Thursday, May 10, 2012

इस्लाम और ज़िहाद




      अपने आरंभिक दिनों में इस्लाम धर्म एक उदारवादी, सुधारवादी, मानवतावादी और प्रगतिशील धर्म के रूप में दुनिया के सामने आया। यही कारण था कि अत्यन्त अल्प समय में यह विश्वव्यापी हो गया। यह सत्य है कि इसके विस्तार के लिए सत्ता और तलवार का सहारा लिया गया लेकिन यह भी सत्य है कि धर्म परिवर्त्तन के बाद भी जिस दृढ़ता के साथ इसके अनुयायियों ने इसके साथ अपने को संबद्ध रखा, उसके पीछे कोई न कोई आकर्षण तो रहा ही है।
      इस्लाम की स्थापना पैगंबर मुहम्मद साहब ने की थी। जिस समय मुहम्मद साहब क जन्म हुआ, उस समय उस क्षेत्र में ईसाई, यहुदी, सनातन और बौद्ध धर्म का प्रभाव था। मुहम्मद साहब का जन्म ५७० ईस्वी में अरब के मक्का नगर में हुआ था। उनका संबन्ध कुरैश कबीला से था। मक्का के प्रसिद्ध तीर्थस्थल की देखरेख इसी कबीले के सरदार करते थे। इस कबीले के लोग व्यापार भी करते थे जिसके कारण पूरे क्षेत्र में सबसे संपन्न और दबदबा वाले माने जाते थे। मुहम्मद साहब के पिता उनके जन्म के पहले ही स्वर्गवासी हो चुके थे, माता का प्यार और स्नेह भी उन्हें बहुत दिनों तक नहीं मिला। बचपन के आरंभिक दिनों में ही उनकी माता का स्वर्गवास हो गया। उनका लालन-पालन उनके चाचा ने किया। बचपन से ही वे अन्तर्मुखी थे। सांसारिकता में उनका मन कम ही लगता था। वे अक्सर मक्का की पहाड़ियों में सैर के लिए निकल जाते थे और घंटों, कभी-कभी तो कई दिनों तक गुफ़ाओं में बैठकर साधना किया करते थे। सन ६१० में उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। यह घटना हिन्दू ऋषि-मुनियों द्वारा घोर तपस्या से ज्ञान प्राप्त करने की घटनाओं से मिलती-जुलती है। उन्हें मक्का की गुफ़ाओं में ही देवदूत गैब्रिएल ने साक्षात दर्शन दिए थे। प्रथम दर्शन के बाद तो वे काफी भयभीत हो गए थे। उन्होंने पूरी घटना अपनी पत्नी को बताई। उनकी पत्नी ने उन्हें आश्वस्त किया कि उनकी मुलाकात किसी भूत से नहीं, बल्कि किसी देवदूत से हुई है। खुदा अपने दूत के माध्यम से उन्हें कोई पैगाम देना चाहता है। पत्नी की बात सच निकली मुहम्मद सहब को समय-समय पर अपनी तपस्या के दौरान गैब्रिएल के माध्यम से ईश्वर का संदेश प्राप्त होता रहा जिसे वे अपने शिष्यों को सुनाते रहे। सन ६३२ में उनकी मृत्यु के बाद समस्त संदेश शिष्यों द्वारा लिपिबद्ध किए गए जिसे पवित्र कुरान कहते हैं। आरंभ के दिनों में सन ६१३ तक अपने विचारों को फैलाने का कार्य वे गुप्त रूप से करते थे। बाद में उन्हें सामान्य जन में भी अपने विचारों के प्रचार-प्रसार का खुदाई आदेश प्राप्त हुआ और उन्होंने पूरी निष्ठा और दृढ़ता से खुदा के आदेश का पालन किया। लेकिन यह काम आसान नहीं था। उन्हें स्थानीय लोगों और पहले से विद्यमान धर्मावलंबियों के प्रबल विरोध का सामना करना पड़ा। अपने कठिन श्रम और कुशल नेतृत्व के बावजूद भी पैगंबर