Sunday, February 14, 2016

नेताओं का देशद्रोही आचरण

दिल्ली के जामिया नगर में स्थित बटाला हाउस में दिनांक १९, सितंबर, २००८ को आतंकवादी संगठन इंडियन मुज़ाहिदीन के आतंकवादियों के खिलाफ़ एक एनकाउन्टर किया गया था। इस अभियान का नेतृत्व दिल्ली पुलिस के इंसपेक्टर मोहन चन्द शर्मा ने किया था। इसमें दो आतंकवादी, आतिफ़ अमीन और मोहम्मद साज़िद मारे गए, दो अपराधी मोहम्मद सैफ़ और जीशान गिरफ़्तार किए गए और एक आतंकवादी आरिज़ खान भागने में सफल रहा। इस अभियान में बहादुर पुलिस आफिसर मोहन चन्द शर्मा शहीद हुए। इन आतंकवादियों ने दिल्ली में छः दिन पहले ही, दिनांक १३, सितंबर, २००८ को सिरियल बम ब्लास्ट किया था, जिसमें ३० नागरिक मारे गए थे तथा १०० घायल हुए थे। आतिफ़ अमीन इंडियन मुज़ाहिदीन का चीफ़ बंबर था। उसने २००७ से लेकर २००९ तक दिल्ली, अहमदाबाद, जयपुर, सूरत और फ़ैज़ाबाद में हुए बम धमाकों की न सिर्फ योजना ही बनाई थी बल्कि अन्जाम भी दिया था। वह मोस्ट वान्टेड अपराधियों की सूची में शामिल था।
            देश में हो रहे सिरियल  बम  विस्फोटों से मरनेवालों के प्रति सहानुभूति व्यक्त करने के बदले कुछ मानवाधिकार संगठन, जामा मिलिया विश्वविद्यालय के शिक्षक-छात्र और वोट के सौदागर नेतागणों ने बटाला हाउस के एनकाउन्टर को फ़र्ज़ी घोषित किया और शहीद मोहन चन्द शर्मा को ही अपराधी घोषित कर दिया। भांड मीडिया ने भी भी खूब बवाल मचाया। आपनी ही पार्टी के कार्यकाल में घटित इस घटना के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने माफ़ी मांगी और आतंकवादियों के घर जाकर आंसू भी बहाए। घटना को इतना तूल दिया गया कि दिल्ली हाईकोर्ट ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को इस घटना की जांच कर दो महीने में अपनी रिपोर्ट देने का आदेश पारित किया। मानवाधिकार आयोग ने सघन जांच के उपरान्त दिनांक २२, जुलाई, २००९ को अपनी रिपोर्ट पेश की। आयोग ने एन्काउन्टर को सही बताया तथा दिल्ली पुलिस को क्लीन चिट भी दी। बाद में स्व. मोहन चन्द शर्मा को मरणोपरान्त उनके अद्भुत शौर्य के लिए राष्ट्रपति द्वारा अशोक चक्र भी प्रदान किया गया। राहुल, सोनिया, मुलायम, मायावती, येचुरी और ओवैसी तब भी आतिफ़ अमीन के लिए आंसू बहाते रहे।
            ऐसी ही एक घटना दिनांक १५, जून, २००४ को अहमदाबाद के बाहरी क्षेत्र में हुई। अभी-अभी, अदालत को दी गई अपनी गवाही में कुख्यात आतंकवादी डेविड हेडली ने यह स्वीकार किया है कि कि उस मुठभेड़ में मारी गई महिला इशरत जहां लश्करे तोयेबा की आत्मघाती हमलावर थी। वह और उसके तीन साथी, ज़ावेद शेख, ज़िशान जौहर और अमज़द अली राणा तात्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की हत्या की योजना और उद्देश्य से अहमदाबाद आए थे। सब के सब पुलिस के साथ मुठभेड़ में मारे गए। अमेरिका से वीडियो कांफ्रेंसिंग के द्वारा मुंबई कोर्ट को दी गई हेडली की गवाही के बाद कहने को कुछ भी नहीं रह जाता। लेकिन देशद्रोह की इस घटना को भी नरेन्द्र मोदी को बदनाम करने के लिए बुरी तरह उपयोग में लाया गया। पूरे देश में हाय-तोबा मचाई गई। कांग्रेस के नेता, विशेष रूप से सोनिया और राहुल इसमें सबसे आगे थे। बिहार के मुख्य मंत्री ने तो इशरत जहाँ को बिहार की बेटी घोषित किया | केन्द्रीय जांच एजेन्सियों का जबर्दस्त दुरुपयोग किया गया। गृह मंत्रालय के जिम्मेदार अधिकारियों के विरोध के बावजूद सन्‌ २०१३ में सीबीआई की जांच बिठाई गई। मोदी और अमित शाह को फंसाने के लिए जमीन-आसमान एक किए गए। कई कर्त्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारियों को मुअत्तल किया गया और उन्हें जेल की हवा भी खिलाई गई। हेडली के खुलासे के बाद केन्द्र सरकार की विश्वसनीय गुप्तचर एजेन्सी आई.बी. के पूर्व निदेशक राजेन्द्र कुमार ने दिनांक १३, फरवरी, २०१६ को यह सनसनीखेज रहस्योद्घाटन किया है कि सोनिया गांधी के निर्देश पर उनके राजनीतिक सचिव अहमद पटेल ने आईबी को निर्देश दिया था कि चाहे जैसे हो नरेन्द्र मोदी को इस मामले में फंसाओ। इसके लिए अगर तथ्यों की अवहेलना करनी पड़े, तो वो भी किया जाये। जिन कर्त्तव्यनिष्ठ अधिकारियों ने गलत काम करने से मना किया उन्हें सीबीआई द्वारा फ़र्ज़ी मामलों में फंसाया गया। राजेन्द्र कुमार भी इसके शिकार रहे। एक ईमानदार पुलिस अधिकारी बंजारा आठ साल जेल में रहने के बाद हाल ही में बाहर आए हैं। हेडली की गवाही के बाद श्री कुमार ने सीबीआई के उन अधिकारियों और कांग्रेस के उन नेताओं को अदालत में घसीटने की घोषणा की है जिन्होंने उन्हें फ़र्ज़ी मामलों में फंसाने की कोशिश की।

