Sunday, September 11, 2022

अष्टावक्र -- अद्भुत ज्ञानी

अद्वितीय ज्ञानी अष्टावक्र

                                    विपिन किशोर सिन्हा

                                                                                    --१--

            रूप और सौन्दर्य मनुष्य का वाह्य आवरण होता है तथा ज्ञान उसका आन्तरिक अलंकार। महान्‌ ज्ञानी ऋषि अष्टावक्र आन्तरिक अलंकार से युक्त एक अद्भुत विद्वान्‌ थे। वेदों के सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता महर्षि उद्दालक उनके नाना थे और उद्भट विद्वान्‌ श्वेतकेतु उनके मामा। अपने पिता के आश्रम में रहते हुए महर्षि श्वेतकेतु को मानवी के रूप में साक्षात्‌ देवी सरस्वती के दर्शन हुए थे। महर्षि अष्टावक्र ने नाना उद्दालक और मामा श्वेतकेतु से ही सारी विद्यायें और सारा ज्ञान प्राप्त किया था।

            महर्षि उद्दालक के आश्रम में कहोड नाम का एक ब्राह्मण शिक्षा प्राप्त कर रहा था। वह अत्यन्त मेधावी, परिश्रमी, अनुशासनप्रिय और गुरुभक्त था। उसने अल्प काल में ही अपने गुरु से वेद-वेदान्तों की शिक्षा प्राप्त कर ली। वह महर्षि उद्दालक का प्रिय शिष्य बन गया। महर्षि ने उसे हर दृष्टि से योग्य पाकर अपनी कन्या सुजाता का ब्याह उससे कर दिया। कहोड सर्वगुण संपन्न था, परन्तु अहंकार पर विजय प्राप्त नहीं कर पाया था।

            उचित समय पर सुजाता गर्भवती हुई। उसका गर्भ अग्नि के समान तेजस्वी था। एक दिन उसके पति ऋषि कहोड आश्रम में अपने शिष्यों को वेदपाठ करा रहे थे। पत्नी सुजाता भी पास में ही बैठी थी। वह अपने पुत्र को गर्भ में ही ज्ञानी बनाने के लिये संकल्पबद्ध थी। महर्षि कहोड स्वयं भी वेदपाठ कर रहे थे। गर्भ में सुन रहा अष्टावक्र बोल पड़ा --

            "पिताजी! आप सदैव वेदपाठ करते हैं, परन्तु आपका उच्चारण अशुद्ध होता है।“

            सभी शिष्यों के समक्ष गर्भस्थ शिशु की यह उक्ति सुन गुरु कहोड का अहंकार आहत हो गया। वे क्रोध से उबल पड़े और अपने ही गर्भस्थ शिशु को शाप दे डाला --

                        "तू गर्भ में रहकर भी टेढ़ी-मेढ़ी बात करता है। जैसी तेरी बातें हैं, तेरे अंग भी वैसे ही हो जायेंगे। तेरे अंग आठ स्थान से टेढ़े होंगे और तेरा नाम अष्टावक्र होगा।“

            ऋषि की वाणी सत्य सिद्ध हुई। सुजाता ने जिस शिशु को जन्म दिया, वह आठों अंगों से टेढ़ा था। नामकरण तो पहले ही हो चुका था -- अष्टावक्र

            राजा जनक मिथिला के राजा थे। उनके दरबार में बन्दी नाम का एक उद्भट ज्ञानी एवं तर्कशास्त्री विद्वान्‌ रहता था। वह उनका मुख्य पुरोहित था एवं उनक विशेष कृपापात्र था। उसे अपने ज्ञान का अत्यधिक अहंकार था। वह स्वयं को पृथ्वी का सबसे बड़ा ज्ञानी और तर्कशास्त्री मानता था। कोई भी विद्वान्‌ शास्त्रार्थ में उसके सामने ठहर नहीं पाता था। अपनी लगातार सफलता से उत्साहित होकर उसने एक राजाज्ञा पारित करा दी थी कि इस पृथ्वी का जो भी विद्वान्‌ शास्त्रार्थ में उसे पराजित कर देगा, उसे मनोवांछित धन प्रदान किया जायेगा और पराजित होने की दशा में बन्दी जल समाधि ले लेगा। परन्तु चुनौती देनेवाला विद्वान्‌ अगर बन्दी से पराजित होगा, तो उसे अनिवार्य रूप से जल समाधि लेनी पड़ेगी। अनेक विद्वान्‌ धन के लोभ में मिथिला आये और बन्दी से शास्त्रार्थ में पराजित होने के बाद मृत्यु को प्राप्त हुए।

            अष्टावक्र के जन्म के बाद परिवार चलाने के लिये अतिरिक्त धन की आवश्यकता थी। ऋषि कहोड को अपने ज्ञान और अपनी विद्वता पर अत्यधिक अभिमान और विश्वास था। उन्होंने बन्दी को हराकर धनप्राप्ति का निर्णय लिया। महर्षि उद्दालक और सुजाता उहें रोकते रहे, परन्तु वे मिथिला के  लिये चल  पड़े। मिथिला पहुँचकर उन्होंने बन्दी को शास्त्रार्थ की चुनौती दी। शास्त्रार्थ कई दिनों तक चला, परन्तु अन्तिम विजय बन्दी को ही मिली। ऋषि कहोड को जल समाधि लेनी पड़ी।

            अष्टावक्र जब बारह वर्ष के थे, तो उहें यह कहानी ज्ञात हुई। उहोंने बाल्यकाल में ही अपने नाना उद्दालक और मामा श्वेतकेतु के सान्निध्य में वेद-वेदांगों का सांगोपांग अध्ययन पूरा कर लिया था। उनकी तर्कशक्ति अद्भुत थी। वे अपने पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिये विकल थे। एक दिन उन्होंने अपने पूज्य नाना और पूज्या माता से अनुमति प्राप्त कर मामा श्वेतकेतु के साथ मिथिला के लिये प्रस्थान कर ही दिया।

        -- शेष अगले अंक में


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