Sunday, September 11, 2022

अष्टावक्र -- अद्भुत ज्ञानी

 

अद्वितीय ज्ञानी अष्टावक्र

                                    विपिन किशोर सिन्हा

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            यज्ञशाला में उपस्थित सभी ब्राह्मण अष्टावक्र की आकृति देख जोर से हँसे, परन्तु अष्टावक्र ने उधर तनिक भी ध्यान नहीं दिया। शास्त्रार्थ आरंभ करने का प्रथम अवसर बन्दी को दिया गया -- विषय था -- अंकशास्त्र। बन्दी ने कहा --

            "अष्टावक्र! क्या यह सत्य नहीं है कि यह सृष्टि एक से संचालित होती है। एक ही अग्नि अनेक प्रकार से प्रकाशित होती है, एक सूर्य सारे जगत्‌ को प्रकाशित करता है, शत्रुओं को नाश करनेवाला देवराज इन्द्र एक ही वीर है तथा पितरों का ईश्वर यमराज भी एक ही है।”

            अष्टावक्र ने तत्क्षण कहा --

            "विद्वन्‌! आपके कथन से दो की महत्ता कम नहीं होती। इन्द्र और अग्नि -- ये दो देवता हैं, नारद और पर्वत -- ये देवर्षि भी दो हैं, दो ही अश्विनी कुमार हैं, रथ के पहिये भी दो होते हैं और विधाता ने पति और पत्नी -- ये सहचर भी दो बनाये हैं।”

            बन्दी ने अगला प्रश्न किया --

            "यह संपूर्ण प्रजा कर्मवश तीन प्रकार के जन्म धारण करती है, सभी कर्मों का प्रतिपादन भी तीन वेद ही करते हैं, अध्वर्युजन भी प्रातः, मध्याह्न, और सायं -- इन तीनों समय यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं, कर्मानुसार भोगों को  प्राप्त करने के लिये स्वर्ग, मृत्यु और नरक -- ये तीन लोक भी तीन ही हैं तथा वेदों में कर्मजन्य ज्योतियाँ भी तीन ही हैं।“

            अष्टावक्र ने चार अंक की महत्ता बताई --

            "मनुष्यों के लिये आश्रम चार हैं, वर्ण भी चार हैं, ऊँकार के अकार, उकार, मकार और अर्द्धमात्रा -- ये चार ही वर्ण हैं तथा परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी भेद से वाणी भी चार ही प्रकार की मानी गई है।“

            बन्दी ने अगला प्रश्न किया --

            "यज्ञ की अग्नियाँ -- गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि, आहवनीय, सभ्य और आवसथ्व -- पाँच हैं, पंक्ति छन्द भी पाँच पदोंवाला है, यज्ञ भी -- अग्निहोत्र, दर्श, पौर्णमास, चातुर्मास्य और सोम -- पाँच ही प्रकार के हैं तथा संसार में पवित्र नद भी पाँच ही प्रसिद्ध हैं।“

            अष्टावक्र बोले --

            "वेदों में इस प्रकार वर्णन है कि अग्नि का आधान करते समय दक्षिणा में गौएँ छः ही देनी चाहिये, कालचक्र में ऋतुएँ भी छः ही रहती हैं, मनसहित ज्ञानेन्द्रियाँ भी छः ही हैं, कृत्तिकाएँ छः हैं तथा समस्त वेदों में साधक यज्ञ भी छः ही कहे गए हैं।“

            बन्दी -- "ग्राम्य पशु सात हैं, वन्य पशु भी सात हैं, यज्ञ को पूर्ण करनेवाले छन्द भी सात  हैं और वीणा के तार भी सात ही प्रसिद्ध हैं।“

            अष्टावक्र -- "सैकड़ों वस्तुओं का तौल करनेवाले शाण (तोल) के गुण आठ होते हैं, सिंह का नाश करनेवाले शरभ के चरण भी आठ होते हैं, देवताओं में वसु नामक देवताओं को भी आठ ही सुना है और सभी यज्ञों में यज्ञस्तंभ के कोण भी आठ ही कहे गये हैं।“

            बन्दी -- "पितृयज्ञ में समिधा छोड़ने के मंत्र नौ कहे गये हैं, सृष्टि में प्रकृति के विभाग भी नौ ही किये गये हैं, बृहती छन्द के अक्षर भी नौ ही हैं और जिनसे अनेकों प्रकार की संख्याएँ उत्पन्न होती हैं ऐसे एक से लेकर अंक भी नौ ही हैं।“

            अष्टावक्र -- "संसार में दिशाएँ दस हैं, सहस्र की संख्या भी सौ को दस बार गिनने से होती है, गर्भवती स्त्री भी गर्भधारण  दस मास ही करती है, तत्त्व का उपदेश करनेवाले भी दस हैं तथा पूजन योग्य भी दस ही हैं।“

            बन्दी -- "पशुओं के शरीर में ग्यारह विकारोंवाली इन्द्रियाँ ग्यारह होती हैं, यज्ञ के स्तंभ ग्यारह होते हैं, प्राणियों के विकार भी ग्यारह हैं तथा देवताओं में रुद्र भी ग्यारह ही कहे गये हैं।“

            अष्टावक्र -- "एक वर्ष में महीने बारह होते हैं, जगती छन्द के चरणों में भी बारह ही अक्षर होते हैं, प्राकृत यज्ञ बारह दिन का ही कहा गया है और धीर पुरुषों ने आदित्य भी बारह ही कहे हैं।“

                --शेष अगले समापन अंक में

अष्टावक्र -- अद्भुत ज्ञानी

 

अद्वितीय ज्ञानी अष्टावक्र

                                    विपिन किशोर सिन्हा

                                                                        --२--

 

            मिथिला में राजा जनक अपने मुख्य पुरोहित बन्दी की देखरेख में ‘समृद्धि संपन्न यज्ञ’ कर रहे थे। अष्टावक्र अपने मामा के साथ राज महल के द्वार पर पहुँचे और द्वारपाल को राजा से मिलने की अपनी इच्छा से अवगत कराया। द्वारपाल ने प्रणाम करते हुए कहा --

            "हे ऋषिवर! राजाज्ञा के अनुसार हर किसी को यज्ञशाला में प्रवेश की अनुमति नहीं है। उसमें केवल वृद्ध और विद्वान्‌ ब्राह्मण ही प्रवेश पा सकते हैं।“

            अष्टावक्र ने द्वारपाल को समझाते हुए कहा --

            "द्वारपाल! मनुष्य अधिक उम्र या बाल पक जाने से वृद्ध या परिपक्व नहीं हो जाता। ब्राह्मणों में वही बड़ा माना जाता है जो वेदों का सच्चा ज्ञाता हो -- ऐसा ऋषि-मुनियों का मत है। मैं राजपुरोहित बन्दी से शास्त्रार्थ करने के  लिये लंबी यात्रा करके आया हूँ। तुम महाराज को यह सूचना दे दो।“

            अष्टावक्र के उत्तर से प्रभावित हो, द्वारपाल उन्हें राजा के पास ले गया। राजा जनक द्वारा आगमन का प्रयोजन पूछे जाने पर अष्टावक्र ने कहा --

            "राजन्‌! आप एक धर्मपारायण, कर्त्तव्यनिष्ठ और चक्रवर्ती सम्राट हैं। आपकी सहमति से आपके राजपुरोहित बन्दी ने यह कैसा नियम बना रखा है कि जो भी विद्वान्‌ उससे शास्त्रार्थ में पराजित हो जायेगा, उसे जल में डुबो दिया जायेगा? मैं उससे शास्त्रार्थ करके उसे पराजित करना चाहता हूँ। आप अनुमति प्रदान करें।"

            राजा आठों अंगों से टेढ़े अष्टावक्र को देखकर विस्मित हुए परन्तु उनकी वाणी के ओज से प्रभावित भी हुए। उन्होंने पहले स्वयं परीक्षा लेने का निर्णय लिया और पूछा --

            "ब्रह्मन्‌! जो पुरुष तीस अवयव, बारह अंश, चौबीस पर्व और तीन सौ साठ अरों वाले पदार्थ को जानता है, वह बड़ा विद्वान्‌ है?"

            अष्टावक्र ने उत्तर दिया --

            "राजन्‌! जिसमें पक्षरूप में चौबीस पर्व, ऋतुरूप छः नाभि, मासरूप बारह अंश और दिनरूप तीन सौ साठ अरे हैं, वह निरन्तर घूमनेवाला संवत्सररूप कालचक्र आपकी रक्षा करे।"

            अष्टावक्र के उत्तर से प्रभावित राजा ने दूसरा प्रश्न किया --

            "सोने के समय कौन नेत्र नहीं मूँदता? जन्म लेने के बाद किसमें गति नहीं होती? हृदय किस में नहीं होता और वेग से कौन बढ़ता है?

            अष्टावक्र ने उत्तर दिया --

            "मछली सोने के समय नेत्र नहीं मूँदती, अंडा उत्पन्न होने पर भी चेष्टा नहीं करता, पत्थर में हृदय नहीं होता और नदी वेग से बहती है।"

            आश्चर्य से राजा जनक की आँखें फटी की फटी रह गईं। वे अष्टावक्र की विद्वता का लोहा मान गये। उन्होंने बन्दी से शास्त्रार्थ की अनुमति प्रदान कर दी। यज्ञशाला में बन्दी और अष्टावक्र के बीच शास्त्रार्थ आरंभ हुआ। निर्णायक स्वयं राजा जनक थे।

            --- शेष अगले अंक में

 

अष्टावक्र -- अद्भुत ज्ञानी

अद्वितीय ज्ञानी अष्टावक्र

                                    विपिन किशोर सिन्हा

                                                                                    --१--

            रूप और सौन्दर्य मनुष्य का वाह्य आवरण होता है तथा ज्ञान उसका आन्तरिक अलंकार। महान्‌ ज्ञानी ऋषि अष्टावक्र आन्तरिक अलंकार से युक्त एक अद्भुत विद्वान्‌ थे। वेदों के सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता महर्षि उद्दालक उनके नाना थे और उद्भट विद्वान्‌ श्वेतकेतु उनके मामा। अपने पिता के आश्रम में रहते हुए महर्षि श्वेतकेतु को मानवी के रूप में साक्षात्‌ देवी सरस्वती के दर्शन हुए थे। महर्षि अष्टावक्र ने नाना उद्दालक और मामा श्वेतकेतु से ही सारी विद्यायें और सारा ज्ञान प्राप्त किया था।

            महर्षि उद्दालक के आश्रम में कहोड नाम का एक ब्राह्मण शिक्षा प्राप्त कर रहा था। वह अत्यन्त मेधावी, परिश्रमी, अनुशासनप्रिय और गुरुभक्त था। उसने अल्प काल में ही अपने गुरु से वेद-वेदान्तों की शिक्षा प्राप्त कर ली। वह महर्षि उद्दालक का प्रिय शिष्य बन गया। महर्षि ने उसे हर दृष्टि से योग्य पाकर अपनी कन्या सुजाता का ब्याह उससे कर दिया। कहोड सर्वगुण संपन्न था, परन्तु अहंकार पर विजय प्राप्त नहीं कर पाया था।

            उचित समय पर सुजाता गर्भवती हुई। उसका गर्भ अग्नि के समान तेजस्वी था। एक दिन उसके पति ऋषि कहोड आश्रम में अपने शिष्यों को वेदपाठ करा रहे थे। पत्नी सुजाता भी पास में ही बैठी थी। वह अपने पुत्र को गर्भ में ही ज्ञानी बनाने के लिये संकल्पबद्ध थी। महर्षि कहोड स्वयं भी वेदपाठ कर रहे थे। गर्भ में सुन रहा अष्टावक्र बोल पड़ा --

            "पिताजी! आप सदैव वेदपाठ करते हैं, परन्तु आपका उच्चारण अशुद्ध होता है।“

            सभी शिष्यों के समक्ष गर्भस्थ शिशु की यह उक्ति सुन गुरु कहोड का अहंकार आहत हो गया। वे क्रोध से उबल पड़े और अपने ही गर्भस्थ शिशु को शाप दे डाला --

                        "तू गर्भ में रहकर भी टेढ़ी-मेढ़ी बात करता है। जैसी तेरी बातें हैं, तेरे अंग भी वैसे ही हो जायेंगे। तेरे अंग आठ स्थान से टेढ़े होंगे और तेरा नाम अष्टावक्र होगा।“

            ऋषि की वाणी सत्य सिद्ध हुई। सुजाता ने जिस शिशु को जन्म दिया, वह आठों अंगों से टेढ़ा था। नामकरण तो पहले ही हो चुका था -- अष्टावक्र

            राजा जनक मिथिला के राजा थे। उनके दरबार में बन्दी नाम का एक उद्भट ज्ञानी एवं तर्कशास्त्री विद्वान्‌ रहता था। वह उनका मुख्य पुरोहित था एवं उनक विशेष कृपापात्र था। उसे अपने ज्ञान का अत्यधिक अहंकार था। वह स्वयं को पृथ्वी का सबसे बड़ा ज्ञानी और तर्कशास्त्री मानता था। कोई भी विद्वान्‌ शास्त्रार्थ में उसके सामने ठहर नहीं पाता था। अपनी लगातार सफलता से उत्साहित होकर उसने एक राजाज्ञा पारित करा दी थी कि इस पृथ्वी का जो भी विद्वान्‌ शास्त्रार्थ में उसे पराजित कर देगा, उसे मनोवांछित धन प्रदान किया जायेगा और पराजित होने की दशा में बन्दी जल समाधि ले लेगा। परन्तु चुनौती देनेवाला विद्वान्‌ अगर बन्दी से पराजित होगा, तो उसे अनिवार्य रूप से जल समाधि लेनी पड़ेगी। अनेक विद्वान्‌ धन के लोभ में मिथिला आये और बन्दी से शास्त्रार्थ में पराजित होने के बाद मृत्यु को प्राप्त हुए।

            अष्टावक्र के जन्म के बाद परिवार चलाने के लिये अतिरिक्त धन की आवश्यकता थी। ऋषि कहोड को अपने ज्ञान और अपनी विद्वता पर अत्यधिक अभिमान और विश्वास था। उन्होंने बन्दी को हराकर धनप्राप्ति का निर्णय लिया। महर्षि उद्दालक और सुजाता उहें रोकते रहे, परन्तु वे मिथिला के  लिये चल  पड़े। मिथिला पहुँचकर उन्होंने बन्दी को शास्त्रार्थ की चुनौती दी। शास्त्रार्थ कई दिनों तक चला, परन्तु अन्तिम विजय बन्दी को ही मिली। ऋषि कहोड को जल समाधि लेनी पड़ी।

            अष्टावक्र जब बारह वर्ष के थे, तो उहें यह कहानी ज्ञात हुई। उहोंने बाल्यकाल में ही अपने नाना उद्दालक और मामा श्वेतकेतु के सान्निध्य में वेद-वेदांगों का सांगोपांग अध्ययन पूरा कर लिया था। उनकी तर्कशक्ति अद्भुत थी। वे अपने पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिये विकल थे। एक दिन उन्होंने अपने पूज्य नाना और पूज्या माता से अनुमति प्राप्त कर मामा श्वेतकेतु के साथ मिथिला के लिये प्रस्थान कर ही दिया।

        -- शेष अगले अंक में