Friday, July 1, 2016
रवि शास्त्री की असहिष्णुता
भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व डाइरेक्टर और क्रिकेटर रवि शास्त्री अपने खेल के लिए कम और सुनील गावास्कर के चमचे के रूप में अधिक जाने जाते हैं। लगभग १८ महीनों तक भारतीय टीम का डाइरेक्टर रहने के बाद उन्होंने मान लिया था कि टीम के कोच के रूप में उन्हीं का चयन किया जाएगा। इसीलिए साक्षात्कार के दिन थाइलैन्ड में छुट्टियाँ मनाना मुनासिब समझा और वीडियो कन्फ़्रेन्सिंग के माध्यम से इन्टरव्यू दिया। अनुभवी अनिल कुंबले इस दौड़ में बाजी मार ले गए। इसके बाद शास्त्री केजरीवाल की भूमिका में उतर आए। टीम का कोच न बन पाने के लिए उन्होंने सौरभ गांगुली को जिम्मेदार ठहराया। कोच के लिए चयन समिति में अगर सुनील गावास्कर रहते, तो निश्चित रूप से शास्त्री ही कोच होते, लेकिन शास्त्री के दुर्भाग्य से चयन समिति में सचिन तेंदुलकर, वी.वी.एस. लक्ष्मण और सौरभ गांगुली जैसे उच्च निष्ठा के क्रिकेटर थे जिनका योगदान भारतीय क्रिकेट के विकास में अतुलनीय रहा है। रवि शास्त्री जिस सौरभ गांगुली के विरोध में अनाप-शनाप बोल रहे हैं, उनका योगदान भारत की टीम के नव निर्माण में अतुलनीय रहा है। दुर्भाग्य से वे विदेशी कोच ग्रेग चैपेल के शिकार बन गए, नहीं तो भारतीय टीम के कप्तान के रूप में उनकी सेवायें कुछ वर्ष और प्राप्त होती। जो काम ग्रेग ने गांगुली के साथ किया, वही काम शास्त्री ने धोनी के साथ किया। पिछले इंगलैंड के दौरे में शास्त्री ने टीम को दो फाड़ कर दिया था। विराट कोहली को कप्तान बनने की जल्दी थी। इसका फायदा उठाते हुए शास्त्री अपनी गोटी बैठाने में कामयाब हो गए। टीम बिखर गई और भारी मन से धोनी को टेस्ट क्रिकेट की कप्तानी से सिरिज के बीच में ही त्यागपत्र देना पड़ा।
शास्त्री शुरु से ही एक स्वार्थी खिलाड़ी रहे हैं। धीमी गति से बल्लेबाजी करने के कारण कई बार उन्होंने भारतीय टीम को हरवाने में मुख्य भूमिका निभाई है। शास्त्री सिर्फ अपने रिकार्ड के लिए खेलते थे और उन्हें सुनील गावास्कर का पूर्ण संरक्षण प्राप्त था। भारत का कौन क्रिकेट प्रेमी चेन्नई में संपन्न हुए भारत और आस्ट्रेलिया के बीच दूसरे टेस्ट मैच को भूल सकता है। दिनांक २२-९-१९८६ को मैच का अखिरी दिन था। मैच में भारत जीत की ओर बढ़ रहा था। उसे अन्तिम ओवर में चार रन की जरूरत थी और क्रीज पर आखिरी जोड़ी के रूप में रवि शास्त्री और मनिन्दर सिंह खड़े थे। प्रथम श्रेणी के मैच में तिलकराज के एक ओवर में छः छक्के लगाने वाले शास्त्री के लिए मैथ्यू जैसे बोलर के खिलाफ सिर्फ चार रन बनाना कहीं से भी मुश्किल नहीं था। स्ट्राइक पर शास्त्री ही थे। मैथ्यू की पहली गेंद पर कोई रन नहीं बना। दूसरी गेंद पर शास्त्री ने दो रन लिए। अब जीत के लिए सिर्फ दो रनों की दरकार थी। मैं सांस रोककर टीवी के सामने बैठा था। तीसरी गेंद पर शास्त्री ने एक रन लेकर