झीने कोहरे की साडी का अवगुंठन सूर्य उठाता था,
पोर-पोर में मस्ती भर, जब पवन जगाने आता था.
आम्र-कुंज में बौरों पर, भौंरे संगीत सुनाते थे,
पंचम स्वर में श्यामल कोयल के गीत उभरते जाते थे.
रक्त पुष्प - झूमे पलाश, सम्मोहित करते दृष्टि को,
रसभरे फूल महुआ के गिर, मदहोश बनाते सृष्टि को.
फूली सरसों ने दिया रंग, मधु लेकर आ पहुँचा अनंग,
यौवन, बचपन तो डोल रहा, सुधिहीन वृद्ध का अंग-अंग.
राजा वसंत के आने पर,किसलय-सिंहासन बनता था,
हरा मुकुट मंजरियों का, सिर उसके सुन्दर सजता था.
कथकली, कथक से लोकनृत्य - सब मोर दिखाया करते थे,
नर-नारी क्या पंछी-पंछी, फगुआ दुहराया करते थे.
अनुरंगी कुसुम परागों का, विस्तृत चन्दोवा तनता था,
कुन्द लता का मोहक ध्वज, हरपल लहराया करता था.
गुलाब, केतकी अनायास, दिन भर मुस्काते रहते थे,
टेसू, अशोक के लाल फूल, मन को उकसाते रहते थे.
पर अब वसंत इस नगरी में, बस दबे पाँव ही आता है,
गमले में उगी डहेलिया की, छवि बिन देखे वह जाता है.
विकसित स्वरूप, सबकुछ बदला, सिमेन्ट का है बढ़ता जंगल,
कहाँ अमलतास, गुलमोहर पर, उड़ते भौरों का सुर-सरगम!
अब दूर-दूर तक सरसों की, झूमती कतारें कहाँ कंत,
कुछ पता नहीं कब गुजर गया, इस नगरी से सुन्दर वसंत!
Monday, April 20, 2009
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बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण रचना!
ReplyDeleteआप का ब्लाग बहुत अच्छा लगा।
मैं अपने तीनों ब्लाग पर हर रविवार को
ग़ज़ल,गीत डालता हूँ,जरूर देखें।मुझे पूरा यकीन
है कि आप को ये पसंद आयेंगे।
मैं भी वाराणसी से ही हूँ।
Thanks for your comments. Please let me know your blog Id/ e-mail Id so that I may contact you.
ReplyDeleteB.K.Sinha
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