Monday, September 27, 2010

क्या यही लोकतन्त्र है

आज़ादी के बाद हर चुनाव के बाद यह घोषणा की गई कि दिल्ली और राज्यों में जनप्रिय और बहुमत की सरकार बनी है. इससे बड़ा झूठ क्या हो सकता है? सच तो यह है कि आज तक भारत के किसी कोने में बहुमत की सरकार नहीं बनी. किसी सरकार या पार्टी ने कभी भी कुल मतों का ५०% नहीं प्राप्त किया. पिछले लोकसभा चुनाव में कुल मतों के मात्र ४०% वोट पड़े. देश के ६०% मतदाताओं ने अपने को मतदान से अलग रखा. दिल्ली में बैठे सत्ताधीशों की पार्टी ने डाले गये मतों का आधा भी नहीं प्राप्त किया.कुल मतों का १०% पाकर वे बहुमत का खोखला दावा करते हैं और भारत की संपूर्ण जनता के भाग्यविधाता बन जाते हैं.
सत्ता के लिये चुनाव के बाद गठबंधन बनाकर सरकार बना लेना लोकतन्त्र का सबसे बड़ा मज़ाक और जनता के साथ धोखा है. विभिन्न पार्टियां आम चुनाव में एक दूसरे के खिलाफ़ विष-वमन करती हैं, ताल ठोकती हैं और चुनाव के बाद बंद कमरों में समझौता कर सत्ता का बंदरबांट करती हैं. धुर विरोधी पार्टियां भी सत्ता के लिये जनता की आंखों में धूल झोंककर चुनाव के बाद एक हुई हैं. सन २००४ के आम चुनाव में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल और केरल में एक दूसरे के खिलाफ़ चुनाव लड़ा. कई स्थानों पर खूनी संघर्ष हुए. दोनों पक्षों के कई कार्यकर्त्ता मारे भी गये. लेकिन चुनाव बाद? दोनों पार्टियों ने दिल्ली में समझौता कर लिया. सत्ता की मलाई दोनों ने खाई. कांग्रेस के मनमोहन सिंह प्रधान मन्त्री बने, तो मार्क्सवादी सोमनाथ चटर्जी लोकसभा अध्यक्ष. राज्यों में दोनों पार्टियों ने एक दूसरे का विरोध करना जारी रखा. भोली-भाली जनता ठगी सी सारा खेल देखती रही.
भारत के उधारी संविधान द्वारा स्थापित फ़र्ज़ी लोकतन्त्र अब वंशवाद के कारण राजतन्त्र का रूप लेता जा रहा है. जिस लोकतन्त्र की तारीफ़ करते राजनेता और मीडिया थकते नहीं, वह मात्र मृगमरीचिका है. लोकतन्त्र के नाम पर जिस प्रकार की राजशाही चल रही है, उसके लिये किसी नये उदाहरण की जरूरत नहीं. जिस तरह बेखौफ़ अंदाज़ में बिहार में चल रही कांटे की चुनाव मुहिम के बीच राजद सुप्रीमो लालू यादव ने अपने २० वर्षीय बेटे तेजस्वी की ताज़पोशी की है, यह किस्सा भारतीय राजनीति में निर्लज्जता के जो कई अध्याय हैं, उनमें सुनहरे अक्षरों में अपनी जगह अवश्य बनाएगा. राजशाही की यह बीमारी किसी एक राज्य या दल में थमने वाली नहीं है.जम्मू-कश्मीर से लेकर तमिलनाडु, महाराष्ट्र से लेकर उड़ीसा-बिहार तक सभी राज्यों और केन्द्र में भी एक ही हाल है. नेहरू-इन्दिरा-राजीव-सोनिया-राहुल, पवार, अब्दुल्ला, लालू, मुलायम, बादल, बंसी लाल, देवी लाल, चरण सिंह, गौड़ा, मारन, करुणानिधी, नायडु, रेड्डी, ठाकरे, शिबू सोरेन.........................आप लिखते रहिए भारतीय राजनीति में वर्चस्व जमाए परिवारवाद की सूची, भारतीय लोकतन्त्र और राजशाही के पोषक नेताओं के कानों पर जूं भी नहीं रेंगने वाली. वंशवाद में आकंठ डूबे देश में सैकड़ों राजनीतिक परिवार ऐसे हैं, जिन्होंने भारतीय लोकतंत्र को जैसे अगवा कर अपने परिवार का बंधक बना रखा है. दुनिया के तथाकथित सबसे बड़े लोकतन्त्र की यह सबसे बड़ी त्रासदी है. हमारे नेताओं ने इस देश की जनता और हमारे लोकतन्त्र को अपनी व्यक्तिगत जागीर समझ ली है. अपना सबकुछ अपने परिवार के नाम ये नेता लिखकर चले जाना चाहते हैं............यह देश, लोकतन्त्र, हम और आप जाएं भाड़ में.