स्ट्राइक मनिन्दर को थमा दी। वे आउट होने से भयभीत थे, भले ही टीम इंडिया भाड़ में जाय। दोनों टीमों का स्कोर बराबर हो चुका था। भारत को जीत के लिए सिर्फ एक रन और चाहिए था। मैथ्यू की चौथी गेंद किसी तरह मनिन्दर ने खेली। कोई रन नहीं बना। पाँचवी गेंद पर मनिन्दर एलबीडब्ल्यू आउट हो गए। एक जीता हुआ मैच टाई हो गया। इसके लिए मात्र और मात्र रवि शास्त्री का स्वार्थी स्वभाव ही जिम्मेदार था। वे नाट आऊट रहना चाह रहे थे। टीम को जिताना उनकी प्राथमिकता नहीं थी। जो काम ग्रेग चैपेल ने कोच के रूप में किया था वही काम शास्त्री ने डाइरेक्टर के रूप में किया था। तब गांगुली को हटना पड़ा था और अब धोनी की बारी थी। भला हो धोनी की सूझबूझ की कि उन्होंने टेस्ट टीम की कप्तानी छोड़कर मामले को रफा दफा कर दिया। कोहली की महत्वाकांक्षा की पूर्ति हुई और शास्त्री के अहंकार की तुष्टि भी हुई। भारतीय क्रिकेट को कोई बहुत ज्यादा नुकसान नहीं उठाना पड़ा। एक बार कपिल के जोड़ीदार रह चुके मनोज प्रभाकर ने स्टिंग आपरेशन के दौरान रवि शास्त्री का बहुत चर्चित इन्टव्यू लिया था। उसमें उन्होंने कपिल जैसे महान खिलाड़ी पर कई गंभीर आरोप लगाए थे। उन्हें मैच फिक्सर तक कहा था। ऐसा ओछा आदमी कोच के लिए कहीं से भी उपयुक्त नहीं था।
शास्त्री की कुंबले के प्रति असहिष्णुता और नफ़रत इस कदर बढ़ गई है कि उन्होंने आईसीसी की उस कमिटी से भी त्यागपत्र दे दिया है जिसके अध्यक्ष अनिल कुंबले हैं। कुंबले के गंभीर, शान्त व्यक्तित्व और क्रिकेट में उनके अतुलनीय योगदान के सामने शास्त्री कहीं नहीं ठहरते, फिर भी उनका यह सनकी व्यवहार दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल की याद दिला देता है। उन्हें यह ज्ञात होना चाहिए कि अनिल कुंबले भारत के लिए अबतक के सर्वश्रेष्ठ कोच साबित होंगे।
Tuesday, June 28, 2016
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में दलितों और पिछड़ों के अधिकारों का हनन
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय है जिसे केन्द्र सरकार से भारी अनुदान मिलता है। वह कोई सीया या सुन्नी वक्फ़ बोर्ड द्वारा संचालित मदरसा नहीं है जिसमें सरकार के कानून लागू नहीं होते। देश के सभी केन्द्रीय और राज्य सरकारों के शैक्षणिक प्रतिष्ठानों में आरक्षण की व्यवस्था लागू है, अलीगढ़ इसका अपवाद क्यों है? आश्चर्य है कि दलितों और पिछड़ों के तथाकथित मसीहा लालू, मुलायम और मायावती इस विषय पर बिल्कुल खामोश हैं। मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए इन नेताओं ने देश बंटवाया, समाज में विभाजन कराया और अब उसी के लिए दलितों और पिछड़ों के संवैधनिक अधिकारों को भी कुचले जाते हुए अपनी आंखों से देखकर भी चुप हैं। कल्पना कीजिए अगर ऐसी घटना काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में घटी होती तो मीडिया और इन नेताओं की क्या प्रतिक्रिया होती!