            तीसरी आंख खोलनेवाली घटना कुछ ही दिन पूर्व जे.एन.यू. में घटी। वैसे तो यह विश्वविद्यालय अपनी स्थापना के समय से ही राष्ट्रविरोधी गतिविधियों का केन्द्र रहा है, लेकिन हाल की घटना ने तो सारी हदें पार कर दी। विद्यार्थियों, छात्रसंघ के अध्यक्ष और शिक्षकों की उपस्थिति में कुख्यात आतंकवादी अफ़ज़ल गुरु की बरसी मनाई गई, उसे शहीद घोषित किया गया, कश्मीर की आज़ादी के लिए नारे लगाए गए, भारत को बर्बाद करने का संकल्प लिया गया, पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगाए गए और राष्ट्रवाद को जी भरकर गालियां दी गईं। समझ में नहीं आ रहा था कि इसका नाम जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (JNU) है या जेहादी नक्सल यूनिवर्सिटी? देशव्यापी विरोधों से सचेत हुई केन्द्र सरकार अचानक नींद से जागी और विश्वविद्यालय से कुछ देशद्रोही छात्रों को देशद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार किया गया। मार्क्सवादियों और कांग्रेसियों को रोटी सेंकने का अच्छा मौका मिल गया। सीताराम येचूरी और राहुल गांधी तत्काल अराजक और देशद्रोही छात्रों की हौसल अफ़जाई के लिए परिसर में पहुंच गए। ये राजनेता मोदी के सत्ता में आने के कारण इतना बौखला गए हैं कि राष्ट्रविरोधी शक्तियों का समर्थन करने और उनका साथ देने में  इन्हें तनिक भीशर्म नहीं आती। वैसे भारत का इतिहास देखने के बाद कोई विशेष आश्चर्य नहीं होता है। अंग्रेजों के शासन-काल में भी एक वर्ग ऐसा था जो आंख बंदकर उनका समर्थन करता था। उन्हें राय बहादुर, खान बहादुर और सर की उपाधि से नवाज़ा जाता था। आज भी यह कहने वाले मिल जायेंगे कि अंग्रेजों का राज्य आज़ादी से अच्छा था।