Thursday, February 25, 2010

SACHIN

सचिन (एक दिवसीय मैचों में प्रथम द्विशतक लगाने के उपलक्ष्य में)

रनों का अम्बार या हिमालय पहाड़,
न भूतो भविष्यति, न आर है न पार.

हजारों हजार रन तिरान्बे सेंचुरी,
फिर भी हम प्यासे, इच्छाएं अधूरी.
तुमसे अपेक्षित शतकों का पूर्ण शतक,
खेलते ही जाओ, रुको नहीं अन्त तक.

खेलों के रत्न हो, रिकार्डों के कीर्तिमान,
आँखों के तारे हो, भारत की शान.

करोड़ों हों हर्षित, ऐसा तुम्हारा काम,
सचिन तेन्दुलकर -- सूरज सा तेरा नाम.

नचाता खिलाड़ियों को, शेन वार्न फिरकी पर,
सपने में रोता था, देख तुझे खिड़की पर.

गुगली पर उसकी लगाया जब छक्का,
थाम दिल बैठ गया, लगा ऐसा धक्का.

मुरली की मुरली, तुमने बजाई है,
दूसरे पर गेंद को सीमा दिखाई है.

थर्ड मैन के ऊपर से, अख्तर की बंपर को,
दर्शकों में भेजी है, छुआ जैसे कंकड़ को.

मैक्ग्रा की बाल पर, दर्शनीय कवर ड्राइव,
ओवर में चॊके - टू, थ्री, फोर, फाइव.

मुंबई में वे भी हैं - राज-बाल ठाकर,
मुंबई में ये भी हैं - सचिन-गावास्कर.

राजनीति तोड़ती है, उत्तर को दक्खिन से,
क्रिकेट है जोड़ती, पूरब को पश्चिम से.

भारत के रत्न हो, घोषणा ही शेष है,
रिणी तुम्हारा यह, भारतवर्ष देश है.

बी. के. सिन्हा, वाराणसी,
फोन नं. ०९४१५२८५५७५

Thursday, January 28, 2010

लोकतन्त्र

लोकतन्त्र

१९४७ के पहले --
अपने देश में,
अंग्रेजों का राज था,
उन्हीं के नियम थे,
उन्हीं के कानून थे,
विक्टोरिया साम्राज्य था.

सत्ता उन्हीं की,
मर्जी उन्हीं की,
कार्यपालिका उन्हीं की,
न्यायपालिका उन्हीं की.

तब लोकतन्त्र नहीं था,
लेकिन हमारे पास थे --
मंगल पांडेय और लक्ष्मी बाई,
वीर कुँवर, बहादुर भाई,
अशफ़ाक उल्ला खाँ,
तात्या और नाना,
जोशे जिगर, केसरिया बाना.
महामाना मालवीय, महात्मा गाँधी,
तिलक, पटेल, सुभाष की आँधी.
बिस्मिल, सावरकर, भगत, आजाद,
जय प्रकाश नारायण, राजेन्द्र प्रसाद.

आज हमारे पास,
अपना कनून है,
अपना संविधान है,
पर किसी प्रश्न का,
क्या कोई समाधान है?

दुनिया का सबसे बड़ा,
हमारा लोकतन्त्र है,
महँगा भी सबसे बड़ा,
अपना जनतन्त्र है.
करोड़पतियों की संसद है,
नेताओं का अम्बार है,
गोली, धमाकों से,
देश गुलजार है.

वाह रे लोकतन्त्र !
प्रवाह को ही मोड़ा है,
माफ़िया-राजनीति का,
बेमिसाल जोड़ा है.

