Saturday, January 11, 2014

विवाह संस्था का सन्देश

  पिछले नवम्बर में अपने एक घनिष्ठ मित्र श्री गोविन्द अग्रवाल  के पुत्र के विवाह समारोह में सम्मिल्लित होने का सुअवसर प्राप्त हुआ। यह सुआयोजित कार्यक्रम लखनऊ में संपन्न हुआ जिसमें श्री गोविन्दाचार्य और श्री कलराज मिश्र जैसी विभूतियाँ भी उपस्थित थीं। मेरे मित्र के पूर्वज मूलत: हरियाणा के निवासी थे, अत: सारी रस्में हरियाणवी परंपरा और संस्कृति को समेटे हुए थीं। बारात जाने के दिन जिस एक रस्म ने मेरा सर्वाधिक ध्यान खींचा, वह थी - भाई द्वारा बहन को दी जाने वाली भात की रस्म --
सजी-धजी महिलाएं एक गोलाकार घेरा बनाकर मधुर स्वर में एक गीत गा रही थीं - मत बरसों इन्दर राजा मेरी माँ का जाया भीन्जे।
भाई-बहन के रिश्तों का माधुर्य और महत्ता को गीत की इस प्रथम पंक्ति में जितनी खुबसूरती से उकेरा गया है, उसका उदाहरण विरले ही मिलता है। अपने भाई और भाभी का विधिवत पूजन, वर की माँ द्वारा किया जा रहा था। भैया-भाभी काठ के एक पीढ़े पर खड़े थे। बहन ने उनको तिलक लगाकर, आरती उतारी और एक लम्बे रक्षासूत्र से दोनों को एक सूत्र में बांधा। हिन्दू विवाह-पद्धति में प्रत्येक रस्म एक गूढ़ सन्देश प्रेषित करता है। भात के रस्म के माध्यम से भाई मैके की तरफ से अपनी हैसियत के अनुसार और प्राय: उससे बढकर गहने, कपड़े और नकद का भेंट लाता है जिसे बहन सहर्ष स्वीकार करती है और तिलक, आरती तथा रक्षा सूत्र के माध्यम से भैया-भाभी के दीर्घजीवन, सम्पन्नता और एक सूत्र में बंधे रहने की कामना करतीं है। पहले पिता की संपत्ति में कन्या का अधिकार नहीं होता था, परन्तु ऐसी रस्मों के माध्यम से जीवन भर लड़की का हिस्सा उसतक पहुँचाया जाता था। इससे संबंधों में माधुर्य भी बना रहता था और सम्बन्ध भी प्रगाढ़ होते जाते थे। जिस तरह पश्चिम भारत  में भाई और भात की रस्म के बिना लड़के या लड़की के ब्याह की कल्पना नहीं की जा सकती, उसी तरह बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में भाई द्वारा अपनी बहन को इमली घोंटाने की रस्म के बिना विवाह का कार्यक्रम आगे बढ़ ही नहीं सकता। इसी दिन के लिए सभी हिन्दू बहनें भाई की कामना करती हैं।
अब महानगरीय आपाधापी में भले ही बड़े शहरों में समाज के सभी तबकों और सभी संबंधियों से सहयोग लेने और देने की भावना कम हो गई हो लेकिन रस्म अदायगी तो अब भी की जाती है। कस्बों और देहातों में सारी परम्पराएँ ज्यों की त्यों व्यवहार में लाई जाती हैं। जन्म से लेकर शादी-विवाह तक में बहन और बुआ का सर्वाधिक महत्त्व होता है। भोजपुरी लोकगीतों में आँख आंजने से लेकर लापर परिछने और विवाह के बाद पत्नी के साथ घर लौटने पर बहनों द्वारा द्वार-छेंकी की रस्म को भला कोई कैसे भूल सकता है! इन रस्मों के दौरान भाई-बहन और ननद-भौजाई के बीच के मनुहार से लोक साहित्य पटा