Thursday, September 8, 2011

कम्युनिस्टों का असली चेहरा



कम्युनिज्म और कम्युनिस्ट विश्व मानवता के लिए खतरा ही नहीं अभिशाप हैं। इन कम्युनिस्टों ने अपने ही देशवासियों को यातना देने में नादिरशाह, गज़नी, चगेज़ खां, हिटलर मुसोलिनी आदि विश्व प्रसिद्ध तानाशाहों को भी मात दे रखी है। रुस के साईबेरिया के यातना शिविरों के किस्से रोंगटे खड़ा कर देनेवाले हैं। चीन में सांस्कृतिक क्रान्ति के नाम पर माओ ने अपने करोड़ों देशवासियों को मौत के घाट उतार दिया। थ्येन आन मान चौराहे पर निहत्थे छात्रों पर चीनी शासकों ने बेरहमी से टैंक चलवा दिया। प्रदर्शनकारी चीन में लोकतंत्र की मांग कर रहे थे। आज भी तिब्बत और झिनझियांग प्रान्तों में नित्य ही हत्याएं होती रहती हैं। जहां ये सत्ता में हैं, वहां ये सरकारी संरक्षण में अन्य विचारधारा वालों की हत्या करते हैं और जहां सत्ता में नहीं हैं, वहां क्रान्ति के नाम पर जनसंहार करते हैं। भारत के कम्युनिस्टों की मानसिकता भी वही है, जो स्टालिन और माओ की थी। लोकतंत्र और संविधान में इनका विश्वास कभी नहीं रहा है। यहां पर वर्षों तक क्रान्ति के लिए काम करने के बाद जब इनकी समझ में आ गया कि भारत में खूनी क्रान्ति कभी सफल नहीं हो सकती, तो इनके एक बड़े हिस्से ने बड़ी मज़बूरी में भारत के संविधान और संसदीय लोकतंत्र में बड़े बेमन से विश्वास व्यक्त किया। यह उनकी नायाब अवसरवादिता थी। ऐसा सत्ता में रहकर मलाई खाने के लोभ के कारण हुआ। लगभग ३५ वर्षों तक बंगाल में सत्ता में रहकर वहां के कम्युनिस्टों ने अपनी आर्थिक स्थिति काफी मज़बूत कर ली है। आर्थिक दिवालियापन के कगार पर पहुंचे बंगाल की जनता की स्थिति बद से बदतर होती गई। हां, पूर्वी बंगाल से आए शरणार्थी ज्योति बसु के बेटे चन्दन बसु की किस्मत अवश्य खुल गई। आज वे बंगाल के अग्रणी व्यवसायी हैं, अरबों में खेलते हैं। केन्द्र में भी सरकार को अन्दर-बाहर से समर्थन देकर इन्होंने कम मलाई नहीं खाई है। इन्द्रजीत गुप्त को गृह मंत्री औरसोमनाथ चटर्जी को लोकसभा अध्यक्ष बनवाना सत्ता की बंदरबांट का ही परिणाम था। यह बात दूसरी है कि जब सत्ता का कुछ ज्यादा ही स्वाद सोमनाथ चटर्जी को लग गया, तो उन्होंने पार्टी के निर्देशों को मानने से ही इन्कार कर दिया। उन्होंने पार्टी छोड़ दी लेकिन लोकसभा के अध्यक्ष की कुर्सी नहीं छोड़ी। हिन्सा में इनका अटूट विश्वास रहा है। बंगाल के नन्दीग्राम और आसपास के इलाकों में सैकड़ों नरकंकाल मिले हैं जो मार्क्सवादी कैडरों के कारनामें उजागर करते हैं। केरल में भी कम्युनिस्टों ने अपने अनगिनत वैचारिक विरोधियों की निर्मम हत्याएं कराई हैं।
भारत के लिए इन्होंने दो नीतियां बनाई हैं - १. संसदीय लोकतंत्र पद्धति में छद्म विश्वास प्रकट करके सत्ता प्राप्त करना और इसके बूते अपने संसाधनों की वृद्धि करना। २. देश के दुर्गम क्षेत्र में रह रही अनपढ़ आबादी की अज्ञानता और सरलता का लाभ उठाते हुए माओवाद और खूनी क्रान्ति के नाम पर भारत की समस्त व्यवस्थाओं को ध्वस्त करना। इन दोनों क्षेत्रों में इन्हें थोड़ी-बहुत कामयाबी भी मिली है। जवाहर लाल नेहरु, इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी के कार्यकाल में ये अत्यन्त प्रभावशाली रहे। इन्होंने योजनाबद्ध ढंग से मीडिया, शिक्षा, विभिन्न पुरस्कारों, इतिहास लेखन, मानवाधिकार संगठन और विश्वविद्यालयों पर कब्जा किया - चुपके से बिना किसी प्रचार के। अपने और अपने कार्यकर्ताओं के लिए इन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की तर्ज़ पर दिल्ली में जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय की स्थापना भी करा दी। यह विश्वविद्यालय भारत में कम्युनिज़्म की नर्सरी है। भारत की युवा