Friday, October 1, 2010

शांतिपूर्ण सह अस्तित्व


श्रीराम जन्मभूमि-बाबरी मस्ज़िद विवाद पर आखीरकार हाई कोर्ट ने अपना फ़ैसला सुना ही दिया. काश! यह फ़ैसला २० वर्ष पहले आया होता. लेकिन विलंब से आया फ़ैसला भी ऐतिहासिक है. कोई पक्ष पूर्ण जीत या हार का दावा नहीं कर सकता. हाई कोर्ट ने देश के विभाजन के बाद हिन्दू और मुसलमान, दोनों समुदायों को एक दूसरे की भावनाओं को समझने, आपसी भाईचारा और सौहार्द्र स्थापित करने का एक सुनहरा अवसर प्रदान किया है. किसी भी पक्ष को इस फ़ैसले के खिलाफ़ सर्वोच्च न्यायालय में नहीं जाना चाहिए. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख श्री मोहन भागवत औए ज़ामा मस्ज़िद के इमाम के वक्तव्य को इसी परिप्रेक्ष्य में देश की जनता को ध्यान से सुनना और पढ़ना चाहिए. हिन्दू-मुसलमान लड़ेंगे तो देश कमजोर होगा. दोनों व्यक्तियों ने इसे पहली बार एकसाथ महसूस किया है. यह देश का सौभाग्य है.

कुछ कट्टरपन्थी हिन्दू यह मानते हैं कि पाकिस्तान बन जाने के बाद मुसलमानों को हिन्दुस्तान में रहने का हक नहीं है. उन्हें पाकिस्तान चले जाना चाहिए. इसी तरह कुछ कट्टरपन्थी मुसलमानों ने हिन्दुस्तान को दारुल इस्लाम बनाने की ज़ेहाद छेड़ रखी है. वे भारत मे मुगलकलीन इस्लामिक आधिपत्य का सपना देखते हैं. धरातलीय सत्य यह है कि दोनों ही बातें आज की तारीख में असंभव हैं. ना तो आप २० करोड़ मुसलमानों को देश निकाला देकर इसे हिन्दू राष्ट्र बना सकते हैं और न ही बना सकते हैं धर्मनिरपेक्ष भारत को इस्लामिक राष्ट्र. यह देश मुसलमानों की भी जन्मभूमि और मातृभूमि है, उतनी ही जितनी हिन्दुओं की. दोनों की चमड़ी का रंग एक है, खून एक है, बोलचाल की भाषा एक है, रहन-सहन का ढंग एक है, पहिरावा एक है, आदतें एक हैं. पूजा-पद्धति को छो्ड़ दिया जाय, तो सभ्यता और संस्कृति भी एक है. कार्यालय, स्कूल और कालेज में देखकर क्या आप बता सकते हैं कि अमुक लड़का हिन्दू है और अमुक लड़का मुसलमान? कोई नहीं बता सकता जबतक नाम न पूछा जाय. हिन्दू और मुसलमान में भारत की जनता का वर्गीकरण कृत्रिम है. सच्चाई यह है कि दोनों एक हैं. कट्टरवादी दोनों समुदायों में विभिन्नता की दलील देकर अबतक दोनों समुदायों को अलग रखने के अपने प्रयासों में कमोबेस सफल रहे हैं. लेकिन अब समय आ गया है कि हम दोनों समुदायों में व्याप्त समानता की चर्चा करें. फूट डालो और राज करो, यह विदेशियों की कूट्नीति थी, जिसने हमें लंबी अवधि की दासता के अलावे कुछ नहीं दिया. क्या हम एक दूसरे की भावनाओं और पूजा-पद्धति का सम्मान नहीं कर सकते? अवश्य कर सकते हैं.

हिन्दुओं के पुरखों ने नारा दिया था - वसुधैव कुतुंबकम. सर्वे भवन्तु सुखिना. महाकवि इकबाल ने तराना गाया था - मज़हब नहीं सिखाता आपस में वैर रखना. हम आदिम या मध्यकालीन युग में नहीं हैं. इक्कीसवीं सदी की आवश्यकता है - शांतिपूर्ण सह अस्तित्व. इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ का फ़ैसला इस दिशा में मील का पत्थर सिद्ध हो सकता है.

1 comment:

  1. The verdict given by Allahabad High court is certainly a cornerstone for Indian democracy and a very unique one. The decision to distribute the land among the litigants, even though such a dispensation was not requested by any of the parties, clearly reflects the fact
    that issues like this can't be just decided on historical facts but rather on the prevailing social situation. As mentioned in your artilce, Muslims are as much the citizens of this nation as the Hindus or for that matter any person irrespective of caste or religion. Inclusion of a muslim judge in the juddicial panel even though he was not originally a part of it clearly shows the honest intention of the state of India to represent the side of minority so that they do not feel left out. Historical moments such as these are very hard to handle and even harder to reach an agreement but only situations like this really depict the true character of our constitution. It is at this difficult point of time that the majority has to show its tolerance towards the minority and encourage any act towards peace and harmony. This judgement although technically not the
    right one is definitely right in the interest of the nation and whatever is right for the people of this country should supercede any other argument.

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