Sunday, June 16, 2013

भीष्म पितामह और लाल कृष्ण आडवानी

       अपने देश में पितामह शब्द ही भीष्म का पर्यायवाची मान लिया गया है। भीष्म विख्यात कुरुवंशी हस्तिनापुर के राजा शान्तनु के पुत्र और कौरव-पाण्डवों के पितामह थे। वे गंगा-पुत्र थे - पतित पावनी गंगा और महाराज शान्तनु की सन्तान। हस्तिनापुर के एक महावीर, महापराक्रमी, यशस्वी और सुदर्शन युवराज के रूप में उनकी ख्याति दिग्दिगन्त तक फैली थी। प्रजा में भी उनकी लोकप्रियता चरम पर थी। निर्विवाद रूप से वे राजसिंहासन के उत्तराधिकारी थे। भीष्म का नाम उनके माता-पिता ने देवव्रत रखा था। अपने पिता शान्तनु की केवट कन्या सत्यवती से विवाह के लिए आई अड़चन को दूर करने के लिए युवा देवव्रत ने आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन और सिंहासन के परित्याग की भीष्म प्रतिज्ञा की थी। इसी भीष्म प्रतिज्ञा के कारण उनका नाम भीष्म पड़ा और जनता उनके पुराने और मूल नाम को भूल गई। महाभारत युद्ध के नायक और पृथ्वी के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन के दादा होने के कारण वे वृद्धावस्था में भीष्म पितामह के नाम से विख्यात हुए। कालान्तर में पितामह शब्द ही भीष्म का पर्याय बन गया। पिता की इच्छापूर्ति के लिए उन्होंने हस्तिनापुर के राजसिंहासन का एक तिनके की तरह त्याग कर दिया था। अपने इस त्याग के कारण वे इतिहास पुरुष बने और पूरे विश्व में अति सम्माननीय पात्र बने। महाराज शान्तनु को वृद्धावस्था में सत्यवती से दो पुत्र हुए - चित्रांगद और विचित्रवीर्य। चित्रांगद बड़े थे और पिता की मृत्यु के बाद भीष्म के संरक्षण में हस्तिनापुर के राजसिंहासन पर उनका अभिषेक किया गया। वे बहुत कम समय तक जीवित रहे। मायावी गन्धर्वराज से तीन वर्ष तक चले एक युद्ध में वे वीरगति को प्राप्त हो गए और सिंहासन एक बार फिर असमय ही रिक्त हो गया। बालक विचित्रवीर्य को राजा बनाया गया परन्तु शासन के सूत्र भीष्म के पास ही रहे। विचित्रवीर्य बचपन से ही रोगग्रस्त थे। अतः युवावस्था की प्राप्ति के बाद भी उनसे विवाह लिए कोई राजकुमारी अपनी सम्मति नहीं दे रही थी। उनके विवाह के लिए स्वयं भीष्म काशीनरेश की कन्याओं के स्वयंवर में उपस्थित हुए और एक विचित्रवीर के लिए काशीनरेश की तीन कन्याओं का अपहरण किया। हस्तिनापुर का दुर्भाग्य यही से आरंभ हुआ। तीनों कन्याओं में सबसे बड़ी अंबा ने विचित्रवीर्य से विवाह करने से इन्कार कर दिया। कालान्तर में भीष्म ने उसे मुक्त भी कर दिया। लेकिन यही कन्या शिखण्डी के रूप में पुरुष बनकर द्रुपद के घर पैदा हुई और भीष्म की मृत्यु का कारण बनी। इस घटना के  पूर्व भीष्म अविवादित रहे। काशीराज की शेष दो कन्याओं ने भयवश विचित्रवीर्य को अपना पति मान लिया। दुर्बल विचित्रवीर्य क्षय रोग का शिकार बन बिना सन्तान उत्पन्न किए अकाल मृत्यु के ग्रास बन गए। राज सिंहासन फिर खाली हो गया। माता सत्यवती ने पुत्र भीष्म को वंश चलाने के लिए विवाह करने की आज्ञा दी, परन्तु भीष्म ने माता की आज्ञा का पालन नहीं किया और सार्वजनिक रूप से पुनः प्रतिज्ञा की -
‘मैं त्रिलोकी का राज्य, ब्रह्मा का पद और इन दोनों से अधिक मोक्ष का भी परित्याग कर दूंगा। परन्तु सत्य नहीं छोड़ूंगा। भूमि गंध छोड़ दे, वायु स्पर्श छोड़ दे, सूर्य प्रकाश छोड़ दे, अग्नि उष्णता छोड़ दे, आकाश शब्द छोड़ दे, चन्द्रमा शीतलता छोड़ दे और इन्द्र भी अपना बल-विक्रम त्याग दे; और तो क्या, स्वयं धर्मराज अपना धर्म छोड़ दें; परन्तु मैं अपनी सत्य प्रतिज्ञा छोड़ने की कल्पना भी नहीं कर सकता।’
उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा के लिए राज्य छोड़ा, सिंहासन छोड़ा, नारी का मोह छोड़ा और आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया।
भाजपा के बुजुर्ग नेता लाल कृष्ण आडवानी ने अपने पिछले ब्लाग में अपनी तुलना भीष्म पितामह से की है। मीडिया भी उन्हें भाजपा का पितामह कह के संबोधित कर रही है। भीष्म पितामह ने सिंहासन पर न बैठने की प्रतिज्ञा कर रखी थी; आडवानी जी ने चाहे जैसे भी हो, सिंहासन पर बैठने की प्रतिज्ञा कर रखी है। एक त्याग के आदर्श थे, दूसरे स्वार्थ की प्रतिमूर्ति। दोनों की प्रतिज्ञा में यहां विरोधाभास दिखाई पड़ रहा है। परन्तु एक साम्य नज़र आ रहा है - भीष्म की प्रतिज्ञा के कारण ही महाभारत का भीषण संग्राम हुआ। आडवानी की प्रतिज्ञा के कारण ही राजग में महाभारत हो रहा है। तब दुर्योधन और दुशासन  राज दरबार में ही भीष्म की उपस्थिति में द्रौपदी का चीरहरण करते थे और आज भी पितामह के नेतृत्व में ही नीतीश और शरद यादव भाजपा के चीरहरण के लिए कटिबद्ध हैं। 
          शेष कथा फिर कभी।

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