Saturday, May 5, 2012

भारत रत्न




      ‘भारत रत्न’, भारत सरकार द्वारा कला, साहित्य, विज्ञान और निर्विवाद उच्चस्तरीय समाज सेवा के क्षेत्र में अद्वितीय योगदान के लिए प्रदान किया जानेवाला सर्वोच्च नागरिक सम्मान है। देश के अद्वितीय भौतिक वैज्ञानिक प्रो. सी. वी. रमन ‘भारत रत्न’ से अलंकृत होनेवाले प्रथम व्यक्ति थे। वे वास्तव में भारत रत्न थे। उनके कारण इस सम्मान की गरिमा बढ़ी। लेकिन इन्दिरा गांधी के आगमन के साथ ही इस सर्वोच्च सम्मान की गरिमा में ह्रास होना आरंभ हो गया। इस सम्मान का उपयोग वोट बैंक, नेहरू परिवार के प्रति वफ़ादारी और अपनों को उपकृत करने के लिए किया जाने लगा। यह सम्मान कला, साहित्य, विज्ञान और समाज सेवा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए था लेकिन १९९२ में प्रख्यात व्यवसायी और उद्योगपति जे.आर.डी.टाटा को इस सम्मान के लिए चुना गया। उसी वर्ष, उसी सूची में पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का नाम पद्मविभूषण प्राप्त करने वालों में शामिल था। कैसी विडंबना थी - एक समाजसेवी पद्म पुरस्कार के लिए नामित था और एक व्यवसायी जो भारत रत्न की अर्हता कही से भी पूरी नहीं कर रहा था, भारत रत्न पा गया! यह बात और है कि जनता ने कुछ ही वर्षों के पश्चात अटल जी को प्रधान मंत्री बना दिया। एक सामान्य आदमी भी अन्दाजा लगा सकता है कि ऐसा क्यों हुआ था। अटल जी को अपमानित करना ही इसका एकमात्र उद्देश्य था। के. कामराज, एम.जी.रामचन्द्रन और राजीव गांधी को भारत रत्न दिया जा सकता है लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी को नहीं। कम्युनिस्टों के दबाव में अरुणा आसफ़ अली को मरणोपरान्त १९९७ में ‘भारत रत्न’ प्रदान किया गया लेकिन क्या कभी यह सम्मान भगत सिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद या वीर सावरकर को मरणोपरान्त ही सही, दिए जाने की कोई कल्पना कर सकता है?
      आजकल मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के तहत साहित्य के लिए मिर्ज़ा गालिब और कला-संगीत के लिए प्रख्यात पार्श्वगायक मोहम्मद रफ़ी को भारत रत्न देने की मांग उठ रही है। मिर्ज़ा गालिब की शायरी और मोहम्मद रफ़ी की गायकी का सम्मान हर भारतीय करता है लेकिन उन्हें सांप्रदायिक आधार पर यह अलंकरण दिया जाय, यह स्वागत योग्य नहीं होगा। जब गालिब के नाम पर विचार हो सकता है, तो तुलसीदास, कालिदास, महर्षि व्यास और आदिकवि वाल्मीकि के नाम पर विचार क्यों नहीं हो सकता? मो.रफ़ी के नाम पर विचार किया जा सकता है, तो किशोर कुमार, मुकेश और कुन्दन लाल सहगल के नाम पर विचार क्यों नहीं हो सकता। इन्होंने कौन सा अपराध किया है? ये तीनों लोकप्रियता, शैली और स्वर-माधुर्य में अपने समकालीन से बीस ही पड़ते हैं, उन्नीस नहीं। मुकेश ने तो तात्कालीन राष्ट्रपति से देश के सर्वश्रेष्ठ गायक का पुरस्कार भी प्राप्त किया था। संविधान ने इस पुरस्कार के लिए समय की कोई लक्ष्मण रेखा भी नहीं खींची है।
      ‘भारत रत्न’ प्राप्त करने वाले एक ही वंश के तीन व्यक्ति हैं - जवाहर लाल नेहरू, इन्दिरा गांधी और राजीव गांधी। एक ने प्रधान मंत्री की कुर्सी के लिए देश का बंटवारा किया, दूसरी ने आपातकाल थोपकर तानाशाही स्थापित की और तीसरे ने बोफ़ोर्स तोप खरीद कर शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार की शुरुआत की। घोर आश्चर्य की बात है - अबतक इस अलंकरण से सोनिया गांधी क्यों वंचित हैं? उनमें वे सारी योग्यताएं हैं, जो इस समय यह पुरस्कार पाने के लिए आवश्यक होती हैं।
      आजकल सचिन तेन्दुलकर के लिए इस सम्मान की मांग की जा रही है। राज्य सभा की सदस्यता की भांति उनकी लोकप्रियता को भुनाने और अपने पापों को कुछ हद तक धोने के लिए यह सरकार उन्हें भी भारत रत्न दे सकती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि सचिन इस सम्मान के सर्वथा योग्य प्रत्याशी हैं, लेकिन सरकार की नीयत साफ नहीं है। अपने समय की सबसे विवादास्पद अभिनेत्री, अमिताभ बच्चन की पूर्व प्रेमिका, जिसने जया बच्चन का बसा-बसाया घर उजाड़ने की अपनी ओर से जी जान से कोशिश की, के साथ सचिन को राज्य सभा के लिए नामित करना एक षडयंत्र का हिस्सा है। सचिन की आड़ में जया बच्चन की काट के रूप में रेखा को संसद में लाया गया है। क्या राज्य सभा की सदस्यता के लिए, वह भी राष्ट्रपति द्वारा नामित, चरित्र कोई मापदंड नहीं होता है? अगर क्रिकेट से ही किसी को राज्य सभा के लिए नामित करना इतना आवश्यक था, तो यह नाम सुनील गावस्कर का होना चाहिए था। सचिन अन्तर्मुखी व्यक्ति हैं, अभी नियमित खिलाड़ी हैं। वे किसी भी विषय पर अपनी टिप्पणी देने से कतराएंगे। राज्य सभा की कार्यवाही में वे नियमित रूप से भाग भी नहीं ले सकते। इसके विपरीत गावस्कर एक महान खिलाड़ी के साथ, एक अच्छे वक्ता तथा विचारक भी हैं। अगर सचिन के पहले गावस्कर ने सोनिया गांधी से मुलाकात कर ली होती, तो सचिन की जगह वे राज्य सभा के सांसद होते।
      अंग्रेजी राज में अपने वफ़ादारों को सम्मानित करने के लिए और वफ़ादारी खरीदने के लिए सर, राय बहादुर, खान बहादुर आदि उपाधियां रेवड़ी की तरह बांटी जाती थी। उम्मीद थी आज़ाद भारत में इसे समाप्त कर दिया जाएगा। लेकिन उसी परिपाटी को जारी रखते हुए स्वतंत्र भारत की सरकार ने भी पद्म पुरस्कारों और भारत रत्न सरीखे सजावटी सम्मान की व्यवस्था की। इतिहास साक्षी है कि इन उपाधियों का सदुपयोग से ज्यादा दुरुपयोग हुआ है। अब समय आ गया है -- जनता की गाढ़ी कमाई से दरबारियों को दिए जाने वाले ये अलंकरण समाप्त किए जांय।

No comments:

Post a Comment