Friday, February 12, 2016

बेलगाम राष्ट्रद्रोह


            कभी-कभी लगता है कि हम विचार-अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के काबिल नहीं है। जब भी यह अधिकार बिना रोकटोक के हमें प्राप्त हुआ है, हमने इसका जमकर दुरुपयोग किया है। सन्‌ १९७५ में इन्दिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपात्‌काल में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पूरी तरह छीन ली गई थी। कुलदीप नय्यर को छोड़ अधिकांश पत्रकारों ने इन्दिरा गांधी की प्रशंसा में ताजमहल खड़े कर दिए थे। चाटुकारिता की सारी सीमाओं को तोड़ते हुए खुशवन्त सिंह ने तो संजय गांधी को Illustrated weekly पत्रिका का Man of the year भी चुना था। यह बात दूसरी है कि खुशवन्त सिंह के ही पाठकों ने उन्हें बाद में Chamacha of the year घोषित किया। आज भी आपात्‌काल के प्रशंसक मिल जायेंगे। अभीतक कांग्रेस, सोनिया या राहुल ने आपात्‌काल में किए गए अत्याचारों के लिए देशवासियों से माफ़ी नहीं मांगी है।
            इसके विपरीत भाजपा जब भी सत्ता में आती है, इमरजेन्सी को याद करते हुए देशवासियों को कुछ जरुरत से ज्यादा ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दे देती है। जनसंघ से लेकर भाजपा तक की यात्रा में इस पार्टी पर सांप्रदायिकता के आरोप को चस्पा करने के लिए सभी दल अथक प्रयास करते रहे। वामपंथी बुद्धिजीवियों और विदेशी पत्रों के लिए पत्रकारिता करनेवाले पत्रकारों की इसमें अहम्‌ भूमिका रही। जो लोग पानी पी-पीकर जनसंघ को सांप्रदायिक कहते थे, मौका मिलने पर उसी के साथ सरकार भी बनाई। मुझे १९६७ के वो दिन भी याद हैं, जब बिहार में महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी थी और जनसंघ तथा कम्युनिस्ट, दोनों ही सरकार में शामिल थे। आज की तारीख में भाजपा के धुर विरोधी लालू यादव भाजपा/जनसंघ के ही समर्थन से पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे। नीतीश, ममता, नवीन पटनायक, शरद पवार, शरद यादव, मुलायम, मायावती, जयललिता, करुणानिधि, चन्द्रबाबू नायडू का इतिहास बहुत पुराना नहीं हैं। इन नेताओं को जब भाजपा को साथ लेकर सत्ता की मलाई चखनी होती है, तो भाजपा धर्म निरपेक्ष हो जाती है, बाकी समय सांप्रदायिक रहती है। बार-बार सांप्रदायिकता का आरोप लगाने से इन नेताओं ने एक सफलता तो प्राप्त कर ही ली, और वह है - स्वयं भाजपा के मन में सांप्रदायिकता की ग्रंथि का निर्माण। भाजपा ने इस ग्रंथि से मुक्त होने के लिए क्या नहीं किया? राम मंदिर के निर्माण से प्रत्यक्ष किनारा किया, धारा ३७० को दरकिनार करके कश्मीर में पीडीपी के साथ गठबंधन किया, समान नागरिक संहिता को ठंढे बस्ते में डाल दिया, भारत की जगह इंडिया को अपनाया ......... आदि, आदि। लेकिन विरोधियों के स्वर कभी भी मद्धिम नहीं पड़े। अटल बिहारी वाजपेयी तो सांप्रदायिकता से इस कदर आक्रान्त थे कि जब  कांग्रेसी और वामपंथी उनके लिए कहते थे - A right man in wrong party, तो उन्हें  बड़ी खुशी होती थी | अपने को असांप्रदायिक सिद्ध करने के लिए उन्होंने जनसंघ का सिद्धांत ही बदल दिया। भाजपा को उन्होंने गांधीवादी समाजवाद का पोषक घोषित किया। इसके बावजूद भी उन्हें लोकसभा में मात्र २ सीटों पर संतोष करना पड़ा। जनता भाजपा को कांग्रेस या समाजवादी पार्टियों की कार्बन कापी के रूप में नहीं देखना चाहती थी। भला हो विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष स्व. अशोक सिंहल का, जिन्होंने राम मन्दिर आन्दोलन चलाकर भाजपा में नई जान फूंकी। इस आंदोलन का ही परिणाम था कि अटल बिहारी वाजपेयी प्रधान मंत्री बने। उन्होंने फसल जरूर काटी, लेकिन आन्दोलन में उनका योगदान कुछ विशेष नहीं था। उनको प्रधान मंत्री बनाने के पीछे भी भाजपा की हीन ग्रंथि ‘सांप्रदायिकता’ ही काम कर रही थी।
            भाजपा के इतिहास मे नरेन्द्र मोदी पहले ऐसे नेता हुए जिन्होंने सांप्रदायिकता के आरोप को ही  अपना अस्त्र  बना लिया। गुजरात में तीन-तीन आम चुनावों में उनकी शानदार जीत ने उनका मनोबल तो बढ़ाया ही देशवासियों के मन में भी उम्मीद की नई किरण भर दी। २०१४ के लोकसभा के आम चुनाव राष्ट्रवाद के उदय की एक अलग कहानी कह रहे थे। विरोधी मोदी पर सांप्रदायिकता का आरोप जितने जोरशोर से लगाते, जनता में उतना ही ध्रुवीकरण होता। विरोधियों का यह हथियार अपना पैनापन खो चुका था। मोदी के विकास के एजेंडे ने इसकी धार कुंद कर दी। वे मोदी को सत्ता में आने से तो नहीं रोक सके, लेकिन काम करने से तो रोक ही सकते थे। उन्होंने एक काल्पनिक अस्त्र का आविष्कार किया - असहिष्णुता। बिहार के चुनाव में इस अमोघ अस्त्र का जमकर प्रयोग किया गया। पुरस्कार वापसी से लेकर धरना-प्रदर्शन तक के असंख्य नाटक किए गए। दुर्भाग्य से बिहार चुनाव के परिणाम भाजपा के पक्ष में नहीं गए। ‘असहिष्णुता’ के अस्त्र को नई धार मिल गई और मोदी जैसा योद्धा भी बैकफ़ुट पर आ गया। परिणाम यह हुआ कि विचार अभिव्यक्ति के नाम पर संविधान की धज्जियां उड़ाना और देशद्रोह की बातें सार्वजनिक रूप से करना आम बात हो गई। बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओं का मज़ाक उड़ाते हुए चौराहे और पार्कों में बीफ़ पार्टी के आयोजन को भारत का संविधान क्या अनुमति देता है? भारत सरकार खामोश रही। अकबर ओवैसी और आज़म खान जनसभाओं में हिन्दुओं के कत्लेआम की बात करते हैं, कानून कुछ नहीं करता। जे.एन.यू. में न्यायालय द्वारा घोषित आतंकवादी अफ़ज़ल गुरु की बरसी मनाई जाती है और लाउड स्पीकर से भारत को बर्बाद करने का संकल्प लिया जाता है, भारत सरकार चुपचाप देखती भर रह जाती है। देशद्रोहियों की ये गतिविधियां संभावित थीं। इसीलिए विश्वविद्यालय प्रशासन ने ऐसे कार्यक्रम की अनुमति प्रदान नहीं की थी। समझ में नहीं आता कि जे.एन.यू.  दिल्ली में है या श्रीनगर में? जे.एन.यू.  भिंडरावाले का अकाल तख़्त बनता जा रहा है| अभीतक ये देशद्रोही सलाखों के पीछे क्यों नहीं पहुंचाए गए?

