Friday, August 12, 2011

आरक्षण - संविधान की मूल प्रस्तावना का अपमान है



भारत के मूल संविधान की प्रस्तावना मूल रूप से अंग्रेजी में लिखी गई है। उसका हिन्दी अनुवाद भी उपलब्ध है, लेकिन विश्वसनीय संदर्भ के लिए अंग्रेजी प्रस्तावना ही दी जा रही है --
WE THE PEOPLE OF INDIA, having solemnly resolved to constitute India into a SOVEREIGN SOCIALIST DEMOCRATIC REPUBLIC and to secure to all its citizens --
JUSTICE, social, economic and political;
LIBERTY of thoughts, expression, faith and worship;
EQUALITY of status and opportunity;
and to promote among them
FRATERNITY assuring the dignity of individual and the unity and integrity of the Nation.
आरक्षण की व्यवस्था संविधान की मूल भावना का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन है। यह कीचड़ से कीचड़ धोने का प्रयास है। यह संविधान द्वारा प्रदत्त सबको समान अवसर उपलब्ध कराने की गारंटी का भी उल्लंघन है। यह प्राकृतिक न्याय (Natural Justice) के भी खिलाफ़ है। इसमें कोई दो राय नहीं कि दलित समाज को सदियों से उपेक्षा और दुर्व्यवहार ही प्राप्त हुआ है। भारत के स्वर्णिम काल में जाति-व्यवस्था नहीं थी। तब वर्ण-व्यवस्था थी। और वह भी जन्मना नहीं थी। समाज को चार वर्णों में वर्गीकृत किया गया था जिसका एकमात्र आधार गुण-कर्म होता था। सबसे निम्न वर्ण के व्यक्ति को भी यह छूट थी कि अपने गुणों का विकास करके वह दूसरे वर्ण में प्रवेश पा सकता था। महर्षि बाल्मीकि और महर्षि वेद व्यास इसके उदाहरण हैं। शूद्र माँ के गर्भ से पैदा होने के बावजूद भी इन्होंने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया। दूसरी ओर यह भी उदाहरण है कि देवराज इन्द्र के सिंहासन पर आसीन क्षत्रिय राजा नहुष को अपने कर्म का सम्यक पालन न करने के कारण अविलंब पदच्युत कर दिया गया। उन्हें मनुष्य योनि का भी अधिकारी नहीं माना गया। उन्हें सर्पयोनि में भेजा गया। श्रीकृष्ण स्वयं एक यादव थे। उनके घर में दूध-दही-मक्खन-घी का व्यवसाय होता था। उन्हें जन्मना वैश्य माना जाएगा लेकिन थे वे सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में कई श्रेष्ठ ब्राह्मण उपस्थित थे, लेकिन पितामह भीष्म की सलाह पर श्रीकृष्ण की ही अग्रपूजा की गई। कुरुक्षेत्र के धर्मक्षेत्र में उनके श्रीमुख से निकली वाणी ने श्रीमद्भगवद्गीता का रूप ले लिया।
सामाजिक कुरीतियां हर समाज में होती हैं लेकिन यह हिन्दू समाज का दुर्भाग्य था कि इसमें कुरीतियां कुछ ज्यादा ही प्रवेश कर गईं और दीर्घ काल तक बनी रहीं। अश्पृश्यता और जाति प्रथा इसी के कुपरिणाम थे। यह सत्य है कि दलित वर्ग को अनगिनत अत्याचारों का समना करना पड़ा है। फिर भी मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि अंग्रेजों द्वारा अश्वेत नस्ल पर ढाए गए अत्याचारों के सामने ये कुछ भी नहीं हैं। अमेरिका में अश्वेत लोगों को कोई नागरिक अधिकार नहीं था दास-प्रथा को कानूनी संरक्षण प्राप्त था। रोम में उच्च वर्ग मनोरंजन के लिए हब्सियों को शेर के पिंजड़े में धकेल कर जिन्दगी और मौत का तमाशा देखते थे। अमेरिका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि विश्व के अनेक देशों में जहां गोरों का वर्चस्व था, वहां की मूल जातियों की सामूहिक हत्या की गई। उनका नामोनिशान मिटा दिया गया। कुछ ही दशक पहले अमेरिका में कानून बनाकर दासप्रथा समाप्त की गई और पददलित अश्वेत आबादी को सामान्य अधिकार दिए गए। आज अश्वेत समाज कंधा से कंधा मिलाकर अमेरिका के विकास में सहयोग कर रहा है। खेल-कूद में तो इस समाज का लगभग एकाधिकार है वहां। इतने अत्याचार सहने और देखने के बावजूद भी वहां के अश्वेत आबादी ने कभी आरक्षण की मांग नहीं की। अमेरिका में किसी के लिए कोई आरक्षण नहीं है, तभी वह संसार का सबसे विकसित और शक्तिशाली राष्ट्र बन पाया। वहां अश्वेतों को अवसर न मिल पाने की कोई शिकायत नहीं है। आज एक अश्वेत वहां का चुना हुआ राष्ट्रपति है। वह आरक्षण से नहीं आया है, अपने दम पर, अपनी प्रतिभा के बल पर आया है।
