जीवन का दॄष्टिकोण
महान्वैज्ञानिक आइन्स्टीन
दुनिया के सबसे बड़े वैज्ञानिक माने जाते हैं। उनकी पत्नी मिलेवा मैरिक भी वैज्ञानिक
थीं। उन्होंने कई शोध कार्यों में आइन्स्टीन का सक्रिय सहयोग किया था। शोध में वाद-विवाद
भी होता है जो आइन्स्टीन को पसन्द नहीं था। इसलिए मिलेवा ने अपनी दिशा बदल ली। वह साहित्य और कविता में रुचि लेने लगी। एक दिन आइन्स्टीन ने उसकी एक
कविता सुनी जिसमें उसने नायिका के मुखमंडल की तुलना पूर्णिमा के चाँद से की थी। आइन्स्टीन
ने उसका उपहास उड़ाते हुए कहा कि अब जबकि चाँद की सतह की वास्तविक तस्वीरें हमतक पहुँच गई हैं और यह सिद्ध
हो चुका है कि चाँद की सतह उबड़-खाबड़ है, तुम अभी भी एक सुंदर युवती के मुखमंडल की तुलना चाँद से कर रही हो।
मिलेवा ने उत्तर दिया कि तुम्हें कविता समझ में नहीं आ सकती। तुम दुनिया को Theory of relativity समझा सको, यही बहुत है। उस समय तक वैज्ञानिकों ने Theory off relativity को मान्यता नहीं दी थी।
आइन्स्टीन और मिलेवा दोनों
सही थे। दोनों की व्याख्यायें स्वयं द्वारा स्वीकृत जीवन के दृष्टिकोण पर आधारित थीं।
जीवन के दो दृष्टिकोण होते हैं -- पहला 2+2=4. इसका अर्थ है - जो आंखें देख रही हैं वही सत्य है। इस दृष्टिकोण वाले
व्यक्ति वैज्ञानिक और गणितज्ञ बनते हैं। दूसरा दृष्टिकोण कल्पना और प्रतीकों पर आधारित
है। ऐसे दृष्टिकोण वाले व्यक्ति कवि और साहित्यकार बनते हैं। आदिकवि बाल्मीकि, महर्षि व्यास, कालिदास, शेक्सपियर, तुलसीदास आदि इस दृष्टिकोण की विभूतियाँ थीं। भारत का संपूर्ण साहित्य, इतिहास और दर्शन प्रतीकों के रूप में है। रामचरित मानस के सुंदरकांड
में वर्णन है कि समुद्र लांघने के क्रम में हनुमान जी को सुरसा ने बाधा पहुँचाई। वह
हनुमानजी को निगलने के लिये उनके सम्मुख आई और अपने मुख का विस्तार किया। वर्णन है
-- सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। २+२=४ माननेवाले इसे असंभव मानते हैं और इस आधार पर पूरी
रामकथा को ही मिथ्या करार देते हैं। आइन्स्टीन की तरह वे प्रतीकों को समझने में असमर्थ
हैं। एक योजन को अगर एक कोस भी मान लें तो भी इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि कोई
भी जीव अपने मुँह का विस्तार सौ कोस तक नहीं कर सकता। यहाँ कवि ने प्रतीक का सहारा
लिया है। उनके कहने का अर्थ इतना ही है कि सुरसा ने हनुमानजी को निगलने के लिये अपने
मुख का विस्तार इतना बड़ा कर दिया जो असंभव-सा दीख रहा था। बंकिम चन्द ने वन्दे मातरम
राष्ट्रगीत में भारत माता की कल्पना माँ दुर्गा के रूप में की है। आज भी करोड़ों लोग
वन्दे मातरम्गाते समय भारत को माँ दुर्गा के रूप में ही देखते हैं। हिमालय से कन्या
कुमारी तक माइक्रोस्कोप लेकर ढूँढ लीजिए, कहीं भी आपको ऐसी भारत माता नहीं मिलेंगी। बंकिम चन्द ने प्रतीकों के
माध्यम से भारत माता का चित्र बनाया है जिसमें उन्होंने लेखनी रूपी ब्रश से श्रद्धा, भक्ति और अटूट देशभक्ति का रंग भरा है। २+२=४ वालों को यह बात समझ में
नहीं आ सकती है।
मेरे एक मित्र हैं -श्री
विजय सिंघल। वे कंप्यूटर के विशेषज्ञ हैं। उन्होंने कंप्यूटर पर ५० से अधिक पुस्तकें
लिखी हैं। आजकल वे फ़ेसबुक पर बाल्मीकि रामायण के श्लोकों की व्याख्या कर रहे हैं। कंप्यूटर
का जानकार भी २+२=४ की थ्योरी में विश्वास करता है। इस सिद्धान्त को ध्यान में रखकर
अपने प्राचीन ग्रन्थों की व्याख्या नहीं की जा सकती। यह ठीक वैसा ही होगा जैसे राम
नवमी को प्रभु श्रीराम का जन्मदिन मानने के लिये कोई श्रीराम का जन्म प्रमाण पत्र दिखाने
की मांग करे। सिंहलजी के सिद्धान्त पर बाल्मीकि रामायण का जो भी श्लोक खरा नहीं उतरता
उसे वे प्रक्षिप्त घोषित कर देते हैं। अबतक वे ५० प्रतिशत श्लोकों को प्रक्षिप्त घोषित
कर चुके हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि हमें बाल्मीकि रामायण का जो रूप प्राप्त
है वह श्रुति और स्मृति के माध्यम से विरासत में प्राप्त हुआ है जिसमें प्रक्षिप्त
अंश होना अस्वभाविक नहीं है। विद्वानों ने बाल्मीकि रामायण के पूरे उत्तर कांड और बालकांड
के कुछ श्लोकों को ही प्रक्षिप्त माना है। इस आधार पर बाल्मीकि रामायण के ५० प्रतिशत
से अधिक भाग को प्रक्षिप्त घोषित करना आदि कवि के साथ न सिर्फ अन्याय होगा बल्कि पाप
भी होगा। हमें कोई अधिकार नहीं कि हम एक पवित्र और अद्वितीय कृति को अपनी व्यक्तिगत
धारणा के आधार पर विवादास्पद और प्रक्षिप्त सिद्ध करें। २+२=४ की मानसिकता वाले तथाकथित
विद्वान हमारे प्राचीन ग्रन्थों की व्याख्या न करें तो हम उनके आभारी रहेंगे।
२+२ भी ४ के बराबर होता
है, यह भी सत्य नहीं है। २+२, चार के सबसे ज्यादा करीब होता है। यह ३.९९९९९९९९९९९ भी हो सकता है और
४.०००००००००००००१ भी हो सकता है। इस विषय पर चर्चा फिर कभी।