            ‘सांप्रदायिकता’ की हीन ग्रन्थि से ग्रस्त भाजपा की पिछली सरकारों की तरह मोदी सरकार भी ‘असहिष्णुता’ की हीन ग्रन्थि से ग्रस्त प्रतीत होती है। सरकार डरी हुई लग रही है कि कार्यवाही करने से पुरस्कार वापसी का ड्रामा फिर से न शुरु हो जाय। लेकिन अति सर्वत्र वर्जयेत। सरकार की अति सहिष्णुता अन्ततः असहिष्णुता को ही बढ़ावा देनेवाली सिद्ध होगी। इसका फायदा देशद्रोही और असामाजिक शक्तियां ही उठायेंगी क्योंकि हम अत्यधिक विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के आदी नहीं हैं। हम अपने अधिकारों की बात तो करते हैं, परन्तु कर्त्तव्यों के प्रति सदा से उदासीन रहे हैं। सरकार की सहिष्णुता बेलगाम राष्ट्रद्रोह को प्रोत्साहित कर रही है।

Wednesday, January 27, 2016

सांप्रदायिकता, असहिष्णुता और मोदी




  भाजपा और जनसंघ पर इनके जन्म के साथ ही सांप्रदायिकता का आरोप लगाने का जो सिलसिला आरंभ हुआ था, वह नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद अचानक ठप्प हो गया। लेकिन प्रधानमंत्री बनने के पहले इस व्यक्ति को सांप्रदायिक सिद्ध करने के देश और विदेश में जितने प्रयास किए गए, उतने आजतक नहीं किए गए थे। किसी ने उन्हें सांप्रदायिक कहा तो किसी ने तानाशाह। एक बड़ी नेता ने तो उन्हें मौत का सौदागर तक कहा। तात्कालीन केन्द्र सरकार ने उनका राजनैतिक भविष्य समाप्त करने के लिए सिट बैठाया, आयोग बैठाया और सेशन कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक मुकदमों की झड़ी लगा दी। सेकुलरिस्टों ने अमेरिकी राष्ट्रपति को पत्र भी लिखा कि ऐसे व्यक्ति को वीज़ा न दिया जाय, नहीं तो वह वहाँ पहुँचकर अमेरिका की पवित्र धरती को भी अपवित्र कर देगा। विगत लोकसभा के चुनाव में देसी-विदेशी, तरह-तरह के हथकंडे अपनाकर सेकुलरिस्टों ने मोदी की आँधी रोकने की कोशिश की। लेकिन उनके तमाम आरोपों को भारत की जनता ने खारिज़ कर दिया और पूर्ण बहुमत देकर  उनके गाल पर करारा तमाचा जड़ दिया। विभिन्न न्यायालयों ने भी उन्हें बेदाग घोषित किया।
            पिछले डेढ़ सालों से केन्द्र सरकार के लोकहित और लोकप्रिय कार्यक्रमों ने सेकुलरिस्टों की आँखों की नींद उड़ा दी है। देश और विदेश, दोनों में मोदी के नाम का डंका बज रहा है। न कोई २-जी हो रहा है, न ४-जी; न कोयला जी हो रहा है, न कामनवेल्थ जी। मोदी जी के सफाई-कार्यक्रम से खानदानी रईस और उनके दरबारी बौखला-से गए हैं। उन्हें अपनी सफाई का डर इस कदर सताने लगा है कि आका के इशारे पर बड़ी मिहनत और कुशल चाटुकारिता से अर्जित पुरस्कार तक लौटाने का निर्णय  ले डाला। बात तब भी नहीं बनी। न ओबामा ने वीज़ा रोकने का निर्णय लिया, न पुतिन ने निमंत्रण वापस लिया। और तो और जापान और फ्रांस के राष्ट्रपति बनारस और दिल्ली आकर पीठ भी ठोक गए। चारों तरफ से निराश इन कथित सेकुलरिस्टों ने एक पुराने हथियार को नया रूप दिया, सान चढ़ाया और मैदान में पुनः डट गए। बहुत सोच समझकर इसे "असहिष्णुता” का नाम दिया गया। यह सांप्रदायिकता का ही दूसरा नाम है। ये लोग यह भूल गए की इमरजेन्सी को प्रत्यक्ष झेलने वाली पीढ़ी अभी जिन्दा है। कोई कैसे भूल सकता है कि आपात्काल में जय प्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चरण सिंह, चन्द्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवानी जैसे सैकड़ों नेता, लाखों कार्यकर्ताओं के साथ बेवज़ह जेल में डाल दिए गए थे। इनपर मीसा (Maintenance of Interanal Security Act) और डीआईआर (Defence of India Rule) की खतरानाक धारायें लगाई गईं ताकि उन्हें ज़मानत न मिल सके। मीसा में तो आरोप-पत्र भी दाखिल करना आवश्यक नहीं था। बंदी को उसके परिवार को बिना सूचना दिए अज्ञात स्थान पर बिना किसी समय सीमा के बंदी बनाकर रखा जा सकता था। जय प्रकाश नारायण जैसे नेता को जेल में इतनी यातना दी गई कि रिहाई के कुछ ही समय के बाद वे स्वर्ग सिधार गए। मेरे कई मित्रों का कैरियर तबाह हो गया। मुसलमानों की ज़बर्दस्ती नसबंदी की गई। सारे समाचार पत्रों पर बेरहमी से सेंशरशीप लागू की गई। जिन पत्रकारों या संपादकों ने बेअदबी करने की गुस्ताखी की, जेल की सलाखों के पीछे पहुँचा दिए गए। मुझे घोर आश्चर्य होता है कि जिस जय प्रकाश नारायण से देश की सुरक्षा को इतना खतरा था, उन्हें भारतरत्न से सम्मानित किया गया और राष्ट्र की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बने और मीसा में जेल में बंद मोररजी भाई, चरण सिंह, चन्द्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी और नरेन्द्र मोदी को देश का प्रधान मंत्री बना दिया गया। देश फिर भी नहीं टूटा। इन्दिरा गाँधी की आत्मा कितनी दुखी हो रही होगी! आज वही लोग  असहिष्णुता का पाठ पढ़ा रहे हैं।
            असहिष्णुता का हथियार लेकर मैदान में उतरने वाले जड़ से कटे इन नेताओं को फिर मुँह की खानी होगी, क्योंकि असहिष्णुता (Intolerance) का अर्थ न भारत की जनता को मालूम है, और न मालूम करना चाहती है। जहां तक मेरी बात है, मैं तो आपात्काल की सहिष्णुता का मुरीद हूँ।