कर्म और गुण से डा. भीमराव अम्बेडकर बीसवीं सदी के सबसे बड़े ब्राह्मण थे। भारत के संविधान के निर्माण में उनका योगदान सबसे महत्त्वपूर्ण था। उन्हें संविधान निर्माता के रूप में भी जाना जाता है। मूल संविधान में सिर्फ अनुसूचित जातियों और जन जातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान था, वह भी मात्र १० वर्षों के लिए। वे दूरदर्शी थे। वे जानते थे कि आरक्षण की बैसाखी अगर सदा के लिए किसी वर्ग या जाति को थमा दी जाय, तो वह शायद ही कभी अपने पैरों पर खड़ा हो पाएगा। सामान्य विकास के लिए स्वस्थ प्रतियोगिता अत्यन्त आवश्यक है। आरक्षित वर्ग इस खुली प्रतियोगिता से वंचित हो जाता है। यही कारण है कि इस वर्ग का बहुसंख्यक समाज आज भी अपनी पुरानी अवस्था में ही है। आरक्षण के मुख्य दोष निम्नवत हैं --
१. समाज में विभाजन
२. सामाजिक समरसता का लोप
३. आपस में द्वेष व वैरभाव
४. बहुसंख्यक समाज की युवा पीढ़ी में घोर असंतोष
५. प्रतिभा की उपेक्षा
६. अयोग्य लोगों की योग्य लोगों पर वरीयता
७. प्रतिभा पलायन
८. बेरोजगारों में कुंठा
९. कार्य-संस्कृति का ह्रास
१०. भ्रष्टाचार
११. सरकारी संस्थानों का सफेद हाथी के रूप में परिवर्तन
आज़ादी के बाद हमारे पास जाति व्यवस्था को समाप्त करने का स्वर्णिम अवसर था जिसे हमने गंवा दिया। मूल संविधान में राजनीति से प्रेरित अनेकों संशोधन करके जाति-व्यवस्था को ही संविधान सम्मत बना दिया। अवसर कम हैं, अभ्यर्थी ज्यादा। ऐसे में हर जाति आरक्षण चाहती है। गुर्जर और जाट जैसी समर्थ जातियां भी क्रमशः अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्ग में आरक्षण के लिए आए दिन धरना, प्रदर्शन और हिन्सा करते हैं। हफ़्तों ट्रेनें भी बंद कर देते हैं। पूरा जनजीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। अगर अनारक्षित वर्ग भी यही तरीके आरक्षण के विरोध में अपनाने लगे, तो देश का क्या होगा, समाज का क्या होगा? आरक्षण कही गृह-युद्ध का कारण न बन जाय। शिक्षा के क्षेत्र में भी आरक्षण लागू करके सरकार ने सारी सीमाएं तोड़ दी। अपने ही देश की युवा पीढ़ी को ज्ञान से वंचित कर दिया। क्या सारे अनारक्षित इतने संपन्न हैं कि वे अपने बच्चों को अमेरिका, इंगलैंड, आस्ट्रेलिया आदि देशों में, जहां आरक्षण नहीं है, भेज सकें? एक तरफ सरकार कहती है कि शिक्षा प्राप्त करना सभी नागरिकों का मौलिक अधिकार है, दूसरी ओर सारे विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में आरक्षण भी लागू करती है। मंशा स्पष्ट है -- अनारक्षितों को शिक्षा से वंचित करना। १०० में शून्य अंक पानेवाला छात्र प्रवेश पाता है और ७५ अंक पानेवाला छात्र सड़क पर टहलता है।
हर क्षेत्र में आरक्षण की व्यवस्था लागू करने से अच्छा है कि जो वंचित हैं, दलित हैं, साधनहीन हैं, गरीबी रेखा के नीचे हैं, उन्हें आर्थिक सहायता, छात्रवृति, निःशुल्क कोचिंग आदि प्रदान करके बैसाखी के बदले अपने पैरों पर खड़ा होने का विश्वास भरा जाय। एक अयोग्य शिक्षक अपने शिष्यों को क्या शिक्षा देगा? एक अयोग्य चिकित्सक मरीजों की कैसे चिकित्सा करेगा? एक अयोग्य इंजीनियर कौन सा राष्ट्रनिर्माण करेगा? सरकारी विभागों में अनुशासनहीनता बढ़ती जा रही है। प्रोन्नति में आरक्षण ने तो कार्य संस्कृति को ही चौपट कर दिया है। भ्रष्टाचार भस्मासुर का रूप ले रहा है। कहने के लिए भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है लेकिन भारत के अलावे कहां चुनाव क्षेत्र भी आरक्षित हैं? आरक्षित क्षेत्रों से कुछ जाति विशेष के प्रतिनिधि ही जब चुनाव लड़ेंगे, तो हमारे पास क्या विकल्प रह जाता है? हम अपने क्षेत्र से अपनी पसंद का प्रतिनिधि भी नहीं चुन सकते।
कुछ वर्ष पहले मेरे मित्र "विनोद" ने आरक्षण पर एक कविता लिखी थी, मैं उसे इस लेख के अंत में देना चाहूंगा -
यह धरती, नदी, नाले,
ये पर्वत, आकाश,
ये पौधे, वो फूल,
यह सूरज, प्रकाश।

ये हवा, वो खुशबू,
यह बारिश, वो मेघ,
यह चन्दा, वो तारे,
मेरा यह देश।

संसाधन, विकास,
अवसर व रास्ते,
सारे पराए हैं,
मेरे ही वास्ते।
प्रतिभा का धनी हूं,
योग्यता भरपूर है,
तुष्टिकरण आंधी में,
लक्ष्य बहुत दूर है।

सरकारी विभाग में,
इंजीनियर, प्रशासक,
सारे आरक्षित हैं,
सबकुछ है बंधक।

आरक्षण के कोटे से,
बेटा यदि होता,
आज की तारीख में,
बास बना होता।

आज भी अंधेरा है,
कल भी अंधेरा,
अंधेरा है कैरियर,
रोया सवेरा।

गैर अनुसूचित का,
एक योग्य बेटा हूं,
न्याय की फ़रियाद ले,
चौराहे पर लेटा हूं।

गर्भ के चुनाव में,
मैंने की गलती है,
यही तो है दोष मेरा,
यही भूल छलती है।
॥इति॥

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