Tuesday, June 28, 2016

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में दलितों और पिछड़ों के अधिकारों का हनन

         अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय है जिसे केन्द्र सरकार से भारी अनुदान मिलता है। वह कोई सीया या सुन्नी वक्फ़ बोर्ड द्वारा संचालित मदरसा नहीं है जिसमें सरकार के कानून लागू नहीं होते। देश के सभी केन्द्रीय और राज्य सरकारों के शैक्षणिक प्रतिष्ठानों में आरक्षण की व्यवस्था लागू है, अलीगढ़ इसका अपवाद क्यों है? आश्चर्य है कि दलितों और पिछड़ों के तथाकथित मसीहा लालू, मुलायम और मायावती इस विषय पर बिल्कुल खामोश हैं। मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए इन नेताओं ने देश बंटवाया, समाज में विभाजन कराया और अब उसी के लिए दलितों और पिछड़ों के संवैधनिक अधिकारों को भी कुचले जाते हुए अपनी आंखों से देखकर भी चुप हैं। कल्पना कीजिए अगर ऐसी घटना काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में घटी होती तो मीडिया और इन नेताओं की क्या प्रतिक्रिया होती!
एक सोची-समझी योजना के तहत दलितों और पिछड़ों को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में आरक्षण से वंचित किया जा रहा है। अभीतक की वर्तमान  प्रवेश-नीति के अनुसार अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में गैर मुस्लिमों की संख्या ४०% से अधिक हो ही नहीं सकती। इसके कारण वे हमेशा दबे रहते हैं। अपने त्योहार और कार्यक्रम भी खुलकर या बिना भय के नहीं मना सकते हैं। इस विश्वविद्यालय में अल्पसंख्यक हिन्दुओं की वही स्थिति है जो स्थिति बांग्ला देश या पाकिस्तान में हिन्दुओं की है। ध्यान रहे कि देश के बंटवारे की योजना करांची या लाहौर में नहीं बनी थी, बल्कि यह योजना अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में ही बनी थी। अधिकांश दलित और पिछड़े बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय से आते हैं। अतः इनके लिए प्रवेश में आरक्षण लागू होते ही वहां की सांख्यिकी बदल जाएगी। इसीलिए अल्पसंख्यक संस्थान की आड़ में यह विश्वविद्यालय दलितों और पिछड़ों के संवैधानिक अधिकारों को नकार रहा है। भारतीय मुसलमानों की यह मानसिकता है कि जहां उन्हें लाभ मिलता है, वहां उन्हें भारतीय संविधान को मानने में कोई परहेज़ नहीं होता है लेकिन जहां उन्हें तनिक भी नुकसान कि आशंका होती है, वहां शरीयत, कुरान और मुस्लिम पर्सनल ला की दुहाई देने लगते हैं। अगर वे शरीयत के इतने ही भक्त होते, तो आपराधिक जुर्म में Indian Penal code की जगह सउदी अरब में लागू उन मुस्लिम कानूनों को लागू करने कि मांग क्यों नहीं करते, जहां चोरी करने की सज़ा दोनों हाथ काटकर दी जाती है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को UGC एवं केन्द्र सरकार से भारी मात्रा में धन और अनेकों सुविधाएं प्राप्त होती हैं, फिर वह अल्पसंख्यक संस्थान कैसे रहा? इस विश्वविद्यालय में एक और आरक्षण है जिसकी जानकारी बहुत कम लोगों को है। यहां विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रों के बच्चों के लिए भी आरक्षण का प्रावधान है, जो किसी केन्द्रीय विश्वविद्यालय में नहीं है।
  अतः देशहित एवं दलितों तथा पिछड़ों के व्यापक हित में है कि इन समुदायों के लिए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में अविलंब आरक्षण की व्यवस्था लागू की जाय। एक ही देश में दो तरह की व्यवस्था नहीं चल सकती। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय कोई कश्मीर नहीं है, जहां धारा ३७० लागू है।