एक सोची-समझी योजना के तहत दलितों और पिछड़ों को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में आरक्षण से वंचित किया जा रहा है। अभीतक की वर्तमान प्रवेश-नीति के अनुसार अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में गैर मुस्लिमों की संख्या ४०% से अधिक हो ही नहीं सकती। इसके कारण वे हमेशा दबे रहते हैं। अपने त्योहार और कार्यक्रम भी खुलकर या बिना भय के नहीं मना सकते हैं। इस विश्वविद्यालय में अल्पसंख्यक हिन्दुओं की वही स्थिति है जो स्थिति बांग्ला देश या पाकिस्तान में हिन्दुओं की है। ध्यान रहे कि देश के बंटवारे की योजना करांची या लाहौर में नहीं बनी थी, बल्कि यह योजना अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में ही बनी थी। अधिकांश दलित और पिछड़े बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय से आते हैं। अतः इनके लिए प्रवेश में आरक्षण लागू होते ही वहां की सांख्यिकी बदल जाएगी। इसीलिए अल्पसंख्यक संस्थान की आड़ में यह विश्वविद्यालय दलितों और पिछड़ों के संवैधानिक अधिकारों को नकार रहा है। भारतीय मुसलमानों की यह मानसिकता है कि जहां उन्हें लाभ मिलता है, वहां उन्हें भारतीय संविधान को मानने में कोई परहेज़ नहीं होता है लेकिन जहां उन्हें तनिक भी नुकसान कि आशंका होती है, वहां शरीयत, कुरान और मुस्लिम पर्सनल ला की दुहाई देने लगते हैं। अगर वे शरीयत के इतने ही भक्त होते, तो आपराधिक जुर्म में Indian Penal code की जगह सउदी अरब में लागू उन मुस्लिम कानूनों को लागू करने कि मांग क्यों नहीं करते, जहां चोरी करने की सज़ा दोनों हाथ काटकर दी जाती है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को UGC एवं केन्द्र सरकार से भारी मात्रा में धन और अनेकों सुविधाएं प्राप्त होती हैं, फिर वह अल्पसंख्यक संस्थान कैसे रहा? इस विश्वविद्यालय में एक और आरक्षण है जिसकी जानकारी बहुत कम लोगों को है। यहां विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रों के बच्चों के लिए भी आरक्षण का प्रावधान है, जो किसी केन्द्रीय विश्वविद्यालय में नहीं है।
अतः देशहित एवं दलितों तथा पिछड़ों के व्यापक हित में है कि इन समुदायों के लिए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में अविलंब आरक्षण की व्यवस्था लागू की जाय। एक ही देश में दो तरह की व्यवस्था नहीं चल सकती। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय कोई कश्मीर नहीं है, जहां धारा ३७० लागू है।
Wednesday, May 18, 2016
हर युग में महाभारत
महाभारत के समय भी दो वर्ग थे -- एक निपट भौतिकवादी, जो शरीर के अतिरिक्त कुछ भी स्वीकार नहीं करता था और जिसकी दृष्टि मात्र भोग पर थी। आत्मा के होने, न होने से कोई मतलब न था। जिन्दगी का अर्थ था भोग और लूट, खसोट। उसी वर्ग के खिलाफ कृष्ण को युद्ध करवाना पड़ा। जरुरी हो गया था कि शुभ की शक्तियां कमजोर और नपुंसक सिद्ध न हों। आज फिर करीब-करीब हालत वैसी ही हो गई है।
शुभ में एक बुनियादी कमजोरी होती है। वह लड़ने (संघर्ष) से हटना चाहता है - पलायनवादी होता है। अर्जुन भला आदमी है। अर्जुन शब्द का अर्थ ही होता है -- अ+रिजु, मतलब सीदा-सादा, तनिक भी आड़ा-तिरछा नही। सीदा-सादा आदमी कहता है कि झगड़ा मत करो, जगह छोड़ दो। कृष्ण अर्जुन से कही ज्यादा सरल हैं, लेकिन सीधे-सादे नहीं। कृष्ण की सरलता की कोई माप नहीं, लेकिन सरलता कमजोरी नहीं है। और पलायन भी नहीं है। न दैन्यं न पलायनं। वे जमकर खड़े हो जाते हैं। न भागते हैं और न भागने देते हैं। वह निर्णयात्मक क्षण फिर आ गया है। लड़ना तो पड़ेगा ही। गांधी, बिनोवा, बुद्ध, महावीर काम नहीं आयेंगे। एक अर्थ में ये सभी अर्जुन हैं। वे कहेंगे -- हट जाओ, मर जाओ, भीक्षाटन कर लो, पर लड़ो नहीं।
कृष्ण जैसे व्यक्तित्व की फिर आवश्यकता है जो कहे कि शुभ को भी लड़ना चाहिए। शुभ को भी तलवार हाथ में रखने की हिम्मत रखनी चाहिए। निश्चित ही शुभ जब हाथ में तलवार लेता है, तो किसी का अशुभ नहीं होता। अशुभ हो ही नहीं सकता। क्योंकि लड़ने के लिए कोई लड़ाई नहीं है। अशुभ जीत न पाए, लड़ाई इसलिए है।
Saturday, May 14, 2016
काश! यह इतना आसान होता
गीता के छठे अध्याय में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि ऐसा नहीं है कि यह गीता रहस्य मैं तुम्हें पहली बार बता रहा हूँ। सृष्टि के आरंभ में मैंने यह रहस्य सूर्य को बताया था, सूर्य ने इसे मनु को बताया और मनु ने इक्ष्वाकु को। कालान्तर में यह ज्ञान लुप्त हो गया। इसीलिए मैं आज तुम्हें फिर से वह ज्ञान दे रहा हूँ। भगवान के इस कथन पर अर्जुन का चौंकना स्वाभाविक था। उसने प्रश्न किया -
“आप तो मेरे समकालीन हैं। इसी युग में पैदा हुए हैं, फिर यह ज्ञान सूर्य को कैसे दिया?"
