Friday, August 17, 2012

असम की समस्या - एक अनुत्तरित प्रश्न




    

      बांग्लादेशियों के कारण उत्पन्न असम की समस्या को बोडोलैण्ड, कोकराझार  या स्थानीय समस्या समझना ऐतिहासिक भूल होगी। अखण्ड भारत और वर्तमान भारत में यह समस्या कितनी बार आई, इसकी गणना असंभव है। आज़ादी के पूर्व जिन्ना की  मुस्लिम लीग के "डाइरेक्ट एक्शन" का परिणाम इतिहास के काले पृष्ठों में आज भी दर्ज़ है। आज जो समस्या लघु असम झेल रहा है, वही समस्या आज़ादी के पूर्व वृहद आसाम, पूरा बंगाल और आज के पाकिस्तान ने झेली थी जिसका परिणाम देश के विभाजन के रूप में सामने आया। अपने देश में विभिन्न धर्मावलंबी रहते हैं, लेकिन यदि एक विशेष धर्मावलंबी समुदाय शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व में विश्वास करना छोड़ दे और दूसरे धर्मावलंबियों के विश्वासों, परंपराओं और रहन-सहन को बलात परिवर्तित करना चाहे, तो क्या होगा? असम की समस्या, कश्मीर की समस्या और देशव्यापी इस्लामी आतंकवाद की समस्या के पीछे एक समुदाय विशेष की यही मानसिकता मूल कारण है। भारत ही नहीं, पूरा विश्व इस समस्या से जूझ रहा है। रूस चेचेन्या से परेशान है, म्यामार बांग्लादेशियों से, चीन सिक्यांग से, फ़्रान्स बुरका से, पूरा यूरोप बढ़ती इस्लामिक कट्टरता से, अमेरिका तालिबान से, दो तिहाई अफ़्रिका फ़िरकापरस्तों से, मिस्र गरमपंथी-नरमपंथियों से, सीरिया तानाशाही बनाम इस्लाम से, इराक शिया-सुन्नी से और पाकिस्तान स्वयं निर्मित भस्मासुर से परेशान है। जो देश अपने इतिहास से सबक नहीं लेता है, उसका भूगोल बदल जाता है। इतिहास साक्षी है - अपने देश के जिस हिस्से में हिन्दू अल्पसंख्यक हुआ, वह हिस्सा ही देश से कट गया या कटने की तैयारी कर रहा है। भारत के भूगोल को सुरक्षित रखने के मामले में तुलनात्मक दृष्टि से यदि अध्ययन किया जाय तो हम पाएंगे कि अंग्रेज, कांग्रेस की तुलना में भारत के भूगोल के प्रति अधिक वफ़ादार थे।

      इस समय पूरे देश में लगभग दो करोड़ बांग्लादेशी मुसलमान मौजूद हैं। बांग्लादेश की सीमा से लगे अपने देश के प्रत्येक जिले में इनलोगों ने स्थाई बसेरा बना लिया है। असम, पश्चिम बंगाल और बिहार के किशन गंज जैसे जिलों में आबादी का अनुपात अचानक बदल गया है। बांग्लादेशियों के थोक आवक के कारण स्थानीय हिन्दू अल्पमत में हो गए हैं। बात सिर्फ़ अल्पमत में ही होने की होती, तो भी कोई विशेष बात नहीं थी। मुश्किल तब होती है, जब स्थानीय हिन्दू आबादी को तालिबानी फ़रमान मानने के लिए बाध्य किया जाता है। इन बांग्लादेशी मुसलमानों की तुलना में सिन्ध और पाकिस्तानी पंजाब के मुसलमान ज्यादा सहिष्णु हैं। वोटों की लालच में कांग्रेसी सरकारों ने इन बांग्लादेशियों के नाम वोटर लिस्ट में डलवाए और राशन कार्ड तक बनवाए। आज की तारीख में यह पता करना कि कौन हिन्दुस्तानी है और कौन बांग्लादेशी, बहुत ही कठिन है। इसी से उत्साहित होकर बांग्लादेश की प्रधान मंत्री शेख हसीना यह घोषणा करती है कि भारत में अवैध रूप से रहने वाला एक भी बांग्लादेशी मौजूद नहीं है। भारत सरकार इसका कोई प्रतिवाद नहीं कर पाती है क्योंकि पार्टी का हित राष्ट्र के हित पर हावी है। सत्तर के दशक तक जिस लोकतंत्र ने देश को विविधता में एकता का मंत्र दिया था, वही लोकतंत्र अब सत्ताधारी पार्टी के निहित स्वार्थों के कारण एकता में अनेकता के पाठ पढ़ा रहा है। सत्ता की राजनीति के लिए कांग्रेस कोई भी सौदा कर सकती है - देश का भी। १९४७ में किया भी है।