Wednesday, May 18, 2016

हर युग में महाभारत


महाभारत के समय भी दो वर्ग थे -- एक निपट भौतिकवादी, जो शरीर के अतिरिक्त कुछ भी स्वीकार नहीं करता था और जिसकी दृष्टि मात्र भोग पर थी। आत्मा के होने, न होने से कोई मतलब न था। जिन्दगी का अर्थ था भोग और लूट, खसोट। उसी वर्ग के खिलाफ कृष्ण को युद्ध करवाना पड़ा। जरुरी हो गया था कि शुभ की शक्तियां कमजोर और नपुंसक सिद्ध न हों। आज फिर करीब-करीब हालत वैसी ही हो गई है।
शुभ में एक बुनियादी कमजोरी होती है। वह लड़ने (संघर्ष) से हटना चाहता है - पलायनवादी होता है। अर्जुन भला आदमी है। अर्जुन शब्द का अर्थ ही होता है -- अ+रिजु, मतलब सीदा-सादा, तनिक भी आड़ा-तिरछा नही। सीदा-सादा आदमी कहता है कि झगड़ा मत करो, जगह छोड़ दो। कृष्ण अर्जुन से कही ज्यादा सरल हैं, लेकिन सीधे-सादे नहीं। कृष्ण की सरलता की कोई माप नहीं, लेकिन सरलता कमजोरी नहीं है। और पलायन भी नहीं है। न दैन्यं न पलायनं। वे जमकर खड़े हो जाते हैं। न भागते हैं और न भागने देते हैं। वह निर्णयात्मक क्षण फिर आ गया है। लड़ना तो पड़ेगा ही। गांधी, बिनोवा, बुद्ध, महावीर काम नहीं आयेंगे। एक अर्थ में ये सभी अर्जुन हैं। वे कहेंगे -- हट जाओ, मर जाओ, भीक्षाटन कर लो, पर लड़ो नहीं।
कृष्ण जैसे व्यक्तित्व की फिर आवश्यकता है जो कहे कि शुभ को भी लड़ना चाहिए। शुभ को भी तलवार हाथ में रखने की हिम्मत रखनी चाहिए। निश्चित ही शुभ जब हाथ में तलवार लेता है, तो किसी का अशुभ नहीं होता। अशुभ हो ही नहीं सकता। क्योंकि लड़ने के लिए कोई लड़ाई नहीं है। अशुभ जीत न पाए, लड़ाई इसलिए है।

Saturday, May 14, 2016

काश! यह इतना आसान होता


गीता के छठे अध्याय में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि ऐसा नहीं है कि यह गीता रहस्य मैं तुम्हें पहली बार बता रहा हूँ। सृष्टि के आरंभ में मैंने यह रहस्य सूर्य को बताया था, सूर्य ने इसे मनु को बताया और मनु ने इक्ष्वाकु को। कालान्तर में यह ज्ञान लुप्त हो गया। इसीलिए मैं आज तुम्हें फिर से वह ज्ञान दे रहा हूँ। भगवान के इस कथन पर अर्जुन का चौंकना स्वाभाविक था। उसने प्रश्न किया -
“आप तो मेरे समकालीन हैं। इसी युग में पैदा हुए हैं, फिर यह ज्ञान सूर्य को कैसे दिया?"
भगवान मे मुस्कुराते हुए कहा कहा कि मैं आज भी हूँ और सृष्टि के आरंभ में भी था। तुम भी पहले भी थे और आज भी हो। फर्क इतना ही है कि मुझे सब याद है और तुम सब विस्मृत कर चुके हो।
मनुष्य अपने आप को पहचान ले तो स्मृतियां स्वयं आ जाती हैं। जिस दिन वह अपनी आत्मा में परमात्मा का साक्षात्कार कर लेता है, वह परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। लेकिन यह है अत्यन्त कठिन और असंभव-सा। अर्जुन को इसकी अनुभूति कराने के लिए भगवान को स्वयं अपने श्रीमुख से गीता के १८ अध्याय कहने पड़े, तब अर्जुन ने स्वीकार किया कि उसने अपनी स्मृति को पा लिया है। पश्चात उसने स्वयं को भगवान को समर्पित करते हुए कहा कि उसके समस्त संदेह मिट गए हैं और वह अब वैसा ही करेगा जैसा भगवान कहेंगे।
अर्जुन भाग्यशाली था और परम भक्त भी था। सबकुछ समर्पण करने के बाद उसने वह पा लिया जिसके लिए तपस्वी ऋषि-मुनि जन्म-जन्म तक तरसते हैं। हमलोगों के साथ सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि हम एक क्षण परमात्मा पर विश्वास करते हैं, तो दूसरे ही क्षण शंका उठा देते हैं। आधुनिक विज्ञान ने इसमें और योगदान दिया है। जिस दिन हम अपना सुख-दुःख, यश-अपयश, जय-पराजय, हानि-लाभ को परमात्मा पर पूर्ण विश्वास करते हुए उसे सौंप देंगे उसी दिन समस्त कष्टों से मुक्ति पा जायेंगे। काश! यह इतना आसान होता।

Sunday, May 8, 2016

भोजन के लिए दुर्योधन का श्रीकृष्ण को आमंत्रण

महाभारत का युद्ध टालने और दुर्योधन को समझाने के लिए अन्तिम प्रयास के रूप में श्रीकॄष्ण को हस्तिनापुर की राजसभा में युधिष्ठिर के दूत के रूप में भेजने का निर्णय लिया गया। श्रीकृष्ण ने भी इसे सहर्ष स्वीकार किया। हस्तिनापुर के मुख्य द्वार पर श्रीकृष्ण का भव्य स्वागत किया गया। सबसे औपचारिक मुलाकात के बाद श्रीकृष्ण ने दुर्योधन का मन टटोलने के लिए राजकीय अतिथि गृह के बदले दुर्योधन के महल में ही जाने का निर्णय लिया।
दुर्योधन के आश्चर्य की सीमा नहीं थी। उसने कल्पना भी नहीं की थी कि श्रीकृष्ण सीधे उसके महल में आयेंगे। वह तो उनके राजसभा में पहुँचने की सूचना की प्रतीक्षा कर रहा था। पूर्व व्यवस्था भी यही थी। लेकिन श्रीकृष्ण औरों की दी हुई व्यवस्था में कब बंधने वाले थे। उनका प्रत्येक कार्य सदैव एक नई व्यवस्था की रचना करता था। 
श्रीकृष्ण को अपने महल में देख दुर्योधन थोड़ा हड़बड़ाया अवश्य, परन्तु शीघ्र ही स्वयं को संयत करते हुए श्रीकृष्ण का उचित स्वागत-सत्कार किया। कुशल-क्षेम का आदान-प्रदान किया, फिर भोजन के लिए प्रार्थना की। केशव द्र्योधन के घर भोजन कैसे करते? उसका आग्रह स्वीकार नहीं किया। कारण पूछने पर गंभीर वाणी में साफ-साफ उत्तर दिया -
“राजन! अपना उद्देश्य पूर्ण होने के बाद ही दूत द्वारा भोजनादि ग्रहण करने का विधान है। जब मेरा कार्य पूर्ण हो जाय, तब मेरा और मेरे सहयोगियों का उचित सत्कार करना। मैं शल्य नहीं हूँ, अतः काम, क्रोध, द्वेष, स्वार्थ, कपट अथवा लोभ में पड़कर धर्म को नहीं छोड़ सकता। भोजन या तो प्रेमवश किया जाता है या आपत्ति में पड़ने पर। मेरे प्रति तुम्हारे मन में कोई प्रेम-भाव नहीं है और मैं किसी आपत्ति में भी नहीं हूँ। यह अन्न भी तुम्हारा नहीं है। इसपर पाण्डवों का स्वाभाविक अधिकार है। इसे तुमने अधर्म और अन्याय से दस्यु की भांति प्राप्त किया है। अतः धर्म-पथ पर चलने वाले पुरुष के लिए अखाद्य है। पूरे हस्तिनापुर में सिर्फ विदुरजी का ही अन्न खाने योग्य है। मैं उन्हीं के घर भोजन करूंगा।"
दुर्योधन निरुत्तर था। श्रीकृष्ण ने विदुरजी का आतिथ्य स्वीकार किया। भोजनोपरान्त रात्रि विश्राम भी वहीं किया।

