजा। १९७५-७७ में इन्दिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपात्काल के दौरान खुशवंत सिंह अंग्रेजी पत्रिका ‘इलस्ट्रेटेड वीकली’ के संपादक थे। उन्होंने उस वर्ष फर्जी ओपिनियन पोल कराकर संजय गांधी को ‘मैन आफ द इयर’ घोषित किया था। उनके इस कृत्य के कारण पाठकों ने उन्हें ‘चमचा आफ द इयर’ घोषित किया। खुशवंत सिंह ने इसे स्वीकार किया और वीकली में स्थान भी दिया।
१९९२ में बाबरी विध्वंश के बाद कुलदीप नैयर ने दिल्ली से पटना की हवाई यात्रा की। पहले वे दिल्ली से लखनऊ आए, वहां दिन भर रुके, अपने पत्रकार मित्रों से मिले भी, फिर हवाई जहाज से ही पटना के लिए प्रस्थान किया। उन्होंने उसी तिथि में लख्ननऊ से पटना की यात्रा का विवरण देते हुए एक लेख लिखा जो कई अखबारों में छपा। उन्होंने लिखा - मैंने लखनऊ से पटना जाते समय अयोध्या के आसपास के क्षेत्रों में भयभीत मुसलमानों को देखा जो सिर पर अपने सामानों की गठरी लिए सड़क पर किसी सुरक्षित स्थान की ओर जा रहे थे। उनके एक पत्रकार मित्र राजनाथ सिंह जिन्होंने कुलदीप नैयर को लखनऊ के अमौसी हवाई अड्डे पर पटना के लिए विदा किया था, अपने लेख में लिखा - कुलदीप नैयर का लेख पढ़कर न मुझे सिर्फ आश्चर्य हुआ, बल्कि क्षोभ भी हुआ। वे हवाई जहाज से लख्ननऊ से पटना गए थे। अगर खिड़की वाली सीट पर भी वे बैठे होंगे, तो क्या ३८,००० फीट की ऊंचाई से वे सड़क पर चलने वाले लोगों की गतिविधियां और चेहरे के भाव देख सकते थे? क्या वे दूरबीन लेकर यात्रा करते हैं। (हवाई यात्रा में दूरबीन लेकर चलना सख्ती से मना है)। अपनी मनगढ़न्त स्टोरी से जनता में सांप्रदायिक उन्माद फैलाने के लिए उन्हें भारत की जनता से माफी मंगनी चाहिए। कुलदीप नैयर ने न आज तक माफी मांगी और न कोई उत्तर दिया। ये वहीं कुलदीप नैयर हैं जिन्होंने कुछ ही महीने पहले अमेरिका में गिरफ्तार पाकिस्तान की कुखात खुफिया अजेन्सी आइ.एस.आई के शातिर एजेण्ट गुलाम नबी फई का आतिथ्य स्वीकार किया और उसके द्वारा वाशिंगटन में आयोजित एक सेमिनार में भारत विरोधी और पाकिस्तान समर्थक भाषण दिया। ज्ञात हो कि कुलदीप नैयर के आने-जाने, पांच सितारा होटल में ठहरने, खाने-पीने और अमेरिका-दर्शन का संपूर्ण व्यय आई.एस.आई. ने गुलाम नबी फई के माध्यम से वहन किया था। उस सेमिनार में भारत सरकार द्वारा नामित कश्मीर के वार्त्ताकार दिलीप पडगांवकर और राधा प्रसाद भी फई के आमंत्रित अतिथि थे। लौटते समय फई ने वजनदार लिफाफों से, जिसमें डालर भरे थे, इन विद्वान (देशद्रोहियों) अतिथियों की विदाई की। देश की प्रमुख मीडिया ने इसकी चर्चा तक नहीं की। भारत सरकार ने कोई कार्यवाही भी नहीं की क्योंकि ये सभी लोग आई.एस.आई के साथ-साथ भारत की सत्ताधारी पार्टी के भी एजेण्ट हैं।
देश का पूरा मीडिया, चाहे वह प्रिंट मीडिया हो या दृश्य मीडिया हो, अपने आकाओं के हाथ बिका हुआ है, आकण्ठ भ्रष्टाचार में डूबा है। देश के सभी प्रतिष्ठित समाचार पत्रों और दृश्य मीडिया के स्वामी मल्टी नेशनल, कारपोरेट घराने और बड़े पूंजीपति हैं। ये लोग रातोरात किसी अदने पत्रकार को भी विश्वस्तरीय पत्रकार बनाने की क्षमता रखते हैं। सभी बड़े पत्रकार इन्हीं से मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं। सरकार भी अरबों-खरबों के विज्ञापनों के माध्यम से इन्हें प्रभावित करती है। प्रिन्ट मीडिया की नई खोज है, ‘एडवर्टोरियल’ यानि समाचारों के रूप में विज्ञापन। पहले प्रथम पृष्ठ पर विज्ञापन छापना अनैतिक समझा जाता था लेकिन आज की तारीख में भारत के सभी छोटे-बड़े समाचार पत्र प्रथम पृष्ठ पर भी पूरे पेज का विज्ञापन देकर, विज्ञापन दाता की डुगडुगी बजाते मिल जाएंगे। अखबारों का संपादकीय पृष्ठ भी राजनीतिक दल के प्रवक्ताओं के चरागाह बन चुके हैं। संसद को मछली बाजार बना देने वाले कई लंपट इस पृष्ठ पर चाटुकारिता के जौहर दिखा रहे हैं। यह मीडिया ही है जो पैसे खाकर लालू यादव को सबसे बड़ा मैनेजमेन्ट गुरु तथा सोनिया गांधी को राजमाता बना देता है।
आज आम आदमी हर तरह की मीडिया से दूर हो गया है। मीडिया को शीला की जवानी, मुन्नी की बदनामी, राखी का इन्साफ और करीना के जीरो फीगर की ज्यादा चिन्ता रहती है। इसी वर्ष कारगिल विजय-दिवस के दिन पाकिस्तान की युवा खूबसूरत विदेश मंत्री हिना रब्बानी भारत के दौरे पर आई थीं। देश की पूरी मीडिया उनके आगे-पीछे चक्कर लगाती रही - कैमरे से उनका नख-शिख वर्णन करती रही। उनके पर्स से लेकर उनकी जूती पर तरह-तरह की टिप्पणियां की गईं। न्यूज चैनल वाले उनकी खूबसूरती पर दीवाने हो रहे थे। उसी दिन भारत की सेना और जनता कारगिल-विजय दिवस मना रही थी। मीडिया ने इन कार्यक्रमों की कोई कवरेज नहीं की।
पैसा और ग्लैमर ही मीडिया का आदर्श बन चुका है। प्रिन्ट और दृश्य मीडिया में कार्यरत अधिकांश पत्रकार अपनी तनख्वाह के अतिरिक्त बाहरी एजेन्सियों से भी नियमित रूप से भारी धनराशि प्राप्त करते हैं। टेन्डर नोटिस पाने के लिए सरकारी अधिकारियों की बैठकों में उनके मनमाफिक समाचार की कतरनों के साथ पत्रकार अक्सर देखे जा सकते हैं। नक्सलवादियों और चीन से पैसा पानेवाले सजायाफ्ता विनायक सेन को राष्ट्रनायक बना देते हैं, कारपोरेट घराने से धन पाने वाले टाटा को भारत रत्न दिला देते हैं, आई.एस.आई. से पैसा पानेवाले इस्लामी आतंकवादियों के समर्थन में पूरी शक्ति झोंक देते हैं और सी.आई.ए. से माल-पानी पाकर परमाणु समझौते को मनमोहन की सबसे बड़ी उपलब्धि बताकर एक चुनाव तो जीता ही देते हैं।
जैसे-जैसे भूमंडलीय दौर में पत्रकारिता मुनाफा कमाने का जरिया बनती चली गई, वैसे-वैसे यह मिशन कम, व्यवसायिक ज्यादा हो गई। पेड न्यूज अर्थात पैसे लेकर पैसे देनेवाले के हित में समाचार छापना या प्रसारित करना आजकल आम बात हो गई है। पेड न्यूज के मामले में चुनाव आयोग ने हाल ही में उत्तर प्रदेश के बिसौली विधान सभा क्षेत्र की विधायक श्रीमती उर्मिलेश यादव पर तीन साल के लिए चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी है। यह तो पेड न्यूज का एक घोषित और सिद्ध मामला है। न्यूज चैनल और प्रिन्ट मीडिया नित्य ही पेड न्यूज प्रसारित करते और छापते हैं। मीडिया में भ्रष्टाचार की यह पराकाष्ठा है। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ भ्रष्टाचार की सारी सीमाएं लांघ चुका है।
पुलिस, कचहरी, नौकरशाही और राजनीति से भी अधिक भ्रष्टाचार मीडिया में व्याप्त है, जिसे लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा जाता है। हमारे देश के उच्च जीवन मूल्यों और संस्कृति को विकृत करने के लिए मीडिया ने जितना काम किया है, वह लार्ड मैकाले भी नहीं कर पाया था।
एक वक्त था जब समर्पित देशभक्त पत्रकारों ने अपने गली-मुहल्ले से छोटे-छोटे अखबार निकाले और अपने क्रान्तिकारी विचारों को जनता के बीच पहुंचाया। ब्रिटिश सरकार की नींव हिला दी थी राष्ट्रसेवा के लिए कटिबद्ध देशभक्त पत्रकारों ने। यह उन पत्रकारों की विरासत है कि आज हम आदतन सवेरे-सवेरे अखबार पढ़ते हैं। उस समय लोकमान्य तिलक, वीर सावरकर, महात्मा गांधी, पं. मदन मोहन मालवीय, गणेश शंकर विद्यार्थी, पं. माखनलाल चतुर्वेदी, लक्ष्मीशंकर गर्दे, प्रताप नारायण मिश्र, विष्णुराव पराड़कर ......... आदि पत्रकारों ने अपने ओजस्वी लेखन से उच्च चरित्र, नैतिकता और राष्ट्रप्रेम के बीज बोए थे जिसकी फसल भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक उल्ला खां जैसे क्रान्तिकारियों के रूप में देखने को मिली। आज की पत्रकारिता की फसल हैं - ए. राजा, कनिमोझी, दयानिधि मारन, करुणानिधि। ये सभी लोग दक्षिण में एकाधिकार जमाए ‘सूर्या टीवी’ के बोर्ड आफ डाइक्ट्रेट के सम्मानित सदस्य, पदाधिकारी और मालिक हैं। किस-किस का और कितनों का नाम गिनाएं। पूरे कुएं में भांग पड़ी है।
बोए थे फूल, उग आए नागफनी के कांटे,
किस-किस को दोष दें, किस-किस को डांटें।