उत्तर सुखराम हैं,
दक्षिण में गोड़ा हैं,
पश्चिम में ठाकरे,
तो पूरब में कोड़ा हैं.

Monday, November 16, 2009

PROBLEM IN TAPPING BEST TALENTS


Addressing the National Education Day function in New Delhi on 11th day of this month to commemorate the birth anniversary of Maulana Abul Kalam Azad, independent India’s first education minister, Prime Minister Manmohan Singh, of late, has admitted the truth that attracting best talents for IITs, IIMs, and central universities is a great problem in present circumstances. Is it possible to give opportunities to deserving talents in the framework of existing reservation policies promoted by government? Not only the above prestigious institutes but all other institutions and government departments are also facing quality problems. Our governments – Central or State – lacked foresight in implementing reservation policy in admission of students in higher education. It has been seen that students of reserved categories securing even 2% marks in entrance examinations have been granted admissions in undergraduate and post graduate courses of Medical Science, Technology, Agriculture Science and Business Management etc.There is reservation in recruitment and promotion of teaching staff also. If 50% of our students and teachers come through various reservations, will it not be a day dream to think over quality? As you sow, so you reap. At least Research and Development wings and higher education sectors should have been granted exemptions from reservations.

The government can open 20 more IITs, 10 NITs, 6 IIMs and 600 model schools during the 11th plan (2007-12), but how can it ensure that high quality teaching staff are also recruited? Our scholar Prime minister has realized the problem but suggested no solution. He and our learned education minister Mr. Kapil Sibbal, both know the problem and solution as well, but their hands are tied in present set up of democracy and appeasement policy launched by their predecessors. This is the main reason as to why a scientist working in India never dreams to win a Nobel Prize but the same person when goes to America easily gets it.

Not only educational institutes but all government departments are also facing the quality problem due to the burden of numerous incompetent staff and officers as a byproduct of policy of reservations in recruitment and promotion. At present almost all the top managerial and technical posts of U.P. Power Corporation Ltd, Utpadan Nigam, Jal nigam, Setu Nigam, Irrigation, PWD etc. are held by members of a particular reserved category ignoring the talents and competency of officers and staff of general category. The quality of work in all government departments is getting deteriorated day by day. Here, in our country opportunities are snatched from the real talents in the name of social justice.

B.K.Sinha, Varanasi.

Sunday, October 11, 2009

NOBEL TO INDIAN ORIGIN


The seventh day of October 2009 was indeed a great day of pride for every Indian, when the names of prestigious Nobel Prize winners in the field of Chemistry were announced. After a long gap of eight years a scientist of Indian origin was selected with two other scientists for the highest award. Dr. Venkatraman Radhakrishanan, a Tamilnadu born gem of India, a senior scientist at the MRC Laboratory at Cambridge has been awarded the Nobel Prize along with two other scientists, Thomas E Steitz from USA and Ada E Yonath of Israel for their studies on structure and function of the Ribosome. It will help to prepare more reliable antibiotic drugs for the cure/prevention of several chronic diseases. It is surprising that a man who completed his B.Sc. and Ph.D. in Physics, switched over to study of Biology and Chemistry and finally achieved the goal successfully. He has proved that knowledge and research know, no barriers and nothing is impossible.
Congratulations Mr. Venkatraman Ramakrishnan! We are proud of you.

Monday, September 7, 2009

HOLIDAYS IN GOVT. DEPARTMENTS


In democracy, several methods are applied to attract voters – to award public holidays in order to appease followers of different religions, communities and castes is one of them. Sometimes government offices remain closed for 3-4 days in continuation causing serious hardships and problems to common people. How a country may afford five out of twelve months in compulsory holidays! Don’t get amazed – we are affording. An employee of U.P. government is legally authorized to avail 160 numbers of holidays (Gazetted-40, Restricted-02, Sundays-52, Second Saturday-12, Casual leave-14, Special casual leave-06, Earned leave-31, National holidays-03) in the year of 2009 as pre gazette of state government. No country in this world, other than India can award such a huge quantity of compulsory holidays. These holidays are responsible for non completion of different important projects in time, unnecessary delays in justice from courts and day to day hardships of common people. Sixth Pay Revision Commission had noticed this unhealthy traditions and strongly recommended curtailment of holidays, but no government could dare to bell the cat due to the fear of losing the precious vote bank of a particular section of population. But there are several methods to maintain balance without hurting the feelings of any community. The chronic problem may be solved and all the offices may be kept open for all the six days starting from Monday to Saturday by adopting following alternatives –

