Sunday, November 27, 2016

हम नहीं सुधरेंगे

      भारत की पुलिस और भारत की रेलवे ने यह कसम खा रखी है कि “हम नहीं सुधरेंगे"। रेल मन्त्री सुरेश प्रभु के बारे में सुना था कि वे एक कर्मठ और संवेदनशील नेता हैं। प्रधान मन्त्री नरेन्द्र मोदी ने उनके इन्हीं गुणों को ध्यान में रखकर उन्हें रेल मन्त्री बनाया था, लेकिन पिछले ढाई सालों में रेलवे की गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं हुआ, उल्टे व्यवस्था बिगड़ती ही गई। पिछले रविवार को कानपुर के पास हुई रेल दुर्घटना ने दिल को झिंझोड़कर रख दिया। रेलवे द्वारा ट्रैकों के समुचित रखरखाव की कलई खुल गई। प्रधान मन्त्री तेज रफ़्तार ट्रेनों और बुलेट ट्रेन की बात करते हैं। क्या ऐसी ट्रेनें चलाना भारतीय रेल के लिए संभव है? कहावत है - Speed gives thrill but invites danger. रेलवे एक सफेद हाथी बन चुका है, जिसमें किसी सुधार की संभावना नहीं दिखाई दे रही। ट्रेनों की रफ्तार जिस गति से बढ़ेगी यात्रियों की मौत भी उसी रफ्तार से होगी। एक बहुत साधारण सा काम है - ट्रेनों का सही समय से परिचालन। लेकिन रेलवे को भारत की जनता के कीमती समय की कोई परवाह नहीं है। सुरेश प्रभु जी को मैंने फ़ेसबुक और ट्विटर के माध्यम से ट्रेनों के सही समय पर परिचालन के लिए कई बार लिखा, लेकिन आज तक न कोई सुधार हुआ और न ही उन्होंने कोई उत्तर देने की ज़हमत उठाई। इतने संवेदनशील हैं हमारे रेल मन्त्री। मेरे घर को एक ट्रेन जाती है - लिच्छवी एक्सप्रेस -- १४००५/१४००६। पिछले हफ्ते अप और डाउन दोनों ट्रेनें लगभग १२ घंटे विलंब से चलीं। आज भी यह उतने ही विलंब से चल रही है। यह ट्रेन कभी भी सही समय से नहीं चलती। मैंने इसे समय से चलाने के लिए रेल मन्त्री से कई बार आग्रह किया, लेकिन हर बार ढाक के तीन पात का ही परिणाम रहा।
ट्रेनों में आदमी पिज्जा और बर्गर खाने के लिए सफर नहीं करता। यात्री की एक ही अपेक्षा रहती है -- समय पर सुरक्षित अपने गंतव्य तक पहुंच जाना। रेलवे इस उद्देश्य में पूरी तरह नाकाम साबित हुआ है। भ्रष्टाचार भी चरम पर है। प्रतीक्षा सूची के यात्री ताकते रह जाते हैं और टीटीई पैसा लेकर दूसरों को बर्थ आवंटित कर देते हैं। पता नही सायबर कैफ़े वालों के पास कौन सा कोटा होता है कि वे किसी भी ट्रेन में किसी भी दिन का कन्फर्म टिकट निकाल लेते हैं। प्रधान मन्त्री के स्वच्छता अभियान को रेलवे ठेंगा दिखा रहा है। छोटे-छोटे रेलवे स्टेशन के शौचालय के पास से आपको नाक दबाकर निकलना पड़ेगा। जेनरल बोगी में सफर करने वालों को तो सरकार जानवर से भी बदतर मानती है। किसी भी लंबी दूरी के ट्रेन में जेनरल बोगी में बोरों की तरह भरे यात्रियों को किसी भी दिन देखा जा सकता है। लोग शौचालयों में अखबार बिछाकर बैठे मिलते हैं। यात्रियों को मल-मूत्र त्यागने की भी सुविधा नहीं मिलती। स्टेशनों पर जिसमें दिल्ली और मुंबई भी शामिल हैं, प्रतीक्षा कर रहे यात्रियों को बैठने के लिए पर्याप्त संख्या में बेन्च भी नहीं हैं। लोग फ़र्श पर ही बैठे देखे जा सकते हैं। 
इन्दिरा गांधी ने इमरजेन्सी में ढेर सारे अत्याचार किए थे, लेकिन इमर्जेन्सी को ट्रेनों के सही समय पर चलने के लिए आज भी याद किया जाता है। आखिर क्या कारण है कि मोदी राज में अधिकांश ट्रेनें लेट चल रही हैं? क्या यह समस्या नियंत्रण के बाहर है? यदि हां, तो रेल मन्त्री इसे स्वीकार करते हुए इस्तीफ़ा दें। अकेले मोदी क्या-क्या कर लेंगे। अगर उनके मन्त्रिमंडल में ऐसे नक्कारा मन्त्री हों तो अच्छे दिनों की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

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