Monday, June 25, 2012

आपात्काल, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और स्मृतियां - भाग-१


इमर्जेन्सी की ३७वीं बरसी पर विशेष --


उस समय महानगरों को छोड़ दूरदर्शन की सुविधा कहीं थी नहीं। समाचारों के लिए आकाशवाणी और अखबारों पर ही निर्भरता थी। २५ जून, १९७५ की काली रात! आकाशवाणी ने रात के अपने समाचार बुलेटिन में यह समाचार प्रसारित किया कि अनियंत्रित आन्तरिक स्थितियों के कारण सरकार ने पूरे देश में आपात्काल (Emergency) की घोषणा कर दी है। इस दौरान जनता के मौलिक अधिकार स्थगित रहेंगे और सरकार विरोधी भाषणों और किसी भी प्रकार के प्रदर्शन पर पूर्ण प्रतिबंध रहेगा। समाचार पत्र विशेष आचार संहिता का पालन करेंगे जिसके तहत प्रकाशन के पूर्व सभी समाचारों और लेखों को सरकारी सेन्सर से गुजरना होगा। मुझे याद है - जनसत्ता के प्रथम पृष्ठ पर कोई समाचार नहीं छपा। पूरा पृष्ठ ही काली स्याही से पुता था।
सचमुच लोकतंत्र और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए काला दिन ही था २५, जून १९७५। इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा श्रीमती इन्दिरा गांधी के रायबरेली लोकसभा क्षेत्र से चुनाव को अवैध ठहराने तथा उन्हें छः साल तक चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाने के बाद किसी अनहोनी की अपेक्षा तो सभी कर रहे थे, लेकिन ऐसा अधिनायकवादी कदम वे इतना शीघ्र उठा लेंगी, इसकी उम्मीद नहीं थी। इलाहाबाद हाई कोर्ट के निर्णय के बाद, नैतिकता के आधार पर इन्दिरा गांधी के इस्तीफ़े की उम्मीद थी, लेकिन सत्ता लोलुपता आड़े आ गई। उन्होंने इस्तीफ़ा देने के बदले लोकतंत्र का गला घोंटना ही उचित समझा। लोकबंधु जय प्रकाश नारायण का आन्दोलन अपने चरम पर था। कांग्रेस के कुशासन और भ्रष्टाचार से तंग आकर जनता ने भूराजस्व भी देना बंद कर दिया था। बिहार में प्रत्येक कस्बे, तहसील, जिला और राजधानी में भी जनता सरकारों का गठन हो चुका था। जनता ने अवैध सरकार के आदेशों कि अवहेलना शुरु कर दी थी। जनता सरकार के प्रतिनिधियों की बात मानने के लिए ज़िला प्रशासन भी विवश था। पूरे देश में इन्दिरा सरकार इतनी अलोकप्रिय हो चुकी थी कि चारो ओर से बस एक ही आवाज़ आ रही थी - इन्दिरा गद्दी छोड़ो। लेकिन इन्दिरा जी भला गद्दी क्योंकर छोड़तीं। उन्होंने सत्ता छोड़ने के बदले देश को तानाशाही की अंधी गलियों में धकेल दिया। ऐसा करने की सलाह उन्हें क्रेमलिन (सोवियत रूस) से प्राप्त हुई थी। रात में इमर्जेन्सी की घोषणा हुई और पौ फटने के पूर्व सभी विरोधी दलों (सी.पी.आई.