Wednesday, June 1, 2011

यह संवैधानिक पद


अपने देश में प्रत्येक राज्य के लिए केन्द्र सरकार द्वारा मनोनीत एक राज्याध्यक्ष का संविधान में प्रावधान है. इस राज्याध्यक्ष को ही राज्यपाल या गवर्नर कहते हैं. यह राज्य का सर्वोच्च संवैधानिक पद होता है. लेकिन इस पद पर नियुक्ति के लिए क्या आवश्यक योग्यताएं और गुण होने चाहिए, इसका कही भी सांगोपांग वर्णन नहीं है. व्यवहार में ऐसा व्यक्ति जो सत्तारुढ़ दल के हाई कमान का विशेष कृपापात्र हो, लेकिन चुनाव हार गया हो, केन्द्रीय मंत्रिमंडल में स्थान पाने में नाकाम रहा हो, सक्रिय राजनीति में अप्रासंगिक हो गया हो, को खाने-पीने और सम्मानजनक रोज़गार देने के लिए किसी राज्य का राज्यपाल बना दिया जाता है. विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की ही भांति राज्यपाल पद की रेवड़ी भी अपने वफ़ादारों को बांटने की परंपरा नेहरु युग से ही चली आ रही है. कहने के लिए तो राज्यपाल भारत के राष्ट्रपति का प्रतिनिधि होता है, लेकिन अक्सर वह केन्द्र में सत्तारुढ़ दल के विश्वस्त प्रतिनिधि के रूप में ही काम करता है. प्रायः राज्यपाल संविधान में वर्णित लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन कर जनता के द्वारा चुनी हुई राज्य सरकार के लिए मुसीबतें खड़ी करना ही अपना सबसे बड़ा कर्त्तव्य समझते हैं. भारत की संघीय व्यवस्था के लिए कही यह पद सबसे बड़ी चुनौती न बन जाय.
राज्यपाल पद का सबसे पहले दुरुपयोग पचास के दशक में आरंभ हुआ, जब केन्द्र की नेहरु सरकार के इशारे पर केरल की पहली गैर कांग्रेसी सरकार को जिसका नेतृत्व कम्युनिस्ट कर रहे थे, बहुमत रहते हुए बर्खास्त किया गया. उस समय कांग्रेस की अध्यक्ष इन्दिरा गांधी थीं. उन्हें गैर कांग्रेसी नेताओं और सरकार से जबर्दस्त व्यक्तिगत नफ़रत थी. उस सरकार को बर्खास्त करने के लिए राज्यपाल ने इन्दिरा गांधी को पसंद आनेवाली रिपोर्ट भेजी थी. पश्चिम बंगाल में जब ज्योति बसु पहली बार मुख्यमंत्री बने तो कांग्रेसी राज्यपाल धर्मवीर ने उनकी नाक में दम कर दिया था. जनता द्वारा लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी हुई बंगाल की सरकार को बर्खास्त करने के लिए उन्होंने न जाने कितने तिकड़म किए. विधान सभा सत्र के आरंभ में कैबिनेट द्वारा तैयार धन्यवाद भाषण को भी राज्यपाल ने पढ़ने से इन्कार कर दिया था. यह संविधान की अवहेलना थी, लेकिन केन्द्र द्वारा उनकी पीठ थपथपाई गई. जबतक धर्मवीर राज्यपाल रहे, मुख्यमंत्री ज्योति बसु का अधिकांश समय उनके दांव-पेंच से निपटने में ही व्यतीत होता रहा.
उत्तर प्रदेश के कुख्यात राज्यपाल रोमेश भंडारी को कौन भूल सकता है? उन्होंने भाजपा की बहुमत वाली सरकार, जिसका नेतृत्व कल्याण सिंह कर रहे थे, को एक झटके में बर्खास्त कर दिया और सूक्ष्म अल्पमत वाले लोकतांत्रिक कांग्रेस के जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री की शपथ दिला दी. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा ने राष्ट्रपति के सामने विधायकों की परेड कराई, लेकिन बात नहीं बनी. रोमेश भंडारी ने अपने कांग्रेसी आकाओं को खुश करने के लिए ही यह असंवैधानिक कृत्य किया था. भला हो इलाहाबाद हाई कोर्ट का जिसने जगदंबिका पाल की मुख्यमंत्री के पद पर नियुक्ति को ही अवैध घोषित कर दिया. कल्याण सिंह पुनः मुख्य मंत्री बने और जगदंबिका पाल के नाम को पूर्व मुख्यमंत्रियों की सूची से भी निकाल दिया गया. हाई कोर्ट का ऐसा ही आदेश था. केन्द्र सरकार ने इस कुकृत्य के बाद भी रोमेश भंडारी को वापस नहीं बुलाया. ऐसा ही कारनामा आंध्र प्रदेश में भी हुआ, जब राज्यपाल चेन्ना रेड्डी ने दो तिहाई बहुमत वाली एन टी रामाराव की सरकार को केन्द्र सरकार के इशारे पर बर्खास्त कर दिया. केन्द्र में जबतक कांग्रेस की निरंकुश सत्ता रही, जम्मू-कश्मीर को इन हालातों से बार-बार गुजरना पड़ा.
ताज़ी घटना कर्नाटक की है. सर्वोच्च न्यायालय के प्रख्यात वकील और पूर्व केन्द्रीय विधि मंत्री घोर कांग्रेसी हंसराज भारद्वाज वहां के राज्यपाल हैं. उनको भाजपा की सरकार को अस्थिर रखने के विशेष मिशन के तहत ही वहां भेजा गया है. जब से उन्होंने पद संभाला कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदुरप्पा का जीना हराम कर दिया. पिछले हफ़्ते उन्होंने राज्य सरकार को बर्खास्त कर, विधान सभा को निलंबित रखते हुए राज्यपाल शासन (राष्ट्रपति शासन) की संस्तुति की थी. मुख्यमंत्री को शुरु से ही विवादित बनाने में उन्होंने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी. सभी गैर भाजपाई येदुरप्पा को नापसंद करते हैं, वे विवादित हो भी सकते हैं लेकिन यह निर्विवाद है कि उन्हें आज भी विधान सभा में बहुमत प्राप्त है. राज्यपाल ने उन्हें विधान सभा का सत्र बुलाने की भी अनुमति नहीं दी. अगर बहुमत का फ़ैसला विधान सभा में नहीं होगा, तो क्या राजभवन में होगा? भाजपा भी अब कमजोर नहीं है. राष्ट्रपति के सामने विधायकों की एक बार फिर परेड कराई गई. भ्रष्टाचार के आरोपों से चहुंओर घिरी केन्द्र सरकार की हिम्मत नहीं हुई कि राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर येदुरप्पा सरकार को बर्खास्त करे. रिपोर्ट कूड़ेदान में डाल दी गई लेकिन एक अनुत्तरित प्रश्न आज भी वातावरण में तैर रहा है - राज्यों में राज्यपाल पद की आवश्यकता है भी क्या?

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