Saturday, May 14, 2011

ध्वस्त हुआ बंगाल का लाल किला - मार्क्सवादी चारो खाने चित्त


कभी-कभी संयोग भी दुर्लभ होते हैं. १३ मई का संयोग भी कुछ ऐसा ही है. थ्येन आन मन स्क्वायर, बीजिंग ही नहीं, दुनिया का सबसे बड़ा चौराहा है. इसका क्षेत्रफल चार लाख वर्ग मीटर है. पूरी दुनिया के लोगों ने इसका परिचय तब प्राप्त किया, जब १३ मई १९८९ को चीनी छात्रों के एक विशाल समूह ने भूख हड़ताल की शुरुआत कर लोकतंत्र के लिए अपने अहिंसक आंदोलन को गति दी थी. लोकतंत्र के समर्थक उन शान्त प्रदर्शनकारियों पर कम्युनिस्ट सरकार के आदेश पर सेना ने अंधाधुंध गोलियां बरसाकर हजारों निहत्थे चीनियों को मौत के घाट उतार दिया था. अपने ही देशवासियों पर टैंक चलवा देने की यह पहली घटना थी. उस आन्दोलन को समर्थन देने के अपराध में शान्ति के लिए नोबेल पुरस्कार विजेता, विख्यात जन नेता लियू जिया ओबो आज भी नज़रबंदी की हालत में खुली हवा का इंतज़ार कर रहे हैं. हालांकि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने वर्षों पूर्व ही साम्यवादी सिद्धान्तों और माओ-मार्क्स से अपना पल्ला झाड़ लिया था, फिर भी दूसरे देशों की व्यवस्था को कम्युनिज़्म के नाम पर छिन्न-भिन्न करने के प्रयासों में कभी पीछे नहीं रही. कम्युनिस्ट पार्टी और लोकतंत्र का हमेशा से छ्त्तीस का आंकड़ा रहा है. आज भी चीन में लोकतंत्र की स्थापना हो जाय तो कम्युनिस्ट तानाशाही एक दिन भी नहीं टिक पाएगी. उसका पतन ठीक वैसे ही हो जाएगा, जैसे पश्चिम बंगाल में वामपंथियों का हुआ. थ्येन आन मन चौराहे के नरसंहार की तर्ज़ पर बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार ने सिंगूर और नन्दी ग्राम में हिंसा का कम नंगा नाच नहीं किया. ऐसा लग रहा है कि १३ मई, १९८९ को थ्येन आन मन स्क्वायर, बीज़िंग में हुए नरसंहार और सिंगूर तथा नन्दी ग्राम में मार्क्सवादी गुंडो की हिन्सा का बदला १३ मई, २०११ को बंगाल की जनता ने वामपंथियों से ले लिया.
इस्लामी तानाशाहों की तरह वामपंथी भी जनतंत्र के स्वाभाविक शत्रु होते हैं. भारत में इन्होंने लोकतंत्र का फ़ायदा उठाया - डबल रोटी पर मक्खन लगाने के लिए. पूर्व बंगाल के विस्थापित शरणार्थी ज्योति बसु के मुख्य मंत्री बनने के पहले उनके पुत्र चन्दन बसु की क्या औकात थी? आज वे बंगाल के अग्रणी पूंजीपति हैं. भूमिहीन किसानों को जमीन उपलब्ध कराने का दावा करने वाली वामपंथी सरकार का चेहरा उसी दिन पूरी तरह बेनकाब हो गया, जब अल्प वैयक्तिक लाभ के लिए पूंजीपतियों के हाथ की कठपुतली बनी बंगाल की सरकार ने सिंगूर और नन्दी ग्राम के गरीब किसानॊं की उपजाऊ जमीन का कौड़ी के मोल बलात अधिग्रहण कर लिया. हिंसक आन्दोलन से सत्ता प्राप्त होते न देखकर बड़ी मज़बूरी में भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों ने संसदीय व्यवस्था स्वीकार की थी. आज भी अधिकांश कम्युनिस्ट हिन्सा में विश्वास करते हैं. बिहार से झारखंड, बंगाल, उड़ीसा, छ्त्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश और महाराष्ट्र तक पहुंचा नक्सलवादी आन्दोलन विदेशी मदद से हार्ड कोर कम्युनिस्टों द्वारा ही चलाया जा रहा है. जो लोग संसदीय व्यवस्था की