भगवान मे मुस्कुराते हुए कहा कहा कि मैं आज भी हूँ और सृष्टि के आरंभ में भी था। तुम भी पहले भी थे और आज भी हो। फर्क इतना ही है कि मुझे सब याद है और तुम सब विस्मृत कर चुके हो।
मनुष्य अपने आप को पहचान ले तो स्मृतियां स्वयं आ जाती हैं। जिस दिन वह अपनी आत्मा में परमात्मा का साक्षात्कार कर लेता है, वह परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। लेकिन यह है अत्यन्त कठिन और असंभव-सा। अर्जुन को इसकी अनुभूति कराने के लिए भगवान को स्वयं अपने श्रीमुख से गीता के १८ अध्याय कहने पड़े, तब अर्जुन ने स्वीकार किया कि उसने अपनी स्मृति को पा लिया है। पश्चात उसने स्वयं को भगवान को समर्पित करते हुए कहा कि उसके समस्त संदेह मिट गए हैं और वह अब वैसा ही करेगा जैसा भगवान कहेंगे।
अर्जुन भाग्यशाली था और परम भक्त भी था। सबकुछ समर्पण करने के बाद उसने वह पा लिया जिसके लिए तपस्वी ऋषि-मुनि जन्म-जन्म तक तरसते हैं। हमलोगों के साथ सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि हम एक क्षण परमात्मा पर विश्वास करते हैं, तो दूसरे ही क्षण शंका उठा देते हैं। आधुनिक विज्ञान ने इसमें और योगदान दिया है। जिस दिन हम अपना सुख-दुःख, यश-अपयश, जय-पराजय, हानि-लाभ को परमात्मा पर पूर्ण विश्वास करते हुए उसे सौंप देंगे उसी दिन समस्त कष्टों से मुक्ति पा जायेंगे। काश! यह इतना आसान होता।
Sunday, May 8, 2016
भोजन के लिए दुर्योधन का श्रीकृष्ण को आमंत्रण
महाभारत का युद्ध टालने और दुर्योधन को समझाने के लिए अन्तिम प्रयास के रूप में श्रीकॄष्ण को हस्तिनापुर की राजसभा में युधिष्ठिर के दूत के रूप में भेजने का निर्णय लिया गया। श्रीकृष्ण ने भी इसे सहर्ष स्वीकार किया। हस्तिनापुर के मुख्य द्वार पर श्रीकृष्ण का भव्य स्वागत किया गया। सबसे औपचारिक मुलाकात के बाद श्रीकृष्ण ने दुर्योधन का मन टटोलने के लिए राजकीय अतिथि गृह के बदले दुर्योधन के महल में ही जाने का निर्णय लिया।
दुर्योधन के आश्चर्य की सीमा नहीं थी। उसने कल्पना भी नहीं की थी कि श्रीकृष्ण सीधे उसके महल में आयेंगे। वह तो उनके राजसभा में पहुँचने की सूचना की प्रतीक्षा कर रहा था। पूर्व व्यवस्था भी यही थी। लेकिन श्रीकृष्ण औरों की दी हुई व्यवस्था में कब बंधने वाले थे। उनका प्रत्येक कार्य सदैव एक नई व्यवस्था की रचना करता था।
श्रीकृष्ण को अपने महल में देख दुर्योधन थोड़ा हड़बड़ाया अवश्य, परन्तु शीघ्र ही स्वयं को संयत करते हुए श्रीकृष्ण का उचित स्वागत-सत्कार किया। कुशल-क्षेम का आदान-प्रदान किया, फिर भोजन के लिए प्रार्थना की। केशव द्र्योधन के घर भोजन कैसे करते? उसका आग्रह स्वीकार नहीं किया। कारण पूछने पर गंभीर वाणी में साफ-साफ उत्तर दिया -