पीढ़ी को दिग्भ्रान्त कर अपने पाले में लाने के लिए इन्होंने अथक प्रयास किए। ६० और ७० के दशक में विश्वविद्यालयों में अपने को कम्युनिस्ट कहना एक फैशन बन गया था। सोवियत संघ में कम्युनिज़्म के पतन के बाद भारत में उनका आन्दोलन लगभग समाप्त हो गया। केरल में साम्प्रदायिक मुस्लिम लीग और इसाई संगठनों की मेहरबानी से कभी-कभी सत्ता में आ जाते हैं तथा बंगाल में अपने अराजक कैडरों की गुण्डागर्दी के कारण लंबी अवधि तक सत्ता में बने रहे। पिछले चुनाव में चुनाव आयोग की सख्ती एवं ममता की निर्भीकता के कारण जनता ने अपने मताधिकार का पहली बार निडर होकर प्रयोग किया। परिणाम से सभी अवगत हैं - मार्क्सवादी चारो खाने चित्त हो गए। आज चीन में बहुदलीय लोकतंत्र की स्थापना हो जाय, कल कम्युनिज़्म वहां इतिहास का विषय बन जाएगा।
कम्युनिस्ट लोकतंत्र के सबसे बड़े शत्रु हैं। इन्हें वयस्क मताधिकार पर तनिक भी भरोसा नहीं। अपनी तमाम कमियों के बावजूद भी यह हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी सफलता है कि एक दलित महिला वयस्क मताधिकार के आधार पर उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी हुई है। दलित जातियों से अधिक इस देश में किस जाति या समूह का शोषण हुआ है? इनसे ज्यादा अत्याचार किसने सहा है? लेकिन संसदीय लोकतंत्र के माध्यम से उन्होंने सत्ता में अपनी हनक बनाई है। लेकिन कम्युनिस्ट ऐसा नहीं कर सकते।। वे जनता के बीच जाने से डरते हैं। क्योंकि जनता उन्हें देशद्रोही मानती है। १९६२ में चीन के साथ युद्ध में इन्होंने खुलकर चीन का साथ दिया था। १९४७ में इन्होंने देश के बंटवारे का स्वागत किया था। जनता इसे आजतक नहीं भूली है। अतः इन्होंने सोची समझी रणनीति के तहत संसदीय लोकतंत्र के समानान्तर, माओवाद-नक्सलवाद के नाम पर एक हिंसक अभियान छेड़ रखा है। इन्हें सफेदपोश कम्युनिस्ट नेताओं, तथाकथित प्रगतिशील साहित्यकारों, मानवाधिकार संगठन और मीडिया में भेजे गए घुसपैठी पत्रकारों का भी प्रत्यक्ष एवं परोक्ष समर्थन प्राप्त है। चीन से इन्हें हथियार और धन भी प्राप्त होता है। स्थानीय सरकारी कर्मचारियों, ठेकेदार, व्यवसायी और उद्योगपतियों से जबरन धन उगाही अलग से की जाती है। इनका नारा है - सत्ता बन्दूक की नाली से प्राप्त की जाती है। कम्युनिस्टों का यही वास्तविक चेहरा है। भारत के युवराज बुन्देलखण्ड और नोएडा के किसानों के पास जाकर घड़ियाली आंसू बहा सकते हैं लेकिन कम्युनिस्टों की गुण्डागर्दी से पीड़ित जनता के पास एक बार भी नहीं जा सकते। हमारी कमज़ोर केन्द्रीय सरकार इस्लामी आतंकवादियों की तरह इनके फलने-फूलने के भी पर्याप्त अवसर दे रही है।
रुस और चीन के कम्युनिस्ट तानाशाहों (स्टालिन और माओ) ने बेशक अपनी जनता पर निर्मम अत्याचार किए लेकिन एक तथ्य निर्विवाद है कि उनकी अपने राष्ट्र के प्रति निष्ठा असंदिग्ध एवं अटूट थी। वे प्रखर राष्ट्रवादी थे। भारत के कम्युनिस्टों ने उनके दुर्गुणों को तो अपना लिया लेकिन सद्‌गुणों को ठुकरा दिया। यहां के साम्यवादी भारत, भारतीयता और भारतीय राष्ट्रवाद से नफ़रत करते हैं। वे भारत को एक राष्ट्र नहीं मानते। यही कारण है कि वे यहां प्रभावशाली नहीं हो पाए। लेकिन इन्होंने हार नहीं मानी है। नक्सलवाद के नाम पर देश को अस्थिर करने के लिए उनके द्वारा छेड़ा गया गुरिल्ला युद्ध एक सोची-समझी रणनीति है। लेकिन इससे वे कोई भी लक्ष्य नहीं प्राप्त कर पाएंगे। हां, कुछ समय के लिए प्रभावित क्षेत्रों के विकास को अवरुद्ध अवश्य कर देंगे। जिस दिन दिल्ली में एक मज़बूत राष्ट्रवादी सरकार आ जाएगी, इनकी राजनीति पर अपने आप विराम लग जाएगा, क्योंकि कम्युनिज़्म अब कालवाह्य हो चुका है।

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