Wednesday, August 17, 2016

भारत के मुख्य न्यायाधीश की खीझ


            स्वतन्त्रता दिवस के पावन अवसर पर लाल किले की प्राचीर से प्रधान मन्त्री ने अपने संबोधन में जजों के रिक्त पदों के भरने के विषय में कुछ नहीं कहा; भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस टी.एस. ठाकुर इससे बहुत नाराज हैं। उन्होंने उसी दिन कानून मन्त्री और प्रधान मन्त्री पर कटाक्ष भी किया। अपनी बात कहने का यह कोई उपयुक्त अवसर नहीं था। इसमें उनकी कुण्ठा साफ झलक रही थी। न्यायपालिका में उपर से नीचे तक भयंकर भ्रष्टाचार व्याप्त है। पैसे वालों और पहुंच वालों के लिए हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से मनमाफिक फैसले लेना अब आम बात हो गई है। आतंकी याकूब मेनन के लिए सुप्रीम कोर्ट आधी रात को खुल सकता है लेकिन बुलन्द शहर के रेप विक्टिम का संज्ञान भी नहीं ले सकता। लालू यादव, जय ललिता, कन्हैया और सलमान खान उंगलियों पर न्यायालय को नचा सकते हैं, लेकिन साध्वी प्रज्ञा को जांच एजेन्सी की अनुशंसा के बाद भी ज़मानत नहीं मिल सकती। अब तो सुप्रीम कोर्ट कानून भी बनाने लगा है। भारत का क्रिकेट कन्ट्रोल बोर्ड एक स्वायत्तशासी संस्था है जो स्थापित नियम कानूनों के हिसाब से बनी है। सुप्रीम कोर्ट ने एक अवकाश प्राप्त न्यायाधीश से उसकी कार्य पद्धति की जांच करवाई और उसके संचालन के लिए खुद ही नियम भी बना दिए। यह काम विधायिका यानी संसद का था। लेकिन मुख्य न्यायाधीश के अहंकार ने सुप्रीम कोर्ट को विधायिका का रूप दे दिया। BCCI ने सुप्रीम कोर्ट में उसके पूर्व निर्णय के खिलाफ अपील की है जिसमें यह आग्रह किया गया है कि चूंकि मुख्य न्यायाधीश जस्टिस ठाकुर BCCI के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं, इसलिए उन्हें सुनवाई करने वाली पीठ में न रखा जाय। स्वतन्त्र भारत के इतिहास में शायद यह पहली घटना होगी जब वादी ने अपने प्रतिवेदन में मुख्य न्यायाधीश की निष्पक्षता पर साफ-साफ उंगली उठाई हो।
            जब मैं पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम का मुख्य अभियन्ता (प्रशासन) था, तो एक केस के सिलसिले में इलाहाबाद हाई कोर्ट में गया था। उसमें मेरे सिवा, मेरे एम.डी, पश्चिमांचल के एम.डी, उत्पादन निगम के अध्यक्ष और पारेषण के एम.डी. भी तलब किए गए थे। हमलोग पूरी तैयारी से दिन के पौने दस बजे ही कोर्ट में पहुंच गए थे, लेकिन न्यायाधीश महोदय दिन के साढ़े ग्यारह बजे कोर्ट में पहुंचे। मई का महीना था। गर्मी के कारण बुरा हाल था। उनके कोर्ट में बैठने की भी पर्याप्त व्यवस्था नहीं थी। हमलोग खड़े होकर अपनी बारी का इन्तज़ार कर रहे थे कि अपराह्न के डेढ़ बज गए। जज साहब लंच के लिए उठ गए। हमलोग गर्मी में ही मरते रहे। फिर जज साहब शाम के चार बजे प्रकट हुए और हमलोगों के केस की सुनवाई पांच बजे तक हुई, फिर अगली तारीख पड़ गई। कोर्ट का काम करने का समय खत्म हो चुका था, अतः जज साहब उठे और अपने घर चले गए। जिन मामलों की सुनवाई नहीं हो पाई थी, उन्हें अगली तारीख मिल गई। न्यायालयों में पेन्डिंग मामलों का एक कारण जजों की कमी तो है, लेकिन यह प्रमुख कारण नहीं है। कोर्ट में गर्मी की छुट्टियों से लेकर न जाने कितनी छुट्टियां होती हैं, हिसाब लगाना मुश्किल है। फिर जजों के काम करने की अवधि औसतन दो से तीन घंटे है। इसपर किसी का नियंत्रण नहीं है। मोदी जी भी कुछ नहीं कर सकते। इस लेख को लिखने के कारण मुझे भी अवमानना के मुकदमे का सामना करना पड़ सकता है।