पड़ा है। वाध्यता ऐसी है कि बिना  बहन और बुआ को संतुष्ट किये कार्यक्रम आगे नहीं बढ़ सकता है। रिश्तेदारों और सम्बन्धियों के अलावे गांव के सभी जातियों के अनिवार्य सहयोग को भी रस्मों का अंग बनाया गया है। धोबिन सुहाग देती है, हजामिन नाख़ून काटती है, चमारिन नार काटती है, कुम्हार कलश देता है, बढ़ई पीढ़ा बनाता है, हरीस देता है, लोहार हल का फाल देता है, सोनार गहने बनाता है, डोम मौर बनाता है, डाल देता है और सिंहा बजाकर बारात की रवानगी का निर्देश देता है। पंडितजी के मंत्रोच्चार के बिना तो विवाह हो ही नहीं सकता। सभी अपने हिस्से के रस्मों के लिए मुहमांगा न्योछावर लेते हैं। ये स्वस्थ परम्पराएँ सदियों से परस्परावलंबन का सन्देश दे रही हैं। परावलंबन निन्द्य है, स्वावलंबन प्रशंशनीय है पर परस्पर अवलम्बन अनुकरणीय है। यह परस्परावलंबन ही हमारे प्राचीन देश, समाज और संस्कृति को एकजुट रखने में अबतक प्रभावी रहा है।
हमारे समाज में शादी-ब्याह के समारोह सबसे शानदार और भव्य ढंग से मनाये जाते हैं। समाज का हर तबका अपनी औकात से ज्यादा खर्च करता है। क़र्ज़ लेकर फिजूलखर्ची का समर्थन तो कतई नहीं किया जा सकता लेकिन जो खर्च कर सकते हैं, उन्हें खर्च करने देना चाहिए। कैटरर, बैंड पार्टी, सजावट करने वाले, फूल वाले, आतिशबाजी वाले, शहनाई वाले........ ऐसे सैकड़ों छोटे कामगार हैं जिनका कोई नियमित व्यवसाय नहीं होता। उनकी  आजीविका शादी- ब्याह जैसे समारोहों पर ही पूर्णतया निर्भर है। फिर इन समारोहों पर खर्च किया गया पैसा किसी स्विस बैंक में भी नहीं पहुंचता। संघे शक्ति कलियुगे। परिवार, कुटुंब और समाज के मज़बूत संगठन के प्रोत्साहन में ये समारोह सदियों से ध्रुवतारा बनकर हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं।
आज जब एकल परिवार हमारी मज़बूरी बन गया है, ऐसे में हमारी स्वस्थ परम्पराओं का अगली पीढ़ी को पारेषण एक समस्या बन गई है। शादी-विवाह में सामूहिक एकत्रीकरण एवं सभी रस्मों और नियमों का सार्वजनिक पालन अगली पीढ़ी को प्रशिक्षित करने में काफी सहायक होता है। इन्हीं समारोहों के कारण हम आज तक अपनी सभ्यता, संस्कृति और स्वस्थ परम्पराओं को प्रभावी ढंग से अस्तित्व में रख पाए हैं। पहले सभी रिश्तेदार आस-पास ही रहते थे। लेकिन आज इस ग्लोबलैज़ेशन के युग में एक ही परिवार का एक सदस्य यूरोप में रहता है, दूसरा अमेरिका में, तो तीसरा हिंदुस्तान में ही दो हज़ार किलोमीटर की दूरी पर रहता है। अगर शादी- ब्याह न हो तो वर्षों तक एक दूसरे से कभी भेंट-मुलाकात न हो। कैसा है इन समारोहों में शामिल होने का आकर्षण की लोग-बाग लाखों खर्च करके आते है और कई दिनों तक रहकर अपनी सक्रीय भागीदारी करते हैं। संबंधों के नवीनीकरण का इससे सुन्दर कोई उपाय हो ही नहीं सकता।

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