साहब मक्का में १५० से अधिक शिष्य नहीं बना सके। मक्का के पवित्र तीर्थस्थल पर अपना नियंत्रण स्थापित कर वे वहां से इस्लाम का प्रचार करना चाहते थे, परन्तु इसमें वे उस समय सफल नहीं हो सके। लेकिन उन्होंने हौसला नहीं छोड़ा। उन्होंने मक्का छोड़ दी और सन ६२२ में मदीना को अपनी कर्मभूमि बनाई। यहां उन्हें अनुकूल परिस्थितियां मिली। उनके शिष्यों की संख्या में आशातीत वृद्धि हुई। इससे प्रेरित हो उन्होंने मदीना में पह्ले इस्लामी राज्य की स्थापना की। पश्चात उन्होंने पड़ोसी क्षेत्रों को भी अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया। अन्त में उन्होंने मक्का पर भी सन ६३० में विजय प्राप्त की और इस तरह पूरे अरब क्षेत्र के मालिक बन बैठे। संपूर्ण अरब जगत का इस्लामी करण कर वे उस क्षेत्र के निर्विवाद धार्मिक नेता स्वयमेव बन गए। सन ६३२ में उनका देहान्त हो गया। उसके बाद भी उनके शिष्यों ने अनेकों देशों को जीतने का व्यापक सैन्य अभियान चलाया और अधिकांश में सफलता भी प्राप्त की। विजित देशों के नागरिकों का जबरन धर्म-परिवर्तन कर इस्लाम अनुयायियों की संख्या में जबर्दस्त वृद्धि की। आज विश्व में इस्लाम धर्म को मानने वालों की संख्या २०% है।
      आरंभ में इस्लाम उदारवादी धर्म था। इस्लाम का अर्थ ही होता है शान्ति और अल्लाह के प्रति पूर्ण समर्पण। कुरान के अनुसार इस्लाम के पांच प्रमुख स्तंभ हैं -
      १. ईमान (विश्वास) - एकमात्र ईश्वर के रूप में अल्लाह पर पूर्ण विश्वास।
      २. नमाज़ (पूजा,प्रार्थना) -  प्रतिदिन पांच बार नमाज़ पढ़ना।
      ३. ज़कात (दान) - सामाजिक कल्याण एवं गरीबों के लिए
      ४. रोज़ा - रमज़ान के महीने में आत्मशुद्धि के लिए उपवास
      ५. हज़ - पवित्र तीर्थस्थल मक्का की तीर्थयात्रा
      जबतक इस्लाम के ये पांच स्तंभ प्रचलन में थे, तबतक यह शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व में विश्वास करने वाला धर्म बना रहा लेकिन जैसे ही ज़िहाद के रूप में इसके छ्ठे स्तंभ की परिकल्पना उभर कर आई यह गैरमुस्लिमों के लिए आक्रामक और खतरनाक हो गया। एक सच्चे मुसलमान के लिए यह अनिवार्य है कि वह -
      १. एक ईश्वर, जिसे अल्लाह कहते हैं, में ही विश्वास करे।
      २. उस देवदूत में विश्वास करे जिसने अल्लाह के संदेश को पैगंबर साहब       तक पहुंचाया।
      ३. मुहम्मद साहब को अन्तिम पैगंबर के रूप में स्वीकार करे।
      ४. ईश्वरीय पुस्तक के रूप में कुरान पर विश्वास करे।
      ५. न्य़ाय के दिन पर विश्वास करे।