“राजन! अपना उद्देश्य पूर्ण होने के बाद ही दूत द्वारा भोजनादि ग्रहण करने का विधान है। जब मेरा कार्य पूर्ण हो जाय, तब मेरा और मेरे सहयोगियों का उचित सत्कार करना। मैं शल्य नहीं हूँ, अतः काम, क्रोध, द्वेष, स्वार्थ, कपट अथवा लोभ में पड़कर धर्म को नहीं छोड़ सकता। भोजन या तो प्रेमवश किया जाता है या आपत्ति में पड़ने पर। मेरे प्रति तुम्हारे मन में कोई प्रेम-भाव नहीं है और मैं किसी आपत्ति में भी नहीं हूँ। यह अन्न भी तुम्हारा नहीं है। इसपर पाण्डवों का स्वाभाविक अधिकार है। इसे तुमने अधर्म और अन्याय से दस्यु की भांति प्राप्त किया है। अतः धर्म-पथ पर चलने वाले पुरुष के लिए अखाद्य है। पूरे हस्तिनापुर में सिर्फ विदुरजी का ही अन्न खाने योग्य है। मैं उन्हीं के घर भोजन करूंगा।"
दुर्योधन निरुत्तर था। श्रीकृष्ण ने विदुरजी का आतिथ्य स्वीकार किया। भोजनोपरान्त रात्रि विश्राम भी वहीं किया।
Friday, May 6, 2016
द्रौपदी की हँसी
महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। हस्तिनापुर के सिंहासन पर युधिष्ठिर का अभिषेक भी संपन्न हो चुका था। कुरुक्षेत्र की रणभूमि में भीष्म पितामह सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा में शर-शैया पर यातना सहते हुए लेटे हुए थे। उस युग में श्रीकृष्ण और विदुर के बाद भीष्म पितामह ही राजनीति, धर्म और शास्त्र के सबसे बड़े ज्ञाता थे। श्रीकृष्ण की सलाह पर एक दिन सभी पाण्डव उनसे ज्ञान का संचित भंडार प्राप्त करने के लिए उनके समीप बैठे। श्रीकृष्ण के आग्रह पर पितामह ने अपने ज्ञान का कोष पाण्डवों के समक्ष खोल दिया। उस समय पाण्डवों के साथ द्रौपदी भी वहाँ उपस्थित थीं। वेद, पुराण, उपनिषद और शास्त्रों में वर्णित समस्त ज्ञान से छोटी-छोटी रोचक कहानियों के माध्यम से पितामह ने पाण्डवों को प्रवीण किया। श्रीकृष्ण भी बड़े ध्यान से पितामह का प्रवचन सुन रहे थे। सर्वत्र शान्ति थी। एकाएक द्रौपदी खिलखिलाकर हँसीं। सभी लोग आश्चर्य से द्रौपदी का मुंह देखने लगे। द्रौपदी को अपनी गलती का एहसास हुआ और शीघ्र ही चुप हो गईं। लेकिन पितामह द्रौपदी की हँसी का रहस्य जानने के लिए आतुर हो उठे। उन्होंने द्रौपदी से प्रश्न किया -
" प्रिय द्रौपदी। इतने गंभीर विचार-विमर्श के दौरान तुम्हारी हँसी का कारण क्या है। तुम इस पृथ्वी की सबसे बड़ी विदुषी महिला हो। तुम अकारण हँस नहीं सकती। मृत्यु के पूर्व तुम्हारी हँसी का कारण जानना चाहता हूँ।"
द्रौपदी ने कोई कारण न बताते हुए कहा कि उसे अनायास हँसी आ गई थी। इसके पीछे कोई कारण नहीं था। परन्तु भीष्म कहाँ मानने वाले थे। उन्होंने बार-बार जोर देकर कहा कि द्रौपदी जैसी विदुषी और नीति की ज्ञाता महिला कभी भी अकारण नहीं हँस सकती, और वह भी अपने श्रेष्ठ जनों के सामने। श्रीकृष्ण ने भी द्रौपदी से अपनी हँसी का रहस्य उद्घाटित करने का आग्रह किया। कोई चारा न पाकर द्रौपदी ने अपने मन की बात कह ही दी --
