Sunday, March 23, 2014

आडवानी की मृगतृष्णा

       महाभारत का युद्ध कौरवों और पांडवों के बीच नहीं था। यह धृतराष्ट्र और पाण्डवों के बीच था। युद्ध के पहले भी धृतराष्ट्र ही हस्तिनापुर के राजा थे और युद्ध में अगर कौरवों की जीत हो जाती, तो वे ही राजा बने रहते। वनवास से लौटने के बाद इन्द्रप्रस्थ का राज्य युधिष्ठिर को वापस देने का वचन उन्होंने ही दिया था और उनके ही वचन-भंग का परिणाम महाभारत था। महाभारत के पूर्व भी उन्होंने कई कुटिल योजनायें बनाईं। पाण्डवों को लाक्षागृह में भेजकर जीवित जला देने की योजना उनके ही अनुमोदन के बाद बनी। भरी सभा में द्रौपदी का चीरहरण उनके ही सामने हुआ। वे आंखों से अंधे थे लेकिन अंधा होने का अर्थ यह कदापि नहीं था कि उनकी इच्छायें भी समाप्त हो गई थीं। वे दुर्योधन के माध्यम से सबकुछ देखना चाहते थे और अपनी सारी दबी हुई इच्छाओं की पूर्ति करना चाहते थे। वे इतने स्वार्थी थे कि अपने पुत्र को भी नहीं बक्शा। बड़ी चालाकी और सफ़ाई से उन्होंने अपने दुष्कृत्यों के लिये दुर्योधन को जिम्मेदार ठहराया। श्री मद्भागवद्गीता के अन्त में संजय ने युद्ध के परिणाम की भविष्यवाणी करते हुए यह स्पष्ट कर दिया था कि जहां योगेश्वर श्रीकृष्ण और गाण्डीवधारी अर्जुन हैं, विजय वही होगी। अन्धे धृतराष्ट्र की आंखें फिर भी नहीं खुलीं। वे मृगतृष्णा के पीछे भागते रहे और युद्ध कराकर ही दम लिया। युद्ध के उपरान्त युधिष्ठिर सम्राट बने और वृद्ध धृतराष्ट्र को आजीवन जंगल में निवास करना पड़ा।

      सत्ता की मृगतृष्णा के पीछे बीजेपी के लौह पुरुष लाल कृष्ण आडवानी भी धृतराष्ट्र बन गये हैं। बन्द आंखों से वे उन्हें सिर्फ़ प्रधानमंत्री की कुर्सी दिखाई पड़ती है। ईश्वर ने उन्हें लंबी उम्र दी है लेकिन यह उम्र आश्रम-व्यवस्था के अनुसार संन्यास ग्रहण करने की है। नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता से सोनिया जलें, राहुल जलें या केजरीवाल जलें, इसमें अस्वाभाविक कुछ भी नहीं। लेकिन आडवानी का जलना अनेक प्रश्नचिह्न खड़े करता है। मोदी का बीजेपी के चुनाव-अभियान का राष्ट्रीय संयोजक चुने जाने के तत्काल बाद आडवानी का कोप-भवन में जाना उनकी छोटी सोच का परिचायक था। नरेन्द्र मोदी को बीजेपी ने जब प्रधानमंत्री पद के लिये अपना उम्मीदवार घोषित किया, तो वे पुनः कोप-भवन में गये। अनुशासनहीनता की सारी सीमायें तोड़ते हुए उन्होंने पार्टी अध्यक्ष को विरोध-पत्र लिखा और उसे भी राजनाथ सिंह को देने के पहले मीडिया को दे दिया। उनकी जगह किसी और ने यह कृत्य किया होता, तो पार्टी उसे कबका बाहर का रास्ता दिखा चुकी होती। लेकिन आगामी आम चुनाव में पार्टी की संभावनायें धूमिल न हों, इसलिये पाटी ने सख्ती नहीं बरती। लेकिन अब तो पानी सिर के उपर बह रहा है। आडवानी और उनकी चाण्डाल-चौकड़ी की हर संभव कोशिश हो रही है कि बीजेपी १६० क्लब में उलझी रहे। ऐसी स्थिति में नीतिश, ममता और नवीन पटनायक के समर्थन से प्रधानमंत्री की कुर्सी पा जाने का दिवास्वप्न आडवानी आज भी देख रहे हैं। लोकसभा के लिये गांधीनगर के बदले भोपाल की सीट का चुनाव करना इसी रणनीति का हिस्सा था। वे मतदाताओं और अपने समर्थकों को स्पष्ट संदेश देना चाहते थे कि मोदी उन्हें पसन्द नहीं हैं और मोदी पर उन्हें विश्वास भी नहीं है। मोदी उन्हें गांधीनगर से हरवा भी सकते हैं। बीजेपी के १६० क्लब के लिये यह उनका आखिरी प्रयास था। दिन-रात चुनाव प्रचार में व्यस्त नरेन्द्र मोदी के अभियान में बाधा डालना ही इसका उद्देश्य था। काफी मान-मनौवल के बाद पार्टी ने इस समस्या को सुलझा लिया, लेकिन मतदाताओं में यह संदेश भेजने में आडवानी सफल रहे कि पार्टी में सबकुछ ठीकठाक नहीं है। धृतराष्ट्र की दृष्टि रखने वाले आडवानी चुनाव के बाद भी किस महाभारत की योजना बनायेंगे, यह भविष्य के गर्भ में है। परन्तु इतना तो सत्य है ही कि उनके इन कृत्यों के कारण उनके समस्त पुण्य क्षीण हो चुके हैं। धृतराष्ट्र जन्मान्ध थे, आडवानी स्वार्थान्ध हैं। महाभारत के बाद धृतराष्ट्र को घनघोर जंगल में गुमनामी के दिन काटने पड़े। मृगतृष्णा के पीछे भाग रहे इक्कीसवीं सदी के धृतराष्ट्र के साथ भी ऐसा ही कुछ हो, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये।

1 comment:

  1. जैसे पुराना रोग दवाइयों के दम पर कुछ देर तो दब जाता है परन्तु मौका पाकर जब शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है तब पुनः सर उठा लेता है, ठीक यही हाल है अपने आडवाणी जी का प्रधानमन्त्री पद की चाहत बार बार पुराने रोग की तरह उभर कर सामने आ जाती है. इनका मर्ज लाइलाज है ये पुनः पुनः उभर कर सामने आ ही जायेगा, सो घबराने की जरूरत नहीं है। जब जब इनका रोग सर उठाए इनको इनकी ही विशेष "CD" दिखा दी जाए, ये अपने आप ही राग मियां की तोड़ी छोड़ राग मियां मल्हार गाने लगेंगे।

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