      उपरोक्त निर्देशों में से किसी एक को भी न माननेवाला सच्चा मुसलमान नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त ईश्वर, अल्लाह, गाड को एक  या पुनर्जन्म या मूर्तिपूजा को माननेवाला भी सच्चा मुसलमान नहीं हो सकता। ऐसा सोचना या करना भी कुफ़्र (महापाप) है जो इस्लाम में सबसे बड़ा अपराध है। जो इस्लाम में वर्णित निर्देशों को नहीं मानता वह काफ़िर है और उसे जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है। अतः एक सच्चे मुसलमान का कर्त्तव्य है कि ऐसे लोगों को समझा बुझा कर अपने धर्म में दीक्षित करें। ऐसा न हो पाने की स्थिति में उसे समाप्त कर दिया जाय। इसी कार्य को आजकल ज़िहाद कहा जाता है जिसे इस्लामी आतंकवादियों ने अपने आदर्श के रूप में ग्रहण किया है।
      इस्लाम के घातक हथियारों के समूह में यह सबसे प्रभावी और समयानुसार प्रयोग में आनेवाला अस्त्र है। इस्लाम के कट्टर विद्वानों के शब्दकोश में यह इस्लाम का मूल तथा सबसे सम्मानजनक शब्द है। इस शब्द का एक और अर्थ   उदारपंथियों ने दिया है - ईश्वर के पवित्र कार्य को बढ़ाने के लिए पवित्र संघर्ष।
      कुरान की अधिकांश आयतें मुहम्मद साहब द्वारा मक्का में प्राप्त अल्लाह के संदेशों का संग्रह है। इसमें ११४ सूरा (अध्याय) और ६२०० आयतें हैं। लेकिन आश्चर्यजनक ढ़ंग से इसमें से मात्र तीन या चार आयतों, २५.५२, २९.६, २९.८, २९.६९ में ज़िहाद का उल्लेख मिलता है। इनमें ज़िहाद का अर्थ है कुरान की मदद से अपने विचारों के विस्तार के लिए संघर्ष लेकिन प्रवचन और तर्क के द्वारा, तलवार के द्वारा नहीं। हदीस के अनुसार पैगंबर साहब के शब्दों में, हज़ जैसी तीर्थयात्रा सर्वश्रेष्ठ ज़िहाद है। यहां ज़िहाद पूर्णतः अहिंसक नज़र आता है जिसका उद्देश्य एक मुसलमान का आध्यात्मिक विकास है।
      आजकल विश्व के सभी इस्लामी आतंकवादी ज़िहाद के सशस्त्र आक्रामक और असहिष्णु स्वरूप के प्रति ही श्रद्धा रखते हैं। उन्हें मदरसों और ट्रेनिंग कैंपों में यही पढ़ाया भी जाता है। ज़िहाद में सफल होने पर सीधे जन्नत की प्राप्ति होती है और शहीद होने पर भी ज़न्नत ही मिलता है। यही कारण है कि देह में बम बांधकर आत्मघाती आतंकवादियों ने असंख्य हत्याएं की हैं। इस्लाम और ज़िहाद का सच्चा स्वरूप आम जनता और मुसलमानों के बीच लाने और प्रचार-प्रसार का दायित्व इस्लामी विद्वानों और देवबन्द या बरेलवी जैसे प्रतिष्ठित इस्लामी संगठनों की है, लेकिन दुर्भाग्य से इन्होंने अपने कर्त्तव्यों का ईमानदारी से निर्वहन नहीं किया है। पूरी दुनिया को आज की तिथि में किसी एक धर्म में दीक्षित  नहीं किया जा सकता। सभी के लिए शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व ही एकमात्र विकल्प है। इस्लामी विद्वान जो भय या तात्कालिक लाभ के कारण आतंकवादियों का मौन समर्थन कर रहे हैं, वे अपने धर्म का ही नुकसान कर रहे हैं। शान्ति, सद्भावना और मनुष्यों में बराबरी के लिए स्थापित मुहम्मद साहब का यह महान धर्म कही आतंकवाद और क्रूरता का पर्याय न बन जाय, इसपर विचार करने की महान जिम्मेदारी इस्लामी विद्वानों और मुस्लिम समुदाय की है। सारी दुनिया उनकी सद्बुद्धि पर टकटकी लगाए हुए है।


     

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