मलाई खा रहे हैं, उनका भी सक्रिय या मौन समर्थन इस आन्दोलन के लिए जगजाहिर है. वामपंथियों ने नक्सलवादियों की सहायता से आपातकाल में इन्दिरा गांधी के खिलाफ़ उपजे जन आक्रोश का फ़ायदा उठाकर १९७७ में बंगाल में सत्ता प्राप्त की थी. पिछले ३४ साल तक बंगाल में मार्क्सवादी कैडर का गुंडा राज्य रहा. कैडरों ने वहां कभी स्वतंत्र चुनाव होने ही नहीं दिया. क्रान्तिकारी मुख्य चुनाव आयुक्त टी. एन. शेषन भी वहां असफल रहे. चुनाव आयोग निष्पक्ष चुनाव के लिए तरह-तरह की तैयारी करता, लेकिन मार्क्सवादी उसकी काट पहले ही निकाल लेते. ज्योति बसु से धांधली का गुर सीखकर लालू यादव ने भी पड़ोसी राज्य बिहार पए लगातार १५ सालों तक राज्य किया. बिहार में तो जनता लालू के खिलाफ़ कभी-कभी आवाज़ उठा भी देती थी, लेकिन बंगाल में मार्क्सवादी कैडर के खौफ़ से जनता इतनी डरी हुई थी कि पोलिंग बूथ पर जाना ही छोड़ दिया. कलकत्ता में चुनाव के दिन बड़े-बड़े अपार्टमेंट के आगे कैडर पहरा देते थे कि कोई बाहर निकलकर मतदान न कर दे. बूथ कैप्चरिंग बंगाल के लिए आम बात थी. बंगाल बंद के दिन वामपंथी कैडर सड़क पर नंगा नाच करते थे. जनता घुटती रही और प्रतीक्षा करती रही. बंगाल को एक जुझारु विपक्ष की आवश्यकता थी, लेकिन मार्क्सवादियों से नूरा कुश्ती में मगन कांग्रेस ने संघर्ष के बदले चाटुकारिता संस्कृति को बढ़ावा दिया. जुझारु ममता बनर्जी को यह स्वीकार नहीं था. कांग्रेस ने उन्हें पार्टी से ही निकाल दिया. १४ साल के संघर्ष के बाद आज ममता ने ही मार्क्सवादियों को उन्हीं के गढ़ में धराशाई कर दिया. बंगाल का लाल किला ध्वस्त हो गया - मार्क्सवादी चारो खाने चित्त हो गए. इसका श्रेय दीदी के अलावे चुनाव आयोग को भी जाता है, जिसने पिछले दो चुनाव (लोकसभा और विधान सभा) अत्यन्त निष्पक्ष ढ़ंग से कराए. बंगाल की २९४ सदस्यीय विधान सभा में ममता बनर्जी की तृणमूल-कांग्रेस गठबंधन ने २२७ सीटें प्राप्त कर तीन-चौथाई से भी अधिक का बहुमत प्राप्त किया है. वामपंथी हाशिए पर हैं. ममता दीदी ने एक इतिहास रचा है. अकेले दम पर मार्क्सवादियों को धूल चटाई है. मुख्य मंत्री बुद्ध देव भट्टाचार्या जाधवपुर की अपनी सीट भी नहीं बचा पाए. अधिकांश मंत्री भी चुनाव हार गए हैं. ममता को इस चुनाव के बाद आत्ममुग्धता और अभिमान से बचना चाहिए, उन्हें अतिरिक्त सावधानी बरतनी होगी. मार्क्सवादियों ने अव्यवस्था, मनमानी और आर्थिक रूप से क्षत-विक्षत बेरोज़गार बंगाल की विरासत उनके लिए छोड़ी है. इस शर्मनाक हार के बाद वे चुप बैठेंगे भी नहीं. इसे पचा पाना उनके लिए कठिन होगा. बौखलाहट में वे कुछ भी कर सकते हैं. वे नक्सलवादी तौर-तरीके भी अपना सकते हैं. वे ममता-सरकार को अस्थिर करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा देंगे. लेकिन मज़बूत इच्छाशक्ति के साथ ईमानदार, निष्पक्ष, स्वच्छ और प्रभावी प्रशासन देकर ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल को उसका खोया गौरव वापस दिला सकती हैं. जब बिहार को लालू के कुशासन से मुक्त कराकर नीतिश पटरी पर ला सकते हैं, तो बंगाल को क्यों नहीं लाया जा सकता?

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