Friday, January 22, 2016

आत्महत्या दलित की या पिछड़े की

     यह हमारा ही देश है, जहाँ अन्तिम संस्कार करने के पहले मृतक की जाति पता की जाती है। हैदराबाद में एक छात्र ने आत्महत्या क्या की, जाति की राजनीति पूरे देश में गरमा गई। इलेक्ट्रानिक और प्रिन्ट मीडिया ने छात्र को दलित बताकर धर्मयुद्ध छेड़ दिया। सारे नेताओं को अपनी-अपनी राजनीति चमकाने का एक स्वर्णिम अवसर प्राप्त हो गया। देश की सहिष्णुता खतरे में पड़ गई। जो साहित्यकार धार्मिक असहिष्णुता के नाम पर अपना पुरस्कार वापस नहीं कर पाए थे, वे आगे आ गए। एक ने तो बिना थिसिस लिखे प्राप्त पीएच. डी. की डिग्री भी वापस कर दी। तभी मीडिया ने खबर दी कि आत्महत्या करने वाला छात्र दलित नहीं, पिछड़े वर्ग का था। कोई और यह खुलासा करता, तो उसे आर.एस.एस. या स्मृति इरानी का एजेन्ट करार दिया जाता, लेकिन सहिष्णुओं के दुर्भाग्य से यह रहस्योद्घाटन, आत्महत्या करने वाले छात्र रोहित वेमुला के सगे पिता वेमुला मणि कुमार ने किया है। रोहित के पिता ने कुछ ऐसे रहस्य बताए हैं जिसके आधार पर अगर रोहित ज़िन्दा होता, तो उसपर धोखाधड़ी का आपराधिक मुकदमा चल सकता था।
रोहित के पिता ने शुक्रवार, दिनांक २२, जनवरी, २०१६ को हैदराबाद में मीडिया के सामने यह खुलासा किया है कि रोहित दलित नहीं था, बल्कि पिछड़े वर्ग (ओबीसी) का था। उनके पुत्र ने कैसे अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र हासिल कर लिया, उन्हें ज्ञात नहीं। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि उनकी जाति ‘वड्डेरा’ आन्ध्र प्रदेश सरकार द्वारा अधिसूचित BC-A के अन्तर्गत पिछड़ी जाति में सम्मिलित है। रोहित के पिता के अनुसार दसवीं कक्षा तक रोहित का नाम मल्लिक चक्रवर्ती पंजीकृत था। उन्हें पता नहीं कि कब और क्यों उसका नाम मल्लिक से बदलकर रोहित कर दिया गया। गुंटुर जिले के गुरजाला गाँव के निवासी रोहित के पिता ने यह भी बताया कि पिछले आठ महीनों से रोहित से उनकी कोई बात नहीं हुई।उन्हें इसकी भी जानकारी नहीं थी कि उसे विश्वविद्यालय से निष्कासित किया गया था। उसकी माँ राधिका उर्फ़ बेबी अपने छोटे बेटे राजा चैतन्य के साथ उप्पल में रहती है। राजा चैतन्य के पास जो जाति प्रमाण पत्र है उसमें यह प्रमाणित किया गया है कि वह ओबीसी की श्रेणी में ही आता है। रोहित के पिता ने अपनी जाति को अनुसूचित जाति की श्रेणी में शामिल करने के प्रति अपनी अनिच्छा जाहिर की।
रोहित के पिता के खुलासे के बाद रोहित की सत्यनिष्ठा पर ही उँगली उठने लगी है। फ़र्ज़ी जाति प्रमाण-पत्र बनवाना, उसके आधार पर हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में प्रवेश प्राप्त करना तथा वज़ीफ़े हासिल करना, विशुद्ध धोखाधड़ी है। यह एक आपराधिक मामला है जिसपर मुकदमा चलाया जा सकता है। यह मालूम करना अत्यन्त आवश्यक है कि इस फ़र्जीवाड़े में कौन-कौन शामिल थे और कितने लोगों ने अनुसूचित जाति का फ़र्ज़ी प्रमाण पत्र बनवाकर वास्तविक दलितों के अधिकार पर डाका डाला है।
अपने देश में किसी की हत्या या आत्महत्या के विरोध या सहानुभूति में आँसू बहाने की मात्रा और विधान भी निर्धारित है। अगर मृतक मुसलमान है तो दोनों आँखों से सावन-भादों की मुसलाधार बारिश की तरह आँसू बहाना अनिवार्य है; खुद भी बहाएं और अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी से भी आँसू बहवाने का हर संभव प्रयास करें। छोटा-बड़ा पुरस्कार लौटाना भी रुदाली का ही अंग है। पुरस्कार की राशि लौटाना आवश्यक नहीं। मुवावज़ा कम से कम पचास लाख। अगर मृतक दलित है, तो शीतकालीन बारिश की तरह ही आँसू बहाना आवश्यक होगा। बिना थिसिस लिखे प्राप्त की गई पीएच.डी. की डिग्री वापस करना ऐच्छिक होगा। मुवावज़ा कम से कम पच्चीस लाख।  अगर वह पिछड़े वर्ग से संबन्धित है, तो आँखें गीली करके समाचार चैनलों पर चर्चा में भाग लेने से भी काम चल जाएगा। पुरस्कार वापसी के बारे में सोचना भी पाप होगा। मुवावज़ा कम से कम पचास हजार। मृतक अगर सवर्ण श्रेणी का है, तो उसकी मृत्यु का समाचार टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में प्रकाशित करना असंवैधानिक माना जाएगा। उसका संबन्ध आर.एस.एस., बजरंग दल, एबीवीपी, भाजपा या शिव सेना से जोड़ने का अथक प्रयास, महानतम पुण्य माना जाएगा। हत्या करने वाले या आत्महत्या के लिए उकसाने वाले को पुरस्कृत किया जाएगा।
रोहित के पिता के खुलासे के बाद केजरीवाल, राहुल, नीतीश, ममता, ओवैसी आदि सहिष्णुओं ने अचानक चुप्पी साध ली है। अब तो वे चाहकर भी बहाए गए अतिरिक्त आँसुओं को वापस  नहीं ले सकते। उनको भी ग्लानि हो रही होगी कि उन्होंने अपने आँसू उस व्यक्ति के लिए बहाए जिसने आतंकी याकूब मेमन का खुलकर समर्थन किया था और नाम बदलकर तथा फ़र्ज़ी जाति प्रमाण-पत्र बनाकर दलितों के अधिकारों और सुविधाओं पर खुली डकैती डाली थी। देखना है सरकार मुवावज़े की धनराशि २५ लाख रखती है या ५० हजार।

