Wednesday, June 24, 2009

माँ

धरती अत्यन्त सहिष्णु है,
पर कभी-कभी विफरती है -
भूकंप कराकर देती दंड,
ज्वालामुखी धधकती है.

आकाश की सीमा नापे कौन,
अनन्त, अनादि और विशाल,
जीवन देता खुश होने पर,
क्रुध्द होकर बनता महाकाल.

तू अतुलनीय है माँ मेरी,
देव, देवियाँ और धरती,
आकाश, मेघ, पर्वत, सरिता,
तेरी तुलना में क्या गिनती.

न कभी कुमाता हो सकती,
मैं हो जाऊँ चाहे कठोर,
यह सारी सृष्टि एक ओर,
ऐ माँ मेरी तू एक ओर.

अपराध किये मैंने ढेरों,
पर आशीर्वाद दिये तूने,
क्रिया-प्रतिक्रिया नियमों को,
झूठा ही सिध्द किया तूने.

कच्ची मिट्टी सी सोंधी है,
तू प्राणदायी शीतल पवन,
जलते दीये सी रोशन है,
ऐ माँ तुझे शत-शत नमन.

1 comment:

  1. माँ शब्द हि इतनि पवित्र है कि सुन कर बरा आनन्द आता है, माँ तो प्रान दायनि है,सारे कस्त सह कर माँ हमे जन्म देति है और हमे पाल कर बरा करती है.कुपुत्रो जय्तो कच्दि कभि कुमाता ना भवति.आपकि कविता वाकाइ बहुत अच्चि है, आपके कलम मे ये ताकत है कि हम जैसे पाट्क के मन को प्रफ़ुलित कर देता है.


    आमित प्रकाश

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