  1. Restricted and Second Saturday’s holidays may be cancelled for ever.
  2. The name of gazetted holidays be changed. These may be given a new name – Festival Leave.
  3. Except National holidays, no holidays should be declared public holiday.
  4. One can avail six festival holidays in a row, only on the eve of a particular festival

If a Hindu worker is willing to go home on Holi, he may gladly avail six days’ festival leave. Offices may be kept open with the help of workers of other religions and the persons unwilling to avail their leaves on that particular occasion. It will be the duty of head of office/department to keep office open for all the days except Sunday. It will increase the efficiency and output of all government departments. The present notification of holidays may be kept intact with dates. One can avail festival leaves at the time of festivals only. Gradually the number of festival leaves may be reduced from 40 to 25.

The employees will be the best beneficiaries because those working at distant places from their homes may celebrate that festival with their dear ones. They can easily get such leaves and spend at least one week with their kith and kins. Like casual leaves, every employee will try to make a good balance of festival leaves for availing these at correct point of time. The employees, who avail less than the prescribed leaves may be awarded incentives on pro rata basis. This system will not hurt the feelings of any community. It is in greater interest of our country in general and the employees in particular. The common people can visit any office on any day (except Sunday) for their works.

In the beginning, any reform invites oppositions and sharp reactions but after proper counseling, unanimity may be derived. Only a strong will power is required. We cannot dream to establish our country in the category of developed nations without increasing the number of working days.