Friday, May 6, 2016

द्रौपदी की हँसी


महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। हस्तिनापुर के सिंहासन पर युधिष्ठिर का अभिषेक भी संपन्न हो चुका था। कुरुक्षेत्र की रणभूमि में भीष्म पितामह सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा में शर-शैया पर यातना सहते हुए लेटे हुए थे। उस युग में श्रीकृष्ण और विदुर के बाद भीष्म पितामह ही राजनीति, धर्म और शास्त्र के सबसे बड़े ज्ञाता थे। श्रीकृष्ण की सलाह पर एक दिन सभी पाण्डव उनसे ज्ञान का संचित भंडार प्राप्त करने के लिए उनके समीप बैठे। श्रीकृष्ण के आग्रह पर पितामह ने अपने ज्ञान का कोष पाण्डवों के समक्ष खोल दिया। उस समय पाण्डवों के साथ द्रौपदी भी वहाँ उपस्थित थीं। वेद, पुराण, उपनिषद और शास्त्रों में वर्णित समस्त ज्ञान से छोटी-छोटी रोचक कहानियों के माध्यम से पितामह ने पाण्डवों को प्रवीण किया। श्रीकृष्ण भी बड़े ध्यान से पितामह का प्रवचन सुन रहे थे। सर्वत्र शान्ति थी। एकाएक द्रौपदी खिलखिलाकर हँसीं। सभी लोग आश्चर्य से द्रौपदी का मुंह देखने लगे। द्रौपदी को अपनी गलती का एहसास हुआ और शीघ्र ही चुप हो गईं। लेकिन पितामह द्रौपदी की हँसी का रहस्य जानने के लिए आतुर हो उठे। उन्होंने द्रौपदी से प्रश्न किया -
" प्रिय द्रौपदी। इतने गंभीर विचार-विमर्श के दौरान तुम्हारी हँसी का कारण क्या है। तुम इस पृथ्वी की सबसे बड़ी विदुषी महिला हो। तुम अकारण हँस नहीं सकती। मृत्यु के पूर्व तुम्हारी हँसी का कारण जानना चाहता हूँ।"
  द्रौपदी ने कोई कारण न बताते हुए कहा कि उसे अनायास हँसी आ गई थी। इसके पीछे कोई कारण नहीं था। परन्तु भीष्म कहाँ मानने वाले थे। उन्होंने बार-बार जोर देकर कहा कि द्रौपदी जैसी विदुषी और नीति की ज्ञाता महिला कभी भी अकारण नहीं हँस सकती, और वह भी अपने श्रेष्ठ जनों के सामने। श्रीकृष्ण ने भी द्रौपदी से अपनी हँसी का रहस्य उद्घाटित करने का आग्रह किया। कोई चारा न पाकर द्रौपदी ने अपने मन की बात कह ही दी --
“पूज्य पितामह! आपके श्रीमुख से हमने ज्ञान की वे बातें श्रवण और मनन की जो अभी तक हमें ज्ञात नहीं था। आपने महाराज युधिष्ठिर को धर्म, सत्य और न्याय का पाठ पढ़ाया। मुझे इस बात पर हँसी आई कि सबकुछ जानते हुए भी आपने कुरुओं की भरी सभा में मेरे अपमानजनक चीरहरण का विरोध क्यों नहीं किया। मुझे आपकी कथनी और करनी में जब स्पष्ट अन्तर दीख पड़ा तो अनायास ही मेरे मुँह से हँसी फूट पड़ी। मेरी इस धृष्टता के लिए आप मुझे क्षमा करें।"
भीष्म पितामह मुस्कुराए और बोले -
“पुत्री! मनुष्य जिस प्रकार का भोजन करता है, उसकी बुद्धि भी वैसी ही हो जाती है। उस समय मैं अन्याय और अधर्म से प्राप्त धृतराष्ट्र और दुर्योधन द्वारा प्रदत्त भोजन करता था, जिसके कारण मेरा रक्त अशुद्ध हो गया था और बुद्धि भी न्याय-अन्याय का विचार करने में असमर्थ हो गई थी और मैं चाहकर भी तुम्हारे प्रति हो रहे अन्याह का विरोध नहीं कर सका। मेरा मन पाण्डवों के साथ था और शरीर दुर्योधन के साथ। मैं चाहकर भी उस महा अन्याय को रोक नहीं पाया। पुत्री! यह पुरुष अर्थ का दास है। अर्थ किसी का भी दास नहीं। इसी अर्थ से कौरवों ने मुझे बाँध रखा था और मैं नपुंसकों जैसी बातें करने लगा था। अब महाधनुर्धर अर्जुन के बाणों से बींधकर मेरा दूषित रक्त शरीर से बाहर आ चुका है और मेरी आत्मा शुद्ध हो गई है। इसीलिए अब मैं धर्म, सत्य   और न्याय की भाषा बोल रहा हूँ। पुत्री मेरे अपराध के लिए मुझे क्षमा कर देना।"
द्रौपदी ने पितामह के चरणों में अपना सिर रख दिया और अपने आँसुओं से उन्हें प्रच्छालित कर दिया। द्रौपदी के मन का सन्देह सदा के लिए मिट गया था।