            मोदी सरकार ने आते ही जजों की नियुक्ति के लिए गठित वर्तमान कालेजियम की त्रुटियों पर ध्यान दिया और संसद से एक बिल पास कराया जिसमें नए कालेजियम की व्यवस्था थी जिसमें जजों की नियुक्ति के लिए केन्द्रीय विधि मन्त्री और विपक्ष के नेता की भी सहभागिता और सहमति आवश्यक थी। बिल पर राष्ट्रपति के भी दस्तखत हो गए थे। नियमानुसार बिल कानून का रूप ले चुका था, परन्तु सुप्रीम कोर्ट ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर इसे रद्द कर दिया। एक प्रश्न चिह्न खड़ा हो गया कि संसद बड़ी है या सुप्रीम कोर्ट? सुप्रीम कोर्ट ने वर्तमान कालेजियम को पुराने स्वरूप में बनाए रखने का निर्णय सुना दिया। इस तरह सुप्रीम कोर्ट देश के राष्ट्रपति और जनता द्वारा चुनी गई संसद से भी बड़ा हो गया। दरअसल वर्तमान कालेजियम सिस्टम में जजों की नियुक्ति के संबन्ध में मुख्य न्यायाधीश को अपार अधिकार मिला हुआ है। कालेजियम में जजों के अतिरिक्त कोई दूसरा सदस्य नहीं हो सकता और कालेजियम सदस्य के रूप में जजों के चुनाव में मुख्य न्यायाधीश की ही चलती है। हाई कोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट के जज की नियुक्ति के लिए न कोई टेस्ट होता है और न कोई इन्टर्व्यू। परिवारवाद, जान-पहचान और अन्य साधनों से कालेजियम के सदस्यों को प्रभावित करके उनका समर्थन हासिल करना ही एकमात्र अर्हता है। नियुक्ति में पारदर्शिता का सर्वथा अभाव रहता है। भारत के मुख्य न्यायाधीश के संबन्ध में एक सूचना प्रस्तुत है। श्री टी.एस. ठाकुर, मुख्य न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट के पिताजी श्री देवी दास ठाकुर जम्मू और कश्मीर हाई कोर्ट के जज थे। हमारे मुख्य न्यायाधीश के छोटे भाई श्री धीरज सिंह ठाकुर इस समय जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायालय में न्यायाधीश हैं। ऐसा वंशवाद या परिवारवाद हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट, कांग्रेस या समाजवादी पार्टी में ही देखने को मिल सकता है। यह सब  जजों की नियुक्ति के लिए मौजूद वर्तमान कालेजियम की देन है। जो एक दिन के लिए भी सेसन कोर्ट या लोवर कोर्ट में जज नहीं रहा, वह सीधे हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट का जज बन सकता है। जस्टिस ठाकुर को यह डर है कि मोदी जी वर्तमान कालेजियम सिस्टम को भंग करने का कोई न कोई तरीका निकाल लेंगे इसीलिए वे प्रधान मन्त्री और विधि मन्त्री से खिझे रहते हैं। अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड में केन्द्रीय सरकार के विरोध में आया निर्णय तो एक बानगी है; आगे-आगे देखिए होता है क्या?

   हमें तो इतना ही कहना है कि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का पद उच्च संवैधानिक पद है, इसकी गरिमा का ध्यान मुख्य न्यायाधीश को रखना चाहिए। उन्हें केजरीवाल की तरह बयान देने से बचना चाहिए।

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