Saturday, August 6, 2011

श्रीमद्भगवद्गीता और छद्म धर्मनिरपेक्षवादी - चर्चा-१



जबसे कर्नाटक और मध्य प्रदेश की सरकारों ने गीता के अध्ययन की विद्यालयों में व्यवस्था की है, स्वयं को प्रगतिशील और धर्म निरपेक्ष कहने वाले खेमे में एक दहशत और बेचैनी व्याप्त हो गई है। उनके पेट में दर्द होने लगा है। उनको यह डर सताने लग गया है कि अगर इसकी स्वीकृति हिन्दू धर्म के इतर भी हो गई, तो वे अपनी दूकान कैसे चला पाएंगे? गीता को विवादास्पद ग्रंथ घोषित करने के लिए इनलोगों ने एक अभियान-सा चला दिया है। जब से मैंने कहो कौन्तेय का एक अंक प्रतिदिन प्रवक्ता में देना आरंभ किया, अन्य विषयों पर लिखना ही बंद कर दिया था। समयाभाव मुख्य कारण था लेकिन इधर मैंने देखा कि कुछ स्तंभकारों द्वारा अपने हिन्दुत्व पर गर्व का दावा करते हुए हिन्दू धर्म ग्रंथों, यथा वेद, पुराण, उपनिषद, मनुस्मृति, रामायण, महाभारत, गीता........को आक्रमणकारी आर्यों की कृतियां बताकर, हिन्दुओं को इन्हें न मानने और आधुनिक समय के हिसाब से स्वयं को ढालने का परामर्श दिया जा रहा है। छद्म हिन्दुत्ववादियों से सावधान रहने की सलाह दी जा रही है। हिन्दू समाज को अगड़े, पिछड़े, अनुसूचित, आदिवासी आदि कई खेमों में तो हमारे संविधान और हमारे लोकतंत्र ने बांट ही रखा है, अब एक और खेमे में बांटने की तैयारी है - हिन्दू और आर्य अलग-अलग थे। इस देश के मूल निवासी हिन्दू थे और बाहर से आए आर्यों ने स्वयं को असली हिन्दू घोषित करके हिन्दुत्व का अपहरण कर लिया। बाद में इनलोगों ने (आर्यों ने) वेद, पुराण, गीता, रामायण आदि ग्रंथों की रचना करके, उनके माध्यम से अपने विचार और कर्मकाण्ड हिन्दू समाज पर इस तरह थोप दिया कि आज का हिन्दू इन्हें अपना ग्रंथ मानकर उनकी पूजा करने लगा। आर्यों को ये आक्रमणकारी और बाहर से से आया मानते हैं। इनके ज्ञान का आधार वही विदेशी लेखक हैं जिन्होंने सोची समझी रणनीति के तहत यह मिथ्या प्रचार किया। उद्देश्य था - एक झूठ को बार-बार कहकर सत्य के रूप में स्थापित करना। हिटलर की इस थ्योरी को हमारे देश के छद्म धर्म निरपेक्षवादियों ने आत्मसात कर लिया। इन्होंने सत्य का साक्षात्कार करने की कभी कोशिश ही नहीं की. इन्होंने डा. संपूर्णानंद (आर्यों का आदि देश), प्रो. राजबलि पाण्डेय को कभी पढ़ा ही नहीं। लोकमान्य तिलक और राहुल सांकृत्यायन को समझा ही नहीं। स्वातंत्र्यवीर सावरकर द्वारा लिखित भारतीय इतिहास के छ: स्वर्णिम पृष्ठ एवं पी. एन. ओक द्वारा लिखित इतिहास छूते ही इन्हें मलेरिया हो जाता है। इसके पीछे सोची समझी एक राजनीति है - भारत को एक सराय घोषित करना। भारत की सदियों पूर्व की राष्ट्रीयता को नकारना। आर्य बाहर से आए, मुसलमान भी बाहर से आए, यहूदी भी बाहर से आए, पारसी भी बाहर से आए, अंग्रेज भी बाहर से आए। इनके अनुसार भारत की अपनी कोई राष्ट्रीयता या पुरानी पहचान है ही नहीं। यहां रहने वाले सभी बाहरी हैं। इन पश्चिम परस्त तथाकथित