कल्पना कीजिए कि संजय दत्त का नाम यदि शमीम हुसेन होता, पिता का नाम
शाकिर हुसेन होता बहन का नाम परवीन बेगम होता और ये सभी सत्ताधारी कांग्रेस के पूर्व
सांसद या वर्तमान सांसद नहीं होते, तो क्या होता? आप स्वयं अन्दाज़ा लगा सकते हैं कि
तब न्यायालय, सरकार या बहुमत का फ़ैसला क्या होता? क्या संजय दत्त भी अफ़ज़ल गुरु की तरह कब्र में नमाज़ नहीं पढ़ रहे होते?
क्या वे अपनी बची हुई साढ़े तीन साल की सज़ा के क्रियान्यवन के लिए चार हफ़्ते की मोहलत
पा पाते? शायद कभी नहीं।
संजय
दत्त का ज़ुर्म अफ़ज़ल गुरु के जुर्म से कही भी उन्नीस नहीं ठहरता। यह सिद्ध हो चुका है
कि दुबई में उसने आतंकवादी सरगना दाउद इब्राहीम से मुलाकात की थी। उसके बाद ही उसके
घर कई एके-४७ राइफ़ल और विस्फोटक पहुंचाए गए; फिर मुंबई में सीरियल बम विस्फोट हुए और
हजारों निर्दोष मारे गए। दाउद इब्राहीम द्वारा प्रायोजित और संचालित इस आतंकवादी कार्यवाही
के संजय दत्त एक हिस्सा थे, परन्तु पिता सुनील दत्त के राजनैतिक रसूख के कारण पुलिस
ने भी नरमी बरती, टाडा कोर्ट ने भी सहानुभूति दिखाई और सरकार का तो कहना ही क्या था
- उसे तो सिर्फ़ गुजरात नज़र आता है, १९८४ और १९४७ के दंगे कभी याद आते ही नहीं। हमला
संसद पर होता है, मौत की सज़ा श्रीनगर में बैठा अफ़ज़ल पा जाता है। उसकी दया याचिका भी
अस्वीकृत कर दी जाती है और संजय दत्त को सामान्य सी सज़ा के लिए भी मोहलत पर मोहलत,
वह भी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बिना किसी परेशानी के दे दी जाती है।
अगर महाराष्ट्र के राज्यपाल द्वारा उसकी साढ़े तीन साल की सज़ा भी माफ़ कर दी जाती है,
तो तनिक भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए। देर-सबेर यह तो होना ही है।
कानून सबके लिए एक समान है - यह दिखना भी चाहिए। एक वर्ग विशेष के
लिए कानून की व्याख्या अलग हो और दूसरे वर्ग के लिए उसे दूसरी तरह से परिभाषित किया
जाय, कही से भी प्रशंसनीय नहीं है। १९८४ के सिक्ख विरोधी देशव्यापी दंगे
के बाद प्रधान मंत्री स्व. राजीव गांधी का यह बयान कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है, तो
धरती हिलती ही है, क्या यूं ही खारिज़ किये जाने लायक था? आपात्काल में संजय गांधी द्वारा तुर्कमान गेट, ज़ामा मस्ज़िद और देश के
अन्य इलाकों में किए गए कत्लेआम के लिए फांसी की सज़ा भी पर्याप्त थी?
भिंडरवाले को पहले अकालियों के खिलाफ़ इस्तेमाल करना और फिर आपरेशन ब्लू स्टार करके
हज़ारों सिक्खों को मौत की नींद सुला देने के लिए क्या इन्दिरा गांधी को मिस्र के पूर्व
राष्ट्रपति हुस्ने मुबारक की तरह गिरफ्तार कर सज़ा नहीं मिलनी चाहिए थी?
हमारे यहां व्यक्ति विशेष के लिए कानून बदल दिया जाता है, जज बदल दिए जाते हैं, जांच
आयोग की रिपोर्ट कूड़ेदान में फेंक दी जाती हैं और प्रायोजित भीड़ द्वारा नारे लगवाकर
फ़ैसला करा दिया जाता है। यह सब हमारे हिन्दुस्तान में ही संभव है। मेरा भारत महान!