Thursday, August 27, 2009

अमर गायक मुकेश

प्रख्यात संगीतकार सरदार मलिक कहा करते थे - जब मुकेश गाते हैं, तो ऐसा लगता है, जैसे सात बाँसुरी के मीठे स्वर एक साथ निकल रहे हों.संगीतकार अनिल विश्वास मुकेश की मीठी आवाज के दीवाने थे. वे कहते थे - मुकेश के स्वर में जो विशेष माधुर्य और संप्रेषण था, वह किसी अन्य गायक में नहीं पाया गया. फ़िल्म इतिहास के आरंभ से लेकर आजतक मुकेश के गाये जितने गीत लोकप्रिय हुए उतने गीत किसी अन्य कलाकार के नहीं. वे जो भी गाते थे "हिट" हो जाता था. यह मात्र एक संयोग नहीं था. उन्होंने धन कमाने के लिये ही अपने गायन का उपयोग नहीं किया. उन्हें जिन गानों को स्वर देने का प्रस्ताव मिलता था, पहले उनकी गुणवत्ता की परीक्षा कर लेते थे, पश्चात अपनी सहमति देते थे. दस में से दो या तीन प्रस्ताव ही उनकी कसौटी पर खरे उतरते थे और वे उन्हीं गानों को अपना स्वर देते थे. यही कारण रहा कि उनके समकालीन गायको की तुलना में उनके द्वारा गाए गीतों की संख्या बहुत कम है, लेकिन लोकप्रिय गानों की संख्या बहुत अधिक. संगीतकार कल्याणजी के अनुसार मुकेश द्वारा गाया कोई भी गीत गुमनामी के अंधेरे में कभी गुम नहीं हुआ. वे जो भी गाते थे, जनता की जुबान पर चढ़ जाता था. मन्ना डे कहते हैं कि वे स्वयं और अन्य गायक भी मुकेशजी की तरह हिट गाने गाना चाहते थे लेकिन हिट गीत गाने का सौभाग्य तो सिर्फ़ मुकेशजी के ही पास था. उनकी आवाज़ में एक जादू था जिसका स्पर्श पाते ही कोई भी गीत जन-जन को प्रिय हो जाता था.
अमर गायक मुकेश चन्द्र माथुर का जन्म देश की राजधानी दिल्ली में २१, जुलाई, १९२३ को हुआ था. संगीत से लगाव होने के बावजूद भी संगीत की विधिवत शिक्षा प्राप्त नहीं की उन्होंने. शायद उन्हें इसकी आवश्यकता भी नहीं थी. एक बार सुनकर कठिन से कठिन राग, धुन या गीत की हू-बहू नकल उतार देने की प्रतिभा उन्हें जन्म से प्राप्त थी. मित्रों, स्वजनों और आसपास के लोगों से प्राप्त प्रशंसा ने कुछ ज्यादा ही आत्मविश्वास भर दिया था उनमें. वे रेडियो आर्टिस्ट बनना चाहते थे. वहाँ आडियो टेस्ट भी दिया, लेकिन संगीत विद्या का कोई प्रमाण-पत्र प्रस्तुत नहीं कर पाये, लिहाजा छाँट दिये गये. लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी. मुंबई में एक बड़ा कार्यक्षेत्र उनकी प्रतीक्षा कर रहा था. उन्होंने अपनी किस्मत मुंबई में आजमाई. प्रख्यात अभिनेता मोतीलाल उनके दूर के रिश्तेदार थे. मुंबई पहुँचकर उन्ही के घर में सिर छुपाने की जगह पाई. प्रयास और संघर्ष चलते रहे. एक रात मोतीलाल के यहाँ पार्टी चल रही थी. फ़िल्म उद्योग की सभी प्रमुख हस्तियाँ उसमें मौजूद थीं. युवक मुकेश ने कुन्दल लाल सहगल का एक एक लोकप्रिय गीत उन्ही की आवाज और तरन्नुम में सुनाकर सबको सम्मोहित कर दिया. महान संगीतकार अनिल विश्वास ने इस नायाब हीरे को करीब से देखा, सुना और परखा. अपनी अगली फ़िल्म "पहली नज़र" का एक गीत गाने का मुकेश के सामने प्रस्ताव रखा. तकदीर जैसे स्वयं चलकर उनके पास आई थी. मुकेश ने "हाँ" कर दी. और इस तरह रिकार्ड हुआ अमर गायक के स्वर में पहला अविस्मरणीय गीत - दिल जलता है तो जलने दे, आँसू न बहा फ़रियाद न कर...