Tuesday, December 18, 2012

पदोन्नति में आरक्षण



  कोई भी व्यक्ति या संस्था अगर सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना करती है, तो पूरे देश में एकसाथ बवाल मच जाता है, लेकिन अगर सरकार ही इस संवैधानिक संगठन के आदेश को मानने से इंकार कर दे, तो क्या किया जा सकता है! केन्द्र की सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में सर्वोच्च न्यायालय से लेकर सीएजी, सीबीआई, सीवीसी तक प्रत्येक स्वायत्तशासी संगठन को अपने अनुसार चलाने का कार्य किया है। अगर इन संगठनों ने देशहित और न्याय के हित में सरकार के अनुकूल कोई काम नहीं किया तो सरकार ने इनकी विश्वसनीयता पर ही प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए। देश के सर्वोच्च न्यायालय ने एनडीए के कार्यकाल में अपना निर्णय देते हुए प्रोन्नति में आरक्षण को अवैध घोषित किया था। सारी राजनीतिक पार्टियों ने वोट की राजनीति करते हुए संविधान में संशोधन करके प्रोन्नति में आरक्षण को बहाल कर दिया। इसके खिलाफ़ विभिन्न कर्मचारी संगठनों ने देश के लगभग प्रत्येक भाग से विभिन्न उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में याचिकाएं दायर की। सभी याचिकाओं को एकसाथ सुनवाई के लिए मंजूर करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने मार्च महीने में प्रोन्नति में आरक्षण को खारिज़ करते हुए अपना निर्णय सुनाया। कोर्ट ने यह भी कहा कि प्रोन्नति में आरक्षण संविधान में वर्णित समानता के सिद्धान्त का उल्लंघन है। नौकरी में आरक्षण को जायज ठहराते हुए कोर्ट ने यह टिप्पणी की थी कि नौकरी प्राप्त करने के समय सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए समानता प्राप्त करने हेतु आरक्षण उचित है लेकिन एक बार समानता प्राप्त कर लेने के बाद पुनः आरक्षण देना अपने कुछ नागरिकों को जाति के आधार पर विशेषाधिकार देने के समान है जो संविधान की मूल आत्मा के हनन के समान होगा। सुप्रीम कोर्ट ने दूसरी बार प्रोन्नति में आरक्षण के खिलाफ़ अपना निर्णय सुनाया। इसपर गंभीरता से सोच-विचार के बदले सरकार ने अपनी सत्ता की रक्षा हेतु बसपा सुप्रीमो मायावती के तुष्टीकरण के लिए संविधान में संसोधन करना ही मुनासिब समझा। बिल राज्यसभा से पारित हो चुका है और लोकसभा से भी इसका पारित होना निश्चित है। मुलायम सिंह यादव की सपा को छोड़कर सभी राजनीतिक दल संगठित दलित वोटों की चाहत में इसका विरोध करने में अपने को असमर्थ पा रहे हैं।
      सत्ता की राजनीति ने इस देश का जितना अकल्याण किया है, उतना विदेशी शासकों ने भी नहीं किया है। देश के बंटवारे से लेकर समाज के विभाजन के खेल खेले गए। सारे देश को सन २०२० तक विकसित राष्ट्र बनाने का सपना दिखाया जाता है परन्तु अक्षम और अयोग्य व्यवस्था के साथ क्या यह सपना पूरा किया जा सकता है? प्रोन्नति में आरक्षण के कारण सभी ऊंचे पदों पर आरक्षित जातियों के अधिकारी और कर्मचारी छा जाएंगे। उनसे दक्ष और वरिष्ठ अधिकारी तथा कर्मचारी अपने मूल पद से ही सेवानिवृत्ति के लिए वाध्य होंगे जैसा उत्तर प्रदेश में मार्च २०१२ के पहले हो रहा था।
      मैंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग में स्नातक होने के बाद सन १९७८ में तब के उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत परिषद में सहायक अभियन्ता के पद पर नियुक्ति के साथ नौकरी शुरु की थी। नियम के अनुसार मुझे सात वर्षों के बाद अधिशासी अभियन्ता के पद पर पहली प्रोन्नति मिलनी चाहिए थी। लेकिन नहीं मिली। मेरे साथ सहायक अभियन्ता के पद पर नियुक्ति पाने वाले मेरे ही साथियों को जो अनुसूचित जाति से आते थे, सात वर्ष के बाद प्रोन्नति मिल गई। वे सात वर्षों के बाद अधिशासी अभियन्ता, अगले पांच वर्षों के बाद अधीक्षण अभियन्ता और उसके अगले तीन वर्षों के बाद मुख्य अभियन्ता के पद पर प्रोन्नति पा गए। मैं २६ वर्षों तक अपने मूल पद पर सहायक अभियन्ता के रूप में कार्य करता रहा जबकि आरक्षित वर्ग के मेरे साथी और कनिष्ठ २० वर्षों में ही प्रबन्ध निदेशक के उच्चतम पद पर आसीन थे। इस दौरान मुझे अपने से १५ साल जूनियर अधिकारी की मातहती में काम करना पड़ा। मुझे लगातार कई वर्षों तक उत्कृष्ट कार्य करने का प्रमाण पत्र भी मिला लेकिन यह किसी काम का नहीं था। मैंने सन २००४ में अधिशासी अभियन्ता के पद पर पहला प्रोमोशन पाया और आठ साल बाद पिछले मई में अधीक्षण अभियन्ता का प्रोमोशन सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद पाया। देश के सारे प्रदेशों में कमोबेस यही स्थिति है। देश की सारी विकास योजनाएं राज्य सरकारों द्वारा ही लागू की जाती हैं। राज्य सरकारों में विभिन्न विभागों में सर्वोच्च पदों पर नीति निर्धारक और कार्यान्यवन अधिकारी के रूप में जाति के आधार पर आरक्षण पाए अधिकारी ही उपलब्ध होंगे जिनपर विकास की जिम्मेदारी होगी। उनकी टीम में सबसे निचले स्तर पर वे लोग होंगे जो उनसे वरिष्ठ, कुशल, दक्ष और प्रतिभाशाली हैं। जातीय आधार पर बंटे प्राशासकीय तंत्र से किस तरह के चमत्कार की उम्मीद की जा सकती है। एक तरफ होंगे भग्न हृदय, भग्न मनोबल वाले निम्न अधिकारी और कर्मचारी तथा दूसरी ओर होंगे राजनीतिज्ञों से अभयदान प्राप्त आरक्षित वर्ग के कनिष्ठ और अपेक्षाकृत अकुशल अधिकारी/कर्मचारी।
      राजनीतिक दलों को न देश की चिन्ता है, न विकास की और ना ही सामाजिक समरसता की। उनकी आंखें तो सिर्फ कुर्सी पर है चाहे वह जिस विधि मिले -
तमाम मुल्क अंधेरे में डूब जाए तो क्या,
वो चाहते हैं कि सूरज उन्हीं के घर में रहे।

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