      १९७७ के पूर्व पूरे देश में कांग्रेस का एकछत्र राज था। जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रान्ति के बाद केन्द्र और लगभग सभी राज्यों में कांग्रेस की चूलें हिल गईं। लोकतंत्र के माध्यम से आए इस परिवर्तन को कांग्रेस ने कभी हृदय से स्वीकार नहीं किया। जिस तरह देश के अधिकांश मुसलमान आज भी बाबर, अकबर और औरंगज़ेब को याद करते हुए हिन्दुस्तान को अपनी जागीर मानते हैं, उसी तरह कांग्रेसी भी खंडित भारत को नेहरू, इन्दिरा और सोनिया की जागीर मानते हैं। अपनी इस जागीर को बनाए रखने के लिए कांग्रेस ने तरह-तरह के तिकड़म किए। पंजाब में राष्ट्रवादी शक्तियों को हराने के लिए इन्दिरा गांधी ने भिन्डरवाला जैसे आतंकवादी को जन्म दिया। कुछ ही समय  में योजनाबद्ध ढंग से पंजाब को आतंकवाद के गिरफ़्त में जाने दिया गया। आतंकवादी किसी के नहीं होते हैं। इसके भस्मासुर ने इन्दिरा गांधी की बलि ले ली। कांग्रेस को तब भी समझ में नहीं आया। पूरे देश में सिख विरोधी दंगे कराए गए जो देश के विभाजन के समय हुए दंगों की भांति भयावह थे। कांग्रेसियों ने खड़े होकर सिखों का कत्लेआम कराया। हत्यारों को मंत्री पद देकर सम्मानित किया गया। राजीव गांधी ने भी यही खेल खेला। तमिलनाडु में अपनी खोई जमीन प्राप्त करने के लिए भारत भूमि पर लिट्टे को प्रशिक्षण दिया गया। कालान्तर में लिट्टे के भस्मासुर ने ही उनके प्राण लिए। सत्ता की राजनीति के लिए देश के बहुसंख्यक हिन्दू समाज को टुकड़ों में बांटने के लिए अगड़ा, पिछड़ा, दलित, आदिवासी, उत्तर, दक्खिन - न जाने कितने कार्ड खेले गए। दुख होता है कि संपूर्ण क्रान्ति की कोख से जन्मे अनेक राजनेता भी कांग्रेस की गोद में जा बैठे।

      कश्मीर घाटी से सभी हिन्दू भगा दिए जाते हैं, सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगती। गोधरा में अयोध्या से आती साबरमती के डिब्बों में आग लगाकर सैकड़ों हिन्दू ज़िन्दा जला दिए जाते हैं, कुसूरवार मोदी को माना जाता है। अफ़जल गुरु और कसाब को फ़ांसी की सज़ा के बाद भी बचाया जाता है, बाबा रामदेव और बालकृष्ण को झूठे मुकदमों में फ़ंसाया जाता है। म्यामार में बांग्लादेशियों पर कथित ज्यादतियों के लिए मुंबई में योजनाबद्ध दंगे किए जाते हैं, पुलिस मूक दर्शक बनी रहती है। पुणे और बंगलोर में निवास करने वाले पूर्वोत्तर के भारतीय नागरिकों को जान से मारने की धमकी दी जाती है, सरकार कोई कार्यवाही नहीं करती। मैसूर में तिब्बती तथा पुणे में पूर्वोत्तर के छात्रों पर जानलेवा हमले किए जाते हैं, पुलिस के हाथ अपराधी तक नहीं पहुंच पाते। पूर्वोत्तर के नागरिकों को इन शहरों में सुरक्षा की गारंटी देने के बदले केन्द्र सरकार उनके पलायन की व्यवस्था कर रही है। गौहाटी ले लिए स्पेशल ट्रेनें चलाई जा रही हैं। केन्द्र और केरल में मुस्लिम लीग के सहयोग से चल रही कांग्रेसी सरकार से इससे ज्यादा की उम्मीद भी कैसे की जा सकती है?

      सवाल आज की समस्या का नहीं, हिन्दुस्तान के भविष्य का है। अगर देश में तथाकथित अल्पसंख्यकों की आबादी आयात और उत्पादन से इसी तरह बढ़ती गई, तो सिर्फ़ श्रीकृष्ण ही इसकी रक्षा कर सकते हैं। कश्मीर घाटी से निष्कासित हिन्दू जम्मू और दिल्ली के शरणार्थी शिविरों में हैं, लेकिन पच्चीस साल बाद हिन्दुस्तान से निष्कासित हिन्दू किस देश के शरणार्थी शिविर में शरण लेंगे?

No comments:

Post a Comment