मधुर आवाज़, अदभुत भाव संप्रेषण, पूर्ण परिपक्वता और कर्णप्रिय धुन का अनोखा संगम था इस ऐतिहासिक गीत में. पहले ही गाने ने लोकप्रियता के सारे रिकार्ड तोड़ दिए. मुकेश रातो-रात स्टार बन गए. वह जमाना कुन्दन लाल सहगल का था. वे भी मुकेश से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके. उन्होंने मुकेश को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया. उनकी मधुर आवाज़ पर मुग्ध हो सहगल ने अपना निजी हारमोनियम मुकेश को उपहार में दिया जिसपर वे जीवनपर्यंत रियाज़ करते रहे. सचमुच मुकेश ही सहगल के सच्चे उत्तराधिकारी थे. स्वर सम्राट का उत्तराधिकारी एक स्वर सम्राट ही हो सकता था. एक बार विविध भारती के जयमाला कार्यक्रम को मुकेश ने प्रस्तुत किया. एक घंटे के कार्यक्रम में उन्हें अपनी पसंद के गाने अपने संस्मरण के साथ सुनाने का शुभवसर प्राप्त हुआ. उन्होंने पूरे कार्यक्रम में सहगल के ही गाने सुनवाए. अपना भी कोई गाना नहीं सुनाया.
मुकेश मुंबई आए थे गायक-अभिनेता बनने का सपना लेकर, लेकिन अभिनेता के रूप में वे सफल नहीं हो पाए. पश्चात उन्होंने अपना सारा ध्यान गायकी में लगाया जहाँ उन्होंने सफलता और उत्कृष्टता के अनेक मील के पत्थर स्थापित किए. उनके पुत्र नितिन मुकेश ने उनके पदचिह्नों पर चलते हुए गायन का क्षेत्र चुना और सफलता भी प्राप्त की लेकिन अभिनय करने की मुकेश की अधूरी इच्छा की पूर्ति उनके पोते नील नितिन मुकेश ने की है. नील हिन्दी रजत पट के एक व्यस्त, सफ़ल और लोकप्रिय अभिनेता हैं. मुकेश की आत्मा निश्चित रूप से सन्तुष्ट और प्रसन्न हो रही होगी.
नये गायकों और संगीतकारों को प्रोत्साहित करना तथा उन्हें अवसर प्रदान करना मुकेश का स्वभाव था. बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा कि आज के प्रसिद्ध अभिनेता ऋतिक रोशन के दादा महान संगीतकार रोशन को मुकेश ने ही अपनी फ़िल्म मल्हार में पहली बार संगीत देने का अवसर दिया था. फ़िल्म विश्वास में मनहर ने एक युगल गीत "आपसे हमको बिछड़े हुए एक जमाना बीत गया" में मुकेश के लिये अपनी आवाज़ डब की थी. मुकेश जब रिकार्डिंग के लिए पहुँचे तो मनहर की आवाज़ सुन सुखद आश्चर्य से भर गये. वे उसकी आवाज़ से इतना प्रभावित हुए कि गाने को अपनी आवाज़ में रिकार्ड नहीं कराया. गीत मनहर की आवाज़ में ही रहने दिया गया. इस तरह मनहर को गायक के रूप में पहचान मिली. महेन्द्र कपूर को भी संघर्ष के दिनों में मुकेशजी ने हमेशा प्रोत्साहित किया. वे अपना जन्मदिन सार्वजनिक रूप से मनाने से परहेज करते थे. उसदिन वे चुपके से गाड़ी में बैठ चल देते और फुटपाथ के किनारे सोए बेसहारा लोगों को कम्बल बाँटते. वे एक महान गायक तो थे ही, साथ में एक संवेदनशील इंसान भी थे. यही कारण था कि वे अपने गीतों में उच्चतम स्तर का मधुर भाव भरने में सदैव सफल रहते थे.
एक अच्छी शुरुआत मिलने के बाद मुकेश ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा - सफ़लता की सीढ़ियाँ चढ़ते गये, चढ़ते गये. जिस आकाशवाणी ने उन्हें कभी रिजेक्ट किया था, वही आकाशवाणी प्रतिदिन उनके सैकड़ों गाने बजाकर अपने को धन्य मानती है. ऐसी कौन सी विधा है जिसे मुकेश ने अपना मधुर स्वर न दिया हो! लोकप्रिय गानों की शृंखला जो "दिल जलता है" से आरंभ हुई थी, "कभी-कभी मेरे दिल में खयाल आता है" पर उनकी असामयिक मृत्यु के कारण समाप्त हुई. भारत का ऐसा कौन बालक, युवा या वृद्ध होगा जिसने मुकेश के गाने न गुनगुनाए हों! दिल जलता है, तू कहे अगर जीवन भर मैं गीत सुनाता जाऊँ, आवारा हूँ, आसमान का तारा हूँ, दम भर जो उधर मुँह फेरे, मेरा जूता है जापानी, सबकुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी, मैं आशिक हूँ बहारों का, बड़े अरमान से रखा है बलम तेरी कसम, महलों ने छीन लिया बचपन का प्यार मेरा, सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं, छलिया मेरा नाम, डम डम डिगा डिगा, ये मेरा दीवानापन है, होठों पे सच्चाई रहती है, बोल राधा बोल, सजन रे झूठ मत बोलो, सावन का महीना पवन करे शोर, कभी-कभी मेरे दिल में खयाल आता है, एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल...........