को छोड़कर) के नेता जेलों में ठूंस दिए गए। न उम्र का लिहाज़ रखा गया न स्वास्थ्य का। लोकबंधु जय प्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चरण सिंह, लाल कृष्ण अडवानी, जार्ज फर्नाण्डिस, पीलू मोदी आदि राष्ट्रीय स्तर के नेता आतंकवादियों की तरह रात के अंधेरे में घर से उठा लिए गए और मीसा (Maintenance of Internal Security Act)   के तहत अनजाने स्थान पर कैद कर किए गए। मीसा वह काला कानून था जिसके तहत बन्दी को कोर्ट में पेश करना आवश्यक नहीं था। इसमें ज़मानत का भी प्राविधान नहीं था। सरकार ने जिनपर थोड़ी रियायत की उन्हें डी.आई.आर. (Defence of India Rule)  के तहत गिरफ़्तार किया गया। यह थोड़ा नरम कानून था। इसके तहत गिरफ़्तार व्यक्ति को कोर्ट में पेश किया जाता था।
मैं उनदिनों काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में इंजीनियरिंग के अन्तिम वर्ष का छात्र था। विद्यार्थी परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सक्रिय कार्यकर्त्ता भी था। बी.एच.यू. के छात्र संघ पर विद्यार्थी परिषद का कब्जा था। अध्यक्ष पद पर मेरे ही कालेज के श्री दुर्ग सिंह चौहान (इस समय उत्तराखंड टेक्निकल युनिवर्सिटी के कुलपति), उपाध्यक्ष पद पर केदार नाथ सिंह ( संप्रति वाराणसी ग्रेजुएट कन्स्टीच्येन्सी से भाजपा के एम.एल.सी) और महासचिव के पद पर आद्या प्रसाद त्रिपाठी (वर्तमान में हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर) निर्वाचित हुए थे। तीनों विश्वविद्यालय परिसर के छात्रावास में ही रहते थे। एक झटके में तीनों को गिरफ़्तार कर लिया गया और मीसा के तहत अज्ञात जेल में भेज दिया गया। जेल में पहुंचते ही दुर्ग सिंह चौहान को तनहाई में डाल दिया गया। ज्ञात हो कि तनहाई एक सेल होता है जिसमें अत्यन्त गंभीर अपराध के अपराधी और खूंखार कैदी को रखा जाता है। सेल के कैदी को किसी से बात करने की इज़ाज़त नहीं होती। अधिक दिनों तक सेल में रखने पर कैदी के पागल हो जाने की संभावना होती है। कुलपति कालू लाल श्रीमाली चौहान जी से व्यक्तिगत खुन्नस रखते थे। उन्हें तनहाई में रखने का आदेश डी.एम. ने कुलपति की सलाह पर दी थी। छात्र संघ का अध्यक्ष, प्रथम श्रेणी में आनर्स के साथ एलेक्ट्रिकल इन्जीनियरिंग मे बी.टेक. डिग्रीधारी इन्जीनियर एक ही रात में कुलपति, कालू लाल श्रीमाली की निगाह में खूंखार अपराधी बन गया था। उस समय चौहान जी एम.टेक. के विद्यार्थी थे। पहली रात को मेरे दो घनिष्ठ मित्रों, सिविल इन्जीनियरिंग के ओम प्रकाश पूर्वे और एलेक्ट्रानिक्स के प्रदीप तत्त्ववादी को पुलिस ने हास्टल से उठा लिया। पूर्वे मुज़फ़्फ़रपुर (बिहार) का रहने वाला था और तत्त्ववादी नासिक का। पूर्वे का अपराध था कि उसने पिछले छात्र संघ के चुनाव में विद्यार्थी परिषद का जमकर प्रचार किया था और प्रदीप तत्त्ववादी का सबसे बड़ा अपराध था कि उसके चाचा, प्रोफ़ेसर शंकर विनायक तत्त्ववादी संघ के प्रान्त बैद्धिक प्रमुख और इन्जीनियरिंग कालेज में प्रोफ़ेसर थे।
  हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने आर.एस.एस. को ला कालेज के परिसर में दो कमरों का एक भवन कार्यालय के लिए दिया था। कालू लाल श्रीमाली ने उसे एक ही रात में बुलडोज़र लगा कर ध्वस्त कर दिया और कबाड़ को विश्वनाथ मन्दिर से साइंस कालेज की ओर जाने वाली सड़क के किनारे डाल दिया। इस सड़क के दोनों किनारे पर जो फ़ूटपाथ बाद में बने, उसकी नींव में संघ कार्यालय की ही ईंटें हैं। मुझे इस बात का संतोष आज भी रहता है, और मैं कालू लाल श्रीमाली का आभार व्यक्त करता हूं कि उन ईंटों का इस्तेमाल उसने शौचालय के फ़र्श के निर्माण में नहीं किया। बाबर और औरंगज़ेब के कृत्यों से कम घृणित यह कृत्य नहीं था। सत्ता प्राप्त होने के बाद याद दिलाने के बावज़ूद भी न जनता पार्टी की सरकार ने कुछ किया और न भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने। महामना द्वारा प्रदत्त हमारा संघ कार्यालय इमर्जेन्सी में मिट्टी में मिला दिया गया, यह हूक आजीवन रहेगी।
छात्रों में भयंकर असंतोष भड़का। गुप्त बैठकें हुईं। यह तय किया गया कि अगले दिन रात के आठ बजे सभी छात्रावासों से मशाल जुलूस निकाला जाएगा और प्रत्येक समीपवर्ती चौराहे पए इन्दिरा गांधी का पुतला फूंका जाएगा। अगले दिन नियत समय पर यह कार्यक्रम संपन्न किया गया। इंजीनियरिंग कालेज के छात्रों ने राजपुताना चौराहे पर इन्दिरा गांधी का पुतला फूंका। मशाल जुलूस का निकलना तथा पुतला फूंका जाना उपकुलपति कालू लाल श्रीमाली के मुंह पर एक करारा तमाचा था जिसने पूरे विश्वविद्यालय को एक सैनिक छावनी में बदल दिया। कुछ ही मिनटों में सिंहद्वार से छात्रावास वाली सड़क पर पी.ए.सी. की गाड़ियां दौड़ने लगीं। हमलोगों ने अनजाने चेहरों को हास्टल लौट जाने का निर्देश दिया तथा सक्रिय कार्यकर्ताओं को नूतन विश्वनाथ मन्दिर के सामने फैकल्टी रोड पर खड़े पेड़ों पर चढ़कर छुप जाने का निर्देश दिया। रात अंधेरी थी बूंदाबांदी भी शुरु हो गई। मैं अपने साथियों के साथ मन्दिर से थोड़ा आगे एक पेड़ पर छुप के बैठ गया। विश्वविद्यालय से बाहर जाना असंभव था। सिंहद्वार समेत सारे निकास द्वार बंद कर दिए गए। हास्टल में कांबिंग आपरेशन चलाया गया। जिस भी छात्र के कमरे में सरकार विरोधी या आर.एस.एस./विद्यार्थी परिषद/समाजवादी युवजन सभा का कोई पत्रक या साहित्य बरामद हुआ, उसे गिरफ़्तार कर लिया गया। जिनके कमरे बंद मिले, उन छात्रों पर विशेष नज़र रखने की हिदायत वार्डेन को दी गई। मैं और मेरे साथी रात भर पेड़ पर टंगे रहे। नीचे पुलिस की पेट्रोलिंग होती रही। सवेरा होने पर पेट्रोलिंग बंद हुई और हमलोग अपने-अपने हास्टल गए। हास्टल में पुलिस द्वारा मचाए गए ताण्डव की सूचना विस्तार से मित्रों ने दी। छात्रों का पक्ष ले रहे वार्डेन को भी उन्होंने गालियां दीं। मेरे कमरे पर पुलिस बार-बार जा रही थी लेकिन ताला बंद देख लौट आ रही थी। पुलिस के वांछितों की सूची में संभवतः मेरा नाम काफी ऊपर था। सैकड़ों छात्र गिरफ़्तार किए गए उस काली रात को।
      क्रमशः

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