प्रगतिशील लेखकों को यह पता ही नहीं है कि पश्चिम ने भी जब निष्पक्ष होकर अध्ययन किया तो पाया कि हिन्दू सभ्यता विश्व में सबसे पुरानी है। उनके अनुसार इसका अस्तित्व ५ लाख वर्ष पूर्व से है। लंदन के विश्वविख्यात ब्रिटिश म्युजियम के इंडियन गैलरी में एक शिलापट्ट पर यह सत्य स्वर्णाक्षरों में अंकित है। मैंने जुलाई, २००८ के अपने लंदन प्रवास के दौरान यह शिलापट्ट अपनी आंखों से देखा था। न चाहते हुए भी कहो कौन्तेय-११ के बाद कुछ दिनों के किए इसे विराम देना पड़ रहा है। श्रीमद्भगवद्गीता के विषय में सप्रयास फैलाई जा रही धारणाओं ने मुझे आहत किया है। इसलिए प्रथम मैं गीता पर ही चर्चा कर रहा हूँ ताकि विधर्मियों द्वारा फैलाई गई भ्रान्त धारणाओं का प्रभाव नष्ट किया जा सके।
इस समाज में कोई देवी-देवताओं की पूजा करता है, तो कोई भूत-प्रेत की। परिवार और संगी-साथी द्वारा की गई पूजा की अमिट छाप मस्तिष्क पर पड़ जाती है। देवी की पूजा मिली तो जीवन भर देवी-देवी रटता है, परिवार में भूत-पूजा मिली तो भूत-भूत रटता है। भूत-भूत रटते-रटते इन स्वघोषित प्रगतिशील लेखकों को हर तरफ भूत ही दिखाई देने लगा है। क्या कारण है कि ये समझ नहीं पाते या न समझने की दृढ़ प्रतिज्ञा कर रखी है? बाल की खाल निकालकर रटने पर भी क्यों वाक्य विन्यास ही इनके हाथ लगता है? क्यों ये सत्य से सप्रयास अपने को दूर रखते हैं? इनपर सिर्फ तरस खाया जा सकता है। ये दिग्भ्रान्त हैं। ऐसे भ्रान्त लोगों को गीता जैसा कल्याणकारी शास्त्र मिल भी जाय, तो वे उसे नहीं समझ सकते। पैतृक संपदा को कदाचित वे छोड़ भी सकते हैं, किन्तु दिल-दिमाग में अंकित मज़हबी पचड़ों को नहीं मिटा सकते। वे यथार्थ शास्त्र को भी अपनी ही रुढ़ियों, पूर्वाग्रहग्रस्त मानसिकता, मान्यता और साम्प्रदायिकता के चश्मे से देखने के लिए विवश हैं। यदि उनके अनुरूप बात ढलती है, तो ठीक; नहीं ढलती है, तो शास्त्र ही गलत। ऐसे पात्रों के लिए गीता-रहस्य, रहस्य ही बनके रह जाता है। इसके वास्तविक पारखी सन्त और सदगुरु हैं। वही बता सकते हैं कि गीता क्या कहती है। सब नहीं जान सकते। सबके लिए सुलभ उपाय यही है कि इसे किसी महापुरुष के सान्निध्य में समझें, जिसके लिए श्रीकृष्ण ने विशेष बल दिया है। गीता के अध्याय-१८ के ६७वें श्लोक में श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है -
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योभ्यसूयति
हे अर्जुन! तेरे हित के लिए कहे हुए इस गीता रूप परम रहस्य को किसी काल में भी न तो तपरहित मनुष्य के प्रति कहना चाहिए और न भक्तिरहित के प्रति तथा सुनने की इच्छा न रखनेवाले के प्रति; उसके प्रति भी नहीं जो मेरी (ईश्वर) निन्दा करता है।
आज गीता पुस्तक के रूप में सर्वसुलभ है, इसलिए इन छद्म धर्मनिरपेक्षवादियों को भी मिल गई है। बन्दर के हाथ में उस्तरा। मनचाही व्याख्या कर पत्र-पत्रिकाओं में छपवा रहे हैं।
क्रमशः

No comments:

Post a Comment