अपने ३५ साल के कैरियर में मुकेश ने हजारों कर्णप्रिय और लोकप्रिय गाने गाए जो आज भी उतने ही ताज़े लगते हैं जितने पहली बार फ़िज़ा में बजने पर लगे थे. मुकेश ने हर तरह के गीत गाए हैं - हँसी, रोमांस, देशभक्ति, खुशी और गम. जो भी गाया पूर्णता और परिपक्वता से. संगीत निर्देशक के निर्देश पर भी वे रुकते नहीं थे. रियाज़ से सन्तुष्ट होने पर ही रिकार्डिंग की सहमति देते थे. मेरा नाम जोकर का कालजयी गीत, जाने कहाँ गए वो दिन, उन्होंने सत्रह दिनों के अभ्यास के बाद रिकार्ड कराया था. पाश्चात्य और शास्त्रीय संगीत क अद्भुत संगम है इस गीत में. मुकेश की मधुर आवाज़ में उभरते दर्द ने इसे सर्वकालिक महान गीत बना दिया है.
दर्द भरे गीतों के वे शहंशाह थे. आज भी उनका सिंहासन ज्यों का त्यों है. ऐसा लगता है मुकेश की आवाज़ ईश्वर ने दर्द भरे गीतों के लिए ही बनाई थी. मधुर रेशमी आवाज़ के साथ भावों का गहराई से संप्रेषण उन्हें अद्वितीय गायक बना देता था, और गीत बन जाते थे सदाबहार एवं अविस्मरणीय. सामान्यतया हाई पिच पर गाने पर गायक-गायिकाओं के स्वर पतले और कुछ कर्कश हो जाते हैं, लेकिन मुकेश की आवाज़ हाई पिच पर भी न केवल अपरिवर्तित रहती थी, बल्कि कुछ और मधुर हो जाती थी. यह विशेषता सिर्फ़ उन्ही के पास थी.
हिन्दी फ़िल्मों में समकालीन ऐसा कोई अभिनेता नहीं जिसने उनका प्लेबैक न लिया हो, ऐसा कोई संगीतकार नहीं जिसने उनसे गीत गवाकर अपने को धन्य न माना हो. राज कपूर की तो वे आवाज़ ही थे. लेकिन मुकेश स्वयं को धन्य मानते थे, तुलसीकृत रामचरित मानस की चौपाइयाँ गाकर. बालकांड से लेकर उत्तरकांड के प्रमुख अंशों को प्रख्यात संगीतकार जयदेव के निर्देशन में उन्होंने अपने मधुर स्वर में रिकार्ड कराया था जिसके लिये उन्होंने कोई पारिश्रमिक नहीं लिया. जीवन के सभी रसों का समावेश है उनके मानस-गान में. बालकांड का वात्सल्य-रस, अयोध्याकांड का करुण-रस, अरण्यकांड का विरह-रस, लंकाकांड का रौद्र-रस तथा सुन्दरकांड एवं उत्तरकांड के भक्ति-रस की गंगा जो मुकेश के स्वर में प्रवाहित हुई है, वह अद्भुत है. क्या मुकेश के पहले भी इतना डूबकर किसी ने मानस-पाठ किया था? शायद नहीं. तभी तो नित्य ही प्रातः आँख खुलने पर किसी न किसी मंदिर के ध्वनि विस्तारक यंत्र से रामायण की चौपाइयाँ उस अमर गायक की आवाज़ में गूँजती हुई सुनाई पड़ती हैं. भारत के प्रत्येक रामायण प्रेमी के घर में तुलसी के रामचरित मानस के साथ मुकेश द्वारा गाये रामायण के कैसेटों ने भी स्थाई आवास बना लिया है. इससे बढ़कर उस अमर गायक को और क्या श्रद्धांजलि हो सकती है !
अपने उत्कृष्ट गायन के लिये ऐसा कौन सा पुरस्कार है जिसे मुकेश ने प्राप्त न किया हो. सर्वश्रेष्ठ गायक के लिये राष्ट्रपति पुरस्कार से लेकर फ़िल्मफ़ेयर एवार्ड कई बार उन्हें प्राप्त हुए.वे उस ऊँचाई पर पहुँच गए थे कि पुरस्कारों कि गरिमा उनसे बढ़ने लगी थी, लोकप्रियता के उस शिखर पर विद्यमान थे जहाँ पहुँच पाना किसी के लिए एक सपना होता है. करोड़ों भारतवासियों के हृदयों पर उनका अखंड साम्राज्य था और रहेगा. २७, अगस्त १९७६ को डेट्रायट, कनाडा में एक संगीत-समारोह के दौरान एक प्रचंड हृदयाघात ने असमय ही उनको हमसे छीन लिया. लेकिन मुकेश आज भी अमर हैं. कलाकार की कभी मौत नहीं होती. उनके गीत आज भी वातावरण में वैसे ही गूँजते हैं --
एक दिन मिट जाएगा माटी के मोल
जग में रह जाएंगे, प्यारे तेरे बोल.