“पूज्य पितामह! आपके श्रीमुख से हमने ज्ञान की वे बातें श्रवण और मनन की जो अभी तक हमें ज्ञात नहीं था। आपने महाराज युधिष्ठिर को धर्म, सत्य और न्याय का पाठ पढ़ाया। मुझे इस बात पर हँसी आई कि सबकुछ जानते हुए भी आपने कुरुओं की भरी सभा में मेरे अपमानजनक चीरहरण का विरोध क्यों नहीं किया। मुझे आपकी कथनी और करनी में जब स्पष्ट अन्तर दीख पड़ा तो अनायास ही मेरे मुँह से हँसी फूट पड़ी। मेरी इस धृष्टता के लिए आप मुझे क्षमा करें।"
भीष्म पितामह मुस्कुराए और बोले -
“पुत्री! मनुष्य जिस प्रकार का भोजन करता है, उसकी बुद्धि भी वैसी ही हो जाती है। उस समय मैं अन्याय और अधर्म से प्राप्त धृतराष्ट्र और दुर्योधन द्वारा प्रदत्त भोजन करता था, जिसके कारण मेरा रक्त अशुद्ध हो गया था और बुद्धि भी न्याय-अन्याय का विचार करने में असमर्थ हो गई थी और मैं चाहकर भी तुम्हारे प्रति हो रहे अन्याह का विरोध नहीं कर सका। मेरा मन पाण्डवों के साथ था और शरीर दुर्योधन के साथ। मैं चाहकर भी उस महा अन्याय को रोक नहीं पाया। पुत्री! यह पुरुष अर्थ का दास है। अर्थ किसी का भी दास नहीं। इसी अर्थ से कौरवों ने मुझे बाँध रखा था और मैं नपुंसकों जैसी बातें करने लगा था। अब महाधनुर्धर अर्जुन के बाणों से बींधकर मेरा दूषित रक्त शरीर से बाहर आ चुका है और मेरी आत्मा शुद्ध हो गई है। इसीलिए अब मैं धर्म, सत्य और न्याय की भाषा बोल रहा हूँ। पुत्री मेरे अपराध के लिए मुझे क्षमा कर देना।"
द्रौपदी ने पितामह के चरणों में अपना सिर रख दिया और अपने आँसुओं से उन्हें प्रच्छालित कर दिया। द्रौपदी के मन का सन्देह सदा के लिए मिट गया था।
Friday, March 18, 2016
एक पाती शत्रुघ्न सिन्हा के नाम
प्रिय शत्रु बचवा तक चच्चा के प्यार-दुलार पहुंचे।
आगे यह बताना है कि भगवान के किरिपा से हम इहां राजी-खुशी हैं, और तोहरी राजी खुशी के वास्ते भगवान से आरजू-मिन्नत करते रहते हैं। बचवा, कई बार हम तोसे भेंट करे वास्ते पटना गए, तो मालूम भया कि तुम दिल्ली गए हो - संसद के काम-काज में भाग लेने वास्ते। काम जरुरी था, इसलिए हम दिलियो गए। उहां भी तोसे मुलाकात नहीं हो पाई। मालूम हुआ कि संसद की कार्यवाही छोड़कर बिटिया की फिलम की शूटिंग के लिए तुम बंबई गए हो। ठीके किए। आजकल दिन-जमाना खराब है। जवान बेटी को रात-बिरात अकेले नहीं छोड़ना चाहिए और उहो बंबई में। खैर, हम दिल कड़ा करके एटीएम से पैसा निकाले और राजधानी पकड़के पहुंचिए गए बंबई। उहां तोहर दरवान बताया कि साहब तो बिटिया के साथ शूटिंग बदे स्विट्ज़रलैंड गए हैं। ससुरा एक गिलास पनियो नहीं पिलाया। एगो गैस कनेक्शन लेना था; एही वास्ते एतना चक्कर काटे। टेंट से पइसवो खरच हुआ और सरवा कमवो नहीं हुआ। चलो, हमको जो दिक्कत-तकलीफ़ हुई सो हुई। तुम अपना पोरोगराम टीवी चैनल और अखबार में काहे नहीं दे देते हो। आजकल तो तुम छींकते हो, वह भी समाचार बन जाता है। कम से कम दूसरे मनई को हमरी तरह परेशानी न हो।