Friday, March 18, 2016

एक पाती शत्रुघ्न सिन्हा के नाम


प्रिय शत्रु बचवा तक चच्चा के प्यार-दुलार पहुंचे।
आगे यह बताना है कि भगवान के किरिपा से हम इहां राजी-खुशी हैं, और तोहरी राजी खुशी के वास्ते भगवान से आरजू-मिन्नत करते रहते हैं। बचवा, कई बार हम तोसे भेंट करे वास्ते पटना गए, तो मालूम भया कि तुम दिल्ली गए हो - संसद के काम-काज में भाग लेने वास्ते। काम जरुरी था, इसलिए हम दिलियो गए। उहां भी तोसे मुलाकात नहीं हो पाई। मालूम हुआ कि संसद की कार्यवाही छोड़कर बिटिया की फिलम की शूटिंग के लिए तुम बंबई गए हो। ठीके किए। आजकल दिन-जमाना खराब है। जवान बेटी को रात-बिरात अकेले नहीं छोड़ना चाहिए और उहो बंबई में। खैर, हम दिल कड़ा करके एटीएम से पैसा निकाले और राजधानी पकड़के पहुंचिए गए बंबई। उहां तोहर दरवान बताया कि साहब तो बिटिया के साथ शूटिंग बदे स्विट्ज़रलैंड गए हैं। ससुरा एक गिलास पनियो नहीं पिलाया। एगो गैस कनेक्शन लेना था; एही वास्ते एतना चक्कर काटे। टेंट से पइसवो खरच हुआ और सरवा कमवो नहीं हुआ। चलो, हमको जो दिक्कत-तकलीफ़ हुई सो हुई। तुम अपना पोरोगराम टीवी चैनल और अखबार में काहे नहीं दे देते हो। आजकल तो तुम छींकते हो, वह भी समाचार बन जाता है। कम से कम दूसरे मनई को हमरी तरह परेशानी न हो।
बचवा, आज अखबार में तोहरी बाबत एक ठो खबर छपी थी, एकदम पहिलका पेजवा पर। तुम अमिताभ बच्चन को राष्ट्रपति बनाना चाहते हो। तोहार ई पैंतरा एकदम सटीक है। मोदी ने उनको गुजरात का ब्रांड एंबैसेडर बनाया था। रह-रह कर सीधे या तिरछे, बच्चू मोदी का समर्थन करते रहते हैं। अब आयेगा ऊंट पहाड़ के नीचे। अमिताभो बच्चन बहुत दही-दही कर रहे थे। अब समझ में आयेगा। अपने बेटवा की शादी में तुमको नेवता तक नहीं भेजा था। शादी के बाद तुम्हरे घर मिठाई का डब्बा भेजा था। अच्छा किया तुमने लौटा दिया। पहले बेइज्जत करो और बाद में मुंह मीठा कराओ, इ कवनो बात है? मोदी तो बच्चन बबुआ को राष्ट्रपति का टिकट देंगे नहीं, मेहरारू पहिलहीं से समाजवादी पार्टी में है, अब उनके पास भी मुलायम की चेलवाही मंजूर करने के अलावा कौनो चारा नहीं बचेगा। बिहार की तरह यूपी में भी भाजपा धड़ाम ! वाह बचवा वाह! जियत रह!
एक बात का दुख हमको हमेशा रहता है। तुम्हारे जैसे काबिल आदमी को मोदी ने मन्त्री नहीं बनाया। तुम्हारा लोहा तो अटल बिहारी वाजपेइयो मानते थे। भले ही तुम स्वास्थ्य मन्त्रालय में कभी बैठते नहीं थे, लेकिन बुढ़वा तुमको ढोते रहा। तुम लालू, राहुल, केजरीवाल और दिग्विजय से कवना माने में कम हो। अभी भी तुम्हारा डायलग सुनने के लिए खूबे पब्लिक आती है। जे.एन.यू के कन्हईवा को सपोर्ट करके भी तुमने बड़ा नींक काम किया। सारी दुनिया अपना बुरा-भला पहले देखती है। फिलिम में तो अब इस बुढ़ापे में कवनो स्कोप नहिए है। अब राजनीतिए न बची है। बिहार के चुनाव के पहिले और बाद के तुम्हरे बयान, नीतिश से गलबहियां और लालू से दांत काटी रोटी के कारण तुम पहिलहीं अमित शहवा के आंख के किरकिरी बन गए हो। अगले चुनाव में वह पट्ठा तोके टिकट तो देगा नहीं। लालू तो अपने बेटा-बेटी में ही अझुराए हैं, नीतिश तोहरे वास्ते गद्दी छोड़ेंगे नहीं। उ तो कुर्सी खातिर गदहवो को बाप बना सकता है। ऐसी संकट की घड़ी में कन्हइवा काम आ सकता है। सीताराम येचुरी से कहकर तुमको राज्य सभा में तो भिजवा ही सकता है। अगला छ: साल भी सुरक्षित। राष्ट्रभक्ति जब कैबिनेट में एक बर्थ पक्का नहीं कर सकती, तो पाकिस्तान ज़िन्दाबाद ही सही। अपने हाथ का दो पैसा हमेशा अच्छा होता है। बेटी की कमाई पर कोई कबतक ऐश करेगा। बेटे तो किसी काम के निकले नहीं।
बचवा, थोड़ा लिखना, ज्यादा समझना। बहुरिया और बाल-बच्चों को हमार चुम्मा-आशीर्वाद कहना।
                                                                  तोहार
                                                                    चच्चा बनारसी

Thursday, March 3, 2016

सत्ता का ऐसा दुरुपयोग !

       इशरत जहाँ मामले में सत्ता के दुरुपयोग के जो प्रमाण आ रहे हैं, वे अत्यन्त गंभीर और चिन्ताजनक हैं। अपने राजनीतिक विरोधियों को नीचा दिखाने के लिए क्या राष्ट्रीय सुरक्षा से भी समझौता किया जा सकता है? भारत की सुरक्षा और लोकतंत्र का भविष्य सवाल के घेरे में है। देश का गृह मंत्री अपने हाथों से फ़र्ज़ी हलफ़नामा तैयार करे और वह भी अपने विदेशी आका के इशारे पर ! विश्वास नहीं होता है कि ऐसा हुआ होगा, लेकिन हेडली के खुलासे और सीबीआई तथा रा के अधिकारियों के वक्तव्यों के बाद कोई संदेह नहीं रह जाता।
इशरत जहाँ मुंबई के गुरुनानक खालसा कालेज में विज्ञान संकाय की छात्रा थी। वह मध्यम श्रेणी के परिवार से ताल्लुक रखती थी उसकी माँ मुंबई में ही वाशी की एक दवा-दूकान में काम करती थी। १५ जून, २००४ को अहमदाबाद में उसका और उसके तीन साथियों का एनकाउन्टर किया गया। सुपुष्ट खुफ़िया रिपोर्ट के अनुसार इशरत जहाँ और उसके तीन पुरुष साथी - ज़ावेद, अज़मद अली राणा और ज़ीशान जौहर लश्करे तोइबा के खुंखार आतंकवादी थे। वे गुजरात के तात्कालीन मुख्य मंत्री नरेन्द्र मोदी की हत्या के लिए अहमदाबाद आए थे। गुजरात पुलिस को यह पुख्ता सूचना केन्द्र सरकार की गुप्तचर संस्था रा ने दी थी। गुजरात पुलिस ने उस सूचना के आधार पर ही कार्यवाही की थी। इस मामले में फाइल पर दर्ज़ नोटिंग के अनुसार पहला हलफ़नामा महाराष्ट्र और गुजरात पुलिस के अलावा केन्द्रीय गुप्तचर विभाग से मिले इनपुट के आधार पर दाखिल किया गया था। उस समय शिवराज पाटिल केन्द्रीय गृह मंत्री थे। इस हलफ़नामे में मुंबई बाहरी की रहनेवाली इशरत जहाँ को आतंकवादी बताया गया था तथा उसका संबन्ध लश्करे तोइबा से होना कहा गया था। बाद में नरेन्द्र मोदी की देश भर में बढ़ती लोकप्रियता से परेशान कांग्रेस नेतृत्व को यह एन्काउन्टर एक राजनीतिक उपकरण नज़र आने लगा। कुछ मानवाधिकार संगठन इसे फ़र्ज़ी एन्काउन्टर घोषित कर चुके थे। कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को ऐसा लगा कि इस मामले में मोदी को लपेटकर  चुनावों में वांछित लाभ प्राप्त किया जा सकता है। मोदी के राजनीतिक जीवन के खात्मे के लिए बाकायदा योजना बनाई गई और अग्रिम कार्यवाही की जिम्मेदारी तात्कालीन गृह मंत्री पी. चिदंबरम को सौंपी गई, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। उन्होंने दूसरा हलफ़नामा स्वयं अपने हाथ से तैयार किया जिसमें पहले की सभी रिपोर्टों को दरकिनार कर दिया गया। यही नहीं, यह प्रमाण पत्र भी दिया गया कि इशरत जहाँ आतंकवादी नहीं थी। हलफ़नामा बदलने के दौरान चिदंबरम ने अपने किसी अधिकारी को भी भरोसे में नहीं लिया। चूंकि वे सुप्रीम कोर्ट के वकील हैं, इसलिए हलफ़नामा तैयार करने में उन्हें कोई दिक्कत भी नहीं हुई।  लश्करे तोइबा की वेबसाइट, अभी-अभी डेविड हेडली के बयान और गुजरात हाई कोर्ट में दाखिल केन्द्र सरकार के पहले हलफ़नामे से यह स्पष्ट हो गया है कि इशरत जहाँ खुंखार आतंकवादी थी। पूर्व गृह सचिव जी.के. पिल्लै ने यह सनसनीखेज खुलासा किया है कि चिदंबरम द्वारा हलफ़नामे में बदलाव का फ़ैसला राजनीतिक स्तर पर लिया गया था। इसमें गृह मंत्री, प्रधान मंत्री और यू.पीए. की अध्यक्षा प्रमुख रूप से शामिल थीं।
पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस वी.एन. खरे ने इस पूरी घटना पर अपनी चिन्ता ज़ाहिर की है। उन्होंने वक्तव्य दिया है कि एक संयुक्त सचिव के अनुसार इशरत जहाँ मामले में हलफ़नामा बदले जाने के क्रम में मंत्रालय के स्तर पर हुए घालमेल की सरकार जांच करा सकती है। अलग से जांच-आयोग का भी गठन किया जा सकता है और बदले गए हलफ़नामे की स्थिति के बारे में भी प्रार्थना पत्र दे सकती है। दूसरा विकल्प यह है कि मामला अदालत में विचाराधीन है और इसपर सरकार अदालत में यह जानकारी रखकर आगे का दिशा निर्देश प्राप्त कर सकती है।
केन्द्र सरकार कोई जांच कराएगी या न्यायालय के फ़ैसले का इंतज़ार करेगी, यह भविष्य के गर्भ में है। परन्तु तात्कालीन केन्द्र सरकार, जो देश की सुरक्षा के लिए पूरी तरह जिम्मेदार है, द्वारा सिर्फ़ एक राजनीतिक विरोधी के राजनीतिक सफ़र को खत्म करने के लिए सुरक्षा एजेन्सियों और गृह मंत्रालय का दुरुपयोग गंभीर चिन्ता का विषय है। हाल में प्रकाश में आईं जे.एन.यू. में राष्ट्रविरोधी गतिविधियों से कम खतरनाक नहीं हैं तात्कालीन पीएम, एचएम और यूपीए अध्यक्ष की गतिविधियां। जांच भी होनी चाहिए और सज़ा भी मिलनी चाहिए।