Monday, September 27, 2010

क्या यही लोकतन्त्र है

आज़ादी के बाद हर चुनाव के बाद यह घोषणा की गई कि दिल्ली और राज्यों में जनप्रिय और बहुमत की सरकार बनी है. इससे बड़ा झूठ क्या हो सकता है? सच तो यह है कि आज तक भारत के किसी कोने में बहुमत की सरकार नहीं बनी. किसी सरकार या पार्टी ने कभी भी कुल मतों का ५०% नहीं प्राप्त किया. पिछले लोकसभा चुनाव में कुल मतों के मात्र ४०% वोट पड़े. देश के ६०% मतदाताओं ने अपने को मतदान से अलग रखा. दिल्ली में बैठे सत्ताधीशों की पार्टी ने डाले गये मतों का आधा भी नहीं प्राप्त किया.कुल मतों का १०% पाकर वे बहुमत का खोखला दावा करते हैं और भारत की संपूर्ण जनता के भाग्यविधाता बन जाते हैं.
सत्ता के लिये चुनाव के बाद गठबंधन बनाकर सरकार बना लेना लोकतन्त्र का सबसे बड़ा मज़ाक और जनता के साथ धोखा है. विभिन्न पार्टियां आम चुनाव में एक दूसरे के खिलाफ़ विष-वमन करती हैं, ताल ठोकती हैं और चुनाव के बाद बंद कमरों में समझौता कर सत्ता का बंदरबांट करती हैं. धुर विरोधी पार्टियां भी सत्ता के लिये जनता की आंखों में धूल झोंककर चुनाव के बाद एक हुई हैं. सन २००४ के आम चुनाव में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल और केरल में एक दूसरे के खिलाफ़ चुनाव लड़ा. कई स्थानों पर खूनी संघर्ष हुए. दोनों पक्षों के कई कार्यकर्त्ता मारे भी गये. लेकिन चुनाव बाद? दोनों पार्टियों ने दिल्ली में समझौता कर लिया. सत्ता की मलाई दोनों ने खाई. कांग्रेस के मनमोहन सिंह प्रधान मन्त्री बने, तो मार्क्सवादी सोमनाथ चटर्जी लोकसभा अध्यक्ष. राज्यों में दोनों पार्टियों ने एक दूसरे का विरोध करना जारी रखा. भोली-भाली जनता ठगी सी सारा खेल देखती रही.
भारत के उधारी संविधान द्वारा स्थापित फ़र्ज़ी लोकतन्त्र अब वंशवाद के कारण राजतन्त्र का रूप लेता जा रहा है. जिस लोकतन्त्र की तारीफ़ करते राजनेता और मीडिया थकते नहीं, वह मात्र मृगमरीचिका है. लोकतन्त्र के नाम पर जिस प्रकार की राजशाही चल रही है, उसके लिये किसी नये उदाहरण की जरूरत नहीं. जिस तरह बेखौफ़ अंदाज़ में बिहार में चल रही कांटे की चुनाव मुहिम के बीच राजद सुप्रीमो लालू यादव ने अपने २० वर्षीय बेटे तेजस्वी की ताज़पोशी की है, यह किस्सा भारतीय राजनीति में निर्लज्जता के जो कई अध्याय हैं, उनमें सुनहरे अक्षरों में अपनी जगह अवश्य बनाएगा. राजशाही की यह बीमारी किसी एक राज्य या दल में थमने वाली नहीं है.जम्मू-कश्मीर से लेकर तमिलनाडु, महाराष्ट्र से लेकर उड़ीसा-बिहार तक सभी राज्यों और केन्द्र में भी एक ही हाल है. नेहरू-इन्दिरा-राजीव-सोनिया-राहुल, पवार, अब्दुल्ला, लालू, मुलायम, बादल, बंसी लाल, देवी लाल, चरण सिंह, गौड़ा, मारन, करुणानिधी, नायडु, रेड्डी, ठाकरे, शिबू सोरेन.........................आप लिखते रहिए भारतीय राजनीति में वर्चस्व जमाए परिवारवाद की सूची, भारतीय लोकतन्त्र और राजशाही के पोषक नेताओं के कानों पर जूं भी नहीं रेंगने वाली. वंशवाद में आकंठ डूबे देश में सैकड़ों राजनीतिक परिवार ऐसे हैं, जिन्होंने भारतीय लोकतंत्र को जैसे अगवा कर अपने परिवार का बंधक बना रखा है. दुनिया के तथाकथित सबसे बड़े लोकतन्त्र की यह सबसे बड़ी त्रासदी है. हमारे नेताओं ने इस देश की जनता और हमारे लोकतन्त्र को अपनी व्यक्तिगत जागीर समझ ली है. अपना सबकुछ अपने परिवार के नाम ये नेता लिखकर चले जाना चाहते हैं............यह देश, लोकतन्त्र, हम और आप जाएं भाड़ में.

1 comment:

  1. You have hit the nail on its head.This democracy has never been more than a farce, a big joke, a political topic rather than being a real setup in the so called democratic India. J&K and almost all the north eastern states are currently under the umbrage of the army- is this democracy? The situation in these states actually depicts the weak political system in our country being run under the disguise of democracy. Politicians can rant about the terrorism in J&K as exported but what about the naxalism in other state; is this exported too. Naxalism blossoms when democracy fails. We have to learn the real meaning of democracy which transcends the process of mere casting the ballots and leave the rest to the mandate holders. This concept of democracy needs real extension where the netas have to be more answerable after being elected which just does not happen here. Long live democracy but honestly can't say the same about the democratic netas.

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