बचवा, आज अखबार में तोहरी बाबत एक ठो खबर छपी थी, एकदम पहिलका पेजवा पर। तुम अमिताभ बच्चन को राष्ट्रपति बनाना चाहते हो। तोहार ई पैंतरा एकदम सटीक है। मोदी ने उनको गुजरात का ब्रांड एंबैसेडर बनाया था। रह-रह कर सीधे या तिरछे, बच्चू मोदी का समर्थन करते रहते हैं। अब आयेगा ऊंट पहाड़ के नीचे। अमिताभो बच्चन बहुत दही-दही कर रहे थे। अब समझ में आयेगा। अपने बेटवा की शादी में तुमको नेवता तक नहीं भेजा था। शादी के बाद तुम्हरे घर मिठाई का डब्बा भेजा था। अच्छा किया तुमने लौटा दिया। पहले बेइज्जत करो और बाद में मुंह मीठा कराओ, इ कवनो बात है? मोदी तो बच्चन बबुआ को राष्ट्रपति का टिकट देंगे नहीं, मेहरारू पहिलहीं से समाजवादी पार्टी में है, अब उनके पास भी मुलायम की चेलवाही मंजूर करने के अलावा कौनो चारा नहीं बचेगा। बिहार की तरह यूपी में भी भाजपा धड़ाम ! वाह बचवा वाह! जियत रह!
एक बात का दुख हमको हमेशा रहता है। तुम्हारे जैसे काबिल आदमी को मोदी ने मन्त्री नहीं बनाया। तुम्हारा लोहा तो अटल बिहारी वाजपेइयो मानते थे। भले ही तुम स्वास्थ्य मन्त्रालय में कभी बैठते नहीं थे, लेकिन बुढ़वा तुमको ढोते रहा। तुम लालू, राहुल, केजरीवाल और दिग्विजय से कवना माने में कम हो। अभी भी तुम्हारा डायलग सुनने के लिए खूबे पब्लिक आती है। जे.एन.यू के कन्हईवा को सपोर्ट करके भी तुमने बड़ा नींक काम किया। सारी दुनिया अपना बुरा-भला पहले देखती है। फिलिम में तो अब इस बुढ़ापे में कवनो स्कोप नहिए है। अब राजनीतिए न बची है। बिहार के चुनाव के पहिले और बाद के तुम्हरे बयान, नीतिश से गलबहियां और लालू से दांत काटी रोटी के कारण तुम पहिलहीं अमित शहवा के आंख के किरकिरी बन गए हो। अगले चुनाव में वह पट्ठा तोके टिकट तो देगा नहीं। लालू तो अपने बेटा-बेटी में ही अझुराए हैं, नीतिश तोहरे वास्ते गद्दी छोड़ेंगे नहीं। उ तो कुर्सी खातिर गदहवो को बाप बना सकता है। ऐसी संकट की घड़ी में कन्हइवा काम आ सकता है। सीताराम येचुरी से कहकर तुमको राज्य सभा में तो भिजवा ही सकता है। अगला छ: साल भी सुरक्षित। राष्ट्रभक्ति जब कैबिनेट में एक बर्थ पक्का नहीं कर सकती, तो पाकिस्तान ज़िन्दाबाद ही सही। अपने हाथ का दो पैसा हमेशा अच्छा होता है। बेटी की कमाई पर कोई कबतक ऐश करेगा। बेटे तो किसी काम के निकले नहीं।
बचवा, थोड़ा लिखना, ज्यादा समझना। बहुरिया और बाल-बच्चों को हमार चुम्मा-आशीर्वाद कहना।
तोहार
चच्चा बनारसी
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