Monday, January 18, 2016

लोकतंत्र - वरदान या अभिशाप

        लोकतंत्र, सारे तंत्रों में सर्वश्रेष्ठ तंत्र माना जाता है। विश्व में राजतंत्र सबसे प्राचीन तंत्र है। आज भी इस आधुनिकता की आंधी के बावजूद विश्व के कई देशों में राजतंत्र विद्यमान है। अधिनायक तंत्र राजतंत्र का ही दूसरा रूप है। कभी-कभी अधिनायकवाद भी लोकतंत्र की ऊंगली पकड़ कर आता है। जर्मनी में हिटलर और भारत में आपात्काल के समय इन्दिरा गांधी इसकी जीती-जागती मिसाल हैं। कई देशों में एक व्यक्ति की तानाशाही है, तो कई में एक पार्टी की।
            हमारा अपना देश जहाँ उच्छृंखल लोकतंत्र का सबसे बड़ा उदाहरण है, तो वही पड़ोसी चीन एक पार्टी की  तानाशाही का। लेकिन जहाँ तक देश के कल्याण और विकास की बात है, इसमें कोई दो राय नहीं कि देश के कल्याण के लिए समर्पित एक पार्टी की सीमित तानाशाही उच्छृंखल लोकतंत्र से बेहतर है।
            भारत में लोकतंत्र के तरह-तरह के प्रयोग किए गए। ग्राम प्रधान से लेकर राष्ट्रपति -- सबके सब जनता द्वारा ही प्रत्यक्ष या परोक्ष पद्धति से चुने जाते हैं। इसका परिणाम यह निकला है कि एक ही क्षेत्र में एक ही आदमी के कई प्रतिनिधि फल-फूल रहे हैं। एक ही क्षेत्र का, ग्राम प्रधान भी प्रतिनिधित्व करता है, ग्राम सभा का सदस्य भी, ब्लाक सभा, जिला पंचायत का सदस्य और अध्यक्ष भी। विधान सभा, विधान परिषद, लोकसभा और राज्य सभा के सदस्य भी अलग से प्रतिनिधित्व करते हैं। शहरों मे मेयर, नगरपालिका अध्यक्ष, वार्ड कमिश्नर आदि अलग से लोकतांत्रिक प्रतिनिधि हैं। जनता की गाढ़ी कमाई के पैसों से इन्हें सरकार की तरफ से कोष भी उपलब्ध कराए जाते हैं -- विकास के नाम पर। इन कोषों से क्षेत्र का विकास कितना होता है और प्रतिनिधि का कितना -- यह किसी से छुपा नहीं है। हमारे प्रतिनिधियों ने अपने लिए पेंशन की भी व्यवस्था कर रखी है। वर्तमान संरचना में सरकारी या प्राइवेट सेक्टर में अब पेंशन की कोई व्यवस्था नहीं है लेकिन कोई भी एमएलए या एमपी यदि एक साल भी सदन का सदस्य रह गया तो मरते दम तक पेंशन का हकदार बन जाता है। संसद या विधान सभा का सजीव प्रसारण देखकर लगता है जैसे हम मछली बाज़ार का सीधा प्रसारण देख रहे हों। सुप्रीम कोर्ट ने जानवरों के मल्लयुद्ध पर तो रोक लगा दी है, लेकिन संसद और विधान सभाओं में नित्य हो रहे मल्लयुद्ध पर अंकुश लगाने में वह भी बेबस है। भारत में लोकतंत्र मखौल बनता जा रहा है। इस देश में कोई पाकिस्तानी झंडा लहरा सकता है, तो कोई चीनी, कोई देश से अलग होने की बात कर सकता है, तो कोई तोड़ने की। कोई चार शादी कर सकता है, तो कोई कुँवारा ही मरने के लिए मज़बूर है। हर नेता वोट हासिल करने के लिए तुष्टिकरण की कोई भी सीमा लांघने के लिए स्वतंत्र है। यहाँ लोकतंत्र का असली मकसद रह गया है, सरकारी याने जनता के पैसों की खुली लूट का लाईसेंस। अपने देश की दुर्गति और पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण है - हमारा उच्छृंखल लोकतंत्र ।
            कल्पना कीजिए कि चीन जैसे विशाल देश में अपने देश की तरह ही उच्छृंखल लोकतंत्र होता! क्या वह विश्व शक्ति बन पाता? क्या वह दुनिया की सबसे बड़ी आबादी को इतना उन्नत जीवन-स्तर प्रदान कर पाता? शायद कभी नहीं। वहाँ एक पार्टी की तानाशाही अवश्य है, लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि वह पार्टी देश हित के लिए समर्पित कर्यकर्ताओं और नेताओं की समर्पित पार्टी है। एक-दो बार भ्रष्टाचार में लिप्त पाए जाने पर वहाँ की सरकार ने मंत्रियों को भी फाँसी देने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई। हमारे यहाँ जेल जाने के बाद भी लालू, राजा, जय ललिता ऐश कर रहे हैं।

             ऐ उच्छृंखल लोकतंत्र! कभी-कभी मेरे दिल में खयाल आता है कि जैसे तुझको बनाया गया है हमें लूटने के लिए। तू अबसे पहले अमेरिका में बस रहा था कहीं, तुझे इंडिया में बुलाया गया है, हमें ठगने के लिए।

Thursday, January 14, 2016

कांग्रेस की सहिष्णुता


एक पत्रिका है -- ‘कांग्रेस दर्शन’।  यह कांग्रेस की अधिकृत पत्रिका है और सही अर्थों में कांग्रेस के दर्शन को प्रदर्शित करती है। इसके संपादक हैं, मुंबई कांग्रेस के बड़बोले अध्यक्ष श्री संजय निरुपम। विगत २८ दिसंबर को कांग्रेस की स्थापना दिवस के अवसर पर प्रकाशित इस पत्रिका के मुख्य लेख ने तहलका मचा दिया और संपादकीय विभाग के संपादक की बलि ले ली । पत्रिका के मुख्य लेख में एक सच्चाई को अनावृत किया गया था, जिसे सारा हिन्दुस्तान जानता है, लेकिन कांग्रेसी, विशेष रूप से नेहरू खानदान के भक्त सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं करते हैं। पत्रिका में दो रहस्योद्घाटन किए गए थे --
१, आज़ादी के बाद नेहरू को प्रधानमंत्री बनाना देशहित में नहीं था। कांग्रेस का विशाल बहुमत पटेल को प्रधानमंत्री बनाने के पक्ष में था, लेकिन गांधीजी के हस्तक्षेप और नेहरू का खुला समर्थन करने के कारण पटेल ने अपना नाम वापस ले लिया और नेहरू प्रधानमंत्री बन गए। लेख में नेहरू की विदेश नीति की जमकर आलोचना की गई है तथा कश्मीर की समस्या और १९६२ में चीन के हाथों भारत की शर्मनाक पराजय के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराया गया है। 
२.  दूसरा रहस्योद्घाटन यह है कि सोनिया गांधी के पिता एक ‘फ़ासीवादी सैनिक’ थे। यह सत्य है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के समय सोनिया के पिता इटली के तानाशाह मुसोलिनी की सेना में थे और उन्होंने मित्र राष्ट्रों के खिलाफ़ युद्ध किया था। हिटलर और मुसोलिनी के पतन के बाद रूसी सेनाओं द्वारा वे गिरफ़्तार किए गए और रुस के जेल में रखे गए। उनके जेल में रहने के दौरान ही सोनिया गांधी का जन्म हुआ। परिवार की माली हालत बहुत ही खस्ता थी जिसके कारण अल्प वय में ही सोनिया को इंग्लैंड जाना पड़ा और वहा बार-बाला की असम्मानजनक नौकरी करके परिवार का भरण-पोषण करना पड़ा।
‘कांग्रेस दर्शन’ पत्रिका में प्रकाशित उपरोक्त तथ्यों को सारी दुनिया जानती है, लेकिन अपनी ही पत्रिका का मुखर होना हाई कमान को कैसे बर्दाश्त होता? पहले संपादकीय विभाग के संपादक की छुट्टी की गई और अब संजय निरुपम पर गाज़ गिरने वाली है। अखिल भारतीय कांग्रेस की अनुशासन समिति के अध्यक्ष श्रीमान ए.के. एंटोनी ने सोनिया गांधी की टेढ़ी भृकुटि के मद्देनज़र श्री संजय निरुपम को कारण बताओ नोटिस जारी की है। निरुपम जी की अध्यक्ष पद से विदाई तय है । निरुपम जी ने पहले ही सफाई दे दी है कि यद्यपि वे पत्रिका के मुख्य संपादक हैं, लेकिन उन्हें ऐसे लेख के छपने की जानकारी नहीं थी। यह कांग्रेसी कल्चर है। मुख्य संपादक मक्खनबाज़ी के काम में इतने मशगूल रहते हैं कि संपादक होने के बावजूद छपने के पूर्व लेखों को नहीं देखते हैं। यह मनमोहिनी संस्कृति है जो सोनिया के अध्यक्ष बनने के बाद दिन दूनी रात चौगुनी की गति से फल-फूल रही है। असहिष्णुता के नाम पर अपने ३५ दरबारी सहित्यकारो द्वारा पुरस्कार वापसी का ड्रामा कराने वाली कांग्रेस की सहिष्णुता का जीता-जागता उदाहरण भी है -  श्री श्री संजय निरुपम को थमाई गई कारण बताओ नोटिस।

Sunday, December 27, 2015

अब तो शर्म करो केजरीवाल

            एक समय था, जब अरविन्द केजरीवाल अन्ना हजारे के प्रतिबिंब माने जाते थे। अन्ना आन्दोलन के दौरान आईआईटी, चेन्नई में उनका भाषण सुनकर मैं इतना प्रभावित हुआ कि उनका प्रबल प्रशंसक बन गया। अन्ना ने यद्यपि घोषित नहीं किया था, फिर भी भारतीय जन मानस उन्हें अन्ना के प्रवक्ता और उत्तराधिकारी के रूप में मान्यता देने लगा था। उन्होंने तात्कालीन भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी पर भ्रष्टाचार के आरोप क्या लगाए, भाजपा समेत आरएसएस भी हिल गया। संघ के ही निर्देश पर गडकरी को भाजपा के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र भी देना पड़ा। गडकरी ने अदालत की शरण ली। केजरीवाल कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सके। उन्होंने गडकरी से माफ़ी मांगकर इस घटना का पटाक्षेप किया। गडकरी को उस समय निश्चित रूप से नुकसान उठाना पड़ा, लेकिन केजरीवाल को ज्यादा क्षति हुई। उनकी स्थापित विश्वसनीयता का ग्राफ अब X-Axis पर लुढ़कने लगा।
      इस समय केजरीवाल लालू और दिग्विजय सिंह की श्रेणी में पहुंच गए हैं। मैं आरंभ से ही खेल संघों पर राजनीतिक हस्तियों के नियंत्रण के विरुद्ध रहा हूं। जेटली, शरद पवार, राजीव शुक्ला जैसे कद्दावर नेताओं को क्रिकेट-प्रबन्धन ज्यादा भाता है। मात्र इस कारण उनकी चरित्र हत्या नहीं की जा सकती। केजरीवाल ने अपने प्रधान सचिव के भ्रष्टाचार और उनके कार्यालय पर सीबीआई के छापे से जनता का ध्यान हटाने के लिए बदले की भावना से प्रेरित हो बिना किसी प्रमाण के अरुण जेटली की चरित्र-हत्या करने की अपनी ओर से पूरी कोशिश की। डीडीसीए में हुई कथित अनियमितता के लिए जेटली को दोषी ठहराकर उनसे इस्तीफ़े की मांग भी कर डाली। इसके पूर्व केजरी सरकार ने ही डीडीसीए में कथित भ्रष्टाचार की जांच के लिए अपने मनपसंद त्रिसदस्यीय जांच आयोग का गठन किया था जिसकी रिपोर्ट भी आ गई है। जांच आयोग ने अपनी रिपोर्ट में अरुण जेटली के नाम का उल्लेख भी नहीं किया है। ज्ञात हो कि इसके पूर्व  शीला दीक्षित की कांग्रेसी सरकार ने भी अरुण जेटली को घेरने का पूरा प्रयास किया था और डीडीसीए में कथित भ्रष्टाचार की जांच के लिए एक आयोग का गठान किया था। उसने भी जेटली को क्लीन चिट दी थी। मोदी और अन्य भाजपा नेता राजनीतिक असहिष्णुता के हमेशा से शिकार रहे हैं। पूर्व प्रधान मंत्री नरसिंहा राव ने आडवानी को हवाला काण्ड में लपेटने के लिए भरपूर प्रयास किया था, चार्ज शीट भी दाखिल की थी; लेकिन आडवानी बेदाग सिद्ध हुए। नरेन्द्र मोदी पर जिला अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक कांग्रेस ने एक दर्ज़न से अधिक मुकदमे दर्ज़ कराए। सिट से लेकर सीबीआई तक ने वर्षों तक गहन जांच की, लेकिन सत्य, सत्य ही रहा। मोदी पर एक भी आरोप सिद्ध नहीं हुआ। आज वे देश के प्रधान मंत्री हैं। देश ही नहीं विदेश भी उनके मुरीद हैं।

      केजरीवाल कोई आज़म खां, ओवैसी या लालू यादव नहीं हैं। उन्होंने आईआईटी से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है। आईआरएस में एक जिम्मेदार अधिकारी के पद की शोभा बढ़ाई है। किसी पर अनर्गल आरोप लगाना, कम से कम उन्हें शोभा नहीं देता है। राजनीति में आने के बाद केजरीवाल इतना